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जैन धर्म में तप रस परित्याग करने वाले साधक को भोजन के इन तीन दोयों को .. टालना जरूरी है। इसी के साथ भोजन (परिभोगपणा) के दो अन्य दोष और भी हैं
४ अकारण --आहार करने के छः कारण बताये गये हैं उन छ कारणों के सिवाय बल-वीर्य की वृद्धि के लिये, शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए आहार करना-अकारण दोष है।
५. अप्रमाण-शास्त्र में बत्तीस कवल-आहार का प्रमाण वताया है। उस प्रमाण से अधिक आहार करने वाला साधक 'प्रकाम रस भोजो' कहलाता है। 'प्रकाम रस भोजी' साधना से च्युत हो सकता है, व्रत से भ्रष्ट हो ... सकता है।
. रस-लोलुपता से हानि 'इस परित्याग' एक प्रकार का अस्वाद प्रत है। इसमें स्वाद पर विजय प्राप्त करने की साधना होती है। क्योंकि स्वाद के वशीभूत हुआ साधक भोजन में आसक्त हो जाता है, वह स्वादिष्ट और तरस भोजन की योज करता है. अपने नियम, व्रत बौर समाचारी को ताक में रखकर जहां रसदार भोजन मिलता है वहीं जा धमकता है। सब मर्यादामों को तोड़ डालता है, और हर प्रकार से स्वादिष्ट आहार प्राप्त करने की चेष्टा करता है । उसमी लोलुपता को देखकर लोग कहते हैं-~यह साधु है या स्यादु ! यहीं मिष्टान्न पक्वान्न का नाम सुन लिया तो धूप-गिने न छह, सीधा यहां पहुंच जाता है। ऐसे म लोलुपी व्यक्तियों के लिए ही तो कहा गया है--
साठे फोरो तापसी सोए कोरी सीरी।
मिलिया छोड़े नहीं नगद बाद रो बोरो। .. . सरग आहार के लिए व्यक्ति साठ-गो लोग गा पाकर भी यादमा
और इतनी तीन शासक्ति से प्राप्त किया जा साहार माते समय नियम सा रहेगा? सय तो गो गाम्ले दही भावगं पासपूमता रहेगा---- . . . भोजनं कुर दुई ! मा गोरे या !
___ परान पुनम लोग शरीराणि पुन: पुन: ॥