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कायक्लेश तप
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ऐसे हैं यदि
करना अर्थात् शरीर को विभूषा का त्याग करना से मनुष्य नहीं चाहें तो ये नहीं होते । स्वतः इनकी ओर प्रवृत्त होने पर हो कष्ट उत्पन्न होते है । केशलुचन करवाने पर ही यह कष्ट होता है। सब कष्ट स्वीकार किये जाते हैं । अर्थात् जैसे मेहमान को निमंत्रण बुलाया जाता है वैसे ही साधक अपने धैर्य, साहस और कटसहिता की कनोटी करने कष्टों को बुलावा देता है अतः इन्हें स्वतः स्वीकृत कहते है ।
चाईन परीपत्
साधक जीवन में उक्त दोनों प्रकार के कष्ट आते है। इन को महने के लिए दो प्रचलित है-परी और काया | आर्यन मग महत्तर के अनुसार परीषह की परिभाषा है
परीसज्जिते इति परीसहा, अहियासिज्यंति ति
सुपा, पिपासा, गीत उष्ण आदि शारीरिक कष्ट को सलमान आदि मानसिक कष्टों को फर्म निर्जय की भावना के साथ पूर्व रूप से कहत करना परोष है। तो कोई भी आगत जनव एन
जाता है-परोष होता है।
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निर्देश के लिए
१ परीष
5 दिवसा-याम
● गीत-मी
४ उप-नमी, पुषादि
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देवीका कष्टों के
परियह-अम्मा म्य
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