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प्रतिसंलीनता तप
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शीघ्र साकार न हो जायें । आज मनुष्य कहता है-वह स्वतंत्र है, किन्तु वास्तव में इन्द्रियों का गुलाम हो रहा है ।
___ इन्द्रियों की दासता में हा ! जवानी जा रही,
आज इन्सानी दिलों पर हा ! दिवानी छा रही। इन्द्रियों की दासता में वह इधर-उधर हाथ पांव मारता है और चारों ओर से संकट,बैचेनी व अतृप्ति का तीव्र अनुभव कर रहा है। पिछले जमाने से आज सुख सुविधाएं अधिक उपलब्ध होते हुए भी मनुष्य आज बहुत अधिक दुखी है, वैचेन है और आकुल-व्याकुल हो रहा है । इन्द्रियों के विषय भोग से तब तक उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, जव तक वह संयम और संतोप का पाठ नहीं पढ़ेगा। उस कुछुए की भांति मनुष्य सुख व आजादी की सांस लेने के लिए अपनी इन्द्रियों को खुली छोड़ना चाहता है, किन्तु दु:ख व मृत्यु रूप पापी सियार उसे झट अपने शिकंजे में दवाकर चवा जाने को तैयार खड़े हैं । अत: जीवन में यदि शांति, निर्भयता और सुखमय दीर्घ जीवन की कामना है तो इन्द्रियनिग्रह, अर्थात् संयम व प्रतिसंलीनता का अभ्यास करना अत्यन्त । आवश्यक है।
प्रतिसंलीनता के भेद प्रतिसंलीनता का भावार्थ-स्पष्ट किया गया है, इन्द्रिय, कपाय व योग आदि का संयम-संकोच एवं निग्रह करना प्रति संलीनता है । इस दृष्टि से प्रति संलीनता को संयम भी कह सकते हैं ।
संयम का सामान्यतः एक ही रूप है-अशुभ से निवृत्ति व शुभ में प्रवृत्ति। आवश्यक सूत्र में संयम के विरोधी असंमय को संग्रह नय की दृष्टि से एक प्रकार का असंयम-एग विहे असंयमे- कहा है। मन की अविरति, सीधी । भाषा में मन का मोकलापन-खुली छूट यह असंयम है । असंयम का विरोधी संयम है । आगे चलकर असंयम के व संघम के भी १७-१७ भेद बताये हैं । समवायांग सूत्र में १७ प्रकार का संयम इस प्रकार बताया है
१ समवायांग ५७ मूग ।