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लधि प्रयोग : निषेध और अनुमति
__इस प्रश्न का उत्तर है कि लब्धि एक अतिशय है, एक प्रभाव है, साधक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कभी उत्सुक नहीं होता, भाव बढ़ता है तो प्रभाव अपने आप बढ़ जाता है। सिद्धि मिलती है तो प्रसिद्धि अपने आप हो जाती है । इसलिए तप की जो विधि है वह लन्धि प्राप्त करने के लिए नहीं है, किन्तु तप का एक मार्ग है जिस मार्ग पर चलने से बीच में अमुक सिद्धियाँ मिल जाती हैं । जैसे अमुक नगर को जाना है, यदि इस रास्ते से गये तो बीच में अमुक-अमुक स्थान आयेंगे और अमुक रास्ते से गये तो अमुकअमुक स्थल ! वीच के स्थल पर पहुँचने के लिए कोई यात्रा नहीं करता, वह तो अपने आप आयेगा ही, यात्रा का लक्ष्य तो मंजिल है। वैसे ही तप का उद्देश्य तो कर्म निर्जरा है, किन्तु अमुक विधि से तप का आचरण करने पर कर्म निर्जरा तो होती ही है, किन्तु जिस प्रकार के कर्मों की अर्थात् जिस वर्गणा के कर्मों की निर्जरा होगी उसके फलस्वरूप आत्मा में स्वतः ही अमुक प्रकार की शक्ति जग जायेगी। जैसे वेले-बेले तप करते रहने से अमुक प्रकार की शक्ति जगेगी. तेले-तेले तप करने से उससे कुछ विशिष्ट आत्मशक्ति जागृत होगी। उदाहरणार्थ-भगवान महावीर को भी लब्धियाँ प्राप्त थीं, तेजोलन्धि भी और शीतललब्धि भी प्राप्त थी। तो क्या उन्होंने इन लब्धियों के लिए तप किया या ? नहीं ! किन्तु वे वैले-वैले तप करते रहे तो उससे जैसे ही उस लब्धि के योग्य कर्मों की निर्जरा हई तो वह लब्धि अपने आप प्राप्त हो गई। अंत: यह ध्यान में रखने की बात है कि शास्त्र में तप को लब्धि प्राप्त करने की विधि के रूप में नहीं बताया है, किन्तु अमुक प्रकार के तप के फल रूप में लब्धि बतायी गई है. और फल की कामना से रहित होकर ही साधक को तप करना चाहिए।
लब्धि का प्रयोग क्यों ? एक और महत्व की बात है कि लब्धि जब तप के प्रभाव से स्वतः ही प्राप्त होने वाली एक आत्मशक्ति है तो उसका प्रयोग करना चाहिए या नहीं ? शास्त्रों में इसका प्रयोग करना अनुमत है या नहीं।
इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें भगवती सूत्र