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________________ प्रतिसंलीनता तप ३१६ नारकीय यातना ! घोर कष्ट ! वेदना ! बस यही है विषय भोग का फल ! ये भोग क्षण भर सुख देने वाले हैं, और फिर दीर्घकाल तक कष्टों की कुभी में पचाने वाले । ये अनर्थ की खान है खणमेत्त सुक्खा बहुफाल दुक्खा खाणी अणत्याण उ फाम भोगा। ये काम भोग-ताल पुट जहर के समान हैं -- काम भोगा विसं तालउडं जहा। इस प्रकार विपयों की असारता एवं उनके कटु परिणामों का चिन्तन करने से विषयों के प्रति राग-द्वेष नहीं आता, तथा मध्यस्थ भाव रखा जा सकता है। इन्द्रियों की आसक्ति से प्राणी किस प्रकार कष्ट पाता है, इसके उदाहरण रोजमर्रा के जीवन में हमारे सामने आते ही हैं । हम देखते हैंदीपक की लौ पर मुग्ध हुए पंतगें किस प्रकार आ-आकर प्राण लुटा देते हैं ! परवाने जलकर खाक हो जाते हैं---यह रूप की आसक्ति का परिणाम है । वैसे ही स्वरों की मधुरता, वीणा नाद की आसक्ति में फंसा हरिण शिकारी के रूप में अपने पीछे दौड़ती मौत को कहाँ देख पाता है ? इसीलिए कहा है सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अफालियं पावइ से विणासं। रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे ___ सद्दे अतित्त समुवेई मच्च ।' शब्दों के विषय में अत्यंत मूच्छित होने वाला प्राणी अकाल में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। जैसे मृग-भोलाभाला हरिण, शब्दों में गृद्ध होकर अतृप्ति के साथ मृत्यु के मुह में चला जाता है ! इसी प्रकार रस के वश हुमा मत्स्य-मछली, कांटे में लगे मांस को खाने दौड़ती है और वही कांटा उसके गले गी कटार बन जाती है। गंध लोलुप १ उत्तराध्ययन १४११३ २ उत्तराध्ययन १६६३ ३ उत्तराध्ययन ३२२३७
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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