________________
१६०
बाहर गुना
तीय सप्त अहोरात्र
आयंबिल उत्कुटुरः,
जैन धर्म में आठवी से वशवी-प्रतिमा तक प्रत्येक प्रतिमा का कालमान एक सप्ताह . का होता है। इनमें एक दिन चीविहार उपवास, दूसरे दिन पारणे में आयबिल किया जाता है। आठवी प्रतिमा को प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा भी कहा जाता है। इसमें सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास रा कर उत्तानक या किसी पाश्र्व से शयन या पलगी लगाकर गांव जाति से बाहर मुनसान जंगल में कायोत्सर्ग किया जाता है।
नवमी प्रतिमा-द्वितीय सप्त अहोराम प्रतिमा कहलाती है । इसमें भी सात दिन तक एकान्तर चौविहार उपवास, पारणे में आयंबिल उत्कृटा, नगण्डशायी (केवल सिर व एडियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ. के बल लेटना, या दण्डायत (सीधे दण्डे की तरह लेटना) होपर, प्रामादिक्ष के बाहर कायोत्सर्ग किया जाता है।
दसयों प्रतिमा- तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा है । इसमें सात दिन के नोविहार एकान्तर तप के साथ गोदुहासन वीरासन, गा मामलामा (बामफल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना) में प्रामादि के बाहर मायोसगं किया जाता है।
ग्यारहवीं प्रतिमा-- एक अहोरात्र की होती है । इसमें भिक्षु नौबिहार बेला करता है और गांव के बाहर शून्य स्थान में भुजाएं सीधी लम्बी यार. कामोत्सर्ग करता है । बारहवीं प्रति मा एफरानि प्रतिमा महो जाती है। की साधना सर्वाधिक कठोर है। सामान्य साधु इस प्रतिमा की आराधना नहीं कर सकता। विशिष्ट संहनन, विशिष्ट धर्य, व महामता से भावितामा अपगार गुरु आदि की आशा प्राप्त करके ही इस प्रतिमा मी बाराधना र मरता है। इस प्रतिमा की आराधना में पौविहार का {पाटा भक्त किया जाता है। प्राण आदि के बाहर जिनमुना (दोनों को में चीन नार गुल का अनार यसो हुप मोगा गग अवता में नई जना में मिार मुनाए सम्बो कर के, अनिमिष नयन मन पर दिशामराम सदन में एक दिन का काम किया
अपना में प्रकार के दिम, मानपिश, r aram
ग्यारहवीं प्रतिमा पर शून्य स्थान में अन्ना करता हैं और बारहवीं प्रतिमा एक
की जाती है। इस प्रतिम