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... जैन धर्म में तप : तद् भवति ।....रुद्रस्य चिन्तनाद् रुद्रो विष्णुः स्याद् विष्णु-चिन्तनाद्-जो जिसको . ध्याता है, वह उसी रूप बन जाता है। रुद्र की चिन्तना से रुद्र तथा विष्णु . के चिंतन से विष्णु । मैं सीता-सीता रटता हुआ यदि कहीं सीता बन गया तो? फिर मेरा दाम्पत्य सुख तो चला जायेगा, पुरुष से नारी भी बन जादूंगा!" ...
आशुप्रज्ञ हनुमान ने तभी हंसते हुए कहा-"महाराज ! इसमें आपको चितित होने की क्या बात है ? यदि ऐसा हो भी गया तो कोई चिंता की । बात नहीं । जैसे आप रात-दिन सीता को रटन लगा रहे हैं, आपके मन में . सीता बसी हुई है, उसी प्रकार माता सीता के हृदय के कण-कण में 'राम'' : बसे हुए हैं । वह क्षण-क्षण 'राम-राम' रटती रहती है। तो यदि राम 'सीता' सीता' रटते हुए राम बन गये तो सीता भी 'राम-राम' रटती हुई 'रामस्वरूप' बन जायेगी। फिर चिन्ता की क्या बात है ?
यह एक रूपक हैं, कवि की कल्पना भी हो सकती है, किन्तु इसमें सचाई है, एक तथ्य है कि मनुष्य जिस स्वरूप का, जिस रूप का और जिन अक्षरों . का एकाग्रता के साथ, तन्मय होकर चिंतन करता है वह तस्वरूप भी बन सकता है। तन्मय का अर्थ ही है-तद्+मय = (उसी के अनुरूप) तन्मय । ' तो पदस्थ व स्पस्थ ध्यान में यही तस्वरूप का नितन किया जाता है और . भगवदमय बनने की ओर गति भी होती है।
| মিষ पदस्य ध्यान को स्थिर करने के लिए आचार्यों ने सिद्ध चक्र की स्थापना की कल्पना दी है। इस सिद्ध चका में-आठ पंखुड़ियों वाले सफेद कमल की कल्पना की जाती है। और उसके भीतर कणिका पर (बीज-कोप) में नमो अरिहंताणं की स्थापना की जाती है। फिर पूर्व-पश्चिम आदि बारी दिवाओं की पंगुदियों पर णमो सिद्धाणं आदि चार पद की स्थापना होती है। पार विदिशा की पंगुड़ियों पर शान, दर्शन, गारिय और तप का ध्यान frut जाता है इस प्रकार नौ पदों की स्थापना कर इस सिद्धवस पर मान किया जाता है। आचार्य चन्द्र ने शान दर्शन के स्थान पर एसो पंच नमुक्कारा' आदिवार पदों की स्थापना को विधि बताई है। अन्यास की दृष्टि में इन