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. जैन धर्म में तप. सं-यम-शब्द का भी अर्थ है-सम्यक् प्रकार से नियंत्रण अति आत्मनिग्रह ! और गुप्ति का भी अर्थ है-इन्द्रिय आदि का गोपन करनाछुपाना, उन्हें अपने वश में रखना। आगमों में जहां साधु का वर्णन आता - है, वहां उसके लिए एक शब्द खासतौर से आता है--गुत्तिदिये गुप्तेन्द्रिय ! अर्थात् इन्द्रियों पर संयम रखने वाला ! इन्द्रियों को गुप्त कैसे करता हैइसका उदहारण देकर बताया है-कुम्मो इव गुत्तिदिया --कूर्म-कछुए की भांति इन्द्रियों को गुप्त रखने वाला। भारंड पक्षी की तरह कछुए को भी .. साधक के लिए आदर्श बताकर उसकी गोपन-कुशलता, शरीर को छुपाने, सिमेटने की कला सीखने का उपदेश किया गया है। कछुआ संयम-साप्रकों के लिए आदर्श रहा है, जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों धर्मों में उसके उदाहरण मिलते हैं । गीता में कहा है
यथा संहरते चायं फूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य स्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। -जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट कर शांत-गुप्त होकर बैठता है, वैसे ही साधक सांसारिक विषयों से अपनी इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता है, तब उसकी प्रज्ञा-धर्मबुद्धि स्थिर हो जाती है।
दो कहए भगवती सूत्र एवं उबवाई सूत्र में भी कहा है-फुमो इव गृत्तिदिए सध्यं गाय पडिसंलोणे चिठ्ठ-कछुए की तरह समस्त इन्द्रियों एवं संगोपांग । का गोपन करके रहे-यह सावक का इन्द्रिय संयम, काययोग तप है। भातासूत्र में दो कछुओं का दृष्टान्त दिया गया है-गंगा नदी के तट पर
१ औपपातिक सूत्र
(ब) कुम्मोव अल्लीप पल्ली गुते उत्तराध्ययन
(ग) जहा से कुम्मए गुत्तिदिए -भातागून ४ २ गीता ५८ ३ भगवती २५ • ४ शातानुम४