________________
जैन धर्म में तप
उमड़ रहा है बिजली चमक रही है, और धीरे-धीरे खूब जोर की वर्षा भी शुरु हो गई है । मैं बीच में बैठा हूँ, मेरे शरीर पर पानी बरस रहा है जल के बीजाक्षरों में प-प-प-प लिखा हुआ है । इस जल वृष्टि से आत्मा पर लगी समस्त कर्म रज धुल कर साफ हो गई है, आत्मा पवित्र व निर्मल बनती जा रही है । जल धारणा सिद्ध योगी जल में डूबता नहीं, अगाध जल में भी जीवित रह सकता है और मन व शरीर के समस्त ताप शांत हो जाते हैंऐसा वैदिक आचार्यों का मत है ।" अधिक स्पष्टता संलग्न चित्र संख्या ४ से प्राप्त कीजिए ।
४२०
५ तत्वरूपवती धारणा - इसे 'तत्व भू' धारणा भी कहा गया है । योग वाशिष्ठ आदि वैदिक ग्रंथों में इसे 'आकाशधारणा' कहा गया है । वारुणी वारणा के पश्चात् यह अन्तिम धारणा तथा सर्वश्रेष्ठ धारणा है । इसमें आत्मा के निराकार निर्मल रूप का चिंतन करते हुए योगी सोचता है- "मैं अनन्त पक्तियों का पुंज हूँ। में आकाश से भी विराट् व व्यापक है। जिस प्रकार आकाश पर कोई लेप नहीं है, वैसे ही मुझ पर भी किसी वाह्य वस्तु का लेपआवरण नहीं है। इस धारणा में आत्मा स्वरूप दशा की उत्कृष्ट अनुभूति कर सकता है ।
इस प्रकार पिण्डस्य ध्यान की ये पांच धारणाएं हैं जिनके आधार पर मन को अपने ध्येय के निकट लाया जा सकता है, और व्येय के साथ बांधा जा सकता है | यह धारणाएं सिद्ध हो जाने पर साधक की आत्मशक्तियां बहुत ही विकसित व प्रचंड बन जाती है | उस पर किसी प्रकार की मलिन विद्याओं का प्रभाव नहीं पड़ सकता । भूत-पिशाच आदि उस के दिव्य तेज से भयभीत रहते हैं ।
पवस्वध्यान का स्वरूप
वस्य व्यानका वयं है किन्हीं पद-दारों पर मन को स्थिर करना। इसकी परिभाषा को की गई है
१. योगवाविष्य निर्वाण प्रकरण