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________________ २७६ • जैन धर्म में ताप रागाउरे वडिस - विभिन्नफाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।। जो मनुष्य रस में अत्यन्त गृद्ध हो जाता है वह उसमें मूटित हुआ अपने जीवन को भी अकाल में ही हार बैठता है और विनाश प्राप्त करता है । जैसे कि मांस के लोभ में फंसा हुमा मत्स्य कांटे में फंस कार अपने प्राण सो देता है। अपार सागर के जल में सुरक्षित बैठा हुआ मत्स्य इसी तीन रसासक्ति के कारण अपनी जान से हाथ धोता है । जब मछली पकड़ने वाला लोहे के कांटे में मांस का टुगादा लगाकर वह कांटा समुद्र में डालता है तो मांत लोभी मत्स्य उसे खाने को दौड़ता है, मोस को खाते-गाते कांटा जब उसके गले में फंस जाता है तो बस वह वहीं तड़फड़ाने लगता है । मछली पकड़ने वाला तभी उस कांटे को खींच लेता है । मत्स्य पानी से बाहर मा जाता है और कुछ ही क्षणों में अपने प्राण गंवा देता है । यह फल है रस लोलुपता का । यदि ..... मत्स्य रमलोलुप होकर मांस खाने न आता है तो किसी घीवर को ता . नहीं है कि उसे जल में से पकड़कर बाहर ले आये । किन्तु सामति के कारण मुद ही अपनी मौत उसने बुलाली । इसलिए बताया गया है कि गा. मत मनुष्य अपनी तीन आसक्ति के कारण अकाल में ही नष्ट हो जाता है। रसासक्ति से कामाराति दूसरी बात - अधिक रसीले स्वादिष्ट व चटपटे गमावदार गरि भोजन से शरीर में विकार यो हैं, उनमना पदा होती है और फिर मान माधना भंग होने का मतरा पैदा हो जाता है। यायानिया में ant . पणीय मत पाणं तु पिम्पमयिया । प्रमोट (गी सादिया सजग गरिष्ठ) आहार मीर में हम का कर देता है । मन Ar, Hamar ............ MAHAirtantaintvarat r
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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