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जैन धर्म में तप
वचन एवं शरीर का संकोच करना द्रव्य पूजा है, तथा मन का संकोच करना भाव पूजा है।
काय-मंकोच में संयम की साधना तो स्पष्ट है ही। क्योंकि इन्द्रियों का निग्रह संयम है, शरीर को सात्विक दृष्टि से कष्ट देना, तपाना यह तप है। शब्द, रूप, रस आदि मनोमुन्धकारी विषयों का आकपंण सामने आने पर उनको तर्फ देखना नहीं, मन नहीं करना,आकृष्ट नहीं होना यह अनासक्ति भाव है । स्वर्ग की अप्सराए अपना अदभुत सौन्दयं विशेरती हुई स्वर्ण-सी यमपानी अर्धनग्न देह लेकर सामने खड़ी हो जाए, मन को मुग्ध कर देने वाले हायभाव, हास्य,लास्य और गीत नृत्य करती रहे फिर भी उनकी तर्फ आंच उठा कर देखना नहीं, मधुर गीतों की धुन पर कानों को तनिक भी उस और जाने .. न देना कितना बड़ा आत्म-संयम है ? कहा जाता है-- एमा तपस्वी नदी के तट पर शांत वातावरण में भमण कर रहा था। तभी एक सुन्दर रमणी शृंगार सजी मुपुर का संचार करती हुई उधर से आई। तपस्वी को देखकर यह कामागपत हो गई, हाय भाव करके वह खूब जोरों से हंसी । उसग दूषिमा दांत तपस्वी की नजर में पड़ गए। उसने वहां से अपनी दृष्टिगोचली जैसे सूर्य . की किरण पड़ने से आग बंदकर ली जाती है । रमणी बागे गली गई । कुछ देर . याद रमणीका पति उसकी खोज करता हुआ उधर आया । सपाली को यहाँ मार्ग पर बेटा देखकर उसने पूछा, महाराज ! पर मनोहर पर भाषण पहनी हुई कोई एक सुन्दरी निकाली समा ? उसके सर में यह तपस्वी साधनः
नाभिनानामि इत्यो या पुरिसो या तो गतो।
यपि र अट्टिसंघाटो गच्छतेस महापय । मुझे नहीं मानमरमात्री या पुरम मौन गया मेरो काममुह को अपना निमा (सग बस
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