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जैन धर्म में तप । कठोर उग्र तप:कार्य करने वाला बालतपस्वी यदि हमारा स्वामी बनने का . निदान कर वहाँ से आयुपूर्ण करे तो हमें सचमुच ही में एक महान प्रतापी तेजस्वी स्वामी प्राप्त हो सकता है ।'' बस फिर क्या था, अगणित अंसुरकुमार
और असुरकुमारियां सुन्दर दिव्य रूप बनाकर उसके सामने आये, बत्तीस प्रकार के दिव्य नाटक, संगीत आदि का प्रदर्शन कर तपस्वी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगे। बड़े ही विनय के साथ वंदना कर उसे प्रार्थना करने लगे-हे महान तपस्वी ! हम पर दया करो, हम अनाथ हैं, स्वामिहीन हैं, आप जैसे स्वामी हमें प्राप्त हो जाय तो हम सब सुरक्षित और आनन्दपूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। इसलिए हम पर करुणा कर आप निदान (नियाणा) करें और यहाँ से आयु:पूर्ण कर हमारी वलिचंचा राजधानी के इन्द्र बनना स्वीकार करें।'
असुरकुमारों के द्वारा दीनता और विनय के साथ वार-बार प्रार्थना करने पर भी तामली तापस ने उसे स्वीकार नहीं किया और अपने चिंतन में ही मस्त रहा। फिर आयुष्यपूर्ण कर वह ईशान कल्प में ईशानेन्द्र के . रूप में जन्म लेता है। ___कहने का अभिप्रायः यह है कि उस तपस्वी को अपने स्वामी के रूप । में प्राप्त करने के लिए असुरकुमारों ने कितनी प्रार्थनाएँ की, कितनी दीनता दिखाई ? किसलिये ? इसीलिये कि यदि ऐसा तपस्वी हमारा स्वामी वन जाता है तो यह अपने तपस्तेज से समूचे स्वर्ग-विमानों को भयभीत और निस्तेज बना सकता है। तपस्या की शक्ति के समक्ष देवता और इन्द्र. . की भी शक्ति तुच्छ है. अल्प है, वे भी तपस्वी के चरणों की धूल सिर पर चढ़ाने को लालायित रहते हैं और उन्हें अपना स्वामी बनाने को उत्सुक !
__ आदिमंगल : तप तप सिर्फ भौतिक सिद्धि और समृद्धि का प्रदाता ही नहीं, किन्तु वह अनन्त आध्यात्मिक समृद्धि का प्रदाता भी हैं। मैंने बताया है आपको कि तीर्थकरत्व भी तप के द्वारा ही प्राप्त होता है । यही नहीं, किन्तु तीर्थकर वनने के।
१. ततेणं तुम्हें अम्हं ईदा भविस्सह-भगवती सूत्र ३१