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अंधो य पगू य वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं
पविट्ठा ।"
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- सयोग सिद्धि (ज्ञान और क्रिया का
सयोग ) ही ससार मे फलदायी
कही जाती है । इसी से मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है । एक पहिए से कभी रथ नही चलता । जैसे अघा और पगु मिलकर वन के दावानल से बचकर नगर के सुरक्षित स्थान मे पहुंच गये, दोनो ने ही अपना जीवन बचा लिया, वैसे ही साधक ज्ञान और क्रिया के समन्वित रूप के साथ चलकर मोक्ष रूप नगर को प्राप्त कर लेता है, अपनी मंजिल पर पहुच जाता है । ज्ञान- क्रिया का यह महत्त्व प्रत्येक विचारक और प्रत्येक अध्यात्मवेत्ता ने माना है । महपि वशिष्ठ ने कहा है
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गति । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परम
पदम् ॥२
जैन धर्म में तप
- जिस प्रकार पक्षी को आकाश मे उडने के लिए दो परो की आवश्यकता होती है, दोनो पर बरावर होने से ही उड़ सकता है उसी प्रकार ज्ञान और कर्म - दोनो के समन्वय से ही परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
जैसे सृष्टि मे दिन-रात का, धूप-छाह का, नर-नारी का युगल है, दोनो सही रहने से ही सृष्टि का क्रम ठीक से चलता है, वैसे ही ज्ञान-क्रिया मोक्ष यात्रा का अनिवार्य युगल है, जोडी है, इन दोनो मे से एक को भी छोड देने से काम नही चलेगा । क्रिया के बिना ज्ञान पगु की तरह पडा रहेगा और ज्ञान के बिना किया अधे की तरह भटकती रहेगी ।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा - " कुछ लोग शील ( आचार) को श्रेष्ठ मानते हैं और कुछ श्रुत (ज्ञान) को इन दोनो मे कौन ठीक
है कोन श्रेष्ठ है
?"
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१ आवश्यक नियुक्ति १०१
२ योगवाशिष्ठ, वैराग्य प्रकरण १।७