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जैन धर्म में तर.. विनय के माध्यम से शील-सदाचार को भी शिक्षा दी गई है। कहा है
तम्हा विणयमेसिज्जा सोलं पडिलभेज्जओ।' दुःशोल, असदाचारी व्यक्ति सड़े कानों की कुतियां की भांति दर-दर ठोकरें खाता है, अपमानित होता है, लोग उससे घृणा करते हैं, इसलिए : . दुःशील का बुरा परिणाम समझकर शील का आचरण करना चाहिए, विनम की उपासना करनी चाहिए । गुरुजनों के समक्ष स्थिर आसन से सभ्यतापूर्वक बैठना, उनकी शिक्षाओं पर क्रोध न करना,कम बोलना,बिना पूछेन योजना, . उन्हें प्रसन्न कर विद्याभ्यास में लीन रहना~यह सब शील एवं सदानार, जो कि विनय का ही परिवार है।
नम्रता व सद्व्यवहार विनय का नम्रतासूचक अर्थ तो काफी प्रसिद्ध है हो । आगमों में भी इस . का कई जगह वर्णन मिलता है। नोयायित्ती अवयले नीजी वृत्ति राना, चंचल नहीं होना-~~-यह विनीत का लक्षण बताया गया है। नौनी पति से आगय है-~-गुरुजनों के समक्ष नत्र होर रहना, मिनीत भाव में बन करना । दशवकालिक में रहा है--
नौयं सिज्ज गई ठाणं नीयं च आसणाणिय।
नीयं च पाए वंदिता नीयं कुम्जा प अंजलि ।' गुरुजनों के समक्ष गया (सोने का विस्तार) स्थान और आसन उनले कुछ नीता रमना चाहिए । नमस्कार करते समय शाकर उनका सगं, वंदना करनी चाहिए। और दादनी जोहे तो नो ने शहर अनिषद हो। मतलब मोमोभवहार
और Amit नही होना चाहिए। किस्म के प्रयक आहार में TEST
मेरामाने पर आमनर का
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