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________________ Maratha तप आचार्य हेमचन्द्र ने इसका वर्णन यों किया है -- २६६ पुतपाणि- समायोगे प्राहरुत्कटिकासनम् । १ जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं तब उत्कटिकासन होता है । ४ पद्मासन -- बायीं जांघ पर दायां पैर और दायीं जांघ पर वायां पैर रखकर हथेलियों को एक दूसरे पर रखकर नाभि के नीचे रखना । ५ वीरासन - वीरासन के कई प्रकार मिलते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने दो प्रकार बताये हैं बायां पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बांयी जांघपर रखकर बैठना वीरासन है । अथवा कोई पुरुष जमीन पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठा हो, और पीछे से उसका आसन हटा लिया जाय-तब उस बैठक की जो आकृति बनती है वह - 'वीरासन' है । ' ६ दंडासन - दंड की आकृति से जमीन पर इस प्रकार लेटना कि अंगुलियां, गुल्फ (घुटने) और जांघें जमीन के साथ लगी रहें । ७ गौवोहिकासन —- गाय को दुहने जैसी स्थिति में बैठाना । इस आसन से ध्यान करते हुए भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । ८ पर्यासन -पलंग का आकार बनाकर बैठना । इनके अतिरिक्त वज्रासन, (लगंडशायी - केवल सिर और एडियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो - इस प्रकार पीठ के बल लेटना) भद्रासन आदि का भी उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है । इनमें वीरासन आदि कठोर आसनों से मन में धैर्य आदि को जागृति होती है, तथा पद्मासन आदि सुखासन से चित्त की स्थिरता ! १ योगशास्त्र ४।१३४ २ योगशास्त्र ४।१२६-१२६ जैन योग साधना में किसी भी एक आसन पर अधिक भार नहीं दिया गया है । क्योंकि आसन तो मात्र शरीर को स्थिर करने का एक अभ्यास है, वह ध्येय तो नहीं है । इसलिए मुख्य बात यह है कि जिस आसन में मन
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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