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________________ जनम में और नमका ! यस सोधा सरल होकर अपना दोष स्वीकार कर मेगा! मामालीनना । कृप्त पापों को आलोचना जब तक नहीं की जाती सादर में पागल्प (कोटा) हता है । उस अवस्था में पिना आलोगना Freो यदि मृत्यु हो जाय तो यह साधक धर्म का निराधना को जाता है। पनि आलोचना की भावना जग गई, मन मारन हो गया और आलोचना - नहीं कर पाया तो उस स्थिति ः लिए-आमा भद्रया ने गो गहा रार . रिसरल मन में बालोचना करने की भावना जगने पर भी माना की विधि हो जाती है। यदि कोई पापों की आलोचना करने में लिए गुरु के समक्ष जाता हो, बीर रास्ते में किसी आग.स्मिक धारण मत्यु हो जाये तो यह बानोननोन्मुग्म सायः (आलोचना मान लिय शिना भी) बाराक ही होता है क्योंकि उसको भावना सरम और पार में प्रति परनाना की थी। आयुष क्षय हो जाने के कारण यह आलोचना करनी पाना, किन्तु इदर समा गरल हो गया था, सरलता के मामलो अपने भारही हो नुको दो। भगवान महावीर ने बताया है कि मनुष्य पाप गरम शामा में पाप के प्रति आपति, राता है, उसे पाप नहीं बना पापा भी मोनायि चिनारा सास नही मलेगा रापन बारे मन में पाया पदा नहीं होता और मह पाय ME भी को बर मयादि कोई गोचे कि दोष को स्वरमा सौगों में भी पी, , प्रतिक मान-सम्मान पट जायेगा, गोर मुर शेती : नागारम भरमा माहिए, मा र सामान पाया। ....... ...... .... ... .....
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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