Book Title: Bhikkhu Jash Rasayan
Author(s): Jayacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुजश रसायण जयाचार्य Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी वाङ्मय : ग्रन्थ १ जीवन दर्शन भिक्खु जश रसायण जयाचार्य प्रवाचक: आचार्य तुलसी प्रधान सम्पादक: युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © जैन विश्व भारती प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) संस्करण : १९९४ तेरापंथ प्राणवान् संघ है। आचार्य भिक्षु ने इसका प्रवर्तन वि.सं. १८१७ आषाढ़ी पूर्णिमा को केलवा में किया था। उस घड़ी और उस पल का कोई ऐसा योग था कि उस दिन से तेरापंथ गति करता गया। साधुओं की संख्या कभी घटी, कभी बढ़ी, पर इसकी मूलभूत भित्ति सुदृढ़ रही। परम्परा में होने वाले आचार्य इसको गतिशील बनाते रहे, इसकी अनुशासना को प्रायोगिक करते हुए साधना का अवसर देते रहे। उसी प्रकार साधु-साध्वियों ने इसे सींचा, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। आज भी यह शत-शाखी वृक्ष कल्पतरु के रूप में अनेक मुमुक्षुओं की इच्छा-पूर्ति का साधन बना हुआ है। जयाचार्य जीवनी-लेखन की कला में सिद्ध-हस्त थे। उन्होंने आचार्य भिक्षु और ऋषिराय का जीवन-वृत्त लिखा। "भिक्षु जश रसायण" उनकी अमर कृति है। इस ग्रन्थ में उन्होंने आचार्य भिक्षु का ऐसा सजीव वर्णन किया है कि पाठक को आचार्य भिक्षु के साक्षात्कार की-सी अनुभूति होने लग जाती है। आचार्य भिक्षु और जयाचार्य दोनों एकात्म थे । मूल्य : ७५ रुपये मुद्रक : जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. जयपुर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु जश रसायण जयाचार्य प्रवाचक: आचार्य तुलसी प्रधान संपादक : युवाचार्य महाप्रज्ञ सम्पादक : मुनि मधुकर मुनि सुखलाल Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्न । प्रज्ञापुरुष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा - यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व । ___ अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंत:करण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से सम्पन्न, सरस्वती के वरद्पुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ - यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व । तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक, आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहणशक्ति और मेधा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्घायु बना दिया । ___ उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा।साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका हैं। उसका ग्रंथ-मान है - साठ हजार पद्य प्रमाण। • जन्म - १८६० रोयट (पाली मारवाड़) • दीक्षा - १८६९ जयपुर ० युवाचार्य पद - १८९४ नाथद्वारा • आचार्य पद - १९०८ बीदासर • स्वर्गवास - १९३८ जयपुर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम xi-xiii xiii-xlv प्रकाशकीय पुरोवाक् प्रस्तावना भिक्खु जश रसायण का विषय - विवेचन प्रथम खंड सिद्ध साधुओं को आद्य नमस्कार ग्रन्थ रचना-प्रतिज्ञा गुणी गुण-गान से तीर्थंकर पद का बन्ध महावीर के ज्ञानी-शिष्यों का विवरण नंदीवर्धन-विक्रम काल गणना का संकेत जन्म भूमि परिचय जन्म-कल्याणक परिवार-परिचय गुरु की खोज वैराग्य, साधना के आदि चरण पत्नी वियोग दीक्षा का निश्चय स्वामी रुघनाथजी का दीपांबाई को प्रबोध दीक्षा कल्याणक शास्त्र-स्वाध्याय चालू आचार-विचार के प्रति संदेह राजनगर के श्रावकों का विद्रोह राजनगर चातुर्मास और श्रावकों को आश्वासन ज्वर-प्रकोप और आचार-विचार शुद्धि का संकल्प शास्त्रों का गहन अध्ययन mmmm mp3 3 3 15 ww १ . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सही समझ की स्वीकृति मार्ग सुविधा के लिए राजनगर से दो दलों में प्रस्थान मुनि वीरभाणजी को रहस्य नहीं खोलने की हिदायत मुनि वीरभाणजी का स्वामी रुघनाथजी के पास पहले पहुंचना और रहस्योद्घाटन गुरु दर्शन और अप्रसन्नता का सामना शंका-समाधान का असफल प्रयत्न अभिनिष्क्रमण तेज आंधी और श्मशान भूमि में पहला प्रवास छत्री पर स्वामी रुघनाथजी का आगमन, आग्रह और धमकी -बडलू चर्चा स्वामी जयमलजी से विचार-विमर्श मुनि किशनोजी - भारमलजी प्रसंग तेरापंथ नामकरण क्रान्ति के आदि सहयोगी संतों का परिचय विरोध का वातूल अनुपम साहस और आचार महिमा संघर्ष पूर्ण पहले पांच वर्ष निराशा और एकान्त तपस्या मुनि थिरपालजी और फतेहचंद जी का धर्म प्रचार का अनुनय साध्वी - दीक्षा ९ द्वितीय खंड उत्पत्तिया बुद्धि के स्वामी आचार्य भिक्षु भिक्खु दृष्टांत और विनीत- अविनीत चौपी के दृष्टांत दृष्टांतों की संकल्पना ९ १० १०-११ १२ १३-१४ १५ १५ १५-१७ १७ १८ १८-२० २१-२४ २५-२७ २८ २८-२९ ३० ३० ३१-३२ ३३ आचार्य भिक्षु और मुनि भारीमालजी के आत्मीय सम्बन्धों की झांकी ३३ सुपात्र दान विमर्श निर्जरा और पुण्य विमर्श अनुकम्पा विमर्श ३६-३९ ४०-४१ ४२-४५ ४६ ४६-१४० १४१-१४५ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खंड असिआउसा को नमस्कार आचार्य भिक्षु के शासन काल के मुनियों का वर्णन आचार्य भिक्षु के शासनकाल की साध्वियों का वर्णन चतुर्थ खंड गौतम और सुधर्म को नमस्कार आचार्य भिक्षु का प्रमुख विहार- क्षेत्र आचार्य भिक्षु के प्रमुख श्रावक आचार्य भिक्षु की वृद्धावस्था की सक्रियता का मार्मिक चित्रण सोजत में हुकमचंद आच्छा का सिरियारी अंतिम चतुर्मास का अनुरोध और स्वीकृति सिरियारी वर्णन और आगमन सिरिपारी चतुर्मास के सहयोगी संतों का उल्लेख अंतिम अस्वस्थता चरम कल्याणक आभास सहयोगी संतों के प्रति कृतज्ञता के उद्गार भावपूर्ण सामूहिक शिक्षा सार्थक जीवन जीने का उल्लास बाल मुनि श्री रायचंद जी को शिक्षा युवाचार्य श्री भारमलजी द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन आचार्य भिक्षु द्वारा युवाचार्य का भविष्य-कथन श्री खेतसीजी को प्रत्युत्तर अनुपम अंतिम आलोचना समस्त जीवों से भावपूर्ण खमतखामणा साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं से खमतखामणा 'टालोकर से भी खमतखामणा संवत्सरी का उपवास और पारणा युवाचार्य श्री भारमलजी एवं मुनिश्री खेतसीजी के हाथ से अंतिम आहार आजीन अनशन ग्रहण (vii) १४७ १४७-१७३ १७४-१८४ १८५ १८५ १८५ १८५ १८६ १८६ १८६-१८७ १८८ १८८ १८८ - १८९ १९० १९३ १९३ १९५ १९५ १९६ १९७ १९८ १९८ १९८ २०० २०० २०१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ २०४ २०५ २०५ २०५ २०५ २०६ २०६ २०७-२०८ २०९ २०९ अनशन की हलचल और वैराग्य मय वातावरण अवधि-ज्ञान का आभास संस्तुति-गान स्थित मुद्रा में महाप्रयाण सात प्रहर का अनशन इधर विमान की तैयारी पूर्ण उधर महाप्रयाण तेरहखंडी विमान की संरचना चरम कल्याणक महोत्सव महामानव तैयालीस वर्षों के चातुर्मास का विहार-विवरण साढा अड़तीस हजार पद्य-परिमाण साहित्य की संरचना भक्ति के अनमोल बोल प्रशस्ति पद ग्रन्थ रचना का आन्तरिक आह्लाद भिक्खु जश रसायण के रचना-स्रोत अनजाने प्रमाद का मिथ्या दुष्कृतम् लघु भिक्खु जश रसायण भिक्खु-चरित-मुनि हेमराज कृत भिक्खु-चरित-मुनि वेणीराम कृत परिशिष्ट १ नामानुक्रम २ पारिभाषिक शब्द ३ सूक्तियां/लोकोक्तियां ४ प्रयुक्त धुनें (देसियां) २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ । P २४३ २७५ ३०५ ३०७-३१५ १६-३२२ ३२३-३२५ २६-३२९ (viii) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ह प्रकाशकीय "भिक्खु जश रसायन"जयाचार्यवर की अमरकृति है। जहां एक ओर भिक्षु स्वामीजी का प्रमाणिक जीवनवृत प्रस्तुत किया है, वहीं अपने आराध्य के तत्वदर्शन को सम्यगरूपेण व्याख्यायित भी किया है। जयाचार्य का जीवन बहुआयामी था। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुविध साहित्य का सृजन किया। उनके द्वारा रचित लगभग साढ़े तीन लाख पद्य प्रमाण साहित्य उपलब्ध हैं। राजस्थानी में किसी एक व्यक्ति द्वारा इतना साहित्य रचा गया हो यह अन्वेषण का विषय है। जयाचार्य स्वामीजी के भाष्यकार थे। स्वामी जी के समय के अनेक स्थविर मुनि जयाचार्य के शासनकाल में वर्तमान थे। अपने शिक्षा गुरु मुनि हेमराज प्रभृति संतों द्वारा प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण स्वामी जी से सम्बन्धित पुष्ट व प्रमाणिक जानकारी जयाचार्य को मिल सकी, यह इस ग्रंथ को प्रमाणिक व महत्वपूर्ण साबित करती है। जगह-जगह पर भिक्षु दृष्टान्तों को उपस्थित कर तत्व का विवेचन, उस समय की धारणाओं, मान्यताओं एवं रूढ़ियों पर प्रकाश डालता है। बहुत सारे ऐतिहासिक तथ्यों को भी उजागर किया गया है। श्रद्धावनत है परमाराध्य आचार्य श्री तुलसी के प्रति जिनकी सतत् प्रेरणा व मार्गदर्शन में श्रद्धेय संघ परामर्शक मुनि श्री मधुकरजी व मुनि श्री सुखलालजी के अथक श्रम से सम्यग सम्पादन का कार्य सम्पन्न हो सका। हम मुनि द्वय के प्रति आभार ज्ञापित करते हैं। ___ ग्रन्थ सर्वजन योग्य. सहज, सरल होने के कारण सुधी पाठकों को स्वाध्याय में सुगमता रहेगी-ऐसा हमारा मानना है। अध्येता इस ग्रन्थ-रत्न का अध्ययन कर अनेक तत्व-रत्नों को संजो पायेंगे - ऐसा हमारा विश्वास है। "भिक्षु चेतना वर्ष" के बहुविध कार्यक्रमों के अन्तर्गत तेरापंथ राजस्थानी वाङ्मय की श्रृंखला में इस ग्रन्थ का प्रकाशन कर जैन विश्व भारती धन्यता का अनुभव करती है। जैन विश्व भारती झूमरमल बैंगानी लाडनूं मंत्री अश्विन शुक्ला-१३ दिनांक २८ अक्टूबर, १९९३ (ix) Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् मैं आठ-नौ वर्ष का था। तब मैंने अपनी संसार पक्षीया मां से चौबीसी ओर आराधना के गीत सुने। वे मुझे बहुत प्रिय लगे। मुझे नहीं पता था -- गीतकार कौन हैं और इसका भी पता नहीं था-- किस भाषा में लिखे हुए हैं। ग्रंथ का ऐतिहासिक और काव्यात्मक विश्रेषण हमारी बुद्धि का कार्य है किंतु अच्छा लगना रचनाकार की शब्द-रचना में सन्निहित आस्था और रचना शिल्प का प्रभाव है। अब मैं जानता हूं--चौबीसी के रचनाकार हैं जयाचार्य और उसकी भाषा है-मारवाड़ी या राजस्थानी। ___ काव्य, लेख, निबंध, और किसी ग्रंथ के लिए भाषा का भी बहुत मूल्य है। राजस्थानी में अभिव्यक्ति की विशिष्ट क्षमता है। उसका मूल स्रोत है प्राकृत। उसमें जो सहज मिठास है, उसका कारण है प्राकृत का वह सिद्ध वाक्य-- सुहमुहोच्चारण-उच्चारण में मुख को कष्ट न हो इसलिए शब्द में परिवर्तन करना हो तो किया जा सकता है। इस उच्चारण की कोमलता ने शब्दों को तराशा है और उस तराश ने उनमें एक उज्ज्वल आभा पैदा की है। ____ आचार्य भिक्षु जोधपुर राज्य के कांठा प्रदेश में जनमे। उनकी बोली और भाषा में ठेठ मारवाड़ी शब्दों की एक लंबी श्रृंखला है। उन्होंने मेवाड़, हाड़ौती, थळी आदि अनेक प्रदेशों में विहार किया फिर भी उनकी रचनाओं में मारवाड़ी के पुराने शब्दों का एक भण्डार है। उन्होंने गद्य में लिखा और पद्य भी लिखे। कुल मिलाकर अड़तीस हजार श्लोक मान लिखा। अनेक विषय, अनेक रागिनियां, अनेक प्रयोग उनके सहज कवि अथवा रचनाकार होने के स्वयंभू साक्ष्य हैं। उनकी सृजनात्मक और रचनात्मक चेतना ने तेरापंथ धर्मसंघ में सृजनात्मक और रचनात्मक शक्ति को जन्म दिया। परंपरा उत्तरोत्तर विकसित होती गई। जयाचार्य राजस्थानी के सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं। आचार्य भिक्षु के चतुर्थ आसन पर विराजमान होकर उन्होंने आचार्य भिक्षु की परम्परा को यशस्वी और गतिशील बनाया। राजस्थानी को उनका अवदान इतिहास प्रसिद्ध हैं। भगवती सूत्र Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पद्यात्मक भाष्य उनकी रचनाधर्मिता का मुखर प्रमाण है। उस विशालकाय ग्रंथ में जैन-दर्शन, तत्त्वचिन्तन के हजारों-हजारों शब्दों ने राजस्थानी शब्दकोश को समृद्ध किया है। 'उपदेश-रन-कथा-कोश', कथा साहित्य का गगनचुंबी शिखर है। व्याकरण, तत्त्व विद्या, भक्ति, आराधना, न्याय आदि अनेक विधाओं में उन्होंने . राजस्थानी को गौरवपूर्ण भूमिका पर प्रतिष्ठित किया है। आचार्य भिक्षु के नवम आसन के अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी ने अपने कवित्व और वक्तृत्व से राजस्थानी की विपुल श्री वृद्धि की है। अपने पूज्य गुरुदेव की स्मृति में लिखा हुआ पद्यमय जीवन वृत्त 'संस्कृत, प्राकृत और राजस्थानी का त्रिवेणी संगम है। उसमें प्राचीनता और आधुनिकता का संगम ही नहीं, सात्मीकरण भी है। महाकाव्य की शैली में लिखा वह जीवन वृत्त राजस्थानी साहित्य का चूडामणी है। उसका नाम है कालूयशोविलास। अन्य अनेक रचनाएं हैं और प्रति वर्ष निर्माण की सूची प्रवर्द्धमान है। यह कोई प्राकृतिक घटना या सहज संयोग है कि आचार्य भिक्षु, जयाचार्य और आचार्य तुलसी--तीनों की जन्म-भूमि मारवाड़ है और इनका मारवाड़ी अथवा राजस्थानी को समृद्ध करने में अपूर्व योग है। आचार्य भिक्षु की परंपरा में अनेक साधुओं तथा श्रावकों ने भी राजस्थानी वाङ्मय के विस्तार और विकास में अपना योग दिया है। मुनि हेमराजजी, मुनि वेणीरामजी, मुनि जीवोजी, मुनि सोहनलालजी, जैसे अनेक प्रतिभा सम्पन्न राजस्थानी के लेखक और कवि हुए हैं। भिक्षु चेतना-वर्ष में आचार्यश्री की सन्निधि में एक चिंतन चला और 'तेरापंथ का राजस्थानी वाङ्मय' की योजना बन गई। उसका प्रथम ग्रंथ पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है- आचार्य भिक्षु का जीवन-वृत्त। जीवनवृत्त की नई शैली के आविष्कर्ता जयाचार्य की रचना धर्मिता का अनुत्तर उदाहरण है। इसमें जीवन, दर्शन, प्रज्ञा, प्रयोग और परिणाम-सब मुखर हैं पर सबमें सामंजस्यपूर्ण मौन का निदर्शन है। इसके संपादन में मुनि मधुकरजी और मुनि सुखलालजी ने बहुत निष्ठापूर्ण श्रम किया है। आचार्यश्री इस श्रम के केवल साक्षी नहीं हैं, आपका निरीक्षण और परीक्षण भी सतत इसके साथ चला है। फलतः संपादन का सौंदर्य स्वाभाविक है। युवाचार्य महाप्रज्ञ (xii) . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'भिक्खु जश रसायण' तेरापंथ प्रणेता आचार्य भिक्षु का चरित-काव्य है, पर जयाचार्य ने इसकी संरचना इतनी कुशलता से की है कि यह इतिहास, साहित्य, दर्शन, अध्यात्म तथा मनोविज्ञान का एक अमूल्य ग्रंथ बन गया है। तेरापंथ में इतिहास लेखन ___ मैक्समूलर ने ठीक ही कहा है--"जो जाति अपने अतीत पर अपने साहित्य और इतिहास पर गर्व अनुभव नहीं कर सकती, वह अपने राष्ट्रीय चरित्र का मुख्य आधार खो देती है।" इस दृष्टि से देखा जाए तो तेरापंथ एक भाग्यशाली संघ रहा है। निश्चय ही हर तेरापंथी को अपने अतीत पर गौरव की अनुभूति होती है। तेरापंथ धर्मसंघ का इतिहास जितना सुरक्षित-संरक्षित रहा है, उतना शायद हजारों वर्षों से प्रवहमान अनेक धर्मसंघों का नहीं रहा। वास्तव में वर्तमान उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता जितना वह होता है। कौन सी घटना कब महत्त्वपूर्ण बन . जाती है, इसका कोई गणित नहीं हो सकता। घटना अपने आप में घटना होती है। समय उस पर मूल्यों का आरोपण करता है। हमारे पूर्वजों ने घटनाओं के महत्त्व का आकलन किया और उन्हें लिपिबद्ध करने की ऐतिहासिक दूरदर्शिता दिखाई, यह महत्त्वपूर्ण बात है। इस दृष्टि से चतुर्थाचार्य श्रीमद् जयाचार्य का अपना विशेष महत्त्व है। तेरापंथ का इतिहास प्रारंभ से ही घटनाबहुल रहा है। पर यदि जयाचार्य ने ख्यात के रूप में इसके प्रामाणिक संकलन की शुरुआत न करवाई होती तो न केवल अतीत ही गुमनामी के अंधेरे में खो जाता, अपितु आगे भी यह दृष्टि इतनी स्पष्ट बनती या नहीं, कहा नहीं जा सकता। बहुत सारे पश्चिमी विद्वानों का अभिमत है कि भारत में इतिहास को इतिहास-दृष्टि से लिखने की परंपरा नहीं रही है। तेरापंथ का इतिहास इस माने में एक अपवाद है। यथार्थ दृष्टि भारतीय इतिहास-दृष्टि के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां यशोगान का दरबारी राग ही प्रमुख रहा है। यहां शुक्ल पक्ष को जितना उजागर किया (xiii) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, उतना कृष्ण पक्ष पर प्रकाश नहीं डाला जाता। पर तेरापंथ का इतिहास इस आरोप से मुक्त है। आचार्य भिक्षु ने स्वयं अपने हाथ से अपने में निकाले जाने वाले आरोपों की सूचि बनाकर विरोध-पक्ष को एक समीक्षा-मूल्य प्रदान कर दिया। हो सकता है उस समय कुछ लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगी हो। भला, अपने आरोपों को और वे भी निराधार आरोपों को चुन-चुन कर इकट्ठा करना कौन सी बुद्धिमानी की बात हो सकती थी, पर आज लगता है वह दृष्टि कितनी प्रखर थी। आचार्य भिक्षु एक दूरदर्शी महापुरुष थे। उन्होंने जिस दूरदर्शिता से एक नई विधा को जन्म दिया, उसका आज एक ऐतिहासिक महत्त्व बन गया है। आज जब हम इस विधा का विश्लेषण करते हैं तो अनेक महत्त्वपूर्ण बातें सामने आती हैं। इसी से तेरापंथ में यह परम्परा बन गई है कि घटनाओं को गुणानुवाद के रूप में न लेकर यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास रहता है। जयाचार्य और इतिहास तत्त्व ___इतिहास लेखन की दृष्टि से जयाचार्य का कृतित्व विशिष्ट है। यद्यपि आचार्य भिक्षु ने अत्यंत कुशलता से अपने साहित्य में अपने आपको प्रतिबिम्बित कर दिया था, पर जयाचार्य ने इतिहास-तत्त्व को जितनी सूक्ष्मता से समझा-पकड़ा उतना बहुत कम लोग समझ-पकड़ पाते हैं। उन्होंने ही मुनिश्री हेमराजजी से इतिहास की बहुत सारी बातें जानी। तेरापंथ इतिहास में मुनिश्री हेमराजजी का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे न केवल आचार्य भिक्षु के प्रत्यक्ष द्रष्टा शिष्य थे, अपितु छाया की तरह उनके अन्तेवास में रहे। वे एक प्रबुद्ध और मनस्वी संत थे। उनके सामने जो कुछ भी घटा उसे उन्होंने अत्यंत जीवंतता से देखाजाना। भिक्खु दृष्टांत उनकी स्मृति का ही कमाल था। इससे यह भी पता चलता है कि आचार्य भिक्षु कितने महान् व्यक्ति थे। उनके जीवन में, पल-पल में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंग आए होंगे। यदि मुनिश्री हेमराजजी जैसे और भी संत होते तो न जाने हमें आज कितने और प्रसंग जानने को मिलते।। इतिहास लेखन की दृष्टि से तेरापंथ संघ में मुनिश्री कालूजी का भी बहुत बड़ा महत्त्व रहा है। उन्होंने ही पिछले इतिहास का संकलन कर ख्यात की विधिवत् शुरुआत की। यह उनकी ही प्रतिभा एवं परिश्रम का परिणाम है कि उनसे पूर्व के एक शती के हर संत-सती की प्रामाणिक जानकारी आज हमें ख्यात में उपलब्ध हो जाती है। पर इस लेखन का मुख्य श्रेय तो जयाचार्य को Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही जाता है। उनकी प्रेरणा से ही भिक्खु दृष्टांत का संकलन हुआ और उनकी प्रेरणा से ही ख्यात का संकलन शुरु हुआ। भिक्खु दृष्टांत के संकलन के पीछे तो भिक्खु जश रसायण की ही प्रेरणा रही है। उन्हें आचार्य भिक्षु के जीवनचरित में देने के लिए ही जयाचार्य ने उनका संकलन किया था । सचमुच इतिहास की सुरक्षा करते-करते जयाचार्य स्वयं ही एक इतिहास पुरुष बन गए। उन्होंने भिक्खु जश रसायण के मिष न केवल एक जीवन-चरित ही प्रदान किया अपितु इतिहास के बहुत सारे तथ्य भी हमें सौंप दिए । विषय वस्तु जैसा कि मैथिलीशरण गुप्त ने राम के बारे में कहा है "राम ! तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है । " आचार्य भिक्षु का जीवन इतना रसमय था कि वह अपने आप में एक काव्य है। जयाचार्य ने भिक्खु जस रसायण में उसे इस तरह अभिव्यक्त किया है कि उसकी काव्यमयता और भी अधिक मुखर हो गई है। रचना विभाजन भिक्खु जश रसायण को चार खंडों में बांट कर भी जयाचार्य ने काव्योचित कौशल का परिचय दिया है। सामान्यतः जीवन चरितों में चरितनायक की विशेषताओं के गीत गा दिए जाते हैं, या उसे तिथियों-मितियों का कलेंडर बना दिया जाता है, पर जयाचार्य ने इस चरित्र को एक नया रचना-विभाजन दिया है। प्रथम खंड में जहां आचार्य भिक्षु का रेखाचित्र सा खींचा गया है वहां दूसरे खंड में उनके विचार-दर्शन को अभिव्यक्त किया गया है। तीसरे खंड में भिक्षुदृष्टांत के मनोरम विस्तार को समेटा गया है तो चौथे खण्ड में उनकी शिष्यसम्पदा का परिचय दिया गया है। कुल मिलाकर इसे एक सरस शब्द-चित्र कहा जा सकता है। जयाचार्य की साहित्य-साधना बहुत प्रलम्ब है। उन्होंने साढ़े तीन लाख पद्य-परिमाण साहित्य की रचना कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। उनका साहित्य गद्य में भी है, पद्य में भी है। उसके आख्यानात्मक, विवरणात्मक आदि अनेक भेद-प्रभेद हैं। उनका साहित्यिक कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व एक अलग ही विवेचना का विषय है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारी सारी चर्चा भिक्खु जस रसायण पर केन्द्रित है। आचार्य भिक्षु एक अमाप्य महापुरुष थे। उनका जीवन बहु आयामी था। (xv) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतनी विधाओं को एक साथ जी लेना कोई मामूली बात नहीं है। जयाचार्य ने । इस दृष्टि से उनके जीवन चरित को अपनी लेखनी की नोक पर उठाकर अपनी विशिष्ट परख एवं रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। सचमुच में जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु और अपने बीच के एक शती के फासले को पाटने में अपनी सार्थक भूमिका का परिचय दिया है। काव्य - मीमांसा _ हिन्दी और राजस्थानी का मूल प्राकृत-अपभ्रंश है। इसलिए इन दोनों भाषाओं की प्रकृति में गहरा साम्य है। बल्कि मूल में तो इन दोनों को अलग कर पाना भी कठिन है। पृथ्वीराज रासो आदि जिन कुछ रचनाओं को हिन्दी के आदि ग्रंथ माने जाते हैं, वे वास्तव में राजस्थानी भाषा की ही रचनाएं हैं। राजस्थानी की गद्य-परम्परा भी बहुत पुरानी है। असमी को छोड़कर उत्तर भारत में सबसे पुराना गद्य साहित्य राजस्थानी का ही माना जाता है। इस तरह राजस्थानी न केवल बहुत पुरानी भाषा है अपितु इसका साहित्य भी बहुत विपुल है। जैनसाहित्यकारों का इस समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी कविता का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। इस कालधारा में इस भाषा में कविताओं के कई दौर आये। १००० से १३५० ई. के प्रारंभिक काल में वीरता, शृंगार, धर्म आदि विभिन्न भावों को आधार बनाकर काव्य लिखे गये। इस काल खंड की कविता-धारा को कोई एक संज्ञा दे पाना संभव नहीं है। बाद में १३५० से १६५० तक जो रचनाएं लिखी गईं वे भक्तिपरक थीं। इस युग में धर्म को लोकधर्म का रूप दिया गया और इसे भक्ति काल कहा गया। भक्ति काल के बाद १६५० से १८५० तक के काल में राजामहाराजाओं को बहलाने वाला दरबारी काव्य लिखा गया। इस काल की विषयवस्तु शृंगार प्रधान थी, नखशिख वर्णन की रीति को निभाने की प्रतिबद्धता के कारण इसे रीति काव्य कहा गया। इसके बाद आधुनिक चेतना और जीवन मूल्यों से युक्त आधुनिक काव्य की शुरुआत हुई। जयाचार्य और राजस्थानी साहित्य । जयाचार्य का रचनाकाल आधुनिक युग का प्रारंभ काल कहा जा सकता है। जयाचार्य ऐसे समय में सामने आते हैं जब राजस्थानी में रचनाधर्मिता प्रायः सुषुप्त अवस्था में थी। विदेशी दासता के एक लंबे गलियारे से गुजर कर भारतीयचेतना कुंठित सी हो रही थी। पूरा भारतीय समाज राज्य-व्यवस्था के छोटे-छोटे (xvi) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुकड़ों में बंटकर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हो गया था। धार्मिक दृष्टि से भी साहित्य में एक काष्ठ मौन सा छाया हुआ था। जयाचार्य ने उस मौन को तोड़ कर एक उद्दिष्टि तथा अनुत्तर जागरण का संदेश अपने साहित्य में दिया। इस अर्थ में राजस्थानी साहित्य के खालीपन को भरने में जयाचार्य एक कड़ी के रूप में सामने आते हैं। उनके समय में भक्ति की धारा भी जरा मन्द पड़ने लगी थी। साधारणतया ईश्वर के प्रति प्रेम की अनुभूति - अभिव्यक्ति को भक्ति का आधार-तत्त्व माना जाता है। लेकिन संपूर्ण भक्ति काव्य एक जैसा नहीं है। जो भक्त कवि ईश्वर को सगुण-साकार मानते थे, वे सगुणी भक्त कहलाये । सूर, तुलसी आदि ऐसे ही भक्त कवि हुए हैं। जो लोग ईश्वर को निर्गुण-निराकार मानते थे तथा अवतारवाद में विश्वास नहीं करते थे, निर्गुणमार्गी भक्त कहलाए। इनमें भी जिन्होंने धार्मिक रूढ़ियों और पाखंड पर चोट की उन्हें ज्ञानमार्गी कहा गया। कबीर ऐसे ही ज्ञानमार्गी कवि हुए थे। जिन कवियों ने लौकिक प्रेम कथाओं के माध्यम से ईश्वर के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति की उन्हें प्रेममार्गी कहा गया। जायसी को इसी धारा के अन्तर्गत माना जाता है। - अध्यात्म और साहित्य जयाचार्य एक अध्यात्म पुरुष थे, अतः इनके साहित्य का प्रेरक भाव अध्यात्म ही रहा। ललित साहित्य को ही साहित्य मानने वाले लोग आध्यात्मिक रचनाओं को साहित्य नहीं मानते पर जयाचार्य का साहित्य आध्यात्मिक होने के साथ-साथ इतना रसपूर्ण है कि उसे किसी भी तरह साहित्य की चारदीवारी से बाहर नहीं किया जा सकता। इस माने में उनका साहित्य राजस्थानी भाषा को ग्राम्य भाषा या आध्यात्मिक अनुभूति के संवहन में अक्षम भाषा कहने वाले लोगों के लिए एक सटीक उत्तर है। जयाचार्य को अध्यात्म के राजस्थानी भाषा में अवतरण के कीर्तिस्तंभ कहने में भी कोई अत्युक्ति नहीं लगती। अध्यात्म एक शाश्वत सत्य है। वही साहित्य कालजयी बन सकता है जो अध्यात्म से भावित हो। महावीर, बुद्ध और कृष्ण यदि आज जीवित है तो इसीलिए कि उनका साहित्य अध्यात्मपूरित है। बहुत बार साहित्य भी राजनीति की निन्दा - स्तुति में उलझ जाता है। पर राजनीति तो एक क्षेत्र - काल की उपयोगिता है। वह अपने वर्तमान में भी सार्वभौम नहीं बन सकती। एक जमाना था जब प्रगतिवाद के नाम पर साम्यवाद के बहुत गुण गाये जाते थे। जिस तरह प्रगतिवाद ने राजाओं की यशोगाथा को बुद्धि का दिवालियापन बताया था, , उसी (xvii) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह हो सकता है कभी प्रगतिवाद भी अप्रतिष्ठ बन जाये। पर महावीर, बुद्ध और कृष्ण कभी अप्रासंगिक नहीं बन सकते। ___ साहित्य की एक प्रेरणा मानवीय-संवेदना भी है। वह भी उसे अमर बनाती है। पर मानवीय संवेदना अध्यात्म का ही एक पक्ष है। अध्यात्म मानव से आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के प्रति संवेदना का विस्तार है। इसलिए वह अधिक आगे गया है। आचार्य भिक्षु तथा जयाचार्य ने अपने साहित्य में मानवीय-संवेदना को भी स्थान दिया है, पर उनका पूरा दर्शन छोटे से छोटे प्राणी के प्रति संवेदना व्यक्त करने में ही अपनी सार्थकता अनुभव करता है। इसलिए उनका साहित्य भी ज्यादा असरदार है। राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि कृति यद्यपि जयाचार्य राजस्थान के मारवाड़ प्रदेश (जोधपुर) से आते हैं तथा उनकी भाषा में मारवाड़ की आंचलिकता की सुरभि आती है, फिर भी एक यायावर संत होने के नाते उन्होंने पूरे राजस्थान को अपने कदमों से नापा था। इसीलिए उनकी राजस्थानी भाषा में सभी आंचलिकताओं का सहज स्पर्श है। भिक्खु जश रसायण को उसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस अर्थ में इसे राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि कृति कहने में भी कोई संकोच नहीं होता। भाषायी अध्ययन __ भाषायी दृष्टि से प्रसंग-प्रसंग पर लोकोक्तियों-मुहावरों का प्रयोग कर इस कृति में चार चांद लगा दिए गए हैं। यद्यपि ऐसे प्रयोगों की संख्या कर पाना मुश्किल है पर फिर भी ऊंठ री खोड ऊंठ नै पोपा बाईरो राज (४१/१०८), तीनां घरां बधामणा (६/१६), फकीर वालो दुप्पट्टो (६/१४), नव तुम्बा तेरह नेगदार, (४१/१०८)काण न राखै कोय : (६/९), गलां तांई कल गयो (६ दू. ९) आदि अनेक प्रयोगों को उदाहरण के रूप में गिनाया जा सकता है। राजस्थानी भाषा में बात कहने का अपना एक विशेष लहजा है। थोड़े में बहुत कह देना, इस भाषा की अपनी विशेषता है। इस दृष्टि से इस भाषा में कुछ ऐसे समस्त-पदों का प्रयोग किया जाता है जो मनुष्य की लम्बी अनुभूति से उपजे हुए होते हैं। प्रस्तुत कृति भी ऐसे अनेक शब्द-संकेतों से आकीर्ण है। धर्म रा धोरी, ठाला बादल (४१/१०४), बुगल ध्यानी (४५ दू. ८), माता बाजणी (१२/२), छोरी रो घाट (२६/४), छांदो, कुडी (१९/१३), नीला कांटा (३६/ (xviii) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३), वायरै बंग (३४/२४), रस कूपिका (३४/३२) आदि कुछ ऐसे ही प्रयोग राजस्थानी भाषा में शब्दों को घड़ने की एक बहुत ही सहज प्रक्रिया है। बहुत सामान्य आदमी भी अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा में एक शब्द-प्रतिमा गढ़ लेते हैं। धीरे-धीरे उसे अन्य लोगों का भी अभिषेक प्राप्त हो जाता है और उस प्रतिमा की सार्वजनिक पूजा-प्रतिष्ठा हो जाती है। इससे भाषा तो समृद्ध होती ही है, पर थोड़े शब्दों में गहरा भाव भी सिमट जाता है। नई शब्द-संरचना शब्द संरचना में धातु और प्रत्यय दो मुख्य घटक होते हैं। राजस्थानी में भी इनका महत्त्व है। पर इस भाषा में शब्द-संरचना इतनी निर्बंध होती है कि बहुत बार उसे व्याकरण के नियमों में बांध पाना कठिन हो जाता है। जयाचार्य ने भी भिक्खु जस रसायण में ऐसे अनेक नये शब्दों को घडा है। भिक्षु दृष्टांतों के प्रसंग में एक जगह वे लिखते हैं -- "बंधी छोड लोकां में बाजै' (२९/९) यहां बंधी छोड़ का एक विशेष अर्थ है। बंधी छोड अर्थात् बंधे हुए को छुड़ाने वाला, मुक्त करने वाला। इस शब्द में बंध और छोड़ दो धातुओं का प्रयोग हुआ है। बंधी अर्थात् बन्दी, कैदी छोड़ अर्थात् छोड़ने वाला। इसे जब जिन्नत का रूप दिया जाता है तो इसका अर्थ छुड़ाने वाला हो जाता है। यह एक नई शब्द संरचना है। इसी तरह वे एक अन्य शब्द 'विषटालो' (२१/१३) का प्रयोग करते हैं। विषटालो अर्थात् विष को टालने वाला-वैर का विसर्जन करने वाला। इस प्रकार भिक्खु जस रसायण में ऐसी अनेक शब्द संज्ञाओं को प्रतिष्ठित किया गया है। परम्पराओं के संकेत जयाचार्य इस काव्य में उस समय की अनेक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का भी संकेत करते हैं। आजकल सार्वजनिक सूचना के लिए 'नोटिस'Notice शब्द का प्रयोग किया जाता है जयाचार्य इसके स्थान पर -- 'चिट्ठी बांध लोकां नै चेतायो' (२१/१२) कहकर चिट्ठी बांध कर लोगों को चेताने की, खबरदार करने की बात कहते हैं। पुराने जमाने में जब भी कोई सार्वजनिक सूचना करनी होती थी तो उसे एक चिट्ठी अर्थात् कागज पर लिखकर शहर के दरवाजे पर लगा दिया जाता था। (xix) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रसंग में "चिट्ठी बांध लोकां नै चैतायो"से उसी परम्परा का संकेत किया गया है। आजकल हम जिसे T.A., D.A. कहते हैं राजस्थानी में उसे 'खरची' (२३/१०) शब्द से अभिहित किया गया है। इसी तरह 'कोथली' (४० दू.८) इस एक शब्द में एक पूरी परम्परा का संकेत है। विवाह-शादी के प्रसंग से जब लोग इकट्ठे होते थे उन्हें विदा करते समय बची हुई मिठाई की एक 'कोथली' थैली देने की परम्परा थी। वह पूरी परम्परा 'कोथली' इस एक शब्द में बंद है। इस तरह अनेकों संकेतों से यह पूरा ग्रंथ भरा पड़ा है। गीत-काव्य किसी भी रचना में भावावेग, कल्पना और लालित्य हो तो उसे कविता कहा जा सकता है। जयाचार्य के काव्य में ये तीनों विशेषताएं समाविष्ट हैं। मुख्य रूप से यह चरित काव्य गीत-विधा में लिखा गया है। जयाचार्य ने लोकगीतों की धुनों को अपनी रचना का आधार बनाया। वे खुद संगीत-रसिक थे। रात में जब कभी ढोली या महिलाएं गीत गातीं और उनकी धुन उन्हें अच्छी लगती तो उसे ग्रहण कर लेते और प्रातः उसी में गीत की रचना कर देते। उनके इस शौक में मोतीजी स्वामी की अच्छी भागीदारी रहती थी। राजस्थानी संगीत की अपनी एक पुष्ट परम्परा रही है। जयाचार्य ने भिक्खु जस रसायण में उस परम्परा की रक्षा की है। भिक्खु जस रसायण में कुल ६३ गीतिकाएं हैं। उनकी धुनों का परिशिष्ट भी साथ में दिया जा रहा है। ये सब राजस्थानी की अपनी विशेष धरोहर हैं। इनका संगीत-तत्त्व एक अलग विवेचना विषय है। यह जयाचार्य के संगीत-प्रेम का ही परिणाम है कि आज भी हजारों-हजार लोग तन्मय होकर उनकी रचनाओं का सस्वर गायन करते हैं। छंद-विचार ___ इस कृति में राजस्थानी के काव्य-प्राण दोहे-सोरठों का भी भरपूर उपयोग हुआ है। मनोहर छंद तथा लावणी का भी उपयोग किया गया है। __जयाचार्य का कवि-व्यक्तित्व बड़ा ही अनुपम था। उन्होंने न केवल विपुल साहित्य ही लिखा है अपितु छंद और अलंकार की दृष्टि से भी वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे न केवल आशु रचना ही करते थे, अपितु उनका भाव पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही अत्यंत ऊर्जस्वल थे। वैसे पूरा भिक्षु जस रसायण ही . (x) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसप्लावित है। कुछ पदों का शब्द-शिल्प, अनुप्राश-बोध यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। जय सुजशकारण, दुख विडारण, सुमगधारण स्वामजी, शुद्ध सुमति सारण, कुमति वारण, जगत तारण कामजी (ढा. 1४ कलश १) इस दृष्टि से भिक्खु जस रसायण का अंतिम पद्य भी पठनीय है-- मतिवंत संत महंत महामुनि तंत भिक्खु ऋख तणा, गुण सघन गाया, परम पाया, हद सुहाया हिय घणा। तज तंत्र-मंत्र-सुतंत्र लौकिक, भज ए मंत्र मनोहरू, सुख सद्म पद्म सुकरण 'जय-जश' नमो भिक्खु मुनिवरु। (ढा. ६३ कलश १) कविता का विषय क्या हो, वह छन्दोबद्ध हो या छन्द मुक्त हो, उसकी भाषा बोलचाल से नजदीक हो या उलझी हुई अलंकारिक हो इन सारे प्रश्नों का उत्तर सापेक्ष है। इन पर दो टूक निर्णय दे पाना आसान नहीं है। वस्तुतः कविता का विषय-वस्तु और रचना-विधान अपने युग के प्रतीक होते हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न समय के कवियों के रचनाकर्म से ही समझा जा सकता है। लोक कला जयाचार्य का भाषा-माध्यम पूर्ण रूप से राजस्थानी है। उस पर कहीं-कहीं . प्राकृत तथा गुजराती का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। भिक्षु जस रसायण जहां साहित्यिक कृति है वहां यह राजस्थान के लोक जीवन से भी जुड़ी हुई है। असल में तो लोक-काव्य में साहित्य की श्रेष्ठतम उपलद्धियां ही सन्निहित होती हैं, पर वे उपलब्धियां लोक जीवन में इस तरह रच-पच जाती हैं कि आदमी के मस्तिष्क पर बोझ नहीं बनती अपितु उसे एक सहजानन्द की अनुभूति प्रदान कराती है। ___ लोक भाषा के शब्दों का अखूट खजाना हम भिक्खु जश रसायण में पाते हैं जिसे पाद-टिप्पणों में देखा जा सकता है। विविध-आयाम भिक्खु जस रसायण एक बहुरंगी चरित्र-काव्य है। इसमें एक ओर जहां कोमल-कांत पदावली है, वहां दूसरी ओर कठोर तत्त्व-ज्ञान की छाया भी है। एक ओर उच्च आचार के प्रतिबिम्ब उभरे हैं तो दूसरी ओर मृदु-मंद हास्य की फुहार भी है। एक ओर तर्क की व्यूह-रचना है तो दूसरी ओर दृष्टांतों के मनोरम (boxi) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र भी अभिलिखित हुए हैं। पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसकी आधार भूमि जैनागम है। इसके चरित नायक आचार्य भिक्षु भगवान् महावीर के प्रति पूर्ण समर्पित थे। आचार्य भिक्षु और जिन-वचन एक दूसरे के पर्याय थे। उनकी सारी धर्मक्रान्ति का आधार ही जैन आचार-विचार की प्रतिष्ठा था। आचार्य भिक्षु ने उसके बलाबल की परीक्षा कर शास्त्र-समस्त आचार-विचार का रूप सामने रखा। जयाचार्य लिखते हैं-- विविध समय रस बाचतां, वारू कियो विचार। अरिहंत वचन आलोचतां, ए असल नहीं अणगार (२/२) आगम रहंस अनुपम लही; स्वाम-भिक्षु सार। शुद्ध श्रद्धा शोधी सही, बलि आचार-विचार (२/१) आचार्य भिक्षु की धर्मक्रांति का यही मूल मंत्र है। 'स्वामी श्रद्धा दिखाई जिण वयण स्यूं' जहां भी उन्हें जिन वचन की विराधना दिखाई दी उसे सुधारने में अपने आपको झौंक दिया। जयाचार्य ने भिक्खु जश रसायण में आचार्य भिक्षु की आचार तथा विचार दोनों की क्रांति पर प्रभूत प्रकाश डाला है। शिथिलाचार पर वे जोरदार प्रहार इन शब्दों में करते हैं - ___ज्यूं भेख पहिरै रोटी कारणे, तेहने कहो चोखो चारित्र पाल। ते कठिण चारित्र पालै किणे विधै, दुक्कर कह्यो है दीन दयाल।(३६/१४) सांगधारी फूटी नावा सारिखा, आप डूबै औरां ने डवोय। पत्थर नावा जिम कडा पाखंडी, जे तीन सौ तेसठ जोय। (३६/१७) कहीं-कहीं शिथिलाचार पर किया गया प्रहार कुछ कटु भी हो गया है, पर यह प्रहार किसी व्यक्ति पर नहीं होकर शिथिलाचारिता की मनोवृत्ति पर है। विचार की विषमता को मिटाने के लिए भी भिक्खु जश रसायण में बहुत कुछ लिखा गया है। इस संदर्भ में जहां भी आगमों के प्रमाण आये हैं वहां हर प्रसंग पर उन्होंने ढेर सारे प्रमाण संकलित कर लिए हैं। उदाहरण के लिए हम सुपात्रदान के प्रसंग को लें। आचार्य भिक्षु की इस विषय में पूर्व सम्प्रदायों से मत-भिन्नता थी। जयाचार्य ने उस मतभिन्नता को दर्शाने के लिए इस प्रसंग पर आगमों के २१ संदर्भ प्रस्तुत कर दिए। उनकी सूची इस प्रकार है-- १ भगवती श. ८ उ. ६ सू. २४७ ३ सुयगडांग श्र. १ अ. ११ गा. २० २ निशीथ उ. १५ सू. ७६ ४ भगवती श. ७ उ. १ सू. ४-५ (noxii) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ दशवैकालिक अ. ३ गा.६ १४ स्थानांग स्था. ९ सू. २५ ६ उववाई सू. १६१ १५ आचारांग श्रु. १ अ.४ ७ सूत्रकृतांग श्रु. २ अ. २ सू. ७१ १६ आचारांग श्रु. १ अ. ६ उ. २ सू. ४८ ८ उत्तराध्ययन अ. १४ गा. १२ । १७ आचारांग श्रु. १ अ. ४ उ. सू. ४५ ९ सुयगडांग श्रु. २ अ. ६ गा. ४४ १८ आचारांग श्रु.१ अ.५ उ.६ सू. १०७-१०९ १० उपासक दसा/१ अ.७ सू. ५१ । १९ आचारांग श्रु १ अ. २ उ. सू. १६६ ११ सुयगडांग श्रु. २ अ.५ गा. ३२ २० आचारांग श्रु. १ अ. ४ १२ विपाक श्रु. १ सू. ४२ । २१ आवश्यक अ.४ १३ स्थानांग स्था. १० सू. ९ (ढा. १२ दू. ३ से ढाल गाथा १६ तक) यह तो केवल सुपात्र-दान का एक प्रसंग है। इसी तरह अनुकम्पा, पुण्य, कालवाद, इन्द्रियवाद, पर्यायवाद आदि अनेकानेक प्रसंग हैं, जिन पर आचार्य भिक्षु ने पूर्व धारणा से हट कर नई स्थापनाएं की थीं, जयाचार्य ने उन सारे प्रसंगों के न केवल सैद्धान्तिक प्रमाण की एकत्र किए हैं, अपितु अपेक्षित विवेचन भी किया है। संक्षेप में उन पर तार्किक-बौद्धिक सटीक सूचन भी दिए हैं, जो पाठक को आचार्य भिक्षु के पूरे विचार-दर्शन से अवगत कराते हैं। आगमिक आधार ___ आचार्य भिक्षु को अपनी हर स्थापना को सुसंगत करने के लिए पूरे आगमों के एक-एक संदर्भ का प्रायोज्य अभिप्रेत खोजना पड़ा था। जयाचार्य ने लिखा है दोय-दोय बार सूत्रां भणी, वांच्यां धर अति प्यार सूत्र विविध निर्णय करी, गाढ़ी मन में धार (३ दू. ५) आचार्य भिक्षु के कथन को उद्धत करते हुए कहते हैं -- ___म्है सूत्र बाचै निर्णय कियो रे, संक नहीं तिलमात। (५/३) अपने प्रति तथा आगमों के प्रति अचल विश्वास ही उनके आचार-विचार का मूलाधार था। वे कहते हैं-मैंने दो-दो बार सारे सूत्रों का स्वाध्याय कर अपने विचार-दर्शन का निर्धारण किया है। धर्म जिनेश्वर भाखियो, गुरु जांणो निर्गंथ साची सरधा हो जाणो तंत सार, पावै तिणसूं पार (४/२) जिन आगम जोय प्रमाण किया। इस प्रकार आचार्य भिक्षु की आगम निष्ठा को भिक्खु जश रसायण में बहुत ही दृढ़ता से स्थापित किया गया है। जयाचार्य ने कहा है -- भारी बुद्धि भिक्खु तणी, निर्मल मेल्या न्याय। (voxiii) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहंत आज्ञा थापनै, श्रद्धा दी ओलखाय।। मरणधार शुद्ध मग लियो, कमिय न राखी काय। स्वामी सूत्र-न्याय संभलायनै, व्रत-अव्रत दीधी बतलाय (९ दू. १) थिर नींव आज्ञा भिक्खु थापन, वारु जिन-वचन थाप्या विशाल। बौद्धिकता का उपयोग ____ आचार्य भिक्षु की आगमों पर अपार श्रद्धा थी। साथ ही साथ उनकी बौद्धिक क्षमता भी प्रबल थी। इसीलिए वे आगम-सत्यों की स्पष्टता के लिए युक्ति-तर्क का भी सहारा लेते थे। कुछ लोग केवल सूत्र-निश्रित ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार आगमों के अतिरिक्त अन्य हेतु-दृष्टान्तों का कोई मूल्य नहीं होता। जयाचार्य ने उनके पक्ष को प्रस्तुत करते हुए कहा है-- सूत्र कही जे सहु, निर्मल सूत्र ने श्राय। बुद्धि स्यूं मिलती बात वर, सहु असूत्र ने श्राय (१५ दू. ४) आचार्य भिक्षु की आगम साक्ष्य से तत्व-निरूपण शैली की चर्चा करते हुए वे आगे कहते हैं-- सूत्र साख श्रद्धा सखर, स्वाम दिखाई सार। सूत्र तणी ने श्राय सुद्ध, आगम अर्थ उदार (१५ दू. ५) पर नंदी सूत्र का साक्ष्य देते हुए वे मनुष्य की बौद्धिक क्षमता का समादर करते हुए बताते हैं-- चार बुद्धि स्यूं चिंतवी, दिये विविध दृष्टंत। असूत्र ने श्राय ओलखो, वर नंदी विरतंत (१७ दू. ६) इसीलिए उत्पत्तिया बुद्धि स्यूं अख्या, मिलता न्याय मुणंद। केशी ने परे शुद्ध कथ्या, दृष्टांत अति दीपंत (१७ दू. १०) सखरो भिक्षु स्वाम नो, महामोटो मतिज्ञान। साचा न्यायज सोधिया, दृष्टांत देई प्रधान (१७ दू. ९) अनेकांत दृष्टि विचार महत्त्वपूर्ण होता है, पर उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है विचारक। विचार तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उपलब्ध होता है, पर उसमें जो सम्यक्त्व आता है वह मोहमुक्त विचार के संस्पर्श से ही आता है। इसी आधार (sociv) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उपयोग के भेदों के अन्तर्गत ज्ञान और अज्ञान का विभाजन किया गया है। बोध सम्यक्त्व के पास होता है, सत्य है और जो ज्ञान मिथ्यात्वी के पास होता है वह अज्ञान है, मिथ्या है। ज्ञान तो एक ही है पर पात्र के भेद से वह सम्यक् और मिथ्या बन जाता है। आचार्य भिक्षु के पास जो विचार था, ऐसा नहीं है कि वह और किसी के पास नहीं रहा होगा। पर उनकी नीर-क्षीर मनीषा ने उसे इतना प्रबल बना दिया कि उसके पीछे एक सम्प्रदाय ही खड़ा हो गया। आचार्य भिक्षु की दृष्टि एकांतग्राहिणी नहीं थी। उन्होंने अहिंसा की प्रेरणा को लौकिक और पारलौकिक बता कर उसे अनेकांतमयी बना दिया था। जब भी दृष्टि को ऐकान्तिक आग्रह पकड़ लेता है तो वह मिथ्या बन जाती है। सामान्य आदमी समस्याओं के दैहिक रूप से ही परिचित रहता है। उसके हिसाब से देह की रक्षा ही महत्त्वपूर्ण है। आचार्य भिक्षु उसे आत्मा के साथ भी जोड़ते हैं। कोई बकरा कसाई द्वारा मरने से बच गया इसे कोई भी समझ सकता है, पर कसाई की आत्मा पाप से बचे इस सूक्ष्म दर्शन को समझने वाले व्यक्ति विरले ही होते है । यहीं आकर सत्य साध्य-साधन की एकरूपता का प्रतिपादक बन जाता है। सचमुच इस दृष्टि से तत्त्व की ओलख को भिक्खु जस रसायण में बहुत कुशलता से प्रगट किया गया है। सामान्य आदमी की दृष्टि लोकाभिमुख ही रहती है। एक सीमा तक वह बुरी भी नहीं है। वह लोक-व्यवस्था की प्रतिष्ठापक चेतना है। आचार्य भिक्षु ने उसका अपलाप नहीं किया। पर उनकी दृष्टि में अध्यात्म को केवल इहलोक की सीमा तक परिसीमित नहीं किया जा सकता। वह लौकिक से आगे पारलौकिक भी है। इसलिए उसे समझना आसान नहीं है। भिक्खु जस रसायण के दूसरे खंड में उसे बहुत यौक्तिक तरीके से समझाया गया है। भिक्षु दृष्टांतों ने उसे विचार की ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए सुगम पगथियों का कार्य किया है। विचार-संगति आचार्य भिक्षु का विचार - बल इतना समृद्ध था कि उसकी किसी से तुलना करना कठिन है। उन्होंने अपने विचार को शुरू से लेकर आखिर तक जैसी सुसंगता प्रदान की है, वैसी बहुत कम लोग कर पाते हैं। बल्कि उनकी धर्मक्रान्ति का मूलाधार ही सुसंगत विचार की स्वीकृति था। उन्होंने देखा कि जैन धर्म के (xxxv) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी संप्रदायों में आचार और विचार के पौर्वापर्य का निर्वाह नहीं हो रहा है। उनका एक सिरा उत्तराभिमुख है तो दूसरा सिरा पूर्वाभिमुख या दक्षिणाभिमुख है। इस विसंगति को मिटाने के लिए ही उन्होंने धर्मक्रांति की थी। इस काल में उन्हें अपने पूरे विचार-दर्शन को एक नई एकसूत्रता प्रदान करनी पड़ी। यदि हम उनके अहिंसा-दर्शन पर विचार करें तो स्पष्ट आभासित होगा कि उन्होंने जैनागमों का कितना सूक्ष्म अवगाहन किया था। ऐसा नहीं है कि उनके समसामयिक धर्म-सम्प्रदायों में चिंतन की क्षमता नहीं थी। उनके पास भी विचार की एक पुष्ट परम्परा थी। पर यह भी सही है कि उस समय की चिंतन-क्षमता परम्परा से आवृत हो गई थी। तात्कालिक परिस्थितियों का प्रभाव ही ऐसा था कि वे अपनी विचार-विसंगति को समझ नहीं पा रहे थे। आचार्य भिक्षु ने उसे समझा और अहिंसा को संयम के साथ जोड़ा। यों संयम जैन धर्म की मौलिक स्वीकृति रही है, परं वह जीवन के व्यवहार-पक्ष के साथ इतनी सघनता से जुड़ गया कि अहिंसा के विचार में भी विसंगति आ गई। उदाहरण के तौर पर बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों की हिंसा को भी अहिंसा समझा जाने लगा था। आचार्य भिक्षु ने उसका विरोध किया। उनका मानना था कि अहिंसा अपने आप में पूर्ण है। उसमें छोटे-बड़े या कम-ज्यादा का विभाजन नहीं हो सकता। बड़े से बड़े जीव की रक्षा के लिए भी छोटे से छोटे जीव को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता। भिक्खु जस रसायण के दूसरे खंड में अहिंसा की इस सूक्ष्मता को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। ऐतिह्य-दृष्टि यद्यपि भिक्खु जश रसायण एक संत का चरित-काव्य है। पर प्रासंगिक ऐतिह्य तथ्यों की दृष्टि से इसमें यत्र-तत्र मेवाड़-मारवाड़ की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का भी थोड़ा चित्रण हुआ है। उस समय के राजामहाराजाओं तथा व्यापारिक तथा सामाजिक स्थितियों के संकेत भी इसमें मिलते हैं। सिरियारी के प्रसंग में वे थोड़े में अत्यंत कुशलता से कहते हैं -- शहर सिरियारी हो शोभे कांठा नी कोर, दोलो मगरो कोट ज्यूं दीपतो। जन बहु वस्ती हो, महाजना री जोर, जूना-जूना केइ पुर भणी जीपतो।। निर्भय नगरी हो ऋद्धि-समृद्धि निहोर, (boxvi) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यां धर्म-ध्यान घणो तप-जाप नो। राज करै हो दौलतसिंह राठौर, __ कुम्पावत कहियै करडी छाप नो। ५३/९-१०" पर, मुख्यतः इसका उच्छवास अध्यात्म-वासित है। आचार्य भिक्षु के जीवन के पौर-पौर में अध्यात्म-रस आप्लावित था। उनकी साधना का यात्रा-पथ जैन आगमों के दिव्य प्रकाश से आलोकित था। यद्यपि जैन-मुनि की चर्या अत्यंत कठोर है। सामान्य आदमी उस ओर मुंह ही नहीं कर सकता, पर आचार्य भिक्षु ने ऐसा रसमय जीवन जीया था कि उसमें आम आदमी को भी आकर्षण अनुभव होता है। उन्होंने अपने मधुरिम-व्यवहार से मुनित्व को भी मृदु-मुखर बना दिया। जयाचार्य ने बिलकुल सही लिखा है-- "भिक्खु जस रस अमृत भारी, शिव सम्पति सुख सहचारी।" (६/१) भिक्खु दृष्टांतः अनुभव निर्झर . भिक्खु दृष्टांत उसका सबल साक्ष्य है। यह अनुभव का ऐसा सरित्-प्रवाह है जिसे पढ़ते-पढ़ते पाठक को लगता है जैसे साधना के सितार पर मौन का संगीत गाया जा रहा है। नपी-तुली निर्वद्य भाषा में उन्होंने इतने पैने और करारे व्यंग्य-वाण चलाये हैं कि सामान्य समझ का आदमी भी सिर हिलाए बिना नहीं रह सकता। आचार्य भिक्षु के उन अनुभव प्रसंगों को संकलित कर जयाचार्य ने अध्यात्म-साहित्य में आल्हाद की एक नई कलम लगाई है। भिक्खु दृष्टांत के सारे प्रसंग मुनिश्री हेमराजजी की स्मृति के अद्भुत चमत्कार हैं। इनसे आचार्य भिक्षु की सम्पूर्ण जीवन शैली पर नया प्रकाश पड़ता है। मुनिश्री हेमराजजी अनुभवों के उस विशाल सरोवर से केवल घट भर स्मृति जल उलीच सके हैं। यदि आचार्य भिक्षु के जीवन के अन्य अगणित जीवन-प्रसंगों को भी संकलित किया जा सकता तो सरस्वती के भंडार की वह अपूर्व निधि होती। अनुवाद कौशल जयाचार्य ने भिक्खु दृष्टांतों को भिक्खु जश रसायण में संजोकर चरित काव्यों की परम्परा में एक नया बोध-बीज बोया है। इससे पहले ऐसा प्रयोग हुआ या नहीं यह एक अन्वेषण का विषय है। भिक्खु दृष्टांत की शब्द-संयोजना, साहित्यिक-शिल्प, अनुभव-प्रौढ़ता, अध्यात्मानुबंधता तथा उक्ति-वैचित्र्य आदि विशेषताएं एक स्वतंत्र पुस्तक-लेखन का विषय है। पर यह कह देना अनुचित नहीं होगा कि भिक्खु दृष्टांत का इस चरित काव्य में जैसा उपयोग हुआ है वह जयाचार्य के कवित्व का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। (soxvii) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयाचार्य ने भिक्खु दृष्टांत के गद्य को भिक्खु जस रसायण के पद्य में उतारने में भी अपनी अनुपम कवि मेधा का परिचय दिया है। साधारणतया गद्य को पद्य में ढालना बड़ा दुरूह कार्य है। मूल लेखन उतना जटिल नहीं होता जितना उसका छायांकन होता है। पर जयाचार्य ने यह पद्यानुवाद इतना मूल स्पर्शी, बल्कि हूबहू किया है, जिसे देखकर आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए हम बानगी के रूप एक दृष्टांत को ले सकते हैं । तुलनात्मक समीक्षा के लिए हम गद्य-पद्य दोनों को साथ-साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। गद्य कोयलांरी तो राब कालाबासण में रांधी अमावस नी रात्री आंधा जीमण वाला आंधा परुसण वाला जीता जाय ने खुंखारो करे कहै - खबरदार ! काला - कंखो टालज्यो कई टालै? सर्व कालो ही कालो भेलो हुवो ज्युं सरधा आचार रो ठिकाणो नहीं ते साध-श्रावक किम हुवै? पद्य कोयलारी तो राब अति काली काला बासण में रांधी कराली अमावस नी रात्री आंधा जीमण वाला परुसण वाला आंधा पयाला जीता बोलै खुंखारा करंता कहै - - खबरदार होय जीमजो सोय रखे आय जायला कालो कोय मूढ इतरो नहीं जांणै समेलो कालो हिज कालो हुवो भेलो ज्युं सरधा - आचार रो नहीं ठिकाण सगलो मिलियो सरखो घाण साध - श्रावक पण रो अंश नहीं सारो (३४/७ से १० ) यह एक प्रतीक अनुवाद है। इससे गद्य और पद्य में कितनी समता है बल्कि कितनी एकरूपता है यह सहज जाना जा सकता है। भिक्खु जस रसायण का दूसरा खंड इसी अगरु - गंध से सुवासित है। इस खंड में आचार्य भिक्षु की जिन स्वोपज्ञ कहानियों का उल्लेख हुआ है, वे भी अद्भुत हैं। न केवल उनका भाव पक्ष ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण है अपितु कला पक्ष भी चित्ताकर्षक है। बौद्धिकता से ऊपर भिक्खु दृष्टांत केवल बौद्धिक व्यायाम का ग्रंथ नहीं है । दृष्टांतों के माध्यम से आचार्य ने दुर्गम से दुर्गम तथ्य को सुगम बनाकर अबोध व्यक्तियों के लिए (xxxviii) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी महान् अवदान दिया है। इसीलिए जयाचार्य ने भी भिक्खु जस रसायण में इसका जी भर कर उपयोग किया है। एक ओर उन्होंने आचार्य भिक्षु के दर्शनपक्ष को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है वहां दूसरी ओर साहित्य के कोमलकांत पक्ष को भी बड़ी सफलता से उजागर किया। भिक्खु दृष्टांत आचार्य भिक्षु की साधना के कठोर पार्वतीय-प्रदेश में कल-कल निनाद करता हुआ एक पवित्र अनुभव-निर्झर है। जयाचार्य ने साधना की कठोरता को तराश कर एक मनोरम वास्तु-शिल्प को जन्म दिया है। यही कारण है इसमें गहन शास्त्र चर्चा के तनावपूर्ण क्षणों में भी मनोविनोद की फुहारें उछलती हुई प्रतीत होती जैन आगम और परम्परा के संदर्भो को आचार्य भिक्ष ने जो नया अर्थबोध प्रदान किया है, उसमें भिक्खु दृष्टांत का अपना विशेष महत्त्व है। आगमों के सत्य को जन-भोग्य बनाने की दृष्टि से भी वे बड़े कीमती हैं। इसीलिए भिक्खु जस रसायण में उन्हें विस्तार से चर्चित किया गया है। इस खंड का उपसंहार करते हुए जयाचार्य ने लिखा है -- दृष्टंत वारू अधिक चारू, स्वाम नां ज सुहांमणा, भव उदधि तारण जग उधारण, ऋष भिक्खु रलियामणा। सुख वृद्धि सम्पति दमन दम्पति, भरम भंजन अति भलौ, हद बुध हिमागर सुमति सागर, नमो भिक्खु गुणनिलौ (ढा. ४२ कलश १) वर्णन शैली __वर्णन शैली की दृष्टि से भिक्षु जस रसायण का चतुर्थ खंड अपनी अलग ही विशेषता रखता है। इस खंड का वर्ण्य-विषय आचार्य भिक्षु का चरम कल्याण है। इसका प्रारंभ ही उनकी निर्वाण स्थली सिरियारी के प्रसंग से होता है। कैसे वे सिरियारी आये, कैसे चातुर्मास प्रारंभ किया, कैसे लोगों को प्रबोध देते, कैसे भिक्षा के लिए जाते आदि आदि विषयों का बड़ा ही विस्तृत एवं हदयग्राही वर्णन है। अन्त में कैसे उनका शरीर निर्बल होता है और वे देहासक्ति से ऊपर उठकर आत्मस्थ हो जाते हैं-आदि विषयों का सटीक विवेचन है। आखिरी दिनों का वर्णन तो जैसे घंटे घंटे का रोजनामचा लिखा गया है। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह वर्णन बड़ा ही सजीव एवं भावपूर्ण है। आचार्य भिक्षु के प्रति जयाचार्य का हृदय अत्यंत भक्ति-भावित है पर वह यथार्थ-बोध से इतना अनुविद्ध है कि स्तुति-गान सा नहीं लगता। (xoxix) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्धक्य के तट पर आचार्य भिक्षु के वार्धक्य की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं कि-- पांचूं इन्द्रयां परवरी, न पडी कांइ हीण वृद्धपणे पिण पूजनी, शीघ्र चाल शुभ चीन। थाणै कठैई ना थप्या, उद्यमी अधिक अपार चारू चरचा करण चित्त, पूज तणै अति प्यार उठै गोचरी आप नित, अतिशयकारी ऐन पूज्य सुमुद्रा देखनै, चित में पामै चैन ५३।८-२-३ सावण मासे स्वामजी, पूनम लगै पिछाण सखर गोचरी शहर में, आप करी अगवाण (५४/दू. १) आवसग अर्थ अनोपम, लिख-लिखने अवलोय शिष्य ने आप सिखावता, जशधारी मुनि सोय (५४ दू. २) इस तरह उनके सुखद एवं सकर्मक वार्धक्य का बड़ा ही सुबोध्य विवेचन हुआ है। शिक्षा पद अपने अंतिम दिनों में उन्होंने श्रमण-श्रमणियों को जो शिक्षा प्रदान की है वह साधना एवं संगठन दोनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बले स्वामी सीख दे सारो जी, सहु सुणता भणी आराधजो आचारोजी, मत चूको अणी ५६/९ शिष-शिषणी पर सोयोजी उपकरण ऊपरे मूर्छा म कीजे कोयोजी, प्रमाद ने परहरो पुद्गल ममत प्रसंगोजी, तन-मन सूं तजी संजम सरवर सुचंगोजी, भल-भावे भली ५६/१२,१३ आचार्य भिक्षु ने स्वयं जीवन भर शुद्ध साधना मार्ग का अवलम्बन किया था। इसी से उन्हें अपनी जीवन की सार्थकता का बोध हो सका। अपने शिष्यों को उसी ओर संकेत करते हुए उन्होंने उपरोक्त अमूल्य शिक्षा वचन कहे थे। परम्परा प्रबोध उन्होंने जीवन भर अनुशासन की एक बेशकीमती नजीर सबके सामने प्रस्तुत की। अंतिम समय में भी उनका अनुशास्ता कहता है -- (xoox) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीत चरण पालण री, भल ऋष भारमालो रे शंक म राखज्यो, शुद्ध साधु नी चालो रे ५५/६ शुद्ध समण सेवज्यो, अणाचारयां सूं दूरा रे सीख दोनूं धरयां, हुवै मुगति हजूरा रे ५५/७ सहु साध-साधवी, वर हेत विशेषो रे रूडो राखज्यो, धरणूं नहीं द्वेषो रे ५५/१७ वलि जिलो न बांधणो, गुरु आण सुगामी रे सीख सही, दी भिक्खू स्वामी रे ५५/१८ वे ज्यों-त्यों पंथ बढ़ाने की बात नहीं कहते हैं। दीक्षा देने के विषय में उनका स्पष्ट अभिमत इस प्रकार प्रकट होता है देख-देखने, दीख्या सुध दीज्यो बलि जिण-तिण भणी, गण में म मुंडीज्यो ५५/२१ इसी क्रम में वे विचार की एक रूपता को भी विस्मृत नहीं करते हैं। श्रद्धा, आचार, कल्प या सूत्र के विषय में मत-भिन्नता होने पर वे गुरु तथा बुद्धिमान साधुओं पर विश्वास करने की हित-शिक्षा देते हुए कहते हैं-- श्रद्धा-आचार रो, कल्प सूत्र नों बोलो रे गुरु बुद्धिवंत री, राखो प्रतीत अमोलो रे ५५/२२ यदि कोई बात समझ में न आये तो उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं -- कोई बोल न बेसे, केवलियां ने भलावी रे तांण कीजो मती, मन नै समझावी रे ५५/२३ संगठन में दरार डालने के लिए यदि एक दो तीन आदि सदस्य गण से बाहर हो जाये तो उनसे सावधान रहने की याद दिलाते हुए वे कहते हैं -- एक-दो-तीन आदि, निकले गण बारो रे साध मजाणज्यो, शुद्ध सीख श्रीकारो रे इक आज्ञा में रहिज्यो, ए रीत परंपर रे लिखत आगे कियो, सहु धरजो खराखर रे ५५/२५-२६ .. शासन प्रवर्तावण, सीख दीधी स्वामी रे और कारण नहीं, मत अंतरजांमी रे (५५/२८) उनके इन शिक्षापदों के संदर्भ में भगवान् महावीर की याद कराते हुए जयाचार्य कहते हैं : (booki) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरजी मोख विराजता, वारू कियो बखाण सोलह पहर रे आसरे, सीख दीधी सुविहाण इण दुःषम आरा मझै, स्वाम भीखण जी सार प्रत्यक्ष श्री जिननी परे, आखी सीख उदार ५५/२-३ आखिरी क्षण ___ आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अत्यंत जागरूकता से जो बहुमूल्य बातें कहीं उन्हें भिक्खु जश रसायण में बड़े करीने से सजाया गया है। जीवन के आखिरी क्षणों में भी उनके मन में कोई निराशा नहीं थी। वे अत्यंत हर्ष से कहते हैं : परभव निकट पिछाणों, दीसै मुझ तणु मुझ भय मूल म जाणों, हर्ष हीये घणों ५६/२ एक ओर उनका परिनिर्वाण क्षण निकट आ रहा था दूसरी ओर वे कहते हैं "मुझ भय मूल म जाणो" मुझे इसका जरा भी भय नहीं है, सचमुच एक विलक्षण बात है। अपने जीवन के प्रति वे पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं। उनके तृप्ति के उद्गारों को जयाचार्य ने इन छंदों में बांधा है : घणा जीवां रे घट माह्यो जी, सम्यक्त रूपीयो म्है बीज अमोलक बाह्योजी, मग ओलखावियो देशव्रत दीपायोजी, लाभ अधिक लियो साधपणों सुखदायोजी, बहुजन ने दियो म्है जोडा करी सूत्र-न्यायोजी, शुद्ध जाणे सही - म्हारै मन रे मांहयो जी, उणायत ना रही। ५६/३,४,५ आचार्य भिक्षु की यह बात बड़ी कीमती है कि मेरे मन में कोई कमी नहीं खटकती, बल्कि मैं अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट हूं। ___ जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु की मृत्यु को जैसे एक महोत्सव के रूप में चित्रित किया है। अपनी इस महायात्रा की वे बड़ी तन्मयता से तैयारी करते हैं। जयाचार्य कहते हैं स्वाम भिक्खू तिण अवसरे, आयु नेडो आयो जाण करे आलोवण किण विधे, सखर रीत सुविहाण ५८/१ आत्मालोचन का बड़ा-लम्बा और विराट् वर्णन है। उन्होंने न केवल समुच्चय रूप से त्रस-स्थावर जीवों से खमत खामणा किया है अपितु अपने एक-एक (rooxii) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-शिष्याओं से अत्यंत मुक्त-भाव से खमत-खामणा किया है। श्रावकश्राविकाओं के लिए भी वे कहते हैं : श्रावक ने बले श्राविका, केइ कठिण प्रकति रा कहाय कठिण वचन कहयो हुवै, खांत करी ने खमाय ५८/१५ गण से अलग हो जाने वाले बल्कि अपना विरोध करने वालों के लिए भी वे सरल भाव से कहते हैं : केइ गण बारै निकल्या, साध-साधवी सोय करड़ो काठो कह्यो हुवै, ज्यांसू खमत खामण जोय चन्द्रभाणजी थली मझे, तिलोकचन्द जी ताम कहिजै खमत-खामणा मांहरा, त्यांसू पडियो बौहलो काम ५८/१६-१७ इस तरह एक-एक व्यक्ति को याद कर जब वे खमत-खामणा करते हैं तो जयाचार्य की यह उक्ति बड़ी सार्थक लगती हैं : एहवी आलोवण कानां सुण्या, आवै अधिक वैराग करै त्यांरो कहिवो किसूं, त्यारै माथै मोटा भाग ५८/२२ अप्रमत्त दृष्टि ___ मुनि रायचन्द जी ने जब उनसे कहा --गुरुदेव! अब तो आपके पुद्गल क्षीण पड़ने लगे हैं तो वे तत्काल एकदम जागरूक हो जाते हैं भिक्खु बोलावै भारीमाल नै, बले खेतसी जी ने विचारो याद करता ही संत दोनूं ही, झट आय ऊभा है तिवारो नमोथुणो कियौ अरिहंत सिद्धा ने, तीखे वचन तामो बहु नर नारी सुणता ने देखता, संथारो पचख्यो भिक्खु स्वामो (४९/१२१३) सत्जुगी मुनिश्री खेतसीजी ने कहा-गुरुदेव! आपने जैसी उत्कट साधना की है उससे लगता है कि आप दिव्य सुखों को प्राप्त होंगे। आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया सुख स्वर्गादिक ना सहू, पुद्गल रूप पिछांण पामला सुख पोचा घणा, ज्यांने जाणूं जहर समान बार अनंती भोगव्या, अधिका सुख अहमंद तो पिण नहीं हुवो तृपतो, तिण कारण ए सुख फंद (४७/८) स्वर्ग सुखों को पौद्गलिक तथा पामला (खाज को खुजलाने का सुख) बताते हुए वे उन्हें भव-भ्रमण का हेतु बताकर, उनसे विरक्त से हो जाते हैं। वे इसी उन्नत भावना पर सवार होकर संथारे में भी एक आत्मतृप्ति का अनुभव करते (socxiii) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है इसीलिए अंतिम क्षणों में उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। बिना किसी सूचना के कुछ साधु-साध्वियों के आगमन की चर्चा कर उन्होंने सबको चमत्कृत कर दिया । भिक्खु जस रसायण में इस सारे वर्णन को बड़ी विशदता से चित्रित किया गया है। छोटे से कथ्य को भी कहीं-कहीं तो क्षण-क्षण में बांध दिया है और अंत में इस दीप के निर्वाण की झांकी जयाचार्य इन शब्दों में दिखाते हैं : बैठाकर साधु लारै बैठा, गुण स्वामी रा गावै बहु नर-नारी दर्शण देखी, मन में हरष थावै आयो आउखो अणचिंतवियो बैठा-बैठां जाणं सुखे समाधे बाह्य दीसत, चट दे छोड्या प्राणं ६१ / १२,१३ अनुपम आभा- वलय दुनियां के सभी महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से सत्य का साक्षात्कार किया है। पर सत्य को साक्षात् कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। उससे परम्परित करने के लिए व्यवस्थाओं को तथाकार बनाना भी जरूरी है। इस दृष्टि से भगवान् महावीर ने काफी सतर्कता बरती है। उन्होंने जैन- परम्परा को जैसा मनोवैज्ञानिक व्यवस्था-तंत्र दिया था, वैसा अन्य लोग नहीं दे पाये। पर कालक्रम से जब उसमें कुछ दरारें पड़ने लगीं तो आचार्य भिक्षु ने उस पर नये सिरे से विचार कर कुछ नये कदम उठाये। संघ कभी चलाने से नहीं चलता वह तो तब चलता है जब उसके नीचे आचार और विचार का पुष्ट धरातल होता है, तपस्या का पृष्ठबल होता है। संघ प्रणेता भी कभी बनाये नहीं जाते। वे तो अपने आप खड़े होते हैं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विरल विशेषताएं होती हैं जिनसे लोग अपने आप आकर्षित होते हैं। आचार्य भिक्षु के व्यक्तित्व में भी कुछ ऐसा ही चुम्बक तत्त्व था कि लोग उनसे अपने आप आकर्षित होते थे । भिक्खु जस रसायण के तीसरे और चौथे खंड में उनके आभामंडल की ज्योतिकिरणें फूट-फूट कर बाहर बिखर रही हैं। जयाचार्य कहते हैं 1 संत भीखणजी मोटका, मोटा गुण भरपूर भव जीवां तुमे भजो, पोहा उगते सूर बले गुण गाऊं भिक्खु तणा, सांभलजो सहुकोय मोटा गुण महाव्रत नां, कहूं सूत्र साहमो जोय ४/२-३ (xxxxiv) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयाचार्य के लिए भिक्खु जश रसायण की रचना एक साधना थी। उन्होंने सूत्रसाक्ष्य से कहा है --गुणवंत ना गुण गावतां, उत्कृष्ट रसायण आय पद तीर्थंकर पामियै, कह्यो सुज्ञाता माय १/२ निश्चय ही उन्होंने आचार्य भिक्षु की गुण-गंगा में अभिस्नात कर अपने आपको पुनीत-पावन बनाया था। भक्त कवि ___ जयाचार्य एक अध्यात्म पुरुष थे। अपनी चरम स्थिति में अध्यात्म अकर्म है, पर उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आदमी को कर्म की राह से होकर गुजरना पड़ता है। इस अर्थ में अकर्म से भावित कर्म भी अध्यात्म है। भक्ति अध्यात्मकर्म का महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसीलिए भक्ति को योग कहा गया है। जयाचार्य का कर्म भक्तियोग से भावित था। यों जयाचार्य एक विविधमुखी साहित्य स्रष्टा थे। उनकी रचनाधर्मिता के अनेक मार्ग हैं, पर उनके भक्तरूप की अपनी एक विशेष छवि है। उनके साहित्य में भक्ति से भावित काफी कृतियां हैं। तीर्थंकरों से लेकर सामान्य साधु-साध्वियों के गुणोत्कर्ष को चित्रित करने में उन्होंने अपनी मुक्त मानसिकता का परिचय कराया है। पर आचार्य भिक्षु तो उनकी आस्था के प्रगाढ़ केन्द्र थे। इस दृष्टि से भिक्खु जश रसायण को सबल साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। यों किसी का जीवन चरित लिखना उसके प्रति भक्ति के प्रकर्ष का ही द्योतक होता है, पर भिक्खु जश रसायण में भक्ति के जैसे बिम्ब उभरे हैं. वे अत्यंत मोहक हैं। भिक्ख जश रसायण में केवल भक्ति प्रणाम ही हों ऐसा भी नहीं है, पर इस पूरी रचना का केन्द्र-तत्त्व भक्ति ही है। जयाचार्य अत्यंत भावुक होकर आचार्य भिक्षु के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं। वे कहते हैं -- याद आवै भिक्खु दिन-रैन, तन-मन विकसावै मुझ नैन (९/३०) आचार्य भिक्षु की स्मृति मुझे दिन-रात होती रहती है उनकी स्मृति मात्र से मेरे तन-मन-नयन विकसित हो जाते हैं। उनकी संस्तुति में वे लिखते हैं -- स्वप्ने सूरत स्वामनी, देखत ही सुख होय प्रत्यक्ष नो कहिवो किसूं शरण आपनी मोय (२६/५) आचार्य भिक्षु के स्मरण मात्र से आदमी मुक्ति सुखों को प्राप्त कर लेता है। जयाचार्य कहते हैं -- (boov) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "त्यांरी आसता राखो तहतीक, तिणसूं होवे मोक्ष नजीक" शूरा सिंह तणी परे, सुरगिर जेम सधीर अगंज ओजागर अति घणा, विडद निभारण वीर (८/१६) भिक्खु स्वाम भारी-जगत् उद्धारक जशधारी अतिशयधारी ओपता, शासण शिरमणि मौड आचारज इण काल में, अवर ने एहनी जोड़ (८/१८) आचार्य भिक्षु का नाम ही उनके लिए मंत्र के समान था। वे कहते हैं-- मंत्राक्षर जिम समरण मोटो, परख्यो म्है तन-मन इहभव, परभव में हितकारी, भिक्खु तणो भजन "निशदिन मनडो मांहरो, जप रह्यो आपरों जाप" "भरत खेतर में दीपक भिक्खु, दीया समान दीपाया" "जहाज तुल्य भिक्षु जशधारी, प्रत्यक्ष ही पेखायो" "सुर-गिर साम्प्रत आप सधीर मोने मिलिया अमोलक हीर" "स्वाम भिक्खु तणै प्रसाद, पामी समकित चरण समाध" "धिन-धिन भिक्खु स्वाम, सारया घणा जणांरा काम" "स्वाम गुणां नो पोरसो रे, स्वाम सासण सिणगार" "नमो नमो भिक्खु ऋख निरमल, मोक्ष तणा दातार" स्मरण स्वाम तणो सुध साध्या, शिव-सुख पामै सार जयाचार्य ने अनेकानेक विधाओं में आचार्य भिक्षु को अपने भक्ति प्रणाम निवेदित किए हैं। यहां हम केवल भिक्खु जश रसायण के संदर्भ में ही चर्चा कर रहे है। ऐसा लगता है जैसे इस जीवन-काव्य के पौर-पौर में भिक्षु का नाम बोल रहा है। पूरा भिक्खु जश रसायण ही इसका प्रमाण है, पर इस दृष्टि से तीसरे खंड की बावीस गाथाओं की ४३वींढाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है आचार्य भिक्षु को आदिनाथ की उपमा देते हुए प्रथम गाथा में वे लिखते हैं -- इण दुषम आरे कर्म कटियाजी प्रगटिया आदि जिणंद ज्यूं ए इचर्य अधिक आवंत" "आदि जिणंद तणी परे ओलखायो आचार" जनम-जनम किम बिसरै तुझ गुण अनघ अपार स्यूं उपमा तुमनै कहूंसार अजिण जिणा सरिसा उदार (Oxvi) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु जश रसायण की रचना कर वे आनंद मग्न होकर रहते हैं हूंस घणा दिन स्यूं मुझ हुंती, आज फली मन आश भिक्खु जश रसायण नामे, ग्रंथ रच्यो सुविशाल।। (६३/४४) आचार्य भिक्षु के प्रति उनकी भक्ति इतनी अगाध थी कि वैसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। आचार्य भिक्षु उनकी साहित्य साधना के बहुत बड़े प्रेरणास्रोत रहे हैं। नया सम्प्रदाय खड़ा करना कोई मामूली बात नहीं है। जब आदमी में अनेक प्रकार की विशेषताएं होती हैं, तभी उसके आस-पास योग्य व्यक्तियों का आभा मंडल बनता है। भिक्खू जश रसायण का पूरा तीसरा खंड आचार्य भिक्षु के इसी आभामंडल का विशद विवेचन है। जयाचार्य आचार्य भिक्षु के प्रति इतने समर्पित थे कि वे तेरापंथ में दूसरे भिक्षु ही कहलाते हैं। वे एक प्रकार से आचार्य भिक्खु के सफल भाष्यकार हैं। भिक्षु जश रसायण में उनकी श्रद्धा के सान्द्र स्वर स्थान-स्थान पर मुखर हुए हैं। आचार्य भिक्षु को समझने और समझाने में जयाचार्य ने जितना प्रयास किया है वह उल्लेखनीय है। उन्होंने न केवल सिद्धान्त सारों के रूप में ही आचार्य भिक्षु के विचारों के आगम-स्रोतों को ढूंढ कर तुलनात्मक अध्ययन की दिशा में एक प्रगत कदम उठाया अपितु अपनी अन्य कृतियों में भी वे आचार्य भिक्षु के विचारों का सफल भाष्य करते हैं। चरित्र-चित्रण चारित्र-चित्रण की दृष्टि से भिक्खु जश रसायण एक अद्भुत चरित काव्य है। इसमें आचार्य भिक्षु के चरित्र को जिस प्रकर्ष भाव से उत्कीर्ण किया गया है वह तो है ही, पर प्रसंग-प्रसंग पर अन्य चरित्र-चित्रों का रंगकर्म भी अत्यंत चित्ताकर्षक है। भिक्ख जश रसायण का तीसरा खंड इस सत्य का साक्षात् साक्ष्य है। आचार्य भिक्षु अपने शिष्यों के साथ इतने एकात्म/एकरस थे कि उनमें द्वैत जैसा कुछ लगता ही नहीं। बल्कि उनमें परस्पर पूरकता का अहसास होता है। इसीलिए जयाचार्य ने उनके समय के एक-एक साधु-साध्वी के जीवन चरित को भिक्खु जश रसायण में समेट लिया। इससे इतिहास की तो सुरक्षा हुई ही है, अणु भी विराट के साथ जुड़ कर अमर हो गया। अपने पात्रों के चरित्र को सजीवता से प्रस्तुत करने की कला जयाचार्य ने जैन-आगम ग्रंथों तथा आचार्य भिक्षु से ग्रहण की है। उदाहरण के लिए हम विनीत अविनीत के चरित्र-चित्रण को देखें। इस संदर्भ में वे पूरा एक प्रलम (Poorvita Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत लिख देते हैं। यद्यपि इस वर्णन में आचार्य भिक्षु की वर्णन शैली को पहचानने में बहुत कठिनाई नहीं होगी, परन्तु उस अपार साहित्य ग्रंथ में से बूंद-बूंद को ढूंढकर एक सरित् प्रवाह बहा देना जयाचार्य का अपना एक कमाल है। आचार्य भिक्षु का संदर्भ देकर वे कहते हैं स्वामभिक्खु बुद्धि सागरु, निर्भल मेल्या न्याय सुविनीत सुण हर्षे सही, अविनीत ने न सुहाय अविनीत साधु ऊपरै, दीधो स्वाम दृष्टन्त एक साहूकार नीं स्त्री, पाणी काजै गई घर खंत तो माथै पाणी स्यूं भर्यो पोता रे घर आवतां पेख मार्ग में तिणरी बाहिली मिली, बातां करवा लागी विशेष एक घड़ी तांई तो उभा थकां हिल-मिल बातां करी हर्षाय पछै घर आवी निज पिउ भणी, तिण हेलो पाड्यो ताय तुर्त घड़ो उतारो मुझ सिर तणु, जो किंचित बेला थी भरतार बेहडो उतार्यो निज बेरनों, तो क्रोध में आवी अपार कहै म्हारै माथै तो बेहड़ो उदक नो, सो हुं भारां मुंई घणी सोय थनै तो मूल सूझै नहीं, जिणसूं बेला इतरी लगाई जोय संसार तणै लेखै सही, नार इसडी अविनीत रस्तै एक घडी बेहडो छतां, पोते बातां करी धर प्रीत किंचित जेज पिउ करी, तडका - भडका करवा लागी तांम इसडी अजोग ते स्त्री, अवनीत जग कहै आंम अवनीत साधु एहवो, गोचरियादिक माहि किण ही बाइ-भाई स्यूं बातां करै, एक घडी तांई उभा ताहि अथवा दर्शन देवा कोई भणी, झट चलाई नैं परहो जाय तिहां उभां घणी वेलां लगै, बातां करै बणाय बडा थोड़ोई काम भळावियां, करतां कठमठाठ करै जेह तथा पाणी राख्यो ते लेवा मेलियां, टाला टोलो कर देवै तेह अथवा जातो दोहरो हुवै, बलै देवै मुंह बिगाड गुरु सीख दियै चूक थी पड्यो, तो करै उलटो फुंकार अवनीत साधु नै दीधी उपमा, अवनीत स्त्री नी भिक्खु आम इम सांभल उत्तमां नरां, थिर चित्त सुविनय थाप (४१/१ से १३) (xxxxviii) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनीत अविनीत की प्रकृति-चित्रण के प्रलम्ब प्रसंग का यह एक लघु अंश है। इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि जयाचार्य की चरित्र-चित्रण की क्षमता कितनी बेजोड़ थी। इससे आचार्य भिक्षु और जयाचार्य की रचनाधर्मिता में एक आश्चर्यकारी साम्य के भी दर्शन होते हैं। तेरापंथ और भिक्खु जश रसायण तेरापंथ धर्मसंघ के लिए आचार्य भिक्षु एक ऐसे प्रेरणा-स्रोत हैं कि उन्हें पढ़ना हर तेरापंथी के लिए अनिवार्य है। इस दृष्टि से भिक्खु जश रसायण का पठन-पाठन निरंतर होते रहना स्वाभाविक है। पर इस वर्ष को जब भिक्षु चेतना वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है तो आचार्य भिक्षु को पढ़ना-पढ़ाना और भी आवश्यक हो गया। यों आचार्य भिक्षु को पढ़ने के लिए आज अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, पर मूल स्रोत के रूप में खोजा जाये तो भिक्खु जश रसायण का नाम पहला आता है। इसलिए इस ग्रंथ का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता आचार्यश्री तुलसी एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस वर्ष जिन पांच ग्रंथों के स्वाध्याय का विशेष निर्देश दिया है, उसमें भिक्खु जश रसायण भी एक है। इसलिए यह आवश्यक था कि इस ग्रंथ का सुसम्पादन किया जाये। गुरुदेव का निर्देश रहा कि यह काम हम करें। हमारा यह सौभाग्य था कि हमें यह अवसर प्रदान किया गया। अतः हमने तत्काल कार्य शुरु कर दिया। पांडुलिपि एवं मुद्रित प्रति भिक्खु जश रसायण की अनेक प्रतियां-पांडुलिपियां संघ के भंडार में उपलब्ध हैं। जयाचार्य ने इसकी रचना १९०८ में की थी। उन्होंने इसे स्वयं अपने हाथ से लिखा, वह पांडुलिपि भी संघीय भंडार में उपलब्ध है। इसकी सर्वाधिक प्राचीन मुद्रित प्रति वर्धमान ग्रंथागार जैन विश्व भारती से उपलब्ध हुई। वह सं. १९४३ में राज भक्त प्रिंटिंग प्रेस बम्बई में छपी हुई है। प्रकाशक का नाम खेतसी जीवराज लिखा हुआ है। प्राप्ति स्थान भीमजी सामजी नु नवो मारो, बीजे दादरे बताया गया है, सहयोगियों की भी एक लम्बी लिस्ट छपी है। वास्तव में ये लोग कौन थे यह एक खोज का विषय है। उस समय विचार-प्रचार की ऐसी दृष्टि (rooxix) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , जगह ही दुर्लभ थी। यद्यपि यह मुद्रित प्रति काफी पुरानी है, पर इसमें लिपिगत अशुद्धियों की भी भरमार है। टाईटल पेज पर ही 'श्री भिक्खु जश रसायण' की " भीखु जे जस र्णायण" लिखा गया है। अन्दर भी अशुद्धियां भरी पड़ी हैं। फिर भी यह आश्चर्य की बात है कि उस प्रति के मुद्रण- प्रकाशन में लोंकाशाह तथा मंदिरमार्गी लोगों-संस्थानों का भी सहयोग रहा है। सद्विचार के प्रकाशन में सहभागिता का इसे एक रचनात्मक उदाहरण कहा जा सकता है। उसके बाद भीनासर, गंगाशहर के कुछ श्रावकों की ओर से भी इसका मुद्रण हुआ। फिर तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर " आचार्य चरितावली" तथा जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर " तेरापंथ के तीन आचार्य " पुस्तक में भी इसका प्रकाशन हुआ है। उस का सम्पादन कई प्रतियों को मिलाकर किया गया था। पर हमने मूल पाठ के रूप में स्वयं जयाचार्य द्वारा रचना काल में लिखित मूल प्रति को ही स्वीकार किया है। ' तेरापंथ के तीन आचार्य ' पुस्तक को (क) प्रति के रूप में मानकर आवश्यक पाठ संशोधन किया है, जिसका संकेत पाद टिप्पण में किया गया है। पाठ5- संशोधन, पाठ- -भेद पाठ संशोधन एक कठिन काम है। क्योंकि समय-समय पर लिपिगत भेद होना अस्वाभाविक नहीं है। कभी-कभी एक ही शब्द के अनेक रूप भी सामने आ जाते हैं। कभी-कभी यह रूप-भेद प्रादेशिक आंचलिकताओं के कारण होता है तो कभी कभी छंदोबद्धता के कारण भी हो जाता है। काव्य शास्त्र की मान्यता रही है कि " अपि मासं मसं कुर्यात् छंदोभंगं न कारयेत्" भले ही मास शब्द की जगह मस शब्द का प्रयोग करलो पर छंदोभंग मत करो । जयाचार्य ने भी कई जगह इस काव्य-रूढि का पालन किया है। इसीलिए भिक्खु जश रसायण में कुछ लिपि भेद तथा भाषा- -भेद भी दिखाई देता है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं. चतुर पर्व परिग्रह - - - चुतर, चुत्र प्रब ग्रह्यो, प्रग्रहो (xl) परणांम इचरज परचो प्रणाम प्रचो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय चाहि परभव प्रभव सुख चित्र - चित, चत्र समझणा समजणा छेहलो - चेहलो आचार्य आचारज श्रीकार __ - सरीकार प्रणमै - - परणमै परणम ताय - ताहि मुगत - मुक्त तिसिया - तसिया चरण - चर्ण भिक्खु जश रसायण पर प्राकृत-अपभ्रंश का तो भरपूर प्रभाव है ही, पर उर्दू जैसी विदेशी भाषा का भी प्रभाव है। कहीं-कहीं उर्दू को अपने रूप में ढालने का भी प्रयत्न किया गया है। उदाहरण के लिए जवाब के स्थान पर जाब का प्रयोग किया गया है। कभी-कभी ऐसे प्रयोग को अशुद्ध मान लिया जाता है, पर वास्तव में यह अशुद्धि नहीं है अपितु राजस्थानी भाषा की उच्चारण मृदुता का एक उदाहरण है। आभार उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखकर ही पाठ संशोधन किया गया है। इसके साथ-साथ चार परिशिष्ट भी प्रस्तुत ग्रंथ में दिये जा रहे हैं। आशा है इससे इस ग्रंथ रत्न का अवगाहन करने में पाठकों को विशेष सुविधा रहेगी। नई प्रेरणा : नया चिंतन अपनी अनगिन व्यस्तताओं के बीच भी परमाराध्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने हमारा जितना मार्ग-दर्शन किया बल्कि स्वयं जितना समय और श्रम दिया, वह अवर्णनीय है। आचार्यश्री ने स्वयं एक-एक अक्षर को अपनी नजर से निकाला तथा रागिनियों की पद-संयोजना का अवधानपूर्वक निरीक्षण किया। यदि ऐसा नहीं होता तो कुछ चिंतनीय बिंदु रह ही जाते। आचार्यश्री की यह सजगता बहुत बड़ी प्रेरणा देती है। हम उनकी इस अयाचित कृपा के लिए श्रद्धा से आनत हैं। उनकी सूझ बूझ ही इस सारे प्रयास की आधार शिला है। साहित्य के संदर्भ में आचार्यश्री का चिंतन सतत चलता ही रहता है। आपके मन में यह भी विचार आया कि जब हमारा राजस्थानी भाषा का इतना विपुल (xli) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मौलिक साहित्य है तो क्यों नहीं सारे ही साहित्य का नये आधुनिक वैज्ञानिक ढंग से सम्पादन किया जाए। इस चिंतन ने एक नई दिशा प्रदान की और 'तेरापंथ का राजस्थानी वाङ्मय' के नाम से पूरी ग्रंथमाला की योजना प्रस्फुरित हुई। इस ग्रंथमाला का पहला विभाग 'जीवन दर्शन' से सम्बन्धित है तथा 'जीवन दर्शन के अन्तर्गत 'भिक्खु जश रसायण' एक शिरमौर ग्रंथ है अतः स्वतः ही "तेरापंथ" का राजस्थानी वाङ्मय में इसे प्रथम स्थान प्राप्त हो गया। लघु भिक्खु जश रसायण भिक्खु जश रसायण की तरह ही जयाचार्य ने एक 'लघु भिक्खु जश रसायण' की भी रचना की है। लघु भिक्खु जश रसायण' मूल 'भिक्खु जश रसायण' के बाद की रचना है। भिक्खु जश रसायण की रचना सं. १९०८ में हुई तथा लघु भिक्खु जश रसायण की रचना सं. १९२३ में हुई। दोनों में १५ वर्षों का अन्तराल है। सम्भवतः भिक्खु जश रसायण के विस्तार में न जाने वालों के लिए ही जयाचार्य ने लघु भिक्खु जश रसायण की रचना की है। यह उनके आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धोत्कर्ष का ही परिणाम है। विषय वस्तु एक होने के कारण दोनों का वर्ण्य एक ही है पर दोनों की रचना सर्वथा भिन्न है। लघु भिक्षुजश रसायण में सबसे पहले जम्बू स्वामी से लेकरदेवर्धिगणी तक की पूरी आचार्य परम्परा का स्मरण किया गया है। तत्पश्चात् भगवान महावीर की परम्परा पर भस्मग्रह तथा धूमकेतु का उल्लेख करते हुए उसे लूंकासाह, आचार्य भिक्षु तथा मुनिश्री हेमराजजी तक जोड़ा गया है। पीठिका के रूप में काल-गणना का यह उठेंकन शोध की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ___पांच ढालों-दोहों के इस जीवन-चरित्र में आचार्य भिक्षु पर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला गया है। भिक्खु जश रसायण की तरह ही लघु भिक्खु जस रसायण का रचना कौशल भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संक्षेप में सबकुछ कह देना ही इसकी विशेषता है। इसीलिए लघु भिक्खु जश रसायण को भी भिक्खु जश रसायण के साथ जोड़ दिया गया। भिक्खु-चरित (१) मुनि- हेमराजजी आचार्य भिक्षु एक महान साधक पुरुष थे। उनकी साधना ने अनेकानेक लोगों को बहुत गहराई से प्रभावित किया था। यही कारण है आचार्य भिक्षु को (xlii) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना स्तुति अभिषेक प्राप्त हुआ उतना शायद बहुत कम आचार्यों को प्राप्त होता है। जयाचार्य ने तो 'भिक्खु जश रसायण' के रूप में पूरा काव्य उनपर लिखा ही है, इससे पूर्व मुनि हेमराजजी एवं मुनि वेणीरामजी ने भी " भिक्खु चरित" नाम से दो स्वतंत्र चरित्र - काव्य लिखे हैं पर प्रत्यक्षानुभूति तथा भिक्खु जश रसायण के लिए सामग्री-स्रोत होने के कारण इनका महत्त्व भी असंदिग्ध है। दोनों भिक्खु चरितों की अपनी कुछ विशेषताएं हैं तो चरित - नायक होने के कारण कुछ समानताएं भी हैं । विशेषताएं जहां उनके रचना - कौशल को अभिव्यक्त करती हैं वहां समानताएं संवादिता के पुष्ट प्रमाण हैं । दृश्य एक होने बावजूद भी द्रष्टा की अपनी आंखें अलग-अलग होती हैं। मुनिश्री हेमराजजी आचार्य भिक्षु के बुद्धि-कौशल से अत्यंत प्रभावित थे अतः उनकी रचना में आचार्य भिक्षु के बुद्धि चातुर्य के चित्र बड़ी अभिरामता से उभरे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आचार्य भिक्षु साधना के अभ्रंकष शिखर थे पर उनकी बौद्धिक क्षमता भी अपूर्व थी। इसीलिए मुनिश्री हेमराजजी उत्पत्तिया बुद्धि के हवाले से अपनी रचना में उसी विशेषता को बार-बार उजागर करते हैं। नौ ढालों और दोहों के इस चरित का पौर-पौर भक्ति रस से पूर्णत: संभृत है। आचार्य भिक्षु लोकरुचि के एक पारखी संगीतज्ञ थे अत: उनका शिष्य वर्ग भी उससे प्रभावित हो, यह स्वाभाविक था । यही कारण है कि दोनों ही भिक्खुचरित गेय विद्या में लिखे गए हैं। इन जीवन-चरितों में राजस्थानी की उच्चारण- मृदुता के भी स्थान-स्थान पर दर्शन होते हैं। प्रकृति के स्थान पर 'परकत' मेरु के स्थान 'मेर', ऋषि के स्थान पर 'रिष' (ख) आदि प्रयोग इसके स्पष्ट उदाहरण हैं । राजस्थानी की भाषा - परम्परा को भी इन चरितों में बड़े अच्छे रूप में प्रतिबिम्बित किया गया है। आचार्य भिक्षु के मां-बाप को दीपांदे और बल्लूशा के सम्बोधन से अभिहित करना उसी परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण संकेत है। इस तरह की अनेक दृष्टियों से यह लघु जीवन चरित अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भिक्खु चरित (२) मुनि वेणीरामजी मुनिश्री वेणीरामजी का १३ ढालों-दोहों का भिक्खु - चरित भी आचार्य (xliii) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु को एक अत्यंत सशक्त भक्ति प्रणाम है। पूरे काव्य में आचार्य भिक्षु के आगम-पुरुष को एक शलाका-पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। बल्कि इसकी चौथी ढाल को भिक्खु जश रसायण में ज्यों की त्यों उद्धृत कर जयाचार्य एक प्रकार से इसके महत्त्व को और भी अधिक बढ़ा दिया है। वास्तव में ही मुनिश्री वैणीरामजी का कवि-कर्म अत्यंत प्राञ्ञल है। यों तो इतिहास जीवन-चरितों का संवाहक तत्त्व होता है, अत: उनमें प्रमुख व्यक्तियों का उल्लेख अवश्यंभावी है। मुनिश्री ने घटनाओं के साथ जुड़े हुए जीवणजी आछा (९/११) जेतोजी (१०/६) गुलोजी लूणिया (१०/१०) जैसे अल्प परिचित व्यक्तियों का नामोल्लेख कर इस जीवन-चरित की व्यापकता एवं सूक्ष्मग्राहिता को अतिशय प्रामाणिक बना दिया है। यह एक ऐसी विरल विशेषता है जिसका मूल्य इतिहास का विद्यार्थी ही समझ सकता है। राजस्थान के प्राकृतिक परिवेश को आंकने का भी मुनिश्री का अपना एक अद्भुत अंदाज है। छठी ढाल की पांचवी गाथा में' चौथज आई चांदणी' का प्रयोग इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राजस्थानी जीवन में रात को चांदणी कहने के पीछे यहां की प्राकृतिक सुषमा की जो अभिव्यक्ति है, उसे वही व्यक्ति व्यक्त कर सकता है जो उसे भोगा हुआ होता है। निश्चय ही पूरा काव्य इस तरह की महत्त्वपूर्ण संवेदनाओं से भरा पड़ा है। मुनिश्री वेणीरामजी एक मेवाड़ी संत थे, अतः उनकी भाषा में मेवाड़ी मृदुता को बहुत स्पष्टता से अनुभव किया जा सकता है। विशेष को 'वसेख ' (१/६) कूट को 'कूर' (६/६) गुरु को 'गुर' (२/२) वचन को 'बेण' (११/ ६) कृपा को 'किरपा' (१२/८) मरुधर को 'मुरधर' (२/२) आदि शब्द प्रयोग मेवाड़ी भाषा का उच्चारण-मृदुता के बहुत बड़े साक्ष्य हैं। यों तो पूरी राजस्थानी भाषा की उच्चारण ही अत्यंत मृदु है, पर मेवाड़ी भाषा की मृदुता का अपना एक अलग ही मिठास है। मुनिश्री वैणीरामजी उसे अभिव्यक्त करने में अत्यंत सफल रहे हैं। इन सारी विशेषताओं के कारण इन दोनों भिक्खु - चरितों को भी प्रस्तुत संग्रह में शामिल कर लिया गया है। 6 (xliv) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ-रत्न के सम्पादन के साथ जुड़ना हमारे लिए एक परम सौभाग्य की बात है। इसके लिए आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री की कृपा ही सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है। उनके प्रति जितना भी आभार ज्ञापित किया जाय वह थोड़ा ही है। ___ मुनि श्रेयांसकुमार जी,मुनि मृत्युंजयकुमार जी, मुनि चैतन्य कुमार जी आदि का भी हमें समय-समय पर सहयोग प्राप्त हुआ और हम 'भिक्षु चेतना वर्ष' में अपने आद्य आचार्य के चरणों में अपनी श्रद्धा समर्पित कर सके, यह हमारे लिए अत्यंत प्रसन्नता की बात है। बीदासर मुनि मधुकर मर्यादा महोत्सव मुनि सुखलाल २०४९ (xiv) Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु जश रसायण (जयाचार्य द्वारा रचित आचार्यश्री भिक्षु का जीवन चरित्र) Page #49 --------------------------------------------------------------------------  Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खंड दूहा १. सिद्ध साधु प्रणमी सखर, आंणी अधिक उलास। सुखदायक आखू' सरस, वारू __'भिक्खु-विलास'॥ २. गुणवंत नां गुण गावतां, उत्कृष्ट रसांणरे आय। पद तीर्थंकर पामीय, कह्यौ सुज्ञाता माय।। ३. सासण वीर तण समण, कह्या अधिक अधिकाय। गुण बुद्धि तप अरु ज्ञान करि, चउदश सहस सुहाय।। ४. सर्वज्ञ जिन मुनि सप्त सय, अवधि तेर सय आण। मनपज्जव सय पंच मुनि, चिउं सय वादी पिछांण। ५. पूरवधर त्रिण सय पवर, वैक्र सप्त सय वाध। समणी सहंस छतीस सुध, चउदश सय निरुपाध।। ६. सुधर्म जंबू तलक सिव, अन्य मुनि अमर-विमाण। हिवडां पंचम काळ मैं, भिक्खू प्रगट्या भांण॥ ७. चतुर्थ आरा नां मुनि, नयणां देख्या नाय। धिन-धिन भिक्खू चरण - धर, प्रत्यख दर्शण पाय॥ ८. किहां उपनां, जनम्यां किहां, परभव पद किहां पाय। किया चौमासा किण विधै, सांभळजो सुखदाय।। ९. चिऊ सय सत्तर वर्ष लगै, नंदीवर्धन निहाळ। तां पीछे विक्रम तणौं, सांप्रत संवत् संभाळ।। सुतंत। ढाळ : १ (नाटक भरतादिक तणां रे) १. सकल द्वीप सिरोमणूं रे लाल, जम्बूद्वीप 'अष्टमी चंद'-कळा इसौरे'लाल, भरतखेत्र सुलकंत॥ भव जीवां रे! रूडौ लागै भीक्खू ऋषराय, भव जीवां रे! रूड़ौ लागै स्वाम सुखदाय ॥ध्रुवपद।। १. कहता हूं। ४. तक। २. रसायण (क)। ५. अर्ध चन्द्राकार। ३. णायाधम्मकहाओ-श्रुतस्कंध ६. भलकंत (क)। १ अ.८ सूत्र १८ ७. अच्छा । भिक्खु जश रसायण : ढा.१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. बतीस सहंस देशां मझै रे लाल, 'नरधाम मरुधर देश'। कठैर नगर कंटाळीयौ रे लाल, कमधज राज करेश। भवजीवां रे। ३. साह बलूजी तिहां बसै रे लाल, ओसवंस अवसंत। जाति संकलेचा जांणजो रे लाल, बड़े-साजन सुप्रसंस॥ भवजीवां रे। ४. दीपांदे तसुं भारज्या रे लाल, सरल भद्र सुखकार। उदरे भिक्खू ऊपना रे लाल, देख्यौ सुपन उदार॥ भवजीवां रे। ५. मृगपति महा महिमानिलौ रे लाल, पुनवंत सुत सुपसाय। सफल सुपन सुखदायकौ रे लाल, देखी हरखी माय॥ भवजीवां रे। ६. जशधारी सुत जनमीयौ रे लाल, अनुक्रम अवसर आय। संवत सतरैसे तयांसियै रे लाल, पंचांग लेखै ताय।। भवजीवां रे। ७. आषाढ़ सुदि' पख ओपतौ रे लाल, तेरस तिथ जणाय। 'सर्वसिद्धा' त्रयोदशी रे लाल, कहै जगत मैं वाय॥ भवजीवां रे। ८. दसां मांहिलौ दीपतो रे लाल, नक्षत्र मूल११ निहाळ। पायो चउथौ परवरौ रे लाल, जनम थयौ तिण काळ॥ भवजीवां रे। ९. जनम-किल्यांण थयां पछै रे लाल, बालभाव मूंकाय। उत्पत्तिया बुद्धि अति घणी रे लाल, विविध मेलवै न्याय॥ भवजीवां रे। १०.सुन्दर इक'२ परण्या सही रे लाल, सुखदाई सुविनीत। भीक्खू नै परभव तणी रे लाल, चिंता अधिकी चीत३॥ भवजीवां रे। ११. केता दिन गछवास्यां कनै रे लाल, जाता कुळ-गुरु जांण। पाछै पोत्याबंध कनै रे लाल, सुणवा लागा बखाण।। भवजीवां रे। १. झाड़ी बंको झाबुओ, वचन बंको कुशलेश। ६. वीसा (ओसवाल) बड़े साजन तथा नारी बंकी पूगल तणी, नर बंको मरुधर देश॥ दसा (ओसवाल) ल्होड़ा साजन कहलाते (एक प्रचलित उक्ति) २. अरावलि पर्वत की उपत्यका के कुछ क्षेत्रों ७. पुन्यवंत (क)। का समूह--(मारवाड़ जंक्सन, सोजत रोड से ८. जनमियो (क)। कोट तक, सिरियारी, जोजावर, खिंवाड़ा से ९. सुदी (क)। सिंवास तक का प्रदेश) 'कांठा कहलाता है। १०. में (क)। ३. कांठा में 'कंटाळियो' आडवाण में बाली। ११. मूल (क)। गोढवाल में घाणेराव, मारवाड़ में पाली॥ १२. सुन्दरी/धर्मपत्नी-सुगनीबाई। (एक प्रचलित उक्ति) १३. चित्त में। ४. राठौडवंशीय क्षत्रिय। १४. एक संप्रदाय। ५. सकलेचा (क)। भिक्खु जश रसायण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. पछै धार्या रुघनाथजी रे लाल, ते हिवडां' संजम सरधै नहीं रे लाल, १३. काळ कितौक बीतां पछै रे लाल, भीक्खू नै तसुं भारज्या रे लाल, १४ . लेवां संजम त्यां लगै रे लाल, अभिग्रह एहवौ आदर्यौ रे लाल, १५. तठा पछै त्रिया तणौ रे लाल, वर सगपण मिलता बहु रे लाल, १६. दिख्या' नै त्यारी थया रे लाल, रुघनाथजी नैं इम कह्यौ रे लाल, १७. तब बोल्या रुघनाथजी रे लाल, सीह तणी परि' गूंजसी रे लाल, १८. अनुमति मा आपी तदा रे लाल, भीक्खू दिया जननी भणी रे लाल, १९. दिख्या- महोच्छव दीपता' रे लाल, द्रव्ये चारित धारीयौ रे लाल, २०. संवत अठारै आठै' समै रे लाल, द्रव्य गुरु धार्या रुघनाथजी रे लाल, २१. प्रथम ढाळ प्रगटपण रे लाल, वल द्रव्य-दिक्षा वरणवी रे लाल, १. इस काल में । २. दीक्षा (क ) । ३. सिंह (क) । ४. पर (क ) । ५. चौदह स्वप्न १ ऐरावत हाथी २ धोरी वृषभ ३ शार्दूल सिंह ४ लक्ष्मी ५ युगलपुष्पमाला ६ पूर्ण चन्द्रमा ७ सूर्य ८ इन्द्र ध्वज ९ पूर्ण भिक्खु जश रसायण : ढा. १ छोड्या पोत्याबंध | सधै सामाय संध॥ भवजीवां रे । सील आदरियौ सार। अवधार। चारित्र नीं चित धार ॥ भवजीवां रे । एकांतर विरक्तपर्णं सुविचार || भवजीवां रे । पड़ीयौ तांम विजोग । भीक्खु न बंछ्या भोग ॥ भवजीवां रे । अनुमति न दियै माय। म्हैं सीह सुपन देखाय ॥ भवजीवां रे । सांभळ बाई वाय। ए सुपनौं छै चवदां' माय ॥ भवजीवां रे । 'सहंस रोकड़ उनमान। चारित लेवा ध्यान ॥ भवजीवां रे । बगड़ी सैर वखाण। भावे चरण म जाण ॥ भवजीवां रे । घर छोड्यौ विष जाण । पिणं नाई धर्म नीं छांण ॥ भवजीवां रे । कौ भीक्खू नौं जन्म किल्याण | वारू आगै वखांण ॥ भवजीवां रे । कलश १० पद्म सरोवर ११ क्षीर सागर १२ देव विमान १३ रन राशि १४ निर्धूम अग्नि । ६. एक हजार नगद रुपये। ७. दीपतो (क) । ८. मृगसर कृष्णा १२ । ५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. अल्प दिवस रै आंतरै, सीख्या सूत्र-सिद्धंत। ___तीव्र बुद्धि भीक्खू तणी, सुखदाई सोभंत॥ २. विविध समय-रस वांचतां, वारू कियौ विचार। अरिहंत वचन आलोचतां, ए असल नहीं अणगार।। ३. यां थापीता थानक आदऱ्या, आधाकर्मी अजोग। मोल लिया माहै रहै, नित्यपिंड लियै निरोग। ४. पडिलेह्यां विण रहै पड्या, पोथ्यां रा 'गंज' पेख। विण आज्ञा दिक्षा दियै, विवेक-विकळ विसेख॥ ५. उपधि-वस्त्र-पात्र अधिक, मर्यादा उपरंत। दोष थापै जांण-जांणनैं, तिण सूं औ नहि संत। ६. सरधा पिण साची नहीं, असल नहीं आचार। इण विध करै आलोचना, पिण द्रव्य-गुरु सूं अति प्यार।। ७. पूछ्यां जाब पूरौ न दै, काळ कितौ इम थाय। पीत द्रव्य-गुरु सूं परम, ते करै सोभ सवाय।। ८. पूछे बात आचार नीं, जांणै वैरागी जेह। तिण सूं पूछे वलि-वली, पिण नहीं और संदेह।। ९. पट-धारक भीक्खू प्रगट, हद आपस मैं हेत। इतलै कुण विरतंत हुऔ, सुणजोर . सहू सचेत।। ढाळ : २ (प्रभवो मन मैं चिंतवै) १. इह अवसर मेवाड़ मैं, राजनगर राजसमुद्र पासै वस्यौ, अधिका त्यां आइठांण। २. त्यां वस्ती घणी महाजना तणी, जाण सूत्रांना जेह। वंदना छोड़ी निज गुरु भणी, दिल मैं पड़ियौ संदेह।। ३. मुरधर मैं रुघनाथजी, सांभळी सहू बात। भीक्खू नैं तिहां भेजीया, संका मेटण १. ढेर। ३. अधिष्ठान/चिन्ह। २. सुणज्यो (क)। ४. ज्ञाता/जानकार। सुजांण। साख्याता भिक्खु जश रसायण Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. बुद्धिवंत विण भ्रम नां मिटै, तिण सूं थे बुद्धिवांन। जाय संका मेटौ जेहनी', इम कहि मेल्या ते स्थांन॥ ५. टोकरजी हरनाथजी, वीरभाणजी साथ। भीक्खू -शिष भारीमालजी, दिक्षा दी निज हाथ। ६. औ साथ लेई भीक्खू आवीया, राजनगर मझार। संवत अठारै पनरै समै, चौमासौ गुणकार॥ ७. चूंप२ धरी चरचा करी, भायां थी तिण वार। ते कहै बात भीक्खू भणी, आप देखौ आचार॥ ८. आधाकर्मी थानक आदऱ्या, मोल लिया प्रसीधी। . उपधि-वस्त्र-पात्र अधिक ही, आ पिण थे थाप कीधी॥ ९. जांण किवाड़ जड़ौः सदा, इत्यादिक अवलोक। म्हे वंदणा करा किण रीत सूं, थे तो थाप्या दोख। १०. द्रव्य-गुरु-नौ वैण राखवा, भीक्खू बुद्धि नां भंडार। ___अकल चुतराइ करी तदा, दीया जाब तिवार।। ११.कळा विविध 'केलवी करी', त्यांनै पगां लगाया। ते कहै संक मिटी नहिं, पिण निसुणौ मुझ वाया।। १२. आप वैरागी बुद्धिवंत छौ, आप री परतीत। तिण कारण वंदणा करां, आप जगत मैं वदीत।। १३.इम कहिनै वंदणा करी, इह अवसर माय। ___भीक्खू रै असाता वेदनी, उदय आवी अथाय॥ १४. अधिक ताव अति आकरौ, 'सीओ" दोहरौ सैहणौ। उत्तम नर 4 ते अवसरै, रूडै चित्त रैहणो॥ १५.अधम पुरष दुख ऊपनां, करै हाय-तराय। समचित वेदन नां सहै, पापे । १६. तीव्र ताप नी वेदना, भीक्खू नैं। अधिकाय। तिण अवसर मैं आवीया, एहवा अध्यवसाय॥ भराय॥ १. तेहनी (क)। २. उमंग/चाव। ३. चूलिए की कपाटों की अपेक्षा से। ४. चतुराई (क)। ५. रच कर। . . . . . - ... ६. विदित/विख्यात। ७.शीत लग कर आने वाला विषम ज्वर-- मलेरिया। भिक्खु जश रसायण : ढा. २------ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * * १७.म्हैं साचा नै तो झूठा कीया, श्री जिन वचन उठाय। . आउ आवै इह अवसरै, तौ माठी गति पाय॥ १८. द्रव्य-गुरु काम आवै कदी, तौ हिव बात विचारूं। कारण मिटीयां निर्पक्ष सूं, साचौ , मारग धारूं॥ १९. जेम सिद्धत मैं जिन कह्यौ, चूंप धरी तिम चालूं।। कांण न राखू केहनी, झट जिन मारग झालूं।। २०. एहवौ अभिग्रह आदर्यो, भीक्खू ताव मझार। उत्तम पुरष नै आवै घणो, भय परभव नौं अपार।। २१. दूजी ढाळे आवीया राजनगर सुरीत।. आंख अभ्यंतर ऊघड़ी, निरमळ धारी नीत।। TUTTI १. मान, लिहाज। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. तुरत ताव तब ऊतर्यो, विध सूं कियौ विचार। हिव साचौ मत आदरी, करूं आतम तणौ उधार।। २. रखे झूठ लागैला मो भणी, तौ करणी पकी पिछांण। इम चिंतव' सिद्धत नै, वाच्या अधिक सुजाण।। ३. जो साचां नैं झूठा कहूं, तौ परभव रै माय। ___जीभ पामणी दोहिली, विविधपणे दुख पाय॥ ४. पख राखी द्रव्य गुरु भणी, जो कहूं साचा सोय।। तौ पिण परभव नै विषै, काम कठिण अति होय॥ ५. औ दूधारौ खांडौ अछ, एहवी मन मैं धार। दोय-दोय वार सूत्रां भणी, वाच्या धर अति प्यार। ६. सूत्र विविध निरणय करी, गाढ़ी मन मैं धार। समकत' चारित बिहुं नहीं, एहवौ कीयौ विचार॥ ७. भायां नै भीक्खू कहै", थे तौ साचा सोय। ___म्हे झूठा गुरु सूं मिली, शुद्ध मग लेसां जोय॥ ८. भाया सुण हरख्या घणां, बोल्या एहवी वाय। अब म्हारी संका मिटी, दिल मैं रही न काय॥ ९. प्रतीत आप तणी हुंती, जिसी म्हारा मन माय। तिसी दिखाड़ी तुरत ही, इम कहि हरखत थाय।। ढाळ : ३ - (राणी भाखै सुण रे सूड़ा!) १. राजनगर थी कीयौ विहार, चौमासो उतरीयां सार। आवै मुरधर देश मझार रे।। मन प्यारा, भीक्खू जश रसायण सुणिजै॥ध्रुवपद।। २. साधां नै सहू बात सुणाई, सरधा-किरिया ओळखाई। ____ ते पिण' हरख्या मन माही रे।। मन प्यारा, १. ऐसा न हो कि'। ५. सम्यक्त (क)। २. चिंतवी (क)। ६. किया (क)। ३. वांच्या (क)। ७. कह्यौ (क)। ४.प्राप्त होनी। ८. पिण सुण। (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. टोकरजी सुखदाय। हरनाथजी ताय, भारीमाल घणा समझी लागा पूज रै पाय रे ॥ मन प्यारा, ४. वीरभांणजी पिण तिणवार, आदर्या भीक्खू वयण उदार । आवै सोजत सैहर मझार रे || मन प्यारा, कीया अवलोय । ५. विचै गांम नांन्हा जांणी सोय, दोय साथ सीख इण पर दीधी जोय रे ॥ मन प्यारा, ६. वीरभांणजी ७. पहिला बात सुण्यां भिड़काय, नै कहै वाय, तो या बात म करजो १० जो थे पहिला जाओ गुरु पाय । काय रे । मन प्यारा, मनखंच तौ पछै समजाया दोहरा जाय रे । मन प्यारा, ८. नेम तौ ते आपां रा गुर है, मन खंच्या 'बीभड़िया' पछै' काम न सरहै रे ॥ मन प्यारा, ९. कळा - विनय करी हूं कैहसूं', दिल श्रद्धा बेसाणी युक्ति सूं समजाई लेसूं रे || मन प्यारा, १०. स्वांमी एम त्यां नै समजाया, वीरभाणजी आगूंच रुघनाथजी सोजत पाया रे ॥ मन प्यारा, द्रव्य-गुरु ११. कर जोड़ी नै वंदना कीधी, पूछै १. कांय (क) । २. प्रथम । ३. बिखरने के बाद। बिगड़िया (क ) । हुवै मन ४. माय। समजणा दुक्कर है। देसूं। भाया री संका मेट दीधी रे ॥ मन प्यारा, १२. वीरभांणजी बोल्या वायो- भाया तौ मन संक हुवै तौ मिटायो रे । मन प्यारा, १४. वस्त्र - पातर दिख्या देवां । १३. आधाकर्मी थांनक असुद्ध आहार, विण कारण नित्यपिंड वार । आंपें भोगवां ए अणाचार रे ॥ मन प्यारा, अधिका सेवां, विण आगन्या विवेक - विकल भणी मूंड लेवां रे ॥ मन प्यारा, १५. दिन-रात्रि मैं जड़ां किवाड़ इत्यादि बहु दोष विचार । त्यांरी थाप आंपां रै धार रै || मन प्यारा, तिण मैं द्रव्य - गुरु निसुणी ए बात रे । मन प्यारा, " १६. भाया तौ कहै साची साख्यात, झूठ नहीं तिलमात । . कहस्यूं (क) । ५. साचो (क) । आया। प्रसीधी। साचा भेदज पायो । भिक्खु जश रसायण Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. द्रव्य-गुरु कहै यूं कांइ बोले, वीरभांणजी पाछौ झखोलै॥ ___ कूड़ौ' तो भीक्खू पास अतोलै रे। मन प्यारा, १८. म्हारै कनै तो वानगी२ तास, कूड़ौ-रास भीखनजी पास। इम सांभळ हुआ उदास रे।। मन प्यारा, १९. वीरभांण रै नहीं समाही, तिण सूं आगूंच बात जणाई। हिवै आया भीक्खू ऋषराई रे। मन प्यारा, २०. तंत ढाळ कही ए तीजी, वीरभाण नी बात कहीजी ऋष भीक्खू नी बात रहीजी।। मन प्यारा, १. साचो (क) ढेर (पिटारा)। २. नमूना। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १. हिव भीक्खू द्रव्य-गुरु भणी वंदै बे कर जोड़। माथै हाथ दियौ नहीं, 'चसमा देख्या और।।' २. जब भीक्खू मन जांणीयौ, आगूंच आखी बात। पहिली मनड़ी फिर गयौ, तौ पूछू साख्यात॥ ३. कर जोड़ी नै इम कहै, यूं क्यूं स्वामीनाथ? चित उदास तिण कारणे, माथै न दियौ हाथ।। ४. द्रव्य-गुरु भाखै ताहरै, संक पड़ी सुविचार। तिण सू कर शिर नां दीयौ, मन पिण फाटौ धार।। ५. वलि थारै नैं माहरै, भेळी नहीं आहार। वचन सुणी भीक्खू कहै, संक मेटौ इह वार।। ६. वलि भीखू मन चिंतवै, म्हांमैं यांमैं जांण। __ संजम समगत को नहीं, पिण हिवडां न करणी तांण। ७. प्राछित लेई एहनें, यूं प्रतीत उपजाय। पछै खप करनै समजायनै, आणूं मारग ठाय।। ८. हम चिंतव द्रव्य-गुरु भणी, बोलै एहवी संक जाणौ तौ मुझ भणी, प्राछित दौ सुखदाय॥ ९. इम प्रतीत उपजायनै, भेळौ कीयौ । आहार। हिव समजावै किण विधै, ते सुणजो विस्तार।। ढाळ:४ (हिव राणी नैं हो समझावै पंडिता धाय ) १. हिव द्रव्य-गुरु नै हो समझावै भीक्खू स्वाम, निसुणौ बात सूत्र वयण दिल सरदहौ।। २. अरि अघ हणिवै हो देव कह्या अरिहंत, गुरु . जांणौ निर्ग्रथा धर्म जिणेस्वर भाखीयौ।। ३. साची सरधा हो ए जाणौ तंत सार, पांमै तिण सूं पार। ___ आज्ञा बारै धर्म को नहीं।। वाय। अमामा १. आंखें बदली हुई लगी। भिक्खु जश रसायण Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. यां तीनू मैं हो भेळ म जांणौ लिगार, अन्तर सूत्र सीख सरधौ सही ॥ ५. और वस्तु मैं हो भेळ पड़ै जो आय, तौ पुण्य-पाप भेळा किम हुवै? ६ असुभ जोगां सूं हो बंधे पाप एकंत, सुभ सूं पुण पाप भेळा किसा जोग सूं? ७ एके करणी हो बंधै पुन्य के पाप, तिण मैं करणी तीजी जिन नां कही ॥ ८ भीक्खू भाखै हो द्रव्य - गुरु नै अवलोय, जिन वच ११ म्हैं घर छोड्या हो आतम तारण काम, ग्रही टेक नै परहरौ ॥ ९ सुध सरधा हो हाथ न आई श्रीकार, असल नहीं थाप दीसै घणा दोष री ॥ १० जो थे मांनौ हो सूतर नीं बात, तौ थेइज नहीं तर ठीक लागै नहीं । और १२ आप मांनौ हो स्वामी सूत्रांनीं बात, छोड़ ति सूं बार-बार कहूं आपनै ।। इक दिन परभव जावणौ ॥ रूड़ी पिण १३ पूजा - प्रसंसा हो लही अनंती वार, आंख १८ साची सरधा हो आदरसां सुखदाय, झूठी भिक्खु जश रसायण : ढा. ४ तब बोल्या रुघनाथजी ॥ मिश्र नहीं पुन्य देवौ दुर्लभ निरणय करौ आप एहनौं । १४ विविध विनय सूं हो आख्या वयण उदार, मान्या क्रोध करी उलटा पड़या ॥ १५ भीक्खू भारी हो स्वामी बुधि नां भंडार, मन सू ए हिवड़ां न दीसै समजता ।। १६ धीरै - धीरै हो समजावसूं धर पेम, आप तण सू आहार- पाणी तोड्यौ नहीं || करसां १७ भीक्खू भाखै हो भेळौ करां चौमास, चरचा साच - झूठ निरणय करां ॥ म्हांरा श्रद्धा सांहमौ जोय। नहीं कयौ विचारी उघाड़। देसां बिगड़ाय । बंधं । म थाप। आचार। नाथ। परिणाम | पखपात । श्रीकार । लिगार | विचार | एम। विमास । छिटकाय । १३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ म्हांरा साधां नै हो तूं लेवै फटाय, जो चौमासो भीक्खू कहै राखौ जटबाज' नै ।। - २० ते चरचा मैं हो समझै नहीं लिगार, करौ चौमासौ दुलभ सामग्री ए लही ॥ २१ इणविध कीधा हो भीक्खू अनेक उपाय, पिण नाया कर्म घणां तिण कारण ॥ २२ वले' मिलीया हो भीक्खू दूजी वार, बगड़ी सैहर आय द्रव्य - गुरु नै इम कहै | मैं करौ २३ स्वामी भूला हो सुद्ध श्रद्धा - आचार, मन विविध प्रकारै समजावीया ॥ २४ पिण नहीं मानी द्रव्य - गुरु बात लिगार, जाण लीयौ एतौ न दीसै समझता ॥ २५ निज आतम नौं हो हिव हूं करूं निस्तार, एहवी १. अनपढ़ । २ बलि (क ) । १४ आहार- पांणी तोड़ नीसरया ।। २६ चौथी ढाळे हो आख्यौ चरचा सरूप, आछी आगलि बात सुहांमणी ॥ मन भेळो ३. एहवो (क) । रीत तिण मैं थाय । श्रीकार । ठाय। मझार | विचार | वार। धार। अनूप। भिक्खु -जश रसायण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोड़ा दूहा १ थानक बारै नीसऱ्या, तड़कै आहारज जब द्रव्य-गुरु मन जांणीयौ, बात हुई अति जोर।। २ रहिवा जागां नां मिलै, तो फिर थानक आय। सेवग फिरीयौ सैहर मैं, जागा' म दीजो काय॥ ३ जो रहिवा भीक्खू भणी, जागा दीधी जांण। सर्व साथ सुणजो सही, संघ तणी छै आंण॥ ४ कड़ली कुबुधिज केलवी, आसी पाछा एम। जब भीक्ख मन जाणीयौ, करिवौ विचार केम।। ५ पुर मैं जागा ना दियै, जो फिर थांनक जाय। तौ पाछौ फंद मैं पड़े, दुखे नीसरणौ थाय।। ६ एहवी करे विचारणा, विहार कियौ तिण वार। सूरवीर सीह नी परै, न डा मूल लिगार। ७ आया बगड़ी बारणे, वावळ२ अधिक विसेख। वाजी तब पग थांभीया, भीक्खू परम विवेक।। ८ जैतसींगजी री जिहां, छत्र्यां अधिक उदार। देखीनै आया जिहां, बैठा छत्र्यां ९ पुर माहै जाण्यौ प्रगट, सुणीयौ द्रव्य-गुरु सोय। आया छत्र्यां नै विषै, साथै बौहळा' लोय॥ ढाळ : ५ (राम पूछ सुग्रीव नै रे) १ बगड़ी री छत्र्यां मझै रे, बहु लोक बोलै इम वाय। टोळौ छोड़ी मत नींकळौ रे, धीर्य धरौ मान माय।। चतुर नर भीक्खू बुद्धि नां भंडार॥ २ रुघनाथजी इसड़ी कहै रे, थे मांनौ भीखणजी वात। अबारूं आरौ पांचमों रे, नहि निभौला साख्यात॥ चतुर नर. १. जगह। ४. बहुत। २. भयंकर। ५. धीरज/धैर्य (क)। ३. आंधी। मझार॥ जश रसायण : ढा.५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ भीखू वलता भाखै भलौ रे, म्हे किम मानां तुझ बात। म्हे सूत्र बाचै निरणौ कियौ रे, संक नहीं तिलमात॥ चतुर नर. ४ तीरथ श्री जिणवर तणौ रे, छेहड़ा तांई विचार। श्री जिण आणा सिर धरी रे, सुद्ध पाळसूं संजम भार॥ चतुर नर. ५ ए वचन सुणी द्रव्य-गुरु भणी रे, तूटी आस तिवार। मोह आयौ तिण अवसरै रे, चिंता हुई अपार॥ चतुर नर. ६ 'सांमजी-ऋष'२ नौं साध थौ रे, उदैभांण कहै एम। टोळा तणा धणी बाजनै रे, आंसूपच करौ केम।। चतुर नर. ७ किणरौ एक जावै तरै रे, आवै फिकर अपार। म्हारा पांच जावै सही रे, गण मैं प. बघार ॥ चतुर नर. ८ मोह देखी द्रव्य-गुरु तणे रे, दृढ़ चित भीक्खू धार। म्हैं घर छोड्यौ तिण दिने रे, मुझ माता रोई अपार॥ चतुर नर. ९ भागळां भेळौ हूं रहूं रे, तौ परभव मैं पेख। विविधपणे रोवणौं पड़े रे, पामै दुख विसेख॥ चतुर नर. १० कठिण छाती इण विध करी रे, वारू ज्ञान विचार। सेंठा रह्या तिण अवसरै रे, उत्तम जीव उदार।। चतुर नर. ११ द्वेष सूं तुरत नर नां डिगै रे, राग दै तुरत चलाय। द्रव्य-गुरु मोह आण्यौ सही रे, पिण कारी न लागी काय॥ चतुर नर. १२ फेर बोल्या रुघनाथजी रे, जासी कितियक दूर। ___'आगै थारौ ५ नै पूढ़ माहरौ रे, लोक लगावसूं पूर॥ चतुर नर. . १३ परीसह खमण री मुझ मन मझै रे, भीक्खू भाखै विसाल। इम तौ डरायो नहीं डरूं रे, जीवणौ कितौयक काळ।। चतुर नर. १४ विहार कियौ बगड़ी थकी रे, द्रव्य-गुरु लारै देख। चरचा करी वडलू मझै रे, सांभळजो सुविसेख।। चतुर नर. ५. आगो थारो (क)। ६. पूठौ (क)। १.वापस। २. स्थानकवासी एक टोळे के आचार्य। ३. अश्रुपात। ४. भेद। १६ भिक्खु जश रसायण Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ रुघनाथजी इसड़ी कहै रे, सांभळ भीक्खू बात। ___ पूरौ साधपणौ नहीं पढ़ रे, 'दुखम-काळ' साख्यात॥ चतुर नर. १६ भीक्खू कहै इम भाखीयौ रे, सूत्र आचारांग माय। ढीला भागळ इस भाखसी रे, हिवड़ा सुद्ध न चलाय।। चतुर नर. १७ बल संघेण हीणा घणां रे, पंचम काळ प्रभाव। पूरौ आचार पळे नहीं रे, नहि उत्सर्ग प्रस्ताव।। चतुर नर. १८ आगूंच जिनजी भाखीयौ रे, इम कहिसी भेषधार। ए जाब सुणी रुघनाथजी रे, 'कष्ट हुआ' तिण वार।। चतुर नर. १९ गुरु-चेला रे हुई घणी रे, चरचा माहोमाय। संखेप मात्र कहीं इहां रे, पूरी केम कहाय॥ चतुर नर. २० द्रव्य-गुरु कहै भीक्खू भणी रे, दोय घड़ी सुभ ध्यान। चोखौ चारित पाळीयां रे, पांमैं केवळग्यांन।। चतुर नर. २१ भीक्खू कहै इण विध लहै रे, बेघड़ी केवळग्यांन। तौ दोय घड़ी ताइ रहूं रे, सासरूंधी धरूं ध्यान।। चतुर नर. २२ प्रभव, सिजंभव आदि दे रे, बे घड़ी पाळ्यौ कै नाहि? केवळ त्यांनै न ऊपनौं रे, सोच विचारौ मन माहि॥ चतुर नर. २३ चवद सहंस शिष वीर नै रे, सात सौ केवली सोय। तेर सहंस नै तीन सौ, छद्मस्थ रहिया जोय।। चतुर नर. २४ त्यांनै केवळ नहीं ऊपनौ रे, त्यां बे घड़ी पाळ्यौ कै नाय? थोरै लेखै त्यां पिण नहीं पाळीयौ रे, बे घड़ी चरण सुहाय।। चतुर नर. २५ बार बरस तेरै पखै रे, वीर रह्या छद्मस्थ । ____ थारै लेखै त्यां पिण नहीं पाळीयो रे, दोय घड़ी चारित।। चतुर नर. २६ इत्यादिक हुइ घणी रे, चरचा . माहोमाय। समजाया समजै नहीं रे, कीया अनेक उपाय॥ चतुर नर. २७ पवर ढाळ कही पंचमी रे, चरचा विविध प्रकार। हिव भीक्खू किण रीत सूं रे, करै आतम नौं उद्घार।। चतुर नर. _ चतुर नर सांभळी भीक्खू विलास।। १. आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध अध्ययन ६ २. इस समय। उद्देशा ४ सूत्र ८१ (विस्तृत वर्णन देखें बड़ा ३. निरुत्तर हो गए। टब्बा में)। ४. संक्षेप (क)। ५. श्वास (क)। भिक्ख जश रसायण : ढा.५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ द्रव्य-गुरु तौ समज्या नहीं, खप बहु कीधी ताहि। जैमलजी काका गुरु, आया त्यारै पाहि॥ २ भद्र सरल प्रकृति भली परै, जैमलजी नी जांण। भीक्खू तास भली परै, समजावै सुविहांण।। ३ जैमलजी रै युक्ति' सू, दी सरधा बैसार। . भीक्ख रै साथै भला, ते पिण होयरे गया त्यार। ४ बात सुणी रुघनाथजी, भांग्या तसुं परिणाम। 'फकीरवालौ दुपटौ हुसी", नहिं हुवै थारो नाम।। ५ बुद्धिवंत साधु-साधवी, लेसी त्यां नै लार। __लाडै-कोडै घर छोड़िया, और हुसी निराधार॥ ६ थानै रोसी सहु जणा, थे म विचारौ बात? थारै बहु परिवार छै, घणां तणां थे नाथ।। ७ थांरा साधां रा जोग सूं, हुसी भीक्खू रौ काम। टोळौ भीक्खू रौ बाजसी, थारौ न हुवै नाम। ८ इत्यादिक वचनां करी, पाड्या तसुं परिणाम। तब जैमलजी बोलीया, सुणौ भीखणजी आंम।। ९ गळा जितौ हूं कळगयौ', थे सुध पाळी सोय। 'पिंडतां रै जाणी' वर्ते', इम बोल्या अवलोय॥ ढाळ : ६ (सुण सुण रे! सीख सयाणा) १ शिष भीक्खू नां महा सुखकारी, भारीमाल सरल भद्र भारी। त्यांरौ तात किश्नौजी तास, बिहुं घर छोड्यौ भीक्खू पास।। सुण-सुण रे! सीख सयाणा, रूड़ो भीखू जश रसांणा। भीक्खू जश रस अमृत भारी, सिव संपति सुख सहचारी।। ४. भि. दृ.-फुटकर संस्मरण-पृ. २७६ । २. जुगत (क)। ५. आकंठ मग्न हो गया। ३. हो (क) ६. पंडितों से क्या छिपा है। REFEREFE= FEFFERE १. पास। भिक्खु जश रसायण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आसरै दशमैं वर्स आया, भारीमाल सरल सुखदाया। भेषधार्यां माहै ' छतां सोय, सुत तात भिक्खू शिष होय।। सुण-सुण रे! ३ त्यांरै चेला तणी छै रीत, तिण सं शिष किया धर पीत। त्यां मैं रह्या आसरै वर्स च्यार, पछै नीसरिया भीक्खू लार।। सुण-सुण रे! ४ किश्नांजीरी प्रकृत करडी जाणी, भारीमाल भणी वदै वाणी। संजम लायक नहीं तुज तात, तूं तो उत्तम जीव विख्यात।। सुण-सुण रे! ५ आंपां नवी दिख्या लेसां सोय, लागु हुंता दीसै बहु लोय। आहार-पांणी वचनादिक ताय, किश्नांजी नै दुकर इधकाय।। सुण-सुण रे! ६ तुज मन मुज पास रहवा रो, कै निज जनक कनै जायवा रो? इम पूछ्यौ भीक्खू धर पेम, भारीमाल उत्तर दीयै एम।। सुण-सुण रे! ७ म्हारै तात थकी कांई काम, हूं तो आप कनै रहैसूं तांम। संजम पाळसूं रूड़ी रीत, मोनैं आप तणी परतीत।। सुण-सुण रे! ८ किश्नांजी नै भीक्खू कहै ताम, थां तूं मूळ नहीं म्हारै काम। चारित पाळणौ दुकरकार, तिण सूं थांनै न लेवां लार। सुण-सुण रे! ९ किश्नौजी कहै मुजने न लेवो, तो म्हारौ पुत्र मोनें खूप दैवौ। सुत नैं राखतूं मुज साथ, इणने ले जावा न देवू विख्यात।। सुण-सुण रे! १० भीक्खू कहै -पुत्र ए थारौ, आवै तौ न हीं वरजां लिगारो। जब आयौ भारीमाल पास, और जागा लेइ गयौ तास॥ सुण-सुण रे! ११ भारीमाल पिता नैं भाखै, किश्नांजी री कांण नहीं राखै। थारा हाथ तणौ अनपांण, म्हारै जावजीव पचखांण।। सुण-सुण रे! १२ भारीमाल अभिग्र कीयौ भारी, दिन दोय निसरीया' तिवारी। रह्या सुरगिर- जेम सधीरा, हळुकर्मी अमोलक हीरा।। सुण-सुण रे! १३ तब बाप थाकौ तिण वार, भीक्खू नै आंण संप्या उदार। ___थासूं ईज राजी छै एह, म्हां सूं तो नहीं मूळ सनेह।। सुण-सुण रे! १. माहि (क)। २. तुझा ३. लागू (क)। छेड़छाड़ करने वाले। ४. मौनें (क)। ५. तणुं (क)। ६. अभिग्रह (प्रतिज्ञा) (क)। ७. निसरया (क)। ८. मेरु पर्वत। भिक्खु जश रसायण : ढा. ६ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ इणनै आहार-पांणी आंण दीजै, रूड़ा म्हारी पिण गति कायक' कीजै, १५ थे नहीं लीयो संजम भारो, भीक्खू सूंप्यौ जैमलजी नै आंण, १६ जैमलजी बोल्या तिवारी सूंप्या किश्नोजी म्हानै सोय, १७ किश्नौ हरख्यौ ठिकांणै हूं आयौ, भीक्खू हरख्या टलीयौ ओगालो, १८ भारीमाल रौ संकट टलीयौ, छठी ढाळे भारीमाल भारी, १. जतन (क) । २. कांइक (क) । ३. तिवारी ( क ) । २० जत्न' करी राखीजै । किण ही ठिकानें मोनै मेलीजै ॥ सुण-सुण रे ! जितरै करो ठिकांणौ म्हारौ । जैमलजी हरख्या अति जांण॥ सुण-सुण रे ! देखौ भीखणजी री बुद्धि भारी । तीनां घरां बधांवणा होय।। सुण-सुण रे ! म्है पिण हरख्या चेलौ इक पायौ । तीनां घरां वधांवणा न्हालौ॥ सुण-सुण रे ! मन बछंत कारज फलीयौ। रह्या अडिग अचल गुणधारी ॥ सुण-सुण रे ! ४. मवेशी द्वारा चरने के बाद इधर-उधर बिखरा हुआ घास-फूस । भिक्खु जश रसायण Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ हिव भीक्खू भारीमालजी, संत मनसोबौ' मोटौ चारित तेरै बैठा कियौ, २ सैर जोधाणां मैं सही, करी, सामायक-पोसा ३ 'फतैचंद सिंगी ३ चौहटै देख्या चालतां, ५ उत्तर मुझ ४ सामायक- -पोसा थानक मैं क्यूं तज थानक मन थिर कियौ, भीक्खू ऋष ६ कहै दीवांण किम बात घणी थिरता भारी घणां, परहर नींसऱ्या, वलि हुवै, जब ७ दीवांण कहै थिरता अबहि, वर्णवौ श्रावक तब आखै सकल, विवरासुध दे, सही, पायौ सुद्ध, मारग प्रगट, वारू ८ आधाकर्मी आदि हरख्यौ नौं ओहीज सिंघी सिंघी सुण ९ साधु प्रशंसै प्रकट, दीवांण १ फतेचंद श्रावक प्रत्यख सखर, कीधा नां किया? आदि दीवांण ते, वलि थे केता सही, धार्यौ सिव लेणौ श्रावक बाजार पद १. मानसिक संकल्प | २. दीवानजी का नाम 'फतेमल्लजी' होना चाहिए। जोधपुर में समानान्त नाम देने की पद्धति प्रचलित रही है। उनके वंशधरों का कथन है कि वे 'मल्लोत' (मल्लान्त) ही भिक्खु जश रसायण : ढा. ७ गुरु तब चौहटे आपै दियौ श्रावक ढाळ : ७ (सुविधि भजिये शिर नामी हो ) सुणजो धर सगळी दूर किया सहु परम to धारण भीक्खू जश सांभळौ वारू हो ।। मोटौ करै पूछा करै धर्म ., एम॥ महिमावंत | तेर फेर॥ ताहि । माहि ॥ दीपंत । पूछंत ॥ उदारू सारू केम? बात। विख्यात || दोष। थे। -- तेरापंथ इतिहास पृष्ठ ७३ ३. आपौ (क) । ४. शान्ति पूर्वक ५. विवरण सहित कुपंथ । बोलंत | खंत ॥ वारू संतोष ॥ मांण । वखांण ।। + हो । हो? हो । २१ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ श्रावक कहै-तेरै अछां, आत्म तारण हारू हो। सिंघी वलि पूछ सही, संत किता सुखकारू हो? नीका सिव नेतारू हो। भीक्खू ... ३ श्रावक कहै-तेरै सही, साधु सखर श्रधालू हो। भीक्खू समण-सिरोमणी, वर माग विसालू हो। साधण सिव पट सालू हो।। भीक्खू ... ४ सिंघी कहै - आछौ मिल्यौ, वर . योग विचारू हो। श्रावक पिण तेरै सही, तेर संत तंत सारू हो। भीक्खू बुद्धि नां भंडारू हो। भीक्खू... ५ सिंघी मुख प्रशंसा सुणी, सेवग ऊभौ सुधारू हो। ततखिण तिण जोड्यौ तुकौ तेरापंथ औ तारू हो। विस्तर्यो नाम वारू हो। भीक्खू ... दूहा सेवग-कृत साध-साध रो गिलौ करै, ते तो आप-आप रौ मंत। सुण जो रे सैहर रा लोकां! औ तेरापंथी तंत। ढाळ . (सुविधि भजिये शिर नामी हो) ६ लोक कहै तेरापंथी, भीक्ख संवली२ भावै हो। हे प्रभु! औ तेरौ पंथ है, और दाय न आवै हो। मन भर्म मिटावै हो, .. सोही तेरापंथ पावै हो। १. विशिष्ट वेप/बहुमूल्य वस्त्र २. अनुकूल रूप में। २२ भिक्खु जश रसायण Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो। ७ पंच महाव्रत पाळता, सुद्ध सुमति सुहावै हो। तीन गुप्त तीखी तरै, भल आतम भावै । चित्त तूं तेर ऐ चाहवै हो.. सोही तेरापंथ पावै हो। ८ पंथ अनैरा मैं रह्यो, तिण सूं भमण भमावै प्रभु! अब आयो तेरा पंथ में, तेरी आज्ञा सुहावै । तेह थी शिव पद आवै हो। सोही तेरापथ पावै हो ९ तेरौ वचन आगै करी, चारू धर्म चलावै हो। तेहज छै तेरापंथी थिर कीरत थावै हो। भीखू समचित भावै हो। सो ही तेरापंथ पावे हो।। १० हिंसा झूठ अदतर हरै, मिथुन परिग्र३ मिटावै हो। तीन करण तीन जोग सूं, त्याग करी तन तावै हो। वारू व्रत वसावै हो। सो ही तेरापंथ पावे हो॥ SEEEEEEEEEEEEEEEEEE 55 5 5 5 5 5 5 5 55, १. गुण विण भेप कू मूल न मानत, जीव अजीव का कीया निवेरा। पुन्य पाप कू भिन भिन जाणत, आसव कर्मा कू लैत उरेरा। आवता कर्मा नैं संवर रोकत, निर्जरा कर्मा कू दैत विखेरा। बंध तौ जीव कू बंधीया राखत, सासता सुख तौ मोख मैं डेरा। इसी घाट प्रकाश कीया, भव जीव का मेट्या मिथ्यांत अंधेरा। निर्मल ज्ञान उद्योत किया औ तौ है पंथ प्रभु तेरा ही तेरा॥१॥ तीन सौ तेसठ पाखंड जगत मैं, श्री जिन धर्म सूं सर्व अनेरा। द्रव्यलिंगी कई साध कहावत, त्यां पिण पकड्या त्यांराइज केडा। ताहि कू दूर तजै ते संत, विध सं उपदेश दीया रूडेरा। जिन आगम जोय प्रमाण कीया, जब पाखंड पंथ में पडिया विखेरा। व्रत अव्रत दांन दया वतावत, सावज्ज निरवद करत निवेरा। जिन आगन्या माहै धर्म वतावत, ऐ तौ है पंथ प्रभु तेरा ही तेरा॥२॥ -आचार्य भिक्षु २. चौर्य। ३. परिग्रह (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ इरजा भाषा एषणा, आयाणभंडनिखेवणा, १२ असुध मन नहीं 'पाडुई २ काया १३ सखर ढाळ नाम १. जयगा । २. अशुभ। २४ तेरापंथ आ रूड़ी रीत परठण जैणा सखरी सुमति सो ही तेरापंथ रखावै करावै सुहावै पावे आदरै, वच सावज वस ल्यावै परहरै, तीन गुपत तंत ल्यावै थावै थिरता पद चित सोही तेरापंथ पावे गावै आवै हो। हो। सातमीं, गुण भीक्खू नां निरमळौ, अर्थ अनूपम सखरौ सुजस सुणावै सो ही हो ॥ हो ॥ हो। हो।। हो । हो । हो ॥ तेरापंथ पावे हो ॥ हो । हो || भिक्खु जश रसायण Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ भारी बुध भीखू तणी, निरमळ मेल्या न्याय। ___अरिहंत आज्ञा थापनै, सरधा दी ओळखाय॥ २ चरचा कर त्यारी हुआ, तेर जणा तिण वार। नाम कहूं हिव तेहना, भीखू गण-सिणगार॥ ३ थिरपालजी(१) फतेहचंदजी(२), बड़ा तात सुत बेह। भीक्खू(३) आचारज(२) भला, ज्ञान कला गुण गेह।। ४ टोकरजी(४) हरनाथजी(५), भारीमाल(६) सुविनीत। सरलभद्र सुखदायका, परम पूज पीत।। ५ वीरभांणजी सातमौ७), लिखमीचंदजी(८) । लार। बखतराम(९) नै गुलाबजी(१०), दूजौ भारमल(११) धार।। ६ रूपचन्द(१२) नै पेमजी(९३), ए तेरा रा नाम। नवी दीक्षा लेवा तणा, तेरां रा परिणाम।। ७ रुघनाथजी रा पांच छै, छ जैमलजी रा जोय। दोय अन्य टोळा तणा, ए तेरैई होय।। ८ चरचा केयक बोल री, करी माहोमा तास। केइक अल्पज चरचीया, ऊपर आयौ चौमास॥ ९ चउमासा सगळां भणी, भीखू दिया भळाय। आषाढ .सुद पूनम दिनै, संजम लीजो ढाळ : ८ (सिंहल नृप कहै चंद नै) भीखू मुख सूं इम भणै, मुणिंद मोरा! चउमासो उत- जाण हो सरधा आचार 'मीढ्यां पछै', मुणिंद मोरा! भेळो कर सां आहारपाण हो। ताय।। सखर गुणां कर सोभतो ऋष भीक्खू गुणनिलो; . ' मुणिंद मोरा अधिक उजागर आप हो। ध्रुवपद।। १. दोनों। २. आचार्य (मू.)। ३. किसको कहां करना है, आदेश दे दिया। ४. जांच पड़ताल करने के बाद। भिक्खु जश रसायण : ढा. ८. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जो सरधा आचार मिली नहीं, मुणिंद मोरा! तो भेळो न करां आहार हो। इम पैहला समजाविया, मुणिंद मोरा ! आया देश मेवाड़ हो॥सखर. ३ समत' अठारै सतरै समै, मुणिंद मोरा! पंचांग लेखै पिछांण हो। आसाढ सुदि पूनम दिनै, मुणिंद मोरा! कैलवै दिख्या-किल्याण हो। सखर. ४ अरिहंत नी लेइ आगन्या, मुणिंद मोरा! पचख्या पाप अठार हो। सिद्ध साखे करी स्वामजी, मुणिंद मोरा! लीधौ संजम भार हो। सखर. ५ हरनाथजी२ हाजर हूंता, मुणिंद मोरा ! टोकरजी भीखू पास हो। परम भगता भारीमालजी, मुणिंद मोरा! पूरो ज्यारो विसवास हो। सखर. ६ सतरौतरै कैलवा मझे, मुणिंद मोरा! प्रथम चोमासौ पेख हो। देवळ अंधारी ओरी तिहां, मुणिंद मोरा! कष्ट सह्यौ सुविसेख हो। सखर. ७ हिवै चउमासौ उतर्यो, मुणिंद मोरा ! भेळा हुआ सहु आंण हो। बखतराम नै गुलाबजी, मुणिंद मोरा! काळवादी हुआ जाण हो। सखर. ८ 'नव तत'३ मैं तरक उपजी, मुणिंद मोरा! एक जीव आठ अजीव हो। जो सिद्धा में वसत पावै नहीं, मुणिंद मोरा! सरदै काल सदीव हो। सखर. ९ थिरपालजी फतेचंदजी, मुणिंद मोरा! भीखू ऋष जगभाण हो। ____टोकरजी हरनाथजी, मुणिंद मोरा! भारीमाल वहु जाण हो।। सखर. १० रू. चित भेळा रह्या, मुणिंद मोरा! वर षट संत वदीत हो। जावजीव लग जाणजो, मुणिंद मोरा! परम माहोमाहि पीत हो। सखर. ११ सात जणा भेळा नां रह्या, मुणिंद मोरा ! केयक धुर ही थी न्यार हो। कोयक पाछै न्यारौ थयौ, मुणिंद मोरा! थेट न पौहता पार हो!! सखर. १२ वर्स किता वीरभांणजी, मुणिंद मोरा ! रह्या भीक्खू रै हजूर हो। अविनय औगुण आकरौ, मुणिंद मोरा! तिण सूं निखेध नैं कीयौ दूर हो। सखर. १. संवत (क)। ३. तत्व (क)। २. उक्त गाथा में उल्लिखित नामों के अनुसार ४. वस्तु। केलवा चातुर्मासमें स्वामीजी आदिचार साधु ५. सरधै (क)। थे, परंतु ख्यात में ५ का उल्लेख मिलता है। ऐसा संभव भी है। पांचवें वीरभांणजी हो सकते हैं,क्योंकि वह पहले राजनगर चातुर्मास में तथा वि.सं. १८१७ में सुधरी में अलग हुए तब स्वामीजी के साथ थे। भिक्खु जश रसायण Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पछै सरधा पिण फिर गई, मुणिंद मोरा ! वीरभांण री विसेख हो। इन्द्रियां सावज्ज सरधनै, मुणिंद मोरा! वले दरव भाव जीव एक हो। सखर. १४ अनेक बोल ऊंधा पड्या, मुणिंद मोरा! विगड़ी अविनय थी बात हो। वर्प बतीसै गण बारै कियौ, मुणिंद मोरा ! पछै मैणां नै मुंड्या साख्यात हो॥ सखर. १५ पट रह्या तेरां माहिला, मुणिंद मोरा ! सात हुआ इम दूर हो। पिण पुन्य प्रबल भीक्खू तणा, मुणिंद मोरा! दिन-दिन चढतै नूर हो।। सखर. १६ सूरा सिंघ तणी परै, मुणिंद मोरा! सुरगिर जेम सधीर हो। अगंज२ ओजागर अति घणां, मुणिंद मोरा! विडद निभावण वीर हो।। सखर. १७ टोळो छोड़ी नै नीसऱ्या, मुणिंद मोरा! त्यांरी पिण नहीं तमाय __ग्रंथ हजारां जोड़नै, मुणिंद मोरा ! सरधा दीधी ओळखाय हो। सखर. १८ अतिसय धारी ओपता, मुणिंद मोरा ! सासण सिरमणि मोड़ हो। आचार्य इण काळ मैं, मुणिंद मोरा! अवर न एहनी जोड़ हो। सखर. १९ सावज निरवद सोधनै, मुणिंद मोरा! दान-दया ओळखाय हो। व्रत-अव्रत वर वारता, मुणिंद मोरा! भिन-भिन भेद बताय हो। सखर. २० उत्पत्तिया बुद्धि आपरी, मुणिंद मोरा ! आछी अधिक अनंप हो दृष्टंत विविधज दीपता, मुणिंद मोरा! चित चरचा अति चूंप हो। सखर. २१ ढाळ भली ए आठमी, मुणिंद मोरा ! भीक्खू गुण रा भंडार हो। उमंग करी चरण आदर्यो, मुणिंद मोरा! समण-सिरोमणि सार हो। सखर. १.रूप/तेज या चमक। २. अजेय। ३. उद्योतकर। ४. खिन्नता। ५. पद्य भिक्खु जश रसायण : ढा.८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा न्याय॥ १ स्वाम मारग साचौ लीयौ, करवा जनम किल्यांण। कुगुरु कुबुधि अति केलवी, जन भरमाया जांण। २ भागळ भेषधाऱ्या तण, ऊपनौ द्वेष अत्यंत। लोकां भणी लगावीया, विविध वचन विलपंत॥ ३ कोई संग यांरौ कीजौ मती, लाग जावैला लाळ। निन्हव छै ऐ नीकल्या, कोइ कहै जमाली गोसाळ।। ४ यां देव गुरां नै उथापीया, दान-दया नै उथाप। जीव वचावै तेह मैं, ए कहै अठारै पाप।। ५ भगू भिडकाया पुत्रां भणी, साधां मैं चूक बताय। ज्यूं भीक्खू सूं भिड़कावीया, औहीज मिलियौ ६ जिहां-जिहां भीक्खू विचरता, आगूच जोवै बाट। कह्यौ कनैं जायजो मती, थोड़ा मैं हुय जाय थाट...' ७ केइ तौ प्रश्न पूछवा, केयक देखण काज। कुगुरां रा भरमावीया, ऊंधा बोलता नांणै लाजा ८ उपसर्ग अनेक दे रह्या, वदै वचन विकराल। पिण क्षमा भीक्खू तणी, वारू अधिक विसाल।। अधिक नींत आचार नीं, अधिक सुमति उपयोग। अधिक गुप्त' गुण आगला, जशधारी सुभजोग। ढाळ : ९ (रिट्ठ नेम स्वामी तू जगनाथ अंतरयामी) भीक्खू स्वाम भारी, जगत उधारक जश धारी॥ ध्रुवपद।। १ भारी रे खिम्या गुण भीक्खू नौ भाळ, निरलोभी मुनि निर्मळ न्हाळ।। भीक्खू स्वाम. २ कपट रहित सुद्ध सरल कहाय, निरहंकार रूड़ी नरमाय। भीक्खू स्वाम. ३ लाघव कर्म उपधि वर लाज, सत्य वचन स्वामी सुख साज॥ भीक्खू स्वाम. ४ वारू रे भीक्खू नौ संजम वाह वाह, लीधौ मनुष्य जनम नों लाह॥ भीक्खू स्वाम. १. गुप्ति। भिक्खु जश रसायण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वारू रे भीक्खू नौं तप तहतीक', रूडै चित मुनि महा रमणीक।। भीक्खू स्वाम. ६ वारू रे दान मुनि नैं दे आंण, नित्य प्रति गोचरी करत प्रधांन।। भीक्खू स्वाम. ७ घोर ब्रह्म भीक्खू नौं सार, संग रहित त्रिहुं जोग श्रीकार। भीक्खू स्वाम. ८ इO धुन भीक्खू मुनिराज, जाणक चाल रह्यौ गजराज।। भीक्खू स्वाम. ९ भाषा सुमति भीक्खू नी भाल, निरवद निमल सुधा सम न्हाळ।। भीक्खू स्वाम. १० एषणा अधिक अनोपम सार, देखणहारौ पांमैं चिमत्कार।। भीक्खू स्वाम. ११ वस्त्रादि लैतां जैणा विसेख, मेलतां अति उपयोग संपेख।।भीक्खूस्वाम. १२ पंचमी सुमति भीक्खू नी पिछांण, सावचेत भीक्खू सुविहांण।। भीक्खू स्वाम. १३ मन वच काय गुप्त गुणवंत, सत दत सील दया निग्रंथा। भीक्खू स्वाम. १४ अष्ट संपदा गुण अधिकार, आचार्य भीक्खूअणगार। भीक्खूस्वाम. १५ आचार्य नां गुण सुछतीस, भीक्खू मैं सोभै निश दीस।। भीक्खू स्वाम. १६ पांच महाव्रत निर्मळ पाळंत, च्यार कषाय भीक्खू टालंत।। भीक्खू स्वाम. १७ वस करै इन्द्री पंच विचार, पंच सुमति, त्रिण गुप्त उदार।। भीक्खू स्वाम. १८ आचार पंच भीक्खू नां अमोल, वाड़ सहित ब्रह्म अधिक अतोल॥ भीक्खू स्वाम. १९ उत्पत्तिया बुद्धि भीक्खू नी उदार, ततखिण जाब दियै तंतसार।। भीक्ख स्वाम. २० अन्यमति स्वमति सुण वच सार, चित माहे पामैं चिमत्कार।। भीक्खू स्वाम. २१ वारू रे भीक्खू थांरा दृष्टंत अचर्यकारी अधिकअत्यंत॥ भीक्खूस्वाम. २२ वारू रे भीक्खू तुझ बुद्धि नां जाब, पूछतां उत्तर देवै सताब।। भीक्खू स्वाम. २३ वारू रे भीक्खू वीर्य आचार, कियौ उद्यम अधिक उदार॥ भीक्खू स्वाम. २४ वारू रे भीक्खू तुझ नीत वैराग तूं प्रगट्यौ बहु जन नै भाग॥भीक्खू स्वाम. २५ वारू रे भीक्खू तूं गिरवौ गंभीर, तूं गुणदधि कुंण पांमै तीर? भीक्खू स्वाम. २६ वारू रे भीक्खू तुझ मुद्रा ऐन, पेखत पांमै चित मैं चैंन। भीक्खू स्वाम. २७ सांवळी सूरत दीर्घ देह सुविसाल, लाल नयण गजहस्ती नी चाल।। भीक्खू स्वाम. २८ जीव घणां तिरणां इण काळ, आगूंच देख्या दीनदयाल।। भीक्खू स्वाम. २९ त्यां जीवां रै तिरण रै साज, तूं प्रगट्यौ मोटौ मुनिराज॥ भीक्खू स्वाम. ३० याद आवै भीक्खू दिन रैण, तन मन विकसावै मुझ नैंण।। भीक्खू स्वाम. ३१ 'मरणौ तेवर'२ तैं धार्यो सुद्ध माग, भर्म भंजण मुनि तूं महाभाग।। भीखू स्वाम. ३२ अनघ अथग गुण भीक्खू मझार, म्हैं संखेप कह्या सुविचार।। भीक्खू स्वाम. ३३ नवमीं ढाळ भीक्खू ऋष न्हाळ, महिमागर मोटा गुणमाळ|| भीक्खू स्वाम. १. यथार्थ ३. मृत्यु को आमंत्रित कर। २. आश्चर्यकारी भिक्खु जश रसायण : ढा. ९ २९ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ भारी गुण भीक्खू तणां, कह्या कठा लग जाय। मरण धार सुध मग लियौ, कुमीय न राखी काय।। सोरठा २ पंच वर्ष पहिछांण रे, (नित्य) अन्न पिण पूरो ना मिल्यौ। बहुल पणै वच जाण रे, घी चोपर तौ ज्यांहि रह्यौ। दूहा ३ परम दुलभ सरधा प्रगट, आखी श्री जिन आप। तीजै उत्तराधेन' तत', थिर भीक्खू चित थाप।। ४ बहुलकर्मी जीव बहु, ऊपजीया इण आर दिल मैं वेसणी दोहिली, सरधा __ महासुखकार। ५ परमपुरी धुर पगथीयौ, श्री जिन-सरधा सार। सुध सरधा समगत सही, भीक्खू कीयौ विचार।। ६ धर्म तणा धेषी घणां, लागू बौहळा लोग। समझाया समझे नहीं, अधिका मूढ अजोग।। ७ जब भीक्खू मन जांणीयौ, कर · तप करूं किल्यांण। मग नहि दीसै चालतौ, अति घन लोक अजांण॥ ८ घर छोड़ी मुझ गण मझै, संजम कुंण लै सोय? श्रावक नै वलि श्राविका, हुंता न दीसै कोय।। ९ एहवी करें आलोचना, एकंतर अवधार। आतापन वलि आदरी, संतां साथै सार॥ १० चौविहार उपवास चित, उपधि ग्रही सहु संत। आतापन लै वन मझै, तप कर तन तावंत ।। १. उत्तराध्ययन-अ. ३ गा.१। २. तत्त्व। ३. सरध्यां (क)। ४. कृत्वा (करके)। ५. तपा रहे हैं। ३० भिक्खु जश रसायण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : १० (पूजजी पधारो हो नगरी सेविया) १ थिरपालजी स्वामी फतैचंदजी, संत दोनूं सुखकार हो। महामुनि ! ___ तात-सुतन' दोनं तपसी भला, सरल भद्र सुविचार हो। महामुनि ! थे भला नै अवतरीया हो भीक्खू भरतखेत मैं| २ टोळा मैं छतां बड़ा स्वाम भीक्खू थकी, त्यां नै वड़ा राख्या भीक्खू स्वाम हो। महामुनि! ___यांनै छोटा करनै हूं बड़ो होवू, इण मैं स्यूं परमारथ ताम हो? महामुनि! थे भलां. ३. करै एकांतर भीक्खू ऋप भला, लेवै आतापन लाभ हो । महामुनि! व्रत अव्रत लोकां नै बतावता, जन हरखै सुण जाव हो। महामुनि! थे भला. ४ सरल भद्र केइ लागा समझवा, वारू केयक बुद्धिवान हो । महामुनि! ओळखणा आइ सरधा आचार नी, पायौ धर्म प्रधान हो। महामुनि! थे भला. ५ थिरपालजी फतेचंदजी इम कहै, स्वाम भीक्खू नैं सोय हो। महामुनि! क्यूं तन तोड़ौ थे तपसा करी, समझता दीसै वहु लोय हो।। महामुनि!थे भला. ६ थे बुद्धिवांन थांरी थिर बुद्धि भली, उत्पत्तिया अधिकाय हो। महामुनि! समजावौ बहु जीव सैणां भणी, निर्मळ वतावी न्याय हो।। महामुनि! थे भलां. ७ तपसा करां म्हे आत्मतारणी. अधिक पौहच नहीं और हो। महामनि! आप तरौ थे तारौ अवर नैं जाझौ बुद्धि नौं जोर हो। महामुनि! थे भलां. ८ संत बड़ां रौ वचन भीख सुणी, धार्यो धर चित धीर हो। महामुनि! न्याय विशेष बतावता निरमळा, हरख्यौ हियडौ हीर हो॥ थे भला. ९ दान-दया हद न्याय दीपावता, ओळखावता आचार हो। महामुनि! जिन वच करी प्रभु-मागजमावता, समज्या बहु नर-नार हो।। महामुनि! थे भला. १० प्रगट मेवाड़ मैं पूज पधारीया, जुक्त आचार नी जोड़ हो। महामुनि! अनुकंपा दया दांन रै ऊपरै, जोड़ां करी धर कोड़ हो। महामुनि! थे भलां. - १. पिता-पुत्र। २. सूं (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. १० Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अति उपगार करी पूज आवीया, सखर पण वर जोड़ां सुणावता, १२ ' व्रत अव्रत नै मांड' बतावता, ' श्री जिण आज्ञा मैं धर्म सरधावता, १३ जशधारी भीक्खू नौं जगत मैं, प्रबल बुद्धि गुण पुन्यनौं पोरसौर, १४ शिष भारीमाल भीक्खू पैर सोभता, भद्र प्रकृति बुद्धि पुन्य गुणे भला, १५ दसमीं ढाळे पूज दयाल नीं, देश-प्रदेश माहै जश दीपतौ १. धर्म और अधर्म को ऊपर लिखकर नये ढंग से समझाते थे। वह इस प्रकार है- धर्म व्रत में त्याग में दया में आज्ञा में हृदयपरिवर्तन में ३२ अधर्म अव्रत में भोग में हिंसा में आज्ञा बाहर बल प्रयोग या प्रलोभन में , हो । महामुनि ! मुरधर देश मझार इम करता उपगार हो । महामुनि ! थे भलां. सखरी रीत सुचंग हो । महामुनि ! सुण जन पांमैं उमंग हो। महामुनि ! थे भलां. वाध्यौ जश विख्यात हो । महामुनि ! स्वाम भीक्खू साख्यात हो।। महामुनि! थे भलां. सरल बड़ा सुविनीत हो । महामुनि ! परम पूज सूं पीत हो । महामुनि ! थे भलां. जाझी कीरत जाण हो । महामुनि ! विस्तरियौ सुविहांण' हो । महामुनि ! थे भलां. २. मंत्र शक्ति से साधित स्वर्ण पुरुष, जिसके किसी अंग को काटकर सोना प्राप्त करने पर भी पुन: वैसा का वैसा हो जाता है। ३. पास। ४. प्रभात के प्रकाश की तरह । भिक्खु जश रसायण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ साधु श्रावक-श्राविका, समणी न हुइ स्वाम रै, २ किणहिक भीक्खू नैं कह्यौ, साध श्रावक नें श्राविका, ३ तिण कारण छै तांहरै, मोदक प्रत्यख लाडू समणी विण खांडौ सही, ४ भीक्खू ऋष भाखै इसौ, पिण चौगुणी तणौ पवर, स्वाद आछी बुद्धि उत्पात सूं, उत्तर दिन के हुइ दीपती, समणी तीन बायां ५ दूहा ६ त्यारी हुइ, संजम भीक्खू ऋष भाखै भली, सुंदर ७ संजम लेवौ साथ त्रिण, पिण वियोग एक तणौ हुवां, स्यूं ८ सलेखणा करणी सही, त्यां करार पकौ इम करी, संजम ९ कुसलांजी कही, मटु इक साथै सखर वर्स तीर्थ समणी तीजी अदरावियौ साधपणौ १ सरल भद्र भल समण सिरोमणि, चरण करण धर समर्या चित्त सूं, २ खांत दांत चित शांति खरा, परम विनीत प्रीत हद पूरण, १. जिसमें चार गुणी चीनी डाली जाय। भिक्खु जश रसायण : ढा. ११ ऋष भला भरम 'लज सिव किता थारै नहीं मोटौ देख खांडौ अनूंप दीयौ तीन शीख तीनां करिवौ दोयां इम लेवा दीधौ अजबू उभय मैं सुविनीत । बीत ॥ तीन । सुचीन ॥ मांण । पिछाण ॥ लेख | संपेख॥ अनूप सद्रूप॥ साथ। ढाळ : ११ (स्वामी रायचंद राजा ) करी गाजै रे, गजब गुण ज्ञान करी गाजै । गजब गुण ज्ञान गुर भीक्खू पै अजब छटा, हद भारीमाल छाजै ॥ ध्रुवपद || साख्यात ॥ पेख। सुविशेष? तांम। स्वाम॥ ताय । सुखदाय॥ राजै । रूड़ा करम भाजै ॥ गजब गुण. थकी लाजै २ । रमणी साजै ॥ गजब गुण. २. लज्जा (लौकिक और आध्यात्मिक) । ३३ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जोड़ी गोयम - वीर जिसी, वर कार्य भुळायां बेकर जोड़ी, करत ४ परम पीत पुज सूं जळ-पय सी, कठिन वचन गुर शीख कहै तौ, उत्तराधेन छतीस अधेन, वार अनेक गुण्या विध सूं, गजब गुण ज्ञान गरब ५ शिष बाजै । वारू मुगति काजै ॥ गजब गुण. भव दधि पाजै १ समचित मुनि साजै ॥ गजब गुण. ऊभां अधिकारी । छतां धारी ॥ १३ हद वचनामृत सुण जन हरखत, नयणानंदन कुमति निकंदन, १४ हिय निरमळ हरनाथ मुनि, विनीत भारमलजी, परम धुर गुरु आज्ञा गारी रे, गजब.......... गुरु भीक्खू पै अजब छटा, हद भारीमाल भारी॥ ६ भारीमाल नै भीक्खू भाखै, सांभळ काढै खूंचणो २ ग्रहस्थ कोई, तेलौ डंड साचौ ७ भारीमाल भाखै भीक्खू नै - तब तौ तेलौ तंत खरौ, ८ झूठौ नाम लियै कोइ जन, स्यूं करिवौ ते स्वाम प्रकासौ, ९ भीक्खू कहै - जो साचौ भाखै, अणहुंतौई आळ ३ दियै तो, १० पूर्व संचित पाप उदय नौं, स्वामी नौ वच सरध कीयौ, ११ भारीमाल सुविनीत इसा भड़, पुन्य प्रबल थी भीक्खू पाया, १२ घोर घटा घन गर्जारव सी, भिन- भिन भेद भली पर भाखत, पैर भव-समुद्र के किनारे पर है। १. २. बिना गलती दोप बताना । ३. दोपारोपण। ३४ 'पद पिण धेष जगत धारी ॥ लागू अति आज्ञा तौ सुगुणा ममत वांण त्यारी ॥ कहै संचित तेला तंत कर जोड़ौ अंगीकारी ॥ दाखत निरखत मांन अधिकारी ? गजब गुण. तेल त्यारी ॥ संभारी। गजब मारी ॥ सुधा दमितारी ॥ सुखकारी। गजब गुण. सारी। प्यारीं ॥ तंत गजब गुण. लारी।* गुण. सारी। गजब गुण. सुखकारी । गजब गुण. उवारी | गजब गुण. नर-नारी । पद सूरत टोकरजी भल संत साताकारी । गजब गुण. गजब गुण. सारी ! ४. भट / सैनिक ५. न्योछावर । ६. आंतरिक शत्रुओं को जीतने वाले । भिक्खु जश रसायण Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ घर छोड़ी बहु थया मुनी, घन ज्ञान गरब गारी। समणी पिण बहु थई सयाणी, स्वाम सरण सारी॥ गजब गुण. १६ दिन-दिन भीक्खू नौ मग दीपत, सासण सिणगारी। पंचम काळ स्वाम परगटीयौ', हूं तसं बलिहारी॥ गजब गुण. १७ एकादशमी ढाळ अनोपम, वारू विस्तारी। कठा तिलक भीक्खू गुण कहियै पांमत किम पारी॥ गजब गुण. १. परगटियो (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ११ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ आगम रहिस अनूंप लहि, स्वामी भीक्खू सार। - सुद्ध सरधा सोधी सही, वलि आचार-विचार।। २ दान सुपातर' दाखीयौ, संत मुनि नैं सार। असंजती नैं आपीयां, एकंत पाप असार२॥ ३ 'भगवती अष्टमैं शतक भल', षष्टमुदेशै३ आप। असंजती नैं आहार दै, प्रभु कह्यौ एकंत पाप।। ४ दै ग्रहस्थ नैं दान ते, अनुमोदै अणगार। ___'नसीत पनरमैं निरख लौ, डंड चउमासी धार।। ५ सावज दान प्रसंसीयां, हिंस्या रो वांछणहार।। 'सूयगडाअंग' ५ सूत्र मैं, आख्यौ मुनि आचार। ६ श्रावक सामायक मझै, अधिकरण अति जांण।। 'भगवति सप्तम शतक भल', प्रथम उदेश६ पिछांण।। ७ व्यावच गृही नीं वरणवी, अणाचार आंम। 'दशवैकालिक' देखलौ, तीजै अधेन तांम॥ ८ श्रावक नों खाणौ सर्व, अव्रत अधिकार। वर्णन 'उवाइ वीसमें", वलि 'सूयगडांग'९ विचार।। ९ इत्यादिक जिनवर अखी०, सोधी भीक्खू स्वाम। वलि संक्षेपे वर्णवू, सूत्र साख सुख ठाम।। १. सुपात्रे (क)। २. प्रथम संस्करण में अठार' मुद्रित हो गया है वह गलत है। मूल प्रति में 'असार' है। ३. भगवती शतक ८ उद्देशक ६ सूत्र २४७। ४. निशीथ उद्देशक १५ सूत्र ७६। ५. सूत्रकृतांग. श्रु. १ अध्ययन ११ गा. २०। ६. भगवती. श.७ उ. १ सूत्र ४,५ ७. दशवैकालिक. अ. ३ गा. ६। ८. उववाई. सूत्र १६१। . ९. सूत्रकृतांग. श्रुत. २ अध्ययन २ सूत्र ७१। १०. कही। ३६ भिक्खु जश रसायण Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : १२ (पूज नै नमै रै सोभौ गुण करै)। १ पुत्र भगू नै परवरौ, उत्तराधेन उमंग। सुंग्यानी रे! विप्र जीमायां तमतमा, चवदमैं झयण सुचंग । सुग्यांनी रे! सरधा दुलभ देवां कही ॥ ध्रुवपद ॥ २ आद्रमुनी इम आखीयौ', 'सूगडांग छ?'६ संभाळ। सुज्ञानी रे! व्राह्मण बे सहंस जीमावीयां, नरय तणा फळ न्हाळ।। सुज्ञानी रे! सरधा ३ आनंद श्रावक लियौ अभिग्रहौ, 'सातमें अंग" श्रीकार। सुज्ञानी रे! अन्यतीर्थी नै आए॒ नहीं, असणादिक च्यारूं आहार।। सुज्ञानी रे! सरधा ४ प्रत्यख गोसाळा नै आपीया, सकडाल सेज्या संथार। सुज्ञानी रे! _ 'उपासग सातमैं ८ आखीयौ, नहीं धर्म तप लिगार।।सुज्ञानी रे! सरधा ५ दैतौ लैतौ वर्तमान देखने, मून कहीं तिण काळ। सुज्ञानी रे! 'पंचमधेन मैं परवरौ, सूयगडांग' संभाळ।।सुज्ञानीरे! सरधा ६ दुखी मृघालोढो११ देख नै, प्रभु नै गोतम पूछंत। सुज्ञानी रे! किं दच्चा-दान किसौ दीयौ 'विपाक १२ सूत्र में विरतंत।। सुज्ञानी रे! सरधा ७ भाव-शस्त्र अव्रत भाखीयौ, 'ठाणांग दसमैं ठांण ५३। सुज्ञानी रे! कोई अव्रत सेवायां धर्म कहै, जिण मारग रा अजांण।। सुज्ञानी रे! सरधा ८ नव प्रकारै पुन नींपजै, नवमा 'ठांणा'१४ मैं निहाल। सुज्ञानी रे! समचै नवूई कह्या सही, समचै मन वचन संभाळ। सुज्ञानी रे! सरधा ९ करणी धर्म अधर्म नी कही, जूजूइ१५ दोनूं सुजांण। सुज्ञानी रे! 'आचारंग चौथा अधेन'६ मैं, तीजी मिश्र री करणी म तांण।। सुज्ञानी रे! सरधा १. भगु नौं (क)। २. उत्तराध्ययन. अ. १४ गा. १२ ३. अज्झयण (क)। ४. दुर्लभ (क)। ५. आखियौ (क)। ६. सूत्रकृतांग. श्रुत. २ अ. ६ गा. ४४। ७. उपासक दशा. अ. १ सूत्र ४५। ८. उपासक दशा अ. ७ सूत्र ५१। ९. पंचम अध्ययन (क) १०. सूत्रकृतांग श्रुत. २ अ. ५ गा. ३२। ११. मृगालौढौ (क)। १२. विपाक. श्रुत. १ सूत्र ४२। १३. स्थानांग. स्था. १० सूत्र ९। १४. स्थानांग. ९ स्था. सूत्र २५। १५. अलग-अलग १६. आचारांग श्रुत. १ अ. ४ . भिक्खु जश रसायण : ढा. १२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आज्ञा माहै धर्म आखीयौ, बोलवौ युक्तौ न बार। सुज्ञानी रे! _ 'उत्कृष्टी चरचा आचारंग मैं', छठा अधेन रै दूजैविचार। सुज्ञानी रे! सरधा ११ जिन आज्ञा तणां अजाण नै, समगत दुलभ सुजांण। सुज्ञानी रे ! 'आचाराग चौथा अध्येन मैं, चौथे उद्देशे" पिछांण।। सुज्ञानी रे ! सरधा १२ उद्यम करै आज्ञा विना, आज्ञा मैं आळस आय। सुज्ञानी रे! सुगुरु कहै बै बोल होयजो मती, 'आचारंग पंच म रै छठा माय। सुज्ञानी रे! सरधा १३ आज्ञा लोपी छांदै चालै आपरै, ज्ञान रहित गुण हीण। सुज्ञानी रे! 'आचारंग दूजा अधेन मैं, छठे उद्देशे "सुचीन।।सुज्ञानी रे! सरधा १४ प्रमादी द्रव्य-लिंगी पासथा, वीर कह्या आज्ञा बार अवधार। सुज्ञानी रे! 'आचारंग चौथा अधेन" मैं, पिण धर्म न कह्यौ आज्ञा वार।। सुज्ञानी रे! सरधा १५ साधां छोड्यौ उन्मारग सर्वथा, आदर्यो मारग उदार। सुज्ञानी रे! 'आवसग चौथा अधेन'१० मैं, साधां छोड्यौ ते अधिक असार।। सुज्ञानी रे! सरधा १६ च्यार मंगल उत्तम सरणां चिहुं, केवली परूप्यौ धर्म मंगलीक। सुज्ञानी रे! एहीज उत्तम सरणौ पिण एहनौ, तत आवसग'१२ में तहतीक।। सुज्ञानी रे! सरधा १७ इत्यादिक बोल अनेक छै, आगम मैं अधिकाय। सज्ञानी रे! स्वाम भीक्खू सोध-सोध नै, आछी रीत दीया ओळखाय। सुज्ञानी रे! सरधा १८ पाखंडीया प्रभु पंथ उथापीयौ, ओलव्या४ जिन वचन अमोल। सुज्ञानी रे! भीक्खू आगम न्याय सोधी भला, प्रगट कीधी पाखंड्यां री पोल।। सुज्ञानी रे! सरधा १९ सावज दांन मैं धर्म सरधाय नै, मतिहीण न्हाखै फंद माय। सुज्ञानी रे! स्वामी सूतर५ न्याय संभाळ नै, व्रत-अव्रत दीधी बताया। सुज्ञानीरे! सरधा २० धर्म आगन्या बाहिर धार नै, भेषधाऱ्या मांड्यौ भर्म जाल। सुज्ञानी रे! थिर नींव आज्ञा भीक्खू थापन, वारू जिन वच थाप्या विसाल।। सुज्ञानी रे! सरधा १. उचित। २. बाहर। ३. आचारांग. श्रुत. १ अ. ६ उ. २ सूत्र ४८) ४. आचारांग. श्रुत. १ अ. ४ उ. ४ सूत्र ४५। ५. होज्यो (क) ६.आचारांग. श्रुत.१ अ.५ उ.६ सू. १०७-१०९। ७. आचारांग. श्रुत. १ अ. २ उ. ६ सूत्र १६६ ८. पासत्था (क)। ९. आचारांग. श्रुत. १ अ. ४। १०. आवश्यक. अध्ययन ४। ११. तंत (क) १२. आवश्यक. अध्ययन ४। १३.दिया (क)। १४. मिश्रित कर दिया। १५. सूत्र (क)। १६. भ्रम (क)। ३८ भिक्खु जश रसायण Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ आज्ञा' बारै धर्म पाखंड्यां आदर्यो, वर भीक्खू पूछ्यौ इम वाय। सुज्ञानी रे! ____ओ आज्ञा बारै धर्म किण परूपीयो, इण रो मोनै नाम बताय? सुज्ञानी रे! सरधा २२ विकल कहै म्हारी माता बांझणी, दियौ तिण रो दृष्टंत। सुज्ञानी रे! वेस्या नां पुत्र तणौ वली, खरा न्याय मेल्या धर खंत।। सुज्ञानी रे! सरधा. २३ इत्यादिक आगन्या ऊपरै, स्वामी न्याय मेल्या सुखदाय। सुज्ञानी रे! भाख्या भिन-भिन भेद भली परै, कसर न राखी काय।। सुज्ञानी रे! सरधा. २४ वारू ढाळ कही वारमी, साखां दान आज्ञा ऊपर सार। सुज्ञानी रे! . वलि सरधा तणी कहुं वारता, तिण मैं सूत्र साख तंत सार।। ज्ञानी रे! सरधा. - १. तुलनात्मक दृष्टि से देखें-जिन आज्ञा री चौपी ढाळ २। .. भिक्खु जश रसायण : ढा. १२ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा सार॥ १ पुन री करणी परवड़ी, श्री जिन आगम संध। भीक्खू तास भली परै, परगट करी प्रबंध। २ निर्जरा री करणी निमल, जिन आज्ञा मैं जाण। ते सुभ जोग निरवद त्यां, पुन्य बंध पहिछांण॥ ३ विरूइ' आज्ञा बारली, सावज्ज करणी सोय। पाप बंध तेहथी प्रकट, जिण थी पुन म सोय।। ४ सुद्ध बहिरावै साध नैं, कही निर्जरा एकंत। भगवती अष्टम शतक भल, छठे उदेश सुचिंत।। ५ सुभ लांबौ आउ सखर, तसुं बंध तीन प्रकार। हिंस्या झूठ सेवै नहीं, संत भणी दै ६ वहिरावै वंदणा करी, आहार मनोज्ञ उदार। 'भगवती पंचम शतक भल' छठे उदेश'३ विचार।। ७ वंदणा नां फळ वर्णव्या, नीच गोत खय न्हास। ऊंच गोत नौं बंध इम, 'उत्तराधेन'५ उजास।। ८ व्यावच कीधां बंध वलि, तीर्थंकर पुन तांम। गुणतीसम ज्ञानी कह्यौ 'उत्तराध्ययने आंम६॥ ९ इत्यादिक आज्ञा तिहां, पुन नों . बंध पिछांण। समय सोध भीक्खू सखर, आखी ऊजम आण।। ढाळ : १३ ___ (पुन्य नीपजै सुभ जोग सू रे लाल) १ दाखी व्यावच दश प्रकार नी रे लाल, 'ठाणांग दशमै ठांण" हो। भविकजन! प्रगट दसोइ साध पिछांणजो रे लाल, जिण सूं पुन बंध निर्जरा जांण हो । स्वामी सरधा दिखाई श्री जिन वयण सूं रे लाल।। ध्रुवपद ।। १. बुरी ४. नाश। २. भगवती. शतक ८ उ.६ सूत्र २४५। ५. उत्तराध्ययन. अ. २९ सूत्र १०। ३. भगवती. शतक ५ उ. ६ सूत्र १२७। ६. उत्तराध्ययन. अ. २९ सूत्र ४३। ७. स्थानांग स्था. १० सूत्र १७। भिक्खु जश रसायण Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कालोदाई पूछ्यौ कर जोड़नै रे लाल पाप स्थानक अठारै परहऱ्यां रे लाल, ३ सेवै पाप स्थानक अठारै सही रे लाल, सातमै शतक संभाळजो रे लाल, कर्कश' वेदनी पिण इम हिज कही रे लाल, सेव्यां अकर्कश भरत नीं परै रे लाल, 'आख्यौ ज्ञाता रे आठमा अधेन "मैं रे लाल' वीसोइ निरवद वर्णव्या रे लाल, ६ 'सूत्र विपाक " मैं सुवाहु तणी रे लाल, किं दच्चा-इण दान दीयौ किसौ रे लाल, ७ अणुकंपा सर्व जीवां री आंणीयां रे लाल, सातावेदनी तिरै बंधै सही रे लाल, ८ करणी आठ कर्मबंध नीं कहीं रे लाल, ४ ५. तिण मैं निरवद करणी पुन तणी रे लाल, ९ जैणा' सूं साधु आहार करै जिहां रे लाल, 'दशवैकालिक चौथे " देखलो रे लाल, १० 'साधु री गोचरी असावज सही रे लाल, अधेन पंचमें आखियौ रे लाल, ११ सात कर्म ढीला पाड़ै सही रे लाल, 'पहिले शतक भगोती नवमें ११ पेखलो रे लाल, १२ इत्यादिक बहु बोल अनेक छै रे लाल, तिण सूं निर्जरा हुवै पुनबंध तिहां रे लाल, १३ सावज्ज करणी आज्ञा बारै सहूर रे लाल, भीक्खू आगम न्याय सोधी भला रे लाल, १४ तंत ढाळ कही ए तेरमी रे लाल, भीक्खू ओलखाइ भांत भांत सूं रे लाल, १. भगवती. श. ७ सूत्र २२३ से २२६ । २. भगवती. श. ७ सूत्र १०७ ११२। ३. भगवती. श. ७ सूत्र १०७ से ११२ । ४. ज्ञाता श्रुत. १ अ. सूत्र १८ । ५. विपाक श्रुत. २ अ. १ सूत्र १५ । भिक्खु जश रसायण : ढा. १३ भगोती' मैं भाख्यौ भगवंत हो। भविकजन ! किल्याणकारी कर्म बंधत हो॥ भविकजन ! स्वामी. बंधै पापकर्म विकराल हो। भविकजन! दाख्यौ दसमैं उद्देशे दयाल' हो॥ भविकजन! स्वामी. अठारै पाप सेव्यां असराल हो । भविकजन ! भगवती सातमा रै छठै भाल हो। भविकजन ! स्वामी. वीस वोलां तीर्थंकर पुन बंधाय हो । भविकजन ! श्री जिन आज्ञा मैं सोभाय हो । भविकजन ! स्वामी. पूछा करी गोतम प्रभु पास हो भविकजन ! वारू निरवद करणी विमास॥ हो भविकजन! स्वामी. प्राणी नै दुख नहीं उपजाय । हो भविकजन ! 'शतक सातमैं भगोती" सुहाय ॥ हो भविकजन! स्वामी. 'भगवती आठमा रै नवमैं भेद " । हो भविकजन ! सावज पाप री करणी संवेद॥ हो भविकजन ! स्वामी. पाप न बंधै पिछांण । हो भविकजन ! इहां पिण जिण आगन्या अगवांण ॥ हो भविकजन ! स्वामी. दशवैकालिक देख। हो भविकजन ! बांणुंमी गाथा • विसेख॥ हो भविकजन ! स्वामी. सुद्ध आहार करंतां साध । हो भविकजन ! एहवा श्री जिन वचन आराध॥ हो भविकजन ! स्वामी. श्री जिन आज्ञा मैं सोय । हो भविकजन ! स्वामी ओळखाया सूत्र जोय ॥ हो भविकजन! स्वामी. प्रगट थाप्यौ पाखंड्यां पुन। हो भविकजन! ज्यां री सरधा दिखाई जबून ९३॥ हो भविकजन! स्वामी. निरवद करणी पुन री निरदोख। हो भविकजन ! मिले तिण सूं अविचल मोख॥ हो भविकजन! स्वामी. ६. भगवती श. ७ उ. ६ सूत्र ११३ से ११६ । ७. भगवती श. ८ उ. ९ सूत्र ४१९ से ४३३ ८. जयणा (क) । ९. दशवै. अ. ४ गा. ८ । १०. दशवै. अ. ५ गा. ९२ । ११. भगवती श. १ उ. ९ सूत्र ४३८ । १२. सही (क) । १३. बुरी / गलत । ४१ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सूतर मैं समचै कही, अनुकंपा अधिकार। भीक्खू तास भली परै सोध लियो तंत सार। २ जीव असंजति जेहनौ, जीवण बांछै जांण। सावज अनुकंपा सही, मोह राग महि मांण। ३ मरणौ वांछयां द्वेष महि, जीवण राग जिवार। पाप अठारां में प्रगट, भ्रमण करावै भार।। ४ मोह-राग अनुकंप मैं, आज्ञा न दियै आप। इह कारण सावज अछ, प्रगट राग है पाप।। ५ तिरणौ वांछै ते सही, श्री जिन आज्ञा सार। पाप टळावै पारकौ, ते निरवद इकतार।। . ६ निरवद कुरणा' निरमळी, सावज्ज अधिक असार। ... विविध सूत्र निरणो सखर, स्वाम . कियौ तंत सार।। ७ प्राछित आवै ते प्रगट, अरिहंत आज्ञा बार। अनुकंपा सावज अछै, वारू हीयै विचार।। ८ गाय भैंस आक थोड नौं, ऐ च्यारूंड __ज्यूं अनुकंपा जाणजो, मन मैं राखे सूध।। ९ आक दूध पीधां छतां, जुदा हुवै जीव काय। ___ ज्यूं सावज अनुकंपा कीयां, पाप कर्म बंधाय।। ढाळ : १४ (दया धर्म श्री जिनजी नी वाणी) १ अनुकंपा तस जीव री आंणी, बांधै छोडै साधू तिण वारो जी। . छोड़तां नैं अनुमोद्यां चौमासी, 'नसीत बारमैं " निरधारो जी।। स्वाम भीक्खू निरणौ कियौ सूतर सूं ॥ ध्रुवपद ॥ दूधा १. करुणा (क)। २. हियै (क)। ३. अनुकंपा री चौपाई-ढा. १ दुहा २, ३। ४. निशीथ उ. १२ सूत्र १। भिक्खु जश रसायण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ वाघ सिंह हिंसक जीव विलोकी, मार न कहै मतिवंतो जी। 'मत मार' नहि कहै राग आंणी मुनि, 'सूगडांग' इकवीस' मैं संतो जी। स्वाम. ३ वीर असंजम जीतब वरज्यौ, 'दसमें सूगडाअंग'२ दयालो जी। 'दसमैं ठाणे '२वले 'आचारंग' मैं, वारूवचन अनेक विसालो जी।स्वाम. ४ 'उत्तराधेन बावीस मैं अधेने", नेम पाछा फिरिया जीव न्हालो जी। इतला जीव हर्णै मुझ अर्थे, वारू फळ परभव न विसालो जी।। स्वाम. ५ मिथला नगरी बळती जांण नमि मुनि, सांहमौ न जोयौ सोयोजी। 'उत्तराधेन रै नवमें अधेने"५, कुरणा सावज नांणी कोयोजी॥स्वाम. ६ मनुष तिर्यंच देव माहोमाहि, विग्रह देखी विसेखो जी। जीत हार वांछणी वरजी जिन, 'दसवैकालिक सातमैं ' देखो जी॥स्वाम. ७ वायरौ विरखा सीत तावड़ौ, कळह उपद्रव रहित सुकाळो जी। बोल सातूंइ वांछणा वरज्या, 'दसमैकालिक सातमैं १० दयालो जी। स्वाम. ८ 'दूजे आचारंग अधेन दूसरे, प्रथम उद्देशै ११ सुपंथो जी। माहोमा ग्रहस्थ लड़ता देखी नैं मुनि, मार, मत मार न कहै महंतो जी।।स्वाम. ९ तीन आत्म-रिष२ तीजा ठाणां रै तीजै१३, देणौ उपदेश हिसंक देखी जी। न समझै तौ मून राखणी निरमळ, वले एकंत जाणौ विसेखी जी।। स्वाम. १० 'उत्तराधेन इकवीसमें अधेने १४, तसकर नै मारतौ देखी ताह्यौ जी। समुद्रपाल लियौ वर संजम, मोह कुरणा नांणी मन माह्यौ जी।। स्वाम. ११ समचै अनुकंपा कही ते सांभळी, लखण आग्या थकी 'मींढ लीजै १५ जी। प्रभु आज्ञा देवै तेतो निरवद प्रतख, आज्ञा नहीं ते सावध ओळखीजै जी। स्वाम. १२ अनुकंपा सुलसा री आणी, सुर हरणगमेषी सोयो जी। ___पुत्र देवकी रा मेल्या प्रत्यख, 'अंतगड़ मैं अवलोयो १६ जी।। स्वाम. १. सूत्रकृतांग श्रुत. २ अ.५ गा. ३० २. सूत्रकृतांग श्रु. १ अ. १०। ३. ठाणं ठा. १० सूत्र २३। ४. उत्तराध्ययन अ. २२ गा. १९।। ५. उत्तराध्ययन. अ. ९ गा. १२ से १६। ६. दशवैकालिक. अ.७ गा.५०। ७. कलह रहित (क्षेमं)। ८. उपद्रव रहित (शिवं)। ९. सुभिक्ष (धायं)। १०. दशवैकालिक. अ.७ गा.५१। ११. आचारांग अ. २ उ. १ सूत्र २२। १२. आत्म-रक्षक। १३. स्थानांग. स्था. ३ उ. ३ सूत्र ३४८। १४. उत्तराध्ययन. अ. २१ गा. ८ से ५०। १५. पहचान लें। १६. अंतगड वर्ग. ३ सूत्र ३६ से ४१। भिक्खु जश रसायण : ढा. १४ ४३ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ईंट उपाड़ मूंकी कृष्ण आवत, अनुकंपा पुरुष नी आंणी जी। ___ 'अंतगड़ दशा"मैं पाठ अनोपम, जिण आगन्या नहीं जाणी जी।। स्वाम. १४ 'उत्तराधन बारमें अधेने २, अनुकंपा हरकेसी नी आंणी जी। ___छात्रां नै ऊंधा पाड्या जख छळकर, प्रत्यख सावज पिछांणी जी।। स्वाम. १५ रेणादेवी री कुरणा कर जिणऋष, सांहमौ जोयौ साख्यातो जी। 'नवमै अधेन ज्ञाता'माहै न्हाळी, अनर्थ दुख उतपातो जी॥ स्वाम. १६ कोई कहै कलुण रस छै कुरणा, अणुकंपा नहीं आखी जी। ____ अनुकंपा कुरणा दया अनुक्रोस ए, कलुण रस नां नाम अमर साखी।। स्वाम. १७ 'करी नेम जीवांरी अनुकंपा, अनुक्रोस पाठ आछो जी। तिण अनुक्रोस रो अर्थ-कुरणा टीका मैं, सावज निरवद कलुण रस साचो जी।। स्वाम. १८ समक्त विण मेघ गज-भव सांप्रत, अनुकंपा सुसला री आणी जी। _ 'प्रति-संसार मनुष आयु प्रगट, प्रथम अधेन ज्ञाता मैं पिछाणी जी।। स्वाम. १९ निज गर्भ री अनुकंपा निमतै, रूड़ौ भोगव्यो धारणी रांणी जी। 'प्रथम अधेन ज्ञाता' माहे प्रतख, जिहां जिण आगन्या किम जांणी जी।। स्वाम. २० अभयकुमार नी कर अनुकंपा, दोहलौ पूर्वी धारणी रौ देवौ जी। ए पिण 'ज्ञाता रै प्रथम अधेने १०, सांप्रत सावज जांणौ स्वयमेवो जी॥स्वाम. २१ शीतल तेजू लेस्या मैहली स्वामी, अनुकंपा गोसाला री आंणी जी। . 'सूत्र भगवती पनरमैं शतके ११, वृति माहै सराग वखांणी जी॥ स्वाम. २२ 'पण्णवणा सूत्ररै छतीसमैं पद १२, लब्धि तेजू फोड्यां क्रिया लागै जी। तिणरा दोय भेद उष्ण शीतल तेजू छै, शीतल तेजू फोड़ी वीर सागै जी।। स्वाम. २३ कही साधु री हरस छेद्यां वैद नै क्रिया, नहीं साधु रै क्रिया निहाळी जी। पिण धर्मांतराय साधू रै पाडी वैद, 'भगवती सोळमा रै तीजै १३ भाळी जी।। स्वाम. १. अंतगड वर्ग. ३ सूत्र ९६, ९७। २. उत्तराध्ययन. अ. १२ गा. २४। ३. ज्ञाता. श्रुत. १ अ. ९ सूत्र ४१। ४. उत्तराध्ययन अ. २२ गा. १८। ५. सम्यक्त (क)। ६. प्रत (क)। ७. परित्त संसार। ८. ज्ञाता श्रुत. १ अ. १ सूत्र १८२। ९. ज्ञाता श्रुत. १ अ. १ सूत्र ७२। १०. ज्ञाता श्रुत. १ अ. १ सूत्र ५९। ११. भगवती शतक १५ सूत्र ६५। १२. पन्नवणा पद ३६। १३. भगवती शतक १६ सूत्र ४९। भिक्खु जश रसायण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ इत्यादिक बोल अनेकअख्या छै, समचै सूतर माहै सोयो जी। जिन आगन्या नहीं ते सावज जाणौ, आज्ञा ते निरवद अवलोयो जी।।स्वाम. २५ नेम समुद्रपाल गज नै नमि ऋष, आत्म-रिष अवधारो जी। निरवद आज्ञा माहै छै निरमळ, सावज भ्रमण संसारो जी।। स्वाम. २६ स्वाम भीक्खू इम सूतर सोधी, अनुकंपा ओळखाई जी। विविध हेतू'न्याय युक्तिबताया, कुमीय न राखी कांई जी।। स्वाम. २७ भेषधारी भर्म पाडै भौळां रै, दया मोह राग नैं दिखाई जी।' सिद्धंत रा जोर सूं भीक्खू स्वामी, असल सरधा ओळखाई जी।। स्वाम. २८ चवदमी ढाळ सुणी जन चातुर, अनुकंपा निरवद आदरजो जी। रूड़ी आसता भीक्खू नीं राखी, पाखंड मत परहरजो जी॥ स्वाम. २९ दान दया सूत्र साख दिखाई, खंड प्रथम धर खंतो जी। सूत्र नेश्राय ए ग्यांन स्वाम नौं, मतिग्यांन नौं भेद सुतंतो जी।। स्वाम. कलश जय सुजश कारण दुख विदारण, सुभग सुद्ध सुमति सारण कुमति वारण, जगत प्राकम मृगपति सखर धर चित, ग्यांन जिन मग्ग केतु हद सुहेतू, नमो धारण स्वामजी। तारण कांम जी। नेत्रे ऋष गुनी। भीक्खू महामुनि। इति श्री भिक्खु जश रसायणे प्रथमः खण्डः।। ३. प्राक्रम (क)। १. हेतु (क)। २. जुगति (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. १४ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रथम खंड बुद्धि ३ मतिग्यांन खंड पहिछांण, रचीयो दूजै गुण खांन, दृष्टंत दूहा आख्यौ दांन दया असल, खण्ड द्वितीय सोरठा सूत्र नेश्राय ४ सूत्रे कहीज जिम उत्पत्तिया महाबली, साध्यौ ४६ बुद्धि सूं मिलती बात वर, सहु ५ सूत्र साख सरधा सखर, स्वाम सूत्र तणी ने श्राय ६ च्यार बुद्धि असूत्र-नेश्राय ७ हिव असूत्र मतिज्ञान ८ केवळ पज्जवां ९ सखरो १. नंदी सूत्र ३८ । महिमानिलौ, दोय भेद सिद्धंत छै, सूत्र बात सहु, निमल भीक्खू स्वाम नों, महा साचा न्यायज सोधीया, दृष्टंत १० उत्पत्तिया बुद्धि सूं अख्या, मिलता केसी नी पर सुद्ध कथ्या, दृष्टंत सुद्ध, आगम वर सूं चिंतवी, दियै ओळखौ, नेश्राय हद, दिया महा निरमळौ, स्वाम ऊतरतौ कह्यौ, मतिग्यांन लेख पिछांणजो, सूत्र रूड़ी त सूं। कहूं दयाल ना।। भाख्यौ सिव पथ तसुं बिना २. कथा (क) । दिखाई अर्थ विविध नंदी' स्वाम त भगवती मोटो देइ न्याय अति जिनराज । साज ॥ देख। संपेख॥ सूत्र-नेश्राय । - असूत्र ने श्राय ॥ सार। उदार ॥ दृष्टंत। विरतंत || दृष्टंत। सोभंत॥ महाराज। साज ॥ मतिग्यांन। प्रधान || मुनिंद दीपंद ॥ भिक्खु जश रसायण Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : १५ (जंबू कह्यौ मान लै रे जाया! मत लै संजम भार) १ पाखंडीयां सावज परूपीयौ, त्यांनै भीखू पूछ्यौ तिण वार। सावज मैं पुन्य सरधीयौ, इक सांभळौ हेतु उदार।। स्वामी बुद्धि सागरू, वारू मेल्या न्याय विशाल। अधिक गुण आगरू, भल उत्पत्तिया बुद्धि भाल॥ध्रुवपद।। २ पांच सीरी वायौ खेत परवरौजी, चणां तणो चित धार। ____नाज पांच सौ मण चणा नीपना, तब मतौ कियौ तिण वार।। स्वामी. ३ घर माहै तौ धन आपां रै घणौ, करां दांन धर्म कहिवाय। एक जणै सौ मण चणा आपीया, बहु भिख्यास्यां नै बोलाय।। स्वामी. ४ दीया सौ मण चणा रा दूसरै, सेकाय भुंगरा सोय। त्यार गूघरी तीजै करायन, जीमाया भिखास्यां नै जोय।। स्वामी. ५ चौथे रोट्यां सौ मण चणां तणीजी, 'कढी पाखती कराय। भिख्यारी रांकादिक भणीजी, जुक्ति सूं दीया जीमाय।। स्वामी. ६ सौ मण चणा पांच मैं वोसिराविया, तिण रै हाथ लगावा रा त्याग। कहौ धर्म पुन घणौ केह नैं, सखरो उत्तर देवौ 'धर राग"। स्वामी. ७ भगवंत री आज्ञा किण भणी, कुंण आगन्या बार कहात? इम सुण उत्तर आयौ नहीं, ऐसी भीक्खू नी बुद्धि उत्पात।। स्वामी. ८ दांन ऊपर दिष्टंत' दूसरौ, स्वांम भीखू दियौ सुखदाय। हळुकर्मी सांभळ हरखै घणा, भारीकर्मी रै द्वेष भराय।। स्वामी. ९ भिख्या मांगतौ डोकरौ भम रह्यौ, अभ्यागत दुखियौ एक। धर्मात्मा भूखा नै धान दौ, विरुआ बोलै वचन विसेख।। स्वामी. १० एक जणै अनुकंपा आणने जी, सेर चणा दिया सोय। गुणग्राम भिख्यारी करै घणां, आसीस देवै अवलोय।। स्वामी. ११ आगे जाई इम बोलीयौ जी, सेर चणा दिया सेठ एक। पिण दांत नहीं कोई पीस दो, वारू छै कोई धर्मी विसेख? स्वामी. १. भि. दृ. ४४। २. भागीदार। ३. उसके साथ कढी बनाकर। ४. सताव (मू.) ५. भि. दृ. ४५। भिक्खु जश रसायण : ढा. १५ ४७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ एक बाई अनुकंपा आंणने जी, पीस दिया केहत पांण। वले आगे जाई इम बोलीयौ जी, छै कोई धर्मी पिछांण? स्वामी. १३ एक सेठ चणा सेर आपीया, पीस दिया दूजी पुनवान। ____ आटो फाकणी आवै नहीं, जिण सूं रोटी कर दो धर्म जांन।। स्वामी. १४ अनुकंपा तीजी आणने, सेर चूंन' रा फाफड़ा सोय। सिंधुरे घाल कर दीधा सही, जीमी तृप्त होय गयौ जोय।। स्वामी. १५ तृषा लागी तिण अवसरै, वले आगे जाई बोल्यो वांन। सेर चणां दीया इक सेठ जी, पीस दिया दूजी पुनवान।। स्वामी. १६ झट रोट्यां कर तीजी जीमावीयौ, अति लागी है तृपा अथाय। है धर्मातमा एहवौ, प्रांण जाता नै पांणी पाय? स्वामी. १७ चौथी बाई अनुकंपा चित धरी, पायौ त्रस सहित काचौ पांण। __कहौ धर्म घणौ हुवौ केहनै, पाछै कह्या च्यारूंइ पिछांण? स्वामी. १८ आज्ञा बारला दांन रै ऊपरै, दियौ स्वाम भीक्खू दृष्टंत। प्रत्यख कारण पाप नां जी, किण विध पुन कहंत। स्वामी. १९ हलुकर्मी सांभळ हरखै हीये, भारीकर्मा सुणे भिडेकंत। सूतर-न्याय साचा सही, धारै उत्तम पुरुष धर खंत ।। स्वामी. २० पवर ढाळ कही पनरमी, स्वामी थापी है सरधा सार। उत्पत्तिया बुद्धि ओपती वलि आगलि बहु विस्तार।। स्वामी. ३. शातिपूर्वक। १. वेसन/चने का आटा। २. लवण। सिंधो (क)। . भिक्खु जश रसायण Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ जाब सुणी बुद्धिवांन जन, चित्त. पांमै चिमत्कार। सांभळ. केयक समजीया, पाम्यां हर्ष अपार।। २ केयक वलि इण पर कहै- थे दांन दया दी उथाप। सरधा किहांई । ना सुणी, प्रतख . सरधौ पाप। ३ भीक्खू वलता इम भणै', पजूसणां मैं पेख। आखा आटौ आदि दै, आपै नहीं असेख। ४ पर्व दिवस पन्जुसणा, धर्म तणा दिन धार। अधिक धर्म तिहां आदरै, पाप तणौ परिहार। ५ दान अनेरा नै दीयां, जाणें धर्म जिवार। कीधौ बंध किण कारणै, चिंत तूं करौ । विचार॥ ६ एह बात है आगली, परंपरा पहिछांण। कहौ ए थाप करी किणे, वारू करौ विनांण। ७ हूं तौ हिवड़ाइज हुऔ, जद तो नहीं थो जांण। जाब दीयौ अति जुगत सू, सुण हरख्या सुविहांण।। ८ सूत्र-न्याय सुद्ध-परंपरा, सखर मिलावै स्वाम। जग पूर्वधारी जिसा, औजागर अभिरांम॥ ९ अपर दान रै ऊपरे, दीधा बलि दृष्टांत। विविध न्याय वर वारता, सांभळजो चित्त शांत। 1 ढाळ : १६ (पर नारी रो संग न कीजै) १ सैहर खेरवै पधाऱ्या स्वामी, ओटौ स्याळ प्रश्न पूछ्यौ एम। श्रावक कसाइ गिणौ थे सरीखा, कहै खोटी सरधा इसडी धारां म्हे केम? स्वाम भीक्खू रा दृष्टंत सुणजो ॥ध्रुवपद।। २ स्वाम कहै-किम गिणां सरीसा? जब ते कहै-श्रावक नै दीयां पाप जांणौ। कसाइ नै दीयां पिण पाप कहौ छो, प्रतख दो→ सरीखा इण न्याय पिछांणो॥ स्वाम. १. भि. दु. १५ ३. भि. दृ. २९ २. धान। भिक्खु जश रसायण : ढा. १६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ स्वाम कहै-इम नहीं सरीखा, श्रावक कसाइ बे जूआ संपेख। ओटौ कहै--दोनूं थया सरीखा, दोयां नै दीयां पाप कहौ ते लेख।। स्वाम. ४ पूज कहै-थारी माता नै पायो, सचित पाणी री लोटी भर सोय। ___ कहौ तिण मैं थारे नींपनों कांइ? ओटो कहै-पाप छै अवलोय।। स्वाम. ५ पुनरपि स्वाम ओटा नै पूछ्यौ, पांणी लोटी भर वेस्या नै पायौ। धर्म थयो कै पाप हुवौ थांनै? ओटो कहै-तिण मैं पिण पाप थायौ। स्वाम. ६ पूज कहै-दोयां मैं पाप थाप्यौ, थांरी माता मैं वेस्या सरीखी थारै न्यायो। जो माता वेस्या नैं न गिणौ सरीखी तौ, श्रावक कसाई सरीखा न थायो।स्वाम. ७ अति कष्ट थयां लोक कहै-ओटोजी, माता नै वेस्या सरीखी मांनी। चित मांहै चिमत्कार लहै चातुर, अणहुंता अवगुण धारै अग्यांनी।।स्वाम. ८ संमत' अठारै पैंताळीसै सांमी, प्रगट चौमासौ कियौ पीपार। जनक हस्तु कस्तु नौं जगु गांधी, वारू चरचा सूं सरधा चित धार।। स्वाम. ९ भेषधारी तिण नैं लागा भिड़कावा, खोटी सरधा भीखनजी री खार। एक गृहस्थ श्रावक नै बासती आपी, पाप कहै तिण माहि अपार॥ स्वाम. १० वलेकिण हीगृहस्थरी बासती चोर ले गयौ, तिण रौ पिण गृहस्थ नै पाप बतावै। श्रावक नै चोर गिणै इम सरीखो, जब जगू स्वामीजी नै पूछ्यौ प्रस्तावै।। स्वाम. ११ पूज कह्यौ उणांनैंज पूछणौ, चदर थांरी एक ले गयौ चोर। एक चदर थे श्रावक नैं आपी, जद थांनै डंड किण रौ आवै जोर? स्वाम. १२ तसकर चदर लेइ गयो तिण रौ, प्राछित मूल न सरधै संपेख। श्रावक नै दीधां रो प्राछित सरथै, जद तौ देणौज खोटौ छैहौ ज्यारै लेख।। स्वाम. १३ जाब सुणी समज्यौ, जगू गांधी, ऐसी स्वामीजी री बुद्धि उत्पात। सिद्धत री सरधा नै थापण साची, न्याय विविध मेलव्या स्वामीनाथ॥स्वाम. १४ सोळमी ढाळ मैं भीक्ख स्वामी री, ओळखाई बुद्धि सरधा उदार। श्री जिन आगन्या धारी सिर पर, सरधा दिखाय दीधी तंत सार।। स्वाम. १. भि. दृ. १६। २. हाथ से बुनी खादी, जिसे प्राचीन भापा में 'दो घटी' कहा जाता था। भिक्खु जश रसायण Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सरधै सावज दांन मैं, पुन्य मिश्र एकंत। पूछ्यां कहै मुझ मून है, केइ इसड़ौ कपट करंत।। २ पूछयां न कहै पाधरो', पुन्य मिश्र पख एक। आख्यौ हेतू ओपतौ, वारू स्वाम विसेख। ३ किण ही पुरुष पूछा करी, नार भणी पिउ नाम। थारै धणी रो नाम कुंण, स्यूं पेमौ है तांम? ४ कहै-पेमौ क्यांनै हुवै, वळि पूछ्यौ तिण वार। नाथू नाम है तेहनौ, कंत तणो अवधार? ५ कहै-नाथू क्यांनै हुवै, वळि पूछ्यौ सुविसेख। पाथू है नाम तेहनौ, तुझ पीतम संपेख? ६ कहै-पाथू क्यांनै हुवै, इम बहु नाम विचार। सागे नाम आया थकां, रहै अबोली नार।। ७ सेणौ३ जब जांणै सही, इण रा पिउ रौ नाम। एहिज छै तिण कारणै, न रही इण ठांम। ८ ज्यूं सावज दान मैं पाप है, कहै-क्यांनै है पाप? मिश्र पूछ्यां पिण इम कहै-- क्यांनैं 8 मिश्र थाप? ९ पुन पुछ्यां मून रहै, न करै तास निषेह। सेणौ जब जांणै सही, इण रै सरधा एह॥ ढाळ : १७ (प्रभवौ मन मैं चिंतवै) १ पूज भीखनजी पधारीया, वर इक गांम विमास। साध अमरसिंगजी तणा, पूज आया त्यां पास। २ प्रश्न भीक्खू सांम पूछीयो, अनुकंपा मन - आंण। मरता नै मूळा दिया, जिण मैं स्युं हुऔ जांण? REE EFFEEEEEEEEEEE १.सीधा। २. भि. दृ. ६२। ३. समझदार। ४. हुवै (क)। ५. निषेध। ६.भि. दृ. ११०। भिक्खु जश रसायण : ढा. १७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ' तामस' आंणी' ते कहै, प्रश्न जे. मिथ्याती जांणीयै, भीक्खू वाळ पूछीयौ, समकति मिथ्याती आपै ४ पूछण अथवा ५ उत्तर मूळां उत्तर तौ आपौ मती, नहि ६ तब ते बोल्या तड़क नै पूज कहै पुन पाप बिहुं, केवळ ७ दैण वाळा नै दाखीयै, पुन्य जाब न देवै जाणनै, वलि इम तब ८ केइ मूंळा खवाया मिश्र कहै, मिश्र कहै ते पापी सही, ९ केइ मूंळा खवायां पाप कहै, वलि पाप क सो पापीया, झूठा १० फिर स्वामी पूछा करी, मूंळा मानवी, जे एहनौं, जो १. गर्म होकर ५२ ऊपर आगै इसौ वलि करी, चतुर पिण मिथ्याती तौ आखौ माह पाप पाप भक्खू पूछ्यां होवै स्वामी केयक पुन क सही, जब ते बात ११ पुन कहै सोई पापीया, सुणनै सरधा पुन री दीसै सही, १२ वलि मन भीक्खू विचारीयौ, पिण सरधणहारा पुरुष नीं, १३ पूज इम चिंतव पूछीयौ, अनुकंपा कहिण वाला थिर पूछा करूं मूंळा देवै ते मनुष नैं, पुन केई सधै १४ स्वाम तणी पूछा सांभळी, वलि मन आसी जूं सरधसी, जब १५ इम चिंतव स्वामी ऊचरै, मूळा प्रगट पुन्य परूपौ नहीं, पिण १६ इत्यादिक जाब अनेक सूं, कष्ट आया ठिकांण आपण, स्वामी १७ मोटी मति महाराज नीं, वारूं जाब लियौ अति जुगत सूं, १८ सखर ढाळ कही सतरमीं, स्वाम दृष्टंत सुणी पूछै एकंत क कहै कहै बोल्या बुद्धि खवायां बोल्या होय स्वाम तीनोई नैं कह्यौ बोल्या स्वामी लियौ सरधा पुन कीया महा खवायां सूं बहु है री सूं पूछंत । भाखंत ॥ सोय । जोय ॥ जाय। न्याय? पाप । किलाप ? पिछांण? वांण॥ आंम। तांम ॥ वांण । जांण ॥ मांण । जांण ॥ विचारै। बारै ।। पापी। थापी ॥ आंण । पिछांण ॥ वांण । जांण ॥ मांण । पिछांण ॥ अधिकाय । सुखदाय ॥ विचार | अवधार ॥ अधिकार। चिमत्कार ॥ भिक्खु जश रसायण Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भीखनजी स्वामी भणी, दांन असंजति नैं दीयां, पाप किण कारण, निर्मळ नवली २ कडुआ फळ कहै भीक्खू - किण सेठ रै, ३ ते नवली रुपीया तणी, सेठ तणै ४ पूठै तसकर हुवौ, रुपीया तसकर पेखनै साहुकार तसकर दौड़तौ, इतलै आखुर हेठौ पड्यौ, चित किणहिक मानवी, अमल इलै ६ अमल खवाय पायौ उदक, सेंठौ दुसमण ते तिण सेठ नौं, साहज ७ अमल 'खवायौ लारै दुहा ५ पग किहिक पुरुष, वैरी साहज दीयौ वैरी भणी, अरि ८ ज्यूं छ काय ना हिंसक भणी, जै वैरी षट काय नौं, प्रतख ९ हणणहार षट काय नौं, तसुं तिण कारण जीवां तणौ, वैरी १ सावज्ज 特 सरधायवा, दीयौ दांन खेत वायौ इक करसणी, पाकौ १. भि. दृ. १३८ । २. नोली । ३. भागने लगा। ४. ठोकर लग जाती है। भिक्खु जश रसायण : ढा. १८ कहौ ढाळ : १८ ( सीता दीयै रै ओळंभड़ा ) सेठ ७. 'पग' विलखांणौ खवायौ कीधौ थी नर तंत दृष्टंत भीक्खू तणा॥ ध्रुवपद ॥ कड़ी पोखे भि. दृ. १३९ । पूछा बतावो हीयै ५. अखडंत (क ) । ६. साझ (क ) । देखी लेवण दीयौ की। प्रसिध || न्याय? बंधाय॥ तांम कांम॥ भीक्खू खेत न्हासंत । अखुडंत " ॥ चोर। जोर || सूर। भरपूर ॥ नौं वाध। हुवै उपाध॥ पोषै जांण । पिछांण।। कियौ सूर। भरपूर ।। दृष्टं । अत्यंत॥ ५३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेख॥ २ इतलै धणी रै वाळौ हुवौ, दूखणी आयौ देख। किणहिक ओषध दे करी, सांतरौ कीयौ ३ ताजौ हुऔ तिण अवसरै खेत काट्यौ धर खंत। साहज दैण वाळा नैं सही, लागौ पाप एकंत।। ४ कहै पाप हुवै खेत काटीयां, तो काटण वाळा नैं सोय। साहज देईनै साजौ कीयौ, जिण नै पिण पाप जोय॥ . ५ तिमहिज और पापी तणे, साता कीधी विसेख। तिण माहै धर्म किहां थकी, दिल माहै देख। ६ केयक भेषधारी कहै- धन दीधां धर्म। वले कहै-ममता ऊतरी, भोळां रै पाडै भर्म।। ७ पूज भीक्खू तिण ऊपरै, निरमळ मेल्या न्याय। भर्म लोकां रौ भांजवा, स्वामी महा सुखदाय॥ ८ किणही मनुष्य रै खेती हुँती, वीस वीगा विचार। दस वीगा ब्राह्मण नैं दीया, धर्म अर्थे ९ वीस हळां री खेती विषै, दस हळ खेती दीध। ए पिण ममता ऊतरी, तिण रै लेखै प्रसीध॥ १० कह्यौ परिग्रह नव प्रकार नौं, दौपद चौपद देख। पांच दास्यां दीधी पर भणी, पंच गायां संपेख॥ ११ ए पिण ममता ऊतरी, तिण रै लेखै तहतीक। धर्म कहै रुपीया दीयां, तौ इण मैं पण धर्म ठीक।। १२ दास्यां खेती गायां दीयां, पुन रो अंस म पेख। इमहिज रुपीया आपीया, धर्म पुन्य म देख॥ १३ पाप अठारां मैं पंचमौ, परिग्रह महा विकराल। सेव्यां सेवायां पाप छै, भगवती मैं संभाळ।। धार। १. नारू नाम का रोग और उसका कीड़ा। २. कैकेइक (क)। ३. भि. दृ. २२१॥ ४. भगवई. १/३८४ भिक्खु जश रसायण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप एकंत। सोभंत। ऐन। १४ सावज साता करै सही, इण सूं जिण आज्ञा बाहिर जांणजो, सूगडांग' १५ भीक्खू स्वाम भली परै, ओळखाया हळुकर्मी हरख्या घणां, चित - मैं १६ आखी ढाळ अठारमी, वारू स्वामी बोल साराई सुहांमणां, आछा नै पाया नां चैन।। बोल। अमोल॥ १. सूयगडाअंग (क), सूयगडो. १।३।६६, ६७। भिक्खु जश रसायण : ढा. १८ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा किणही भीक्खू नै कह्यौ२- असंजती अवलोय। तिण नै दांन देवा तणा, त्याग करावौ मोय।। २ भीक्खू स्वामी इम भण- सरध्या मुज वच सोय। प्रतीतीया रुचिया पवर, जिण सूं त्याग सुजोय।। ३ कै म्हांनैं भांडण भणी, करै इसा पचखांण? इम कहि कष्ट कियौ अतहिरे, सखर स्वाम बुद्धिवांन।। ४ किणहिक भीक्खू नै कह्यौ - टोळावाळा ताहि। प्रत्यख पुन्य परुपै नहीं, सावज दांन रै माहि।। ५ स्वाम कहै-काइ असतरी, जल लोट्यौ भर जांण। म्हारै हाटै संपजो, कही किणी नै वांण॥ ६ नाम पिउ नौ नां लीयौ, पिण सूंप्यौ कर सांन । इम सांनी कर पुन कहै, पुन री श्रद्धा पिछांण॥ ७ किणहिक स्वामी नैं कह्यौ, पडिमाधारी दांन निर्दोषण तसुं दीयां, स्यूं फळ कहौ विसेख? ८ स्वाम कहै-लै सूझतौ, पडिमाधार पिछांण। तसुं फळ होवै ते सही, दैण वाला . नै जांण॥ ९ लैण वाला नैं पाप कहै, पाप लगायौ दातार। तिण नै पुन्य किहां थकी, स्वाम जाब श्रीकार॥ ढाळ : १९ (वीर सुणौ मोरी वीनती) १ काचौ पांणी पायां माहै पुन्य कहै, स्वामी दीधौ हौ तेहनैं दृष्टंत। कोइ खाई लुटावै पारकी, सावज थारै लेखे हो इण मैं पुन एकंत। तंत दृष्टंत भीक्खू तणां ॥ध्रुवपद।। पेख। १. किणहिक (क)। २. भि. दृ. ११८। ३. अति ही (क)। ४.भि. दू.६१। ५. संकेत। ६. भि. दृ. २०७। ७. मैं (क)। ८. किले के चारो ओर रक्षार्थ खोदी हुई नहर के रूप में पानी से भरी खाई। भिक्खु जश रसायण Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ खाई लुटाया जो पाप है, पाणी पायां हो किम होसी पुन्य? दोनं बरोबर देखलौ, दोनं हो कण रहित है सुन्य।। तंत. ३ 'अव्रती मैं' अन्न-धन दीयां, भेषधारी हो थापै धर्म नै पुन। स्वाम भीखू दीयौ सोभतौ, हद हेतु हो सुणजो तन-मन।। तंत. ४ लाय मां सूं का?' दूजी लाय मैं, धन न्हाख्यां हो काम न आवै ते धार। आप कनैं धन अव्रत मैं हुँतौ, अव्रती नैं हो दीयो अव्रत मझार।। तंत. ५ लाय लागां गृहस्थ रौ घर जळ, बळतौ देखी हो किणहि धन काढ्यौ बार। ले न्हांख्यौ दूजी लाय मैं, ततखिण आयौ हो सेठ पास तिवार॥ तंत. ६ अहो सेठजी तुझ घर आग थी, सखरी वस्तु हो धन काढ्यौ में सार। सेठ सुणी हरख्यौ सही, ते धन किहां छै हो आपौ वस्तु उदार।। तंत. ७ ओ कहै-न्हांख्यौ दूजी आग मैं, सेठ जाण्यौ हो पूरौ मूंहर्ख सोय। लाय मां स्यूंकाढी न्हांख्यौ लाय मैं, काम न आवै हो तिण लेखै कोय।। तंत. ८ अव्रत रूप लाय हुंती आपरै, अव्रती नैं हो दीधौ और नैं धन। लाय लगाई और रै, प्रत्यख देखौ हो तिण मैं किम हुवै पुन्न? तंत. ९ श्रावक रै त्याग ते तौ व्रत सही, अव्रत जाणौ हो बाकी रह्यौ आगार। अव्रत सेवावै और री, तिण माहै हो धर्म नहीं लिगार।। तंत. १० अव्रत-व्रत न ओळखै, भेषधारी हो करै भेळ-संभेळ। दृष्टंत स्वाम दीयौ इसौ, घी तंबाखू हो भेळ्यां कदेय न मेळ।। तंत. ११ ओषध' जीभ आंख्यां तणौ, आंहमौ-सांहमौ हो घाल्यां दोनूं विलाय। ज्यूं अव्रत मैं धर्म सरधीयां, पाप वरत मैं हो सरध्यां दुरगति जाय।। तंत. १२ सोरीगर रा घर मैं सोर वासदी', न्यारा राख्यां हो घर विणसै नाय। ज्यूं व्रत अव्रत फळ जूजूआ, जन जाण्यां हो समगत न जळाय।। तंत. १३ प्रगट पसारी रै पारखा, न्यारा राखै हो मिश्री सोमल न्हाळ। ज्यूं धर्म-अधर्म खातौ जूजूऔ, सैंठी समगत हो सुद्ध सरध्यां संभाळातंत. १. अव्रत में (क)। २. काढ़ (क्व.)। ३. मूरख (क)। ४. विरत इवरत की चौपाई ढा. ४ गा. ६,७। ५. विरत इवरत की चौपाई ढा. ४ गा. ९,१०। ६. बारूद बनाने या बेचने वाला। ७. बारूद। ८. अग्नि। ९. एक प्रकार का क्षार, जो मिश्री जैसा ही लगता है। भिक्खु जश रसायण : ढा. १९ ५७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कोई कहै-'गृहस्थ रो छांदौ"अछै, दान देवै हो गृहस्थ नैं देख। भीक्खु कह्यौ-छांदा मैं तो धूळ है, घृत तौ ? कूड़ी मैं संपेख। तंत. १५ खांड घृत सुद्ध मिल्यां, सखरा कहियै हो लाडू सरस, सवाद। ज्यूं चित वित पात्र तीनूं जुड्यां, अति फळ लहिये हो भव जल तिरियै अगाध।तंत. १६ घृत खांड बिहुं सुद्ध घणा, मैदा री जागा हो लाद है माय।। ज्यूंचित वित दोनूं चौखा मिल्या, पात्र जागां हो असाधू नैं वहिराय। तंत. १७ घृत मैदो चौखा घणां, खांड जागा हो माहै घाली धूळ।। ___ज्यूं चित पात्र दोइ सुद्ध जुड्या, वित जागा हो असूझतो विस तूल ॥ तंत. १८ खांड मैदो चौखा खरा, वित जागा हो माहै घाल्यौ गोमूत। ज्यूंवित पात्र दोनई सुद्ध जुड्या, चित जागा हो दैण वाळौ कपूत।। तंत. १९ घृत री ठौर गोमूत है, खांड ठामै हो घाली धूळ महाखार। ____ लाद मैदा री जायगा, आवी मिलिया हो तीनूं अधिक असार॥ तंत. २० ज्यूं दैणवालौई असूझतौ, वस्तु दीधी हो असूझती जबून्य। अव्रत माहि लेवाळ अंगीकरी, प्रत्यख पेखौ हो इण मैं किम हुवै पुन्य? तंत. २१ चित वित पात्र चोखा मिल्यां, कर्म निर्जरा हो पुन्य बंध कहिवाय। एक अधूरौ तीनां मझै, थिर चित देखौ हो तिण मैं पुन्य न थाया। तंत. २२ दृष्टंत ऐसा भीक्खू दीया, स्वामी मेल्या हो सूत्र नैं न्याय संध। ____यां विण इसडी कुण कथै, पूर्वधारी हो जैसा भीक्खू प्रबंध॥ तंत. २३ पंचम आरै परगट्या, आप औजागर हो आप सूं अनुराग। हूं पिण हिवडां ऊपनौं, साची सरधा हो पांमी ए मुझ भाग।। तंत. २४ आखी ढाळ उगणीसमी, चित उमग्यौ हो भीक्खू आया चीत। ___याद आयां हो हीयौ हूलसै, गुण गावत हो हूऔ जनम पवीत।। तंत. १. गृहस्थ का चालू व्यवहार। २. स्वामी जी ने इसको दूसरे अर्थ में लेते हुए कहा-छांदा में तो धूल होती है। इसका अर्थ है--घी के कुप्पी पर ढक्कन के रूप में दी जाने वाली दांट। कपड़े में मिट्टी/धूल डालकर उस पर लेप लगा दिया जाता है। जिससे घी बाहर नहीं आता। ३. घी रखने का बर्तन ४. देने वाला। ५. वस्तु। ६. लेने वाला। ७. लीद- हाथी,घोड़े, गधे आदि की। ८. तुल्य। ९. उद्योतकार। १०. स्मृति में। भिक्खु जश रसायण Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सखरौ कुबुद्धी २ थां ५ तिण रौ मुझ नैं स्यूं हुवौ ? इम किण ३ भीक्खू कहै ' - - मिश्री भली, मन सुख पावै के मरै, उत्तर ४ ज्यूं थे असाध जांणनै, दियौ अजाणपण घट थांहरै, पात्र आखीया, कथ्या, वली, 1 ७ दूहा मारग सोध नै, दीयौ कुकळा केळवी, पूछै असाध सरधनै, दीधौ ८ बहु इत्यादिक किंचित मातर म्हैं ६ विविध दया ऊपर अनुकंपा इहलोक मोह राग जे आरंभ जिण वांछ्यौ ए जीवणौ, तिण वरजीयौ, असंजम ९ सूत्रे श्री जिन भीक्खू स्वाम भली परै, मेल्या म्हैं पूछयौ १ केइ पाखंडी इम कहै रे, अल्प पाप बहु निर्जरा रे, दंभ करी दोय थापै वेसर्मो', आगला जीव बच्या तिण रौ धर्मो > स्वाम प्रश्न दान वधतौ हेतु आक थोर रा दूध सम, सावज जीवणु री, मैं माह तिका, तिण सहित जीवणौ, असंजति १. भि. - . - ९२ । २. थोहर ( क ) । भिक्खु जश रसायण : ढा. २० खाधी ढाळ : २० ( नगर सोरीपुर राजवी रे ) उत्तम एह सूझतौ ऊपर तुझ किण विष महा जाणी दया वांछै रो वांछ्यौ फळ दृष्टंत। ग्रंथ ॥ हितकार | असार ॥ जाण । धर्म म तांण ॥ अंभ। आरंभ || जीतव न्याय ३. जीवणो (क) । ४. बेशर्मी (क ) । बुझावै उपदेश । असेस ॥ दांन। जांन ॥ जांण । पिछांण ॥ लाय दंभ करि थापै तेउ जीव मुआं ते पाप भौळां तणें मन पाड़ै जी सहू कोई जी दांन। जांन ॥ आस। विमास ॥ लोय। दोय। कर्मों। भर्मो । हो ॥ ५९ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ उत्तर भीक्खू आपीयौ रे, सांभळजो चित ल्यायो। हळु कर्मी सुण हरखीयै रे, भारीकर्मी भिड़कायो। भारीकर्मा भिड़कै लहै तापो, तेउ जीव मुआं रौ कहै पापो। और वच्या तिण रौ धर्म थापो, कर रह्या मूरख कूड़ किलापो। तिण री सरधा रौ लेखौ सुणआपो, नाहर मार्यो एकलौ नहीं पापो जी सहू कोई जी हो। ३ नाहर हिल्यौ एक आकरौ रे, करै मनुषां रो बैंगाळो। गायां भैस्यां अजा बाकरा रे, सांवर रोझ सीयालो। सांवर रोझ सियाल पिछांणौ, प्रत्यख लूट रह्यौ पर प्राणौ। जीव घणां रो करै घमसांणो, पंकप्रभा उत्कृष्ट पयांणो।। जी सह कोई जी हो। किण ही विचार इसौ कियौ रे, ए तौ है मंस आहारी। ए जीवीयां जीव मारै घणां रे, एहवा अध्यवसाय धारी। एहवा अध्यवसाय सूं सीह मारी, उणरी सरधा रै लेखै विचारी। नाहर रौ पाप हुऔ निरधारी, और वच्यां रौ धर्म हुवौ भारी। जी सह कोई जी हो। ५ बीजौ दृष्टंत भीक्खू दीयौ रे, छै एक पापी कसाई। पांच-पांच सौ भैंसा नैं मारतौ, कुरणा न आंण काई। मन माहै कुरणा न आणे कांई, किण हि विचार कियौ मन माही। एहनै माऱ्या बहु जीव बचाई, एम विमासी नैं मार्यो कसाई। __ घणां जीवां नैं वचावण तांई, जी सह कोई जी हो।। लाय बुझायां मिश्र कहै रे, तिण री श्रद्धा रै लेखौ। कसाई नै मार्यो पिण मिश्र छै, पोता नी सरधा पेखौ। पोता नीं सरधा पेखौ निज नैणौं, पाप कसाइ नौं ए सत्य बैंणौ। जीव घणां वच्यां रौ धर्म लैणौं, पोता री सरधा लेखै कहि देणौ। कसाई नैं माऱ्या एकंत पाप न कैहणो, जी सहू कोई जी हो।। ६ १. संहार। २. सांभर (क)। ३. मांस (क)। ४. विचारी (क)। ६० भिक्खु जश रसायण Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ तीजो दृष्टंत स्वामी दीयौ रे, उरपर एक अजोगो। घणां उंदरां नां गटका करै रे, मनुष पौहचावै परलोगो। मनुष मार परलोग पौहचावै, घणां पंख्यां नां अंडा पिण खावै। सर्प घणां जीवां नैं संतावै, उत्कृष्ट 'धूमप्रभा'२ लग जावै। जी सहू कोई जी हो। ८ किण ही विचार इसौ कियौ रे, सर्प घणां नैं संतावै। एक सर्प मार्यां थकां रे, जीव घणां सुख पावै। जीव घणां सुख पावै सुजांणी, अनुकंपा बहु जीवां री आंणी। सर्प मार बचाया बहु प्रांणी, लाय बुझायां कहै मिश्र वांणी। तिण रै लेखै इण मैं पिण मिश्र पिछांणी, जी सहू कोई जी हो। चौथो दृष्टंत स्वामी दीयौ रे, कोइ पुरुष नौं एहवौ आचारो। बाप मूंआं पहिली कह्यौ रे, काळ करतां तिणवारो। काळ करतां सुत कही थी वांणो, सुखे तुम्हारा नीसरजो प्रांणो। थां लारै अटव्यादिक बालसूं जांणौ, घणां गांम नगर बाल करतूं घमसाणौ। जी सहू कोई जी हो। १० मनुष ढांढा घणां मारतूं रे, बाप नै एहवौ सुणायौ। पिता पौहतौ परलोक में रे, पछै करवा लागौ सह ताह्यौ। करवा लागौ जीवां रौ घमसांणो, किणहिक मन मैं विचार्यो जांणौ। एक माऱ्यां सूं वचै बहु प्राणो, इम चिंतव ते पुरुष नैं मार्यो अचांणौ। जी सहू कोई जी हो। ११ लाय बुझायां मिश्र कहै रे, तिण रै लेखै ए पिण मिश्र होयो। एक मार्यो पाप तेहनों रे, बहु वचीयां तिण रौ धर्म जोयो। वचीयां रौ धर्म त्यारै लेखै वाजै, अल्प पाप बहु पुन्य फळ राजै। एक मार्यो घणां राखण काजै, इण मैं पिण मिश्र कैहता कांय लाजै। जी सहू कोई जी हो। १. सांप। २. पांचवीं नरक। भिक्खु जश रसायण : ढा. २० Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पूज कह्यौ वलि पांचमौ रे, दष्टंत अधिक उदारो। कोइ तुरकादिक आकरौ रे, साथ सेन्या ले अपारो। सेन्य लेइ देश ऊपर आयौ, गांव नगर कतल करवा नैं ध्यायो। मनुष्य तिर्यंच मारण ऊंम्हायौ, सेन्य अधिकारी नां हुकम थी थायो। जी सहू कोई जी हो। १३ किण हि विचार इसौ कीयौ रे, करसी घणां जीवांरो संघारो। सेन्य अधिकारी नैं मारीयां रे, सर्व जीव वचै इण वारो। जीव वचै कतल नहीं हुवै ताह्यौ, इम जाण अधिकारी नैं पर भव पौहचायो। मार्यो ते पाप, वच्यौ पुन थायो, तिणरैलेखै इण मैं पिण मिश्र कहिवायो।। जी सहू कोई जी हो। १४ वचीया रौ धर्म बताय नैं रे, कहै लाय बुझायां धर्म। जीव अग्नि रा जीवीयां रे, तिण सूं घणा मरै ते अधर्म। अग्नि जीव्यां घणां मरै ते पापो, इण विध कर रह्या कूड़ किलापो। अग्नि जीव हणीयां मिश्र थापो, तेहनों न्याय सुणौ चुपचापो। तिण रै लेखै गायां मार्यो केवळ न पापो, जी सहू कोई जी हो।। १५ गायां भेस्यां आदि जीवसी रे, ते पिण घणी छ काय हणंतो। 'मनुषादिक पवन छत्तीस छै' रे, मछादिक जलचर जंतो। जंतु मच्छादिक जलचर जांणी, ते पिण हणै छ काय नां प्राणी। अग्नि जीव नैं हण्यां मिश्र मांणी, तिण रै लेखै ए सर्व हण्यां मिश्र जांणी। ___ जी सहू कोई जी हो। १६ संसार माहै तौ साधु बिना रे, सर्व हिंस्या रा त्याग न दीसै। पण्णवणा पद बीसमें रे, भाख्यो श्री जगदीसै। श्री जगदीस भाखी इम रेसोरे, प्राणातिपात वेरमण सु असेसो। मनुष्य विना और रै न कहेसो, बुद्धिवंत जोय विचारजो रेसो। जी सहू कोई जी हो। १. विशिष्ट जाति, वर्ग या समूह, जो संख्या २. रहस्य। में छत्तीस माने जाते हैं। ३६ कोम (पवन) के नाम देखें-राजस्थानी शब्दकोश तृतीय खंड जिल्द पृ. २४१०। भिक्खु जश रसायण Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना संसारी सहु रे, त्यां सगळां नैं मारींयां रे, किण ही नैं मार्यां न एकलौ पापो, और वच्या तिण रौ पुन्य मिलापो, १७ साधु १८ लाय बुझायां मिश्र कहै रे, हिंसक नैं मारण तणा रे, त्याग करावै छै किण न्यायो, हिंसक मार्गां मिश्र धर्म थायो, १९ दृष्टंत स्वाम भीक्खू दीया रे, जीव वच्यां धर्म थापनै रे, भूल गया भर्म मैं भेषधारी, भीक्खू ओळख तसु कियौ परिहारी, २० वीसवीं ढाळ विषै कह्या रे, सूत्र सिद्धंत रा जोर सूं, स्वाम भीक्खू सुद्ध न्याय मिलाया, हळुकर्मी सुण-सुण हरषाया, भिक्खु जश रसायण : ढा. २० हिंसक एकलौ जीव पाप न जिण नैं मार्यौ तिण रो महातापो । साधु नैं मार्यां रौ एकंत पापो । खोटी सरधा रा लेखा री ए थापो, सहू कोई जी हो ॥ सरधा रै न्यायो । री जी तिण त्याग करावणा नहि ताह्यो। हिंसक बच्या घणां जीव हणायो । ऊंधी सरधा रौ तो औहीज न्यायो सहू कोई जी हो॥ सारी । जी सूत्र न्याय तंत कहायो । थायो। भूल गया मोह- राग माहै दया तिरणों वांछै निज पर तिण माहै धर्म कह्यौ नों जी सहू कोई ऊपर मिलाया भेषधारी । विचारी । तिवारी । तंत सारी, जी हो ॥ दृष्टंतो। तंतो दया न्याय दान दया रूड़ी रीत दिखाया। भारी कर्मां रै तौ मन नहि भाया । जी सहू कोई जी हो।। ६३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाखै १ पाली' सैहर पधारीया, पूज भवोदधि पाज। एक जणौं तिहां आवीयौ, चरचा करवा काज।। २ ऊंधो बोलंतौ कहै, दुष्ट श्रावक तुझ देख। पासी कोई रा गळ हुंती, कालै नहीं संपेख॥ ३ थांरा म्हारा मत करौ, सांमी सोय। समचै बात करौ सही, न्याय हियै अवलोय। ४ पासी ली किण रूंख थी, देख्यौ जावत दोय। काढ़े नहीं ते कैहवौ, कालै तै कैहवौ होय? ५ ते कहै पासी काढ़ लै, उत्तम पुरुष ते तंत। जाणहार सिव-स्वर्ग नों, दयावंत दीपंत॥ ६ नहीं काढ़े ते नरक रौ, जाणहार दोभाग। भीक्खू कहै-तूं, तुझ गुरु, जाता दोनूं माग॥ ७ कुण पासी काढे कहौ कहै-हूं काढूं तिहां जाय। मुझ गुरु तौ काडै नहीं, मुनि नैं कल्पै । ८ स्वाम कहै-सिव स्वर्ग ना, जाणहार तूं पेख। तुझ गुरु नरक-निगोद नां, जाणहार तुझ लेख॥ ९ सुणनै कष्ट हुऔ घणौ, जाब देण असमथ। ऐसी बुद्धि स्वामी तणी, उर में अधिक उपत्त ।। नाय॥ ढाळ : २१ (पर नारी रो संग न कीजै) १ सावज उपगार संसार तणा छै, तिण मैं म जांणजो तंतो। पूज भीक्खू ओळखायवा परगट, दीयो इसौ दृष्टंतो॥ स्वाम भीक्खू रा दृष्टंत सुणजो ॥ध्रुवपद। २ एक नृपति चोर पकड्या अग्यारा, दूऔ६ मारण रौ दीधो। साहुकार एक अरज करी इम, सांभळजो प्रसीधो॥ स्वाम. १. भि. दृ. १२। ४. तत्काल तर्कसंगत उत्तर देने की क्षमता। २. दुर्भागी। ५. भि. दृ. १४०। ३. असमर्थ। ६. घोपणा/आज्ञा ६४ भिक्खु जश रसायण Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पंच-पंच सौ रुपीया परगट, इक-इक चोर नां लीजै। आप कृपानिधि अरज मांनी नै, चोर अग्यारा छोड़ी।। स्वाम. ४ राजा भाखै-महा अपराधी, दुष्ट घणां.. दुखदाता। छोड़वां जोग नहीं छै तसकर, मांन मछर मदमाता। स्वाम. ५ सेठ कहै-दस मूंकौ स्वामी, लाभ रूपीया रौ लीजै। तौ पिण नृप नहीं छोड़े तसकर, कहै-चोरां री पख नहिं कीजै।। स्वाम. ६ नव तसकर मूंकौ किरपानिधि, आठ सात आदि जांणी। इसी पर अर्ज करी अधिकेरी महिपति तो नहीं मांनी।। स्वाम. ७ रोकड़ पांच सौ देइ राजा नैं, चोर एक छोड़ायौ। ते पिण विनती अधिक करी तब, तसकर मूंक्यौ ताह्यौ।। स्वाम. ८ पुर ना लोक करै गुण परगट, सेठ तणा सहु कोयो। धिन-धिन लोक कहै ओ धर्मी, हरख हीयै अति होयो।। स्वाम. ९ बंधी-छोड़' लोका मैं बाजै, अधिक कीयौ उ पगारो। तसकर पिण गुण गावै तेहना, सुजस फैल्यौ संसारो॥ स्वाम. १० महिपति दस चोरां नैं मराया, इक निज स्थानक आयौ। समाचार न्यातीलां नैं सुणाया, परियणरे दुख अति पायौ।। स्वाम. ११ तसकर दश नां न्यातीला ते, भारी धेष भरांणा। ___'वैर वालण नै' भेळा हुआ बहु, प्रत्यख ही प्रगटांणा॥ स्वाम. १२ चोर सारां नैं साथै लेइ चाल्यौ, पुर दरवाजै पिछांणौ। ___चीठी बांध लोकां नैं चेतायौ, सांभळजो सहु वांणो॥ स्वाम. १३ मुझ तस्कर दश माऱ्या तिण रौ, ग्यार गुणों वैर गुणसूं। मनुष एक सौ दस मार्यां सूं, पछै विष्टालौ करतूं। स्वाम. १४ साहुकार नां पुत्र-सगां नैं, मिंत्र भणी नहीं मारूं। अवर न छोड़ें उरांणै आयौ, पंथ रह्या पिण पारूं || स्वाम. १५ एम कही जन मारण उमग्यौ, सत किणहि रौ संघारै। किणहि रौ तात भाई हर्णै किण रौं, मात किणी री मारै।। स्वाम. १. बंदी (कैदी) को मुक्त कराने वाला। ५. नजदीका २. परिजन। ६. पार पहुंचाऊं। ३. बदला लेने के लिए। ७. उमग्यौ (क)। ४. समझौता/विश्राम। ८. संहारे (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. २१ ६५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ किण री नार हर्णै अति कोप्यौ, बहिन कोइ री विणासै। किण हि री भूआ भतीजी किण री, तसकर इम जन त्रासै।। स्वाम. १७ 'प्रबल भयंकर नगर मैं प्रगट्यौ, होय रह्यौ हाहाकारो। सेठ नैं निंदवा लागा सहु जन, 'प्राभवै वचन प्रहारो'२॥ स्वाम. १८ साहुकार रै घर जइ सगला, रोवै लोग लगाई। कोई कहै मुझ मात मराई, कोई कहै पियरे भाई। स्वाम. १९ रे पापी ! तुझ घर धन बहु थौ, कूआ मैं क्यूं नहिं न्हाख्यौ। चोर छोडाइ म्हारा मनुष मराया, तसकर जीवतौ राख्यौ। स्वाम. २० सेठ लातरियौ सैहर छोडी नैं, बीजै गांम वस्यौ जाई। __इण भव फिट-फिट हुऔ अधिकौ, परभव दुर्गति पाई। स्वाम. २१ जे जन गुण करता था तेहिज, अवगुण करत अथागो। संसार नौं उपगार इसौ है, मोख तणौं नहीं मागो। स्वाम. २२ मोख तणौ उपगार है मोटौ, सुर-सिव पद संचरियै। जिण आगन्या तिण माहै जांणी, 'उलट धरी५ आदरीयै। २३ भीक्खू स्वाम भली पर भाख्यौ, दया ऊपर दृष्टंतो। उत्पत्तिया बुद्धि अधिक अनोपम, हळुकर्मी हरषंतो। २४ एक वीसमी ढाळ मैं आख्यौ, अघ हेतू उपगारो। प्रत्यख ही फळ सेठज पाया, आगलि बहु अधिकारो॥ १. अत्यंत भय का वातावरण। ४. विवश होकर। २. वचन रूपी वाणों से तिरस्कृत करते हैं। ५. आगे बढ़कर। ३. पिता। भिक्खु जश रसायण Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सिव संसार तणा भला, २ उरपर एक नैं, उजाड़ भीक्खू तिण ऊपर खाधौ किण झाड़ौ देई करी, ताजौ ३ पिता कहै मुझ सुत दीयौ, भाई तैं मोनैं भाई दीयौ, ४ चूड़ौ चूनरी अमर इम कहै ५ ए उपगार कर्म-बंध ६ उरपर जंत्र-मंत्र ८ खाधौ ७ संत कहै -कळ्पै ह्वै तौ दूहा रहि, मंत्रणहार नै, संसार नो, कारण कह्यौ, नहीं एक नैं, साधां बूटी जड़ी औषध नहीं, वलि कहौ, कै करामात करामात मुनि ते कहै - मुझ ते सही, कह्या दिष्टंत त्री कहै १. भि. दृ. १२९ । २. सर्प । ३. स्त्री। भिक्खु जश रसायण : ढा. २२ कहै - इसी, पिण कहौ, अणसण ९ सरणा सूंस दीया घणां, सिवगांमी मोख तणौ उपगार ए, स्वाम दुखी स्वजन मैं तिण दीया मैं कयौ १ दूजौ दृष्टंत भीक्खू दीधौ, सांभळजो लोक मोख नैं मग नहीं मेल, ते तौ २ साहुकार रै अस्त्रीयां दोय, एक वैराग अत्यंत वखांण, धर्म ने दोय थारौ ढाळ : २२ ( डाभ मूंजादिक नीं डोरी ) बहिन सगा दीधौ नहीं बोल्यौ आपौ लीयौ भेप कदे नहि दीयौ ४. चूंदड़ी (क ) । ५. भि. दृ. १३०। पुन्य मुनि किया रोवण कहै सुर उपगार । उदार || अवधार । तिवार|| भाखंत | कंत।। तंत उपगार । परिवार || सार। लिगार || सोय। मोय॥ परसीधो। कठेइ न थावै भेळ ॥ श्राविका सुद्ध अवलोय। रा पचखांण ॥ वांन। तुफान ? थाय । उचराय ॥ थाय । ओळखाय ॥ ६७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ दूजी धर्म मैं समझै नाहि, चित काम-भोग री चाहि। केतलैइक काळ विचार, परदेश माहै भरतार।। ४ काळ कर गयौ ते किण वार, बात सांभळी छै बिहुं नार। तिण रै रोवण रा छै त्याग, ते तो रोवै नहीं धर राग।। ५ समता धार बैठी सोय, कियौ नेम न भांगै कोय। सुभ-असुभ कर्म स्वभाव, प्रत्यख ओळख लियौ प्रभाव।। ६ दुख पाप प्रभावै देख, वली कर्म बांधू किण लेख। उदै बांध्या जिसाईज आय, इम चित नैं दियौ समजाय॥ ७ बीजी रोवै करंत विलाप, कहै कवण उदै हुआ पाप। ' छाती माथौ कूटै तन झाडे, अति रोवती 'बांगां' पाडै'। ८ हाहाकार हुऔ तिण वेळा, लोक हुआ सइकडां भेळा। रोवै तिण नैं अधिक सरावै, पतिव्रता ए. दुख पावै॥ ९ वले बोलै घणा लोग लुगाई, धिन-धिन ए नार सुहाई। इण रै पीतम सूं अति प्यार, तिण सूं रोवै है बांगां पाड़। १० नहीं रोवै तिण नै जन निंदै, आ तो पापणी थी अपछंदै। आ तौ मूवौज वांछती कंत, आंख मैं आंसूं नहीं आवंत।। ११ संसारी रे मन इम भावै, मोह कर्म वसै मुरझावै। . साधु कहौ किण नैं सरावै, परमार्थ विरला पावै।। १२ मोख नैं लोक रौ मग न्यारी, बुद्धिवंत हीया मैं विचारौ। दियौ स्वाम भीक्खू दृष्टत, प्रत्यख देखाया दोनूइं पंथ।। १३ इम हि संसार नों उपगारो, मोख रा मार्ग सूं न्यारौ। वारू मोख तणों उपगार, संसार नों छेदणहार।। १४ ऐसा भीक्खू ओजागर भारी, न्याय मेलवीयारे तंत सारी। कही ढाळ बावीसमी सार, भीक्खू रा गुणां रौ नहिं पार।। १. जोर-जोर से चिल्लाती है। २. मेलविया (क)। भिक्ख जश रसायण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा सार। भर्म॥ १ सरधा ऊपर स्वामजी, दीया घणा दृष्टंत। कहि-कहिनैं कितरौ कहूं, न्याय मिलाया तंत॥ २ वलि आचार रै ऊपरै, न्याय मिलाया सार। ग्रंथ वधंतो जाणनै, न कियौ बहु विस्तार।। ३ इंद्रीवादी ऊपरै, काळवादी पर सोय। दृष्टंत पूज दीया घणां, म्हैं बहु न कह्या जोय॥ ४ प्रस्ताविक परगटपण, हेतू हद हितकार। . आख्या भीक्खू ओपता, उत्पत्तिया अधिकार। ५ कथा नंदी सूत्रे कही, च्यार पहिछांण। तिण कारण दृष्टंत सुण, चमकौ मती सुजांण॥ ६ केसी स्वामी पिण कह्या, सखरा हेतू इमहिज भीक्खू जांणजो, पंचम काल मझार॥ ७ मूरख जन दृष्टंत सुण, उलटा बांधै ___ कर्म। खबर नहीं जिन धर्म री, भूला अज्ञांनी ८ हळुकर्मी दृष्टंत सुण, पांमैं अधिको पेम। भारीकर्मा सांभळी, बोलै 'भावै तेम॥ ९ विचरत-विचरत आवीया, सैहर कैलवे स्वामा ठाकुर मोहकमसींगजी, वांदण तांम॥ ढाळ : २३ (भावै भावना) १ सहु परषद सुणतां, सिरदार सुहायो रे। __मोहकमसिंगजी , बोलै इम वायो रे॥ भीक्खू ऋष भणी ॥ २ गांम-गांम री विनती, अति आपनैं आवै रे। जन बहु देश नां, सहु आपनैं चाहवै रे। भिक्खू ऋष भला। १. इच्छानुसार २. भि. दृ. ८७। PREETEEEEEEEEEEEEEEEE आया में भिक्खु जश रसायण : ढा. २३ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ नर-नारी आप नैं, देखी हुवै राजी रे। कर जोड़ी करै, जन कीरत जाझी रे॥ भीक्खू. ४ पुनवंता परतख, नर-नारी निरखै रे। सूरत देख नैं, हिवडै अति हरखै रे॥ भीक्खू. ५ घणा लोक लुगायां नैं, आप वलभर लागौ रे। ते कारण किसौ, यां रै हरख अथागो रे? भीक्खू. ६ इसौ गुण कांइ आप मैं, ते मुझ नैं बतावौ रे। सखरपणे __ सही, दिल मैं दरसावो रे॥ भीक्खू ऋष भण॥ ७ भीखू इम भाखै, इक सेठ प्रदेशै रे। वर्ष बहु . बीतीया, त्रिय छै निज देशै रे॥ भीक्खू. ८ ते नार पतिव्रता, सीले गहगहती रे। निज पीतम थकी, अति प्रेमे रहती रे॥ भीक्खू. ९ घणां महिना हुआ, कागद नहि आयो रे। त्रिय चिंता करै, मन पीतम माह्यो रे॥ भीक्खू. १० ते सेठ प्रदेश थी, कासीद पठायौ रे। खरची दे करी, तिण पुर ते आयौ रे॥ भीक्खू. ११ सेठ तणी हवेली, आय ऊभौ तायो रे। किणहिक पूछीयौ, किण पुर थी आयौ रे? भीक्खू. १२ लियौ नाम ते पुर नौं, नारी सुण हरखी रे। बारणे, नैणां तसुं निरखी रे॥ भीक्खू. १३ कासीद नैं देखी, हिवड़े हरखांणी रे। सुखसाता सुणी, रूं रूं विगसांणी रे॥ भीक्खू. १४ ऊन्हा पाणी सूं, उण रा पग धोवै रे। आणंद जल भा, नेत्रां सूं जोवै रे॥ भीक्खू. १५ वर भोजन करनै, क. बैस जीमावै रे। वलि-वली, समाचार सुहावै रे॥ भीक्खू. आवी पूछे १. बल्ल भ (क)। ७० भिक्खु जश रसायण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर १६ साहजी 'डीला मैं", किसाइक छै जांणी रे। सुखसाता अछै, पूछ हरखांणी रे॥ भीक्खू. १७ साहजी कठै पोढे, किण जागा बैसै रे। ___ बात सारी कहौ, सुणनै अति उलसै रे॥ भीक्खू. १८ कोई कारण नहीं छै, साहजी रै तन में रे? सांभळी, त्रिय हरखै मन मैं रे॥ भीक्खू. १९ साहजी कहौ मुझ नैं, समाचार कह्या छ रे। इहां आसी कदी, वर्ष बौहत थया छै रे॥ भीक्खू. २० दिन-रात्रि हूं तौ दिल, अति चिंता करती रे॥ कागद नां दीयौ, मन मैं दुख धरती रे। भीक्खू. २१ कासीद कहै-सुणौ, साहजी नां जाबो रे॥ __एम कह्यौ सही, आवां छां सताबो रे। भीखू. २२ पिण कोयक कारण सूं, अल्प दिन री जेजो रे। ____ मुझ नैं मेलीयौ, सुण वाध्यौ हेजो रे॥ भीक्खू. २३ समाचार आप नैं, साहजी कहिवाया रे। ___म्हे ताकीद सूं, आया कै आया रे॥ भीक्खू. २४ पेदास' घणी छै, सुख सूं तुम रहीजो रे। किण ही बात री, मन फिकर म कीजो रे॥ भीक्खू. २५ समाचार ज्यूं-ज्यूं कहै, त्यूं-त्यूं मन हरखै रे। राजी घणी, कासीद नैं निरखै रे॥ भीक्खू. २६ कासीद नै देखी, हरखै अति नारी रे। ते कहै पिउ तणी, वतका अति प्यारी रे।। भीख. २७ एहवौ वृतंत देखी, कहै अजांण एमो रे। इण दलद्री थकी, पतिव्रता नौ पेमो रे॥ भीक्ख. २८ सुण बोल्यौ सेणौं, नहीं इण तूं प्यारो रे। पिउ समाचार थी, हरखी है नारो रे॥ भीक्खू. १. शरीर में ५. हेत/स्नेह। २. बीमारी। ६. शीघ्रता। ३. शीघ्र। ७. आमदनी। ४. देरी। ८. वार्ता *****111******1111111* भिक्खु जश रसायण : ढा. २३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ और मर्म म राखौ, आ महा गुणवंती रे। सत्यवंती 'सती, सुद्ध माग चलंती रे॥ भीक्खू. ३० समाचार प्रयोगे, पतिव्रता हरखांणी रे। और भर्म नहीं, तिमहिज म्हे जांणी रे॥ भीक्खू. ३१ भगवान रा गुण म्हे, विध रीत बतावां रे। सिव संसार नौं, मारग ओळखावां रे॥ भीक्खू. ३२ झीणी - झीणी म्हे, सूत्र रहिस बतावां रे। लोभ - रहितपणे, भिन्न-भिन्न दरसावां रे॥ भीक्खू. ३३ दुख नरक-निगोद नां, दूरा टळ जावै रे। ते वातां कहां, तिण कारण चाहवै रे॥ भीक्खू. ३४ घणा लोक-लुगाई, इण कारण राजी रे। गांमोगांम थी, वीनतियां ताजी रे॥ भीक्खू. ३५ कवडी नहि मांगां, सिव पंथ बतावां रे। नर-नाऱ्या भणी, इण कारण सुहावां रे।। ३६ कासीद निर्गुण थौ, पिण पीउ समाचारो रे। तिण मुख सूं कह्या, तिण सूं हरखी नारो रे॥ ३७ म्हे महाव्रतधारी, जिन वयण सुणावां रे। बिहुं२ प्रकार सूं, नर-ना- नैं सुहावां रे।। ३८ नरपति सुरपति पिण, रांण्यां इंद्रांणी ते मुनिवर भणी, निरखै हरखांणी रे॥ ३९ मुनि नौ अभरोसौ, कोई नहीं राखै अणसमजूरे तिकौ, मन ज्यूं भाखै ४० ठाकुर मोहकमसींग, सुणनै हरखांणो सत्य वच आप रा, स्वामी वयण सुंहांणो ४१ ऐसा भीक्खू स्वामी, बुद्धि अधिक उदारी रे। उत्तर अति भला, सुणतां सुखकारी रे॥ १. भ्रम (क)। २. बहु (क)। ३. अण समझू (क)। ७२ भिक्खु जश रसायण Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ भीक्खू भीक्खू ४३ द्वेषी ते ४४ तत __ स्वाम नां. जाब सूं, अनुरागी हरखै गुण भला, गुणग्राही परखै अगुणीजन, सुण मुंह मचकौडै अवगुण थकी, आतम नैं जोडै ढाळ तेवीसमी, सुणतां सुखदाई . भीक्खू तणी, वतका मन भाई रे। रे॥ रे। रे।। रे। रे॥ भिक्खु जश रसायण : ढा. २३ ७३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ किण' ही भीक्खू नैं कह्यौ- लागू तुझ बहु लोय। अवगुण काढे थांहरा, स्वाम कहै तब सोय॥ २ अवगुण काढे मांहरा, 'छौ नी' काढ़ता सोय। म्हारै अवगुण काढ़णा, माहै न राखणा कोय॥ ३ कांयक तप संजम करी, अवगुण काढ़ां आप। कांयक लोक ओगुण करै, सम रहि काढां पाप। ४ 'सवली वेवै३ स्वामजी, इम बहु वात अनेक। देसूरी जातां मिल्यौ, द्वेषी महाजन एक॥ ५ तिण पूछ्यौ-स्यूं नाम तुझ? भीखन नाम कहीज। तिण कह्यौ तेरापंथी ते? स्वाम कहै-तेहीज। ६ तब कहै-तुझ मुख देखीयां, जावै नरक मझार। पूज कहै-तुझ मुख देखीयां, किहां जावै कहौ धार? ७ मुझ मुख देख्यां सिव स्वर्ग, तब बोल्या महाराय। म्हे तो इसडी नां कहां, मुख थी नरक सिव पाय॥ ८ पिण मुख देख्यौ थाहरौ, म्हारै तो सिव-स्वर्ग। म्हारौ मुख देख्यौ तुम्हे, तुम्ह कहिणी तुझ नर्ग।। ९ सुणनै कष्ट हुवौ घणौ, ऐसी बुद्धि अधिकाय। वलि उत्पत्तिया बुद्धि करी, निरमळ मेल्या न्याय।। __ ढाळ : २४ (कहै छै रूपश्री नार) १ स्वाम भीक्खू सुखदाय मणिधारी महामुनिराय हो। भीक्खू बुद्धि भारी। अति मति श्रुति पर्यव अथाय, जसु गुण पूरा कह्या न जाय हो। भीक्खू बुद्धि भारी। बुद्धि भारी अति अधिक अपारी, औ तौ स्वाम सदा सुखकारी हो। भीक्खू बुद्धि भारी। १.भि. दृ. १३। ३. अनुकूल रूप में लेते हैं। २. भले ही। ४. भि. दृ. १५/ fila111111114 भिक्खु जश रसायण Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ धर देव गुरु नै धर्म, पद तीन दिखाया पर्म हो। भीक्खू. सुद्ध सरध्यां समगत सार 'धुर सिव पावडीयो' धार हो । भीक्ख. ३ दीयौ गुरु ऊपर दृष्टंतरे, लकड़ी रौ डांडी रौ तंत हो।। भीक्खू. तीन बेच डांडी रै समीच बिहुं पासे नै इक बीच हो। भीक्खू. ४ विचलै लै फरकज बांण, कहियै तसुं अंतरकांण हो। भीक्खू ... तसुं विचलौ बेच हुवै तंत, कोइ अंत्रकांणी न कहंत हो। भीखू ... ५ ज्यूं देव गुरु धर्म जांणी, पद गुरु नौं बीच पिछांणी हो। भीक्ख ... ___गुर' होवै सुद्ध गुणवंत, तौ देव धर्म कहै तंत हो। भीक्खू ... ६ होवै गुर हीण आचारी, वलि सरधा भृष्ट विचारी हो। भीक्खू... पाडै देव माहै पिण फेर, धर्म मैं पिण कर दै अंधेर हो। भीक्खू ... ७ गुर मिलै ब्राह्मण ततखेव, तौ देव कहै महादेव हो। भीक्खू ... अनैं धर्म वतावै एह, जन विप्र जीमावै जेह हो। भीक्खू ... ८ भोपा गुरु मिलै भर्माजा, देव कहै-देव धर्मराजा हो। भीखू ... 'सुरह गाय नों वाहरुसावौ' धर्म पाती ल्यौ भोपा जीमावौ हो। भीक्खू ... ९ गुरु मिलै कांबरिया कहै जी, देव वताय देवै राम देजी हो। भीक्खू ... धर्म कहै कांबर जीमावौ, वले जमा री रात्रि जगावो हो॥ भीक्खू ... १० अरु गुरु मिल जावै मुल्ला, तौ देव वताय दै अल्ला हो। भीक्खू ... धर्म जबै करण जलपंता, 'ऐर चरंति आदि कहता हो। भीक्खू ... ११ जो गुरु मिलै हिंस्या धर्मी, कहै निगुणा देव कुकर्मी हो। भीखू ... धर्म फूल-पांणी मैं थापै, सूतर नां वचन उथापै हो।। भीक्खू ... १. मोक्ष का पगथिया (पेड़ी)। २. भि. दृ. २९३। ३. छिद्र। ४. समीचीन-अच्छी तरह। ५. तराजू में पदार्थों को तोलते समय खाली पलड़े में एक तरफ तराजू का झुकाव। ६. अंतरकाणी (क)। ७. गुरु (क)। ८. भ्रष्ट (क) ९. सौरभेयी-काली गाय का नांदिया। १०. १ एर चरंति मेर चरंति, खेर चरंति. बहुतेरा। हुकम आया अल्ला साहिब रा, गला काटूंगा तेरा।। २ ए साखी पढ पापिया, कती करै पर जीव। तै पाप उदय आयां छतां, पांमै दुख अतीव॥ भिक्खु जश रसायण : ढ़ा. २४ ७५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ गुरु मिलै असल निग्रंथ, देव वताय देवै अरिहंत हो। भीखू ... धर्म जिण आज्ञा मैं बतावै, इहां अंतरकांण न आवै हो। भीक्खू ... दूहा १३ गजी' मैंमंदी२ बासती, तीनूं एकण । गोत। जिण नैं जैसा गुरु मिल्या, तिसा काढ़ीया पोत॥ ढाळ (कहै छै रूप श्री नार.) १४ इण दिष्टंत गुरु हुवै जैसा, तिकै देव वतावै तैसा हो। भीक्खू ... वलि धर्म इसौज वतावै, नर समजून्याय मिलावै हो॥भीक्खू... १५ उत्तम पुरुष आचारी, गुरु सप्तवीस गुणधारी हो। भीक्खू ... निर्मळ धर्म देव निर्दोख, मनसूं सरध्यां लहै मोख हो। भीक्खू ... १६ वर लेखा भीक्खू बताया, दिल मैं भिन्न-भिन्न दरसाया हो। भीक्खू ... ए कही चोवीसमी ढाळ, भीक्खू जश अधिक रसाल हो। भीक्खू ... १. एक प्रकार का देसी कपड़ा, जिसका अरज कम चौड़ा होता है। (चौड़ाई कम होती है)। २. एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा। ३. मोटा कपड़ा/दौवटी। ७६ भिक्खु जश रसायण Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा अजांण केयक इम कहै, म्हांरै म्हे तौ ओघौर मुंहपती, वांदा २ भीक्खू कहै ओघा भणी, तौ औघौ हुवै ऊंन रौ, वंदणा ५ ३ पग गाडर ना धिन है माता तूं सही, ४ मूंहपति हुवै कपास नीं, 'कपास जो तिरै मूंहपति वांदीया, तौ वणि धिन है वणि सो ताहरी, हुवै भेष भणी इम वांदीयां, भव-दधि लारै पूजा भूला मैं देखलौ, मारग पूजै तिके, ते सीरै भरी, पुरस्यां देख्यां इसौ, दोषण इम इक व्रत भागां छतां, पांचूं ६ गुण -चौड़े ७ जिण निगुणां नै ८ गुण गोळी' गुण विण ९ एक व्रत १. भि. दृ. २९४ । २. रजोहरण ऊंन गाडर ओघा थी पकरणा, जो तिरै सो ओघा कही, तौ ही मांनवी, किम ठाली ठीकरौ, भाग १ किणहिक स्वाम भणी कह्यौ रे, एक महाव्रत भांगां छता रे, करणी सूं नहि छां सिर गुण ३. कपास का डोडा । ४. गोलाकार पीतल का बड़ा बर्तन । भिक्खु जश रसायण : ढा. २५ किम पंच कीयां करै वणि १३ नों नैं वंदणौ ढाळ : २५ ( कामणगारौ छै कूकड़ो ) ७. मूंहपति केम जो दृष्टंत भीक्खू तणा ॥ निगुण पूजंता आंणीजै लारै मार्ग भूख ए. वरत पांत जाय .भि. दृ. ४१ ॥ थापै न कांम । नांम ॥ तिरंत | उपजंत॥ बात किम तास। पैदास ॥ होय। जोय ॥ एह । तिरेह ॥ जाय । ठाय? पूजाह । दूजाह॥ धपाय। जाय ॥ जांण । पिछांण ॥ ५. गोलाकार मिट्टी का बड़ा बर्तन । ६. हलुओ से । मिलाय । जाय। ७७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ स्वाम कहै तुम्हे सांभळो रे, पाप उदय थी पिछांण। इहभव मैं पिण दुख ऊपजै रे, सुण इक हेतु सयांण। तंत दृष्टंत भीक्खू तणा।। ३ एक भिख्यारी भीख मांगतौ रे, फिरतां-फिरतां पुर माय। पंच रोटी रौ आटौ पामीयौ रे, अंतर भूख अथाय॥ तंत. ४ रोटी करण लागौ तदा रे, भिख्याचर भाग हीन। एक रोटी नैं उतारनै रे, चूला लारै मेली दीन॥ तंत. ५ एक रोटी तवै सिक रही रे, एक खीरै सिकै आंम। एक रोटी रौ लोयौ हाथ मैं रे, लोयौ एक कठोती मैं तांम॥ तंत. ६ स्वांन एक आयौ तिण समैं रे, पाप तण परमाण। लोयौ कठोती हैं ले गयौ रे, जद ते स्वांन लारै न्हाठौ जांण।। तंत. ७ स्वांन लारै भिख्याचर न्हासतां रे, आखुर पडीयौ अचांण। ___हाथ माहै जे लोयौ हुतो रे, ते धूळ मैं बीखरीयौ पिछांण।। तंत. ८ ततखिण पाछौ आवी तदा रे, देखण लागौ तिवार। चूला लारै रोटी पड़ी हुँती रे, ले गइ तास मंजार॥ तंत. ९ तवा तणी तवै बळ गई रे, खीरा री खीरै हुइ गई छार। पांचू विलाई इण रीत सूं, पाप तणा फळ धार॥ तंत. १० इमहिज एक भागां थकां, पांच जावै परवार। दोषण थापै जे जांण नैं, भव-भव होवै खुवार ॥ तंत. ११ दोष सेव्यां डंड संपजै रे, डंड जितोई भागंत। नवी दिख्या आवै जेहथी रे, ते दोष सेव्यां सर्व जावंत॥ तंत. १२ भीखू स्वाम भली परै रे, दीधौ वारू दृष्टंत। हळुकर्मी सुण हरखीयै रे, भारी कर्मा भिड़कंत॥ तंत. १३ पचीसमी ढाळ परवरी रे, भीक्खू बुद्धि भरपूर। नित्य प्रति हूं वंदना करूं रे, 'पौह ऊगते सूर ॥ तंत. EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE १. काठ का बर्तन। २. अचानका ३. राख। ४. अपने आप, बिना जानकारी के। ५. विनष्ट। ६. प्रभात के समय। ७८ भिक्खु जश रसायण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ आधाकर्मी जायगां, थानक तिण रौ नाम। एहवा थानक भोगवै, वले कहै निर्दोषण तांम॥ २ वले कहै म्हे मुख सूं कद कह्यौ? जद बोल्या-भीक्खू स्वाम'। जाय जमाई सासरै, तौ पिण न कहै ताम॥ ३ मुझ निमतै सीरौ करौ, इम तौ न कहै तेह। पिण कीधोरौ भोगवै, जद दूजी बार करेह। ४ जो सीरां नां सूंस कहै, तौ न करै दूजी बार। त्याग नहीं तिण सूं करै, भोजन विविध प्रकार। 5 ज्यूं भेषधारी रहै थानक मझे, वले कहै मुख सूं तांम। थानक मुझ निमतै करो, इम म्हे कद कह्यौ आंम? 6 त्यां निमते कीयौ भोगवै, फिर करै . दूजी वार। त्याग करै थानक तणा, तौ आरंभ टळे अपार।। 7 वली डावरौरे कद कहै, करौ सगाई मोय। पिण सगपण कीधा पछै, कुण परणीजै सोय? ८ वलि बहु बाजै केहनी, घर किण रौ मंडाय। डावरा तणौज जाणंजो, थानक एम गिणाय॥ ९ थांनक बाजै तेहनौं, माहै पिण रहै तेह। न कह्यौ थांनक नौ तिणां पिण सहु काम करेह। ढाळ : २६ __ (नहीं इसौ दूसरो महावीर) १ गछवास्यां रै उपासरौ रे, मथेण तणै पोसाल। फकीर रै तकीयौ कहै रे, नाम में फेर नीहाल॥ रे जीव! स्वाम बुद्धि अति सोभती रे, निरमल न्याय नीहाल।। रे जीव! स्वाम बुद्धि विसाल।। ध्रुवपद।। १. भि. दृ. ६४ २. लड़का। भि. दृ. ६३। ३. सगाई। ४. उन लोगों ने। ५. भि.दृ.३०८ ६. महात्मा/विद्या गुरु। भिक्खु जश रसायण : ढा. २६ ७९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ 'कांनफाडां रे आसण कहै रे, भक्त फुटकर तेहनैं रे, ३ 'सिन्यास्यां रै मठ कहै रे, रामदुवारौ केयक कहै रे, ४ घर रा धणी रै घर कहै रे, कहै गांम धणी रै कोटरी रे, राजा रै महिल कहै सही रे, साधां रे थांनक वाजतौ रे, ६ सगलाइ घर रा घर अछै रे, ८ किहांयक 'कसी' बूही' सही रे, आरम्भ तौ षट्काय नौं रे, अरिहंत नीं नहीं आगन्या रे, घर छोड्या मुख सूं कहै रे, ति घर रौ नाम थानक दीयौ रे, ९ आधाकर्मी थानक भोगव्यां रे, दूजै आचारंग देखलो रे, १० आधाकर्मी आदर्यां रे, 'नसीत दसमें ६ नीहाळजो रे, ११ आधाकर्मी भोगव्यां रे, रुळ 'पहिले शतक भगोती'' मैं पेखलौरे, १२ इत्यादिक बहु वारता रे, भीक्खू तास भली परै रे, १३ उत्पत्तिया बुद्धि अति घणी रे, निश दिन मनड़ौ माहरौ रे, ५ ७ १. कान छिदवा कर उनमें मुद्रा या कुंडल धारण करने वाले संन्यासियों के स्थान को आसन, दादूपंथी, संन्यासियों के . रहने के स्थान को अस्थल और दशनामी साधु-संन्यासियों के रहने के स्थान को मंदी कहा जाता है। २. बड़े संन्यासियों के रहने का स्थान मठ और रामस्नेही साधुओं के रहने का ८० भक्तां रै अस्तल मंढी नांम नीहाल । रे रामसनेह्यां रांममोहलो कहै रै सेठ सुहाय किहांयक रावळौ कहाय ।। रे जीव ! कायक नांम मैं कठैयक रै गेह | केह ॥ रे जीव ! हवेली ठोड़ दरबार । फेर विचार ।। रे जीव ! कोदाल ३ । जीव ! जांण । जीव ! 'बूहा असराल ॥ रौ आधाकर्मी हुऔ ज्यूं छ काय नों गांम-गांम रह्या घर रह्या भेष नैं भांड ॥ रे महासावज कह्यौ दूजै अध्ययन दयाल ॥ चौमासी वीर तणी भाल। जीव ! | रे ज्यूं घमसांण ।। रे मांड। जीव ! किरिया संभाळ। रे जीव ! पिछांण । डंड ए वांण ।। अनंतौ काळ । आगम माय। नवमें उद्देशे नीहाल ।। रे जीव ! आखी रूड़ी रीत दीधी ओळखाय॥ रे जीव ! अधिक ओजागर जप रह्यौ आप रौ जाप ।। रे जीव ! आप। रे जीव ! स्थान 'राम- दुवारा' व 'राम मोहला' कहलाता है। ३. कहीं कुद्दाल का प्रयोग हुआ। ४. कहीं कसी का प्रयोग हुआ। ५. द्वितीय आचारांग श्रु. २अ. २उ. २ सूत्र ४१ । ६. निशीथ उ. १० सूत्र ६ । ७. भगवती शतक १ उ. ९ सूत्र ४३६ । भिक्खु जश रसायण Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सुपर्ने सूरत स्वाम नी रे, देखत ही सुख होय। ___ प्रत्यख नौं कहिवौ किसूं रे, सरण आपनौं मोय।। रे जीव! १५ आदि जिणंद तणी परै रे, ओळखायौ सरधा आचार। जनम-जनम किम वीसरै रे, तुझ गुण अनघ अपार।। रे जीव! १६ वारू ढाळ छवीसमी रे, भीखू गुण मुझ चीत। याद आयां हियौ हूलसै रे, परम आप सूं पीत॥ रे जीव! भिक्खु जश रसायण : ढा. २६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा पासा आप। १ भारीमाल सोभै भला, पूज भीखणजी वारू कळा वखांण की, घन जिम शब्द गुंजास॥ २ नित्य वखाण दै निरमळौ, ऊपर भीक्खू दांन-दया दीपावता, सुणतां टलै संताप।। ३ हळुकर्मी हरखै घणां, भारीकर्मी भिडकंत। अळगा ही अवगुण करै, विकल वचन विलपंत॥ ४ किणहिकभीक्खू नैं कह्यौ, वर तुम करौ वखांण। निंदक औ निंद्या करै, अळगा । बैठ अजांण॥ ५ भीक्खू उत्तर दै भलौ, स्वान तणौज स्वभाव। झालर को झिणकार सुण, रोवण केरौ राव।। ६ नीच इती जांणै नहीं, ए झालर अधिकार। व्याहव तणी वाजै अछै, कै मुंआ नी धार? ७ ज्यूं ए पिण जाणै नहीं, वाचै ग्यांन वखांण। राजी द्वैणौ ज्यांहि रह्यौ, अवगुण करै अजांण॥ ८ उलटी निंद्या औ करै, निद्या तणौज न्हाल। स्वभाव यांरौ छै सही, झूठी करै झखाल। ९ ऐसी बुद्धि उतपात री, निमळ अपूर्व न्याय। मेलै मुनि महिमानिला, स्वाम घणां सुखदाय॥ ढाळ : २७ (हो म्हारा राजा रा) १ स्वाम भीक्खू गुरु महा सुखदाई, भारीमाल शीष अतिभारी। अमृत वाण सुधा सी अनोपम, हद देशना महा हितकारी।। हो म्हारा सासण रा सिणगार स्वामीजी, भीक्खू भारीमाल ऋषभारी॥ध्रुवपद।। १. बाद में। २. भि. दृ. १९ ३. शब्द। ४. विवाह, व्याव (क)। ५. मुवां (क)। ६. बकवास। भिक्खु जश रसायण Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ हद वांण सुणी हळुकर्मी हरखै, द्वेषी बोल्या धर्म-द्वेषधारी। सवा डौढ पोहर रात्रि आई, सो, यां नैं कल्पै नहीं इण वारी। हो म्हारा.. ३ भीक्खू कहै दुख नी रात्रि मूंडी, झट सुख-निशरे सोहरी जावै। ___'समीसांझ २ माहै मनुष मूआं सूं, लोकां नैं रात्रि मोटी लखावै॥ हो म्हारा. ४ संत वखाण देवै ते न सुहावै, ज्यांनै रात्रि घणीज जणावै। दंभ मिट्यां तौ अधिक न दीसै, आ तौ पौहररै आसरै आवै।। हो म्हारा. ५ 'दूहां सहित दीया दृष्टंत दोनूं", पैंतालीसै सैहर पीपार। तंत चौमास सोजत मैं तेपनैं; उठै हूवौ घणौ उपगार। हो म्हारा. किणहिक स्वाम भीक्खू नै कह्यौ, इम उपगार तौ आछौ कीधौ। जीव घणां नैं समजाया जुगत सूं, लाभ धर्म रौ लीधौ॥ हो म्हारा. ७ वळता भीक्खू कहै खेती तौ वाई, पिण 'गांम रै गोरवै। पेखो। सौ खर नहीं आय पड्या है तौ टिकसी, बाकी कठिण है अधिक विसेखो। हो म्हारा. ८ गधा समांन पाखंडी गिणियै, जिहां जारौ विशेष जिणां रौ। खेती समान धर्म खय कर दै, तिण सूं संग न करणौ तिण रौ॥ हो म्हारा. ९ किण ही कह्यौ देवौ दृष्टंत करला', स्वामीनाथ बोल्या -सुण वायो। 'करड़ौ रोग उठ्यौ गंभीर' केरौ, 'मृदु फूंजाल्या केम मिटायौ।हो म्हारा. १० हलवांणी२ रा डांम२ लागां हुवै हलको, गंभीर१४ रौ रोग गिणायो। करडौ मिथ्यात रोग मिटावण काजै, करड़ा दृष्टंत कहायो। हो म्हारा. ११ किण ही स्वामीजी नैं पूछा कीधी, कच्ची बुद्धि वाळौ समझै न कांई? मुनि भीक्खू कहै१५-दाल मूंग मोटो री, थिर दाल चणां री पिण थाई।। हो म्हारा. १. भि. दृ. १८ ११. हल्के हाथ से खुजली करने पर। २. सुख की रात्रि। १२. लोहे की लम्बी छड़, जिसका एक ३. सायं काला सिरा तीक्ष्ण और नोकदार होता है। ४. एक दृष्टंत उक्त दोहों में और दूसरा १३. दागना। ढाल के पद्यों में। १४. गहरा वायु विकार। ५.भि.दृ. २१। १५. भि. दृ. १५७। ६. गांव के किनारे। १६. फिर (क)। ७. जाड़/झुंडा ८. कड़ा। ९. भि. दृ. ६९। १०. विपम वात-रोग। भिक्खु जश रसायण : ढा. २७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पिण गोहां री दाल हुवै नहीं प्रत्यख, ज्यूं भारीकर्मा न समजै जांणी। ____ हळुकर्मी बुद्धिवान हुवै ते, पक्ष छांडै जिणधर्म पिछांणी॥ हो म्हारा. १३ सुध जाब दूजौ देवै तिण मैं नसमजै, आपरी भाषा रो ई अजांण। दृष्टंत' स्वाम ते ऊपर दीधौ, समजावण काज सयांण॥ हो म्हारा. १४ एक बाई बोली-म्हारो भर्तार एहवौ, आखर लिखै ते अधिक अजोग। बीजा सूं आखर वचै नहीं विरुआ', मोनै ठोंठ रौ मिलियौ संजोग॥ हो म्हारा. १५ इतरै दूजी कहै-मुझ पिउ इसडौ, 'पोता रा' लिख्या अखर पिछांणो। जे पिण पोता सूं वच्या नहीं जावै, अति हि मूरख एहवौ अजांणो॥हो म्हारा. १६ ज्यूं आपरी भाषा नैं आप न जाणै, केवळि भाख्यौ धर्म किम आवै? सरधा तौ परम दुलभ कही सूत्रे', परवीण हळुकर्मी पावै। हो म्हारा. १७ पाखंड्यां रौ मग गायां री पगडांडी, दूर थोडी तौ मारग दीसै। ___ 'आगै उजाड " मोटी अटवी मैं, दुष्ट कांटा विषम दुधरीसै॥ हो म्हारा. १८ ज्यूं दान सीलादिक अल्प दिखाई, पाखंडी पछै हिंस्या पमावै। ___आगे चलै. नहीं ए उनमारग, जाब माहै घणां अटक जावै। हो म्हारा. १९ पातसाही-रस्ता जिम पंथ प्रभु नौं, नहीं अटकै कठेइ ते न्यायो। दृष्टंत पाग तणौ स्वाम दीधौ, पार थेट तांइ पौहचायौ। हो म्हारा. २० पाग चोरी ल्यायां पूछ्यां न पूगै, मुदौ थेट ताइ न मिलाई। साचौ कहै-मोल ली उण सेती, रूड़ी अमकडीयार पास रंगाई।हो म्हारा. २१ इम साची सरधा-किहांईन अटकै, झूठी सरधा अटक झोला खावै। दृष्टंत स्वाम भीक्खू एहवा दीधा दांन दया आज्ञा दरसावै।। हो म्हारा. २२ एहवा भीक्खू स्वाम आप ओजागर, ज्यां रा गुण पूरा कह्या न जावै। ___ हद न्याय सुणी हरखै हलुकर्मी, भारीकर्मा सांभळ भिड़कावै॥हो म्हारा. २३ सखर ३ ढाळ कही सप्त वीसमी, दृष्टंत भीक्खू रा दिखाया। मति-श्रुत सूं वर न्याय मिलाई, स्वामी जीव घणा समजाया।हो म्हारा. १. भि. दृ. २६२। २. विद्रूप। ३. अनपढ़। ४. स्वयं का। ५. उत्तरण्झयणाणि-अ. ३ गा. १। ६. भि. दृ. १३४। ७. निर्जन बस्ती। ८. दुर्धर्प। ९. राजमार्ग। १०. भि. दृ. १३१॥ ११. अमुक। १२. अटकै (क)। १३. सुन्दर। ८४ भिक्खु जश रसायण Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ किणहिक' भीक्खू नैं कह्यौ, सूंस' करावौ सोय। ते लेई भागै तिको, पाप आपनैं होय॥ २ स्वामी भाखै सांभळो, कोयक साहूकार। वस्त्र किण नैं वेचीयौ, सौ रुपियां रो सार॥ ३ नफौ मोकळौ नीपनों, वेच्यौ तास विचार। वलि वसतर लेवाल रा, सांभळजो समाचार॥ ४ कपड़ौ लीधौ तिण कीया, एक-एक रा दोय। तौ पिण नफौ उण तणौं, वेच्यौ तास न होय॥ ५ कपड़ो जो लेई करी, जालै अग्नि मझार। तोटौ पिण उण रै तिकौ, वेच्यौ तसुं म विचार।। ६ समजाई म्हे सूंसरे दारे, तिण रौ नफौ अमांम। हमनै तौ ते हुय गयौ, तोटा मैं नहिं तांम॥ ७ संस पाळसी अति सखर, थिर फळ तेहनै थाप। भांग्यां दोषण उण भणी, पिण म्हांनै नहीं पाप।। ८ वलि दूजौ दृष्टंत वर, दमि नैं किण घृत दीध। मुनि नैहराइ' 'जिय मुंआं", पापज तास प्रसीध॥ ९ अथवा मुनि अन्य साध नैं, घृत दे बंधा जिन-गोत। तौ पिण फळ ते मुनि तण, हिव गृही नैं नहिं होत॥ ढाळ : २८ (सीता विभीषण नैं कहै निशंक स्यूं) १ वैरागी री वांणी सुण्यां वैराग वाधै, दीयौ स्वाम भीक्खू दृष्टंतो रे लोय। कसूंबो आप गळ्यां गाकै कपडौ, आवै रंग अत्यंतो रे लोय॥ स्वाम भीक्खू तणा दृष्टंत सुणजो ॥ . --- - १.भि. दू.१३६। २. प्रतिज्ञा। ३. धां (क)। ४. श्रेष्ठ। •-५.भि. दृ. १३७। ६.संयमी। . ७. असावधानी से। ८. जीव मरने से। ९. बंधे (क)। १०.भि. दृ. २२४। भिक्खु जश रसायण : ढा. २८ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ गांठ कसूंबा री गाढी बांध, पोतै गळीयां विण रंग न पमावै' रे लोय। ज्यूं वैराग हीण तणी वांणी सूं, अति वैराग किण विध आवै रे लोय।। स्वाम. ३ वेषधारी कहै म्हे जीव वचावां, भीखनजी नांहि बचायो रे लोय। भीक्खू कहै थांरा रह्या वचावणा, मारणाज छोड़ो मनल्यायो रे लोय।।स्वाम. ४ थानक माहै रहौ किवाड़ जड़ौथे, जीव घणां मर जावै रे लोय। किवाड़ जड़वा रा सूंस कियां तूं, घणां जीवां री घात न थावै रेलोय।।स्वाम. ५ चौकीदार हुँतौ सो चौकी दैणी तौ छोड़ी, चोरी करवा लागौ छांनैः-छांनै रे लोय। कहै लोकां नैं चौकी यूं करूंजाबता, मैंनत रा पइसा देवौ थे म्हांनै रे लोय। स्वाम. ६ चौकी रही थारी चोऱ्यां छोड़ तूं, बोल्या लोक तिवारै' रे लोय। दिन रा तौ घर-हाट देखी जावै, पछै रात्रि समैं आय फाडै रे लोय। स्वाम. ७ पइसौ पइसौ तो. देसां परहौ, घर बैठां नैं गिणायो रे लोय। ज्यूं भेषधारी कहै म्हे जीव बचावां, मारणा छोड़ो भीक्खू फुरमाओ रे लोय।। स्वाम. ८ किण ही पूछ्यौ-ऋषपाल मुनि कह्या, ऋख्या करै किण रीतो रे लोय। भीक्खू कहै-ज्यूं छै तिमहिज राखणा, आघा-पाछा न करणा अनीतो रे लोय।। स्वाम. ९ पशु नीलोती चरतां नै मुनि पेखै, किम ऋषपाल कहीजै रे लोय। त्रिविधे-त्रिविधेहणवौ त्याग्यौ ते रुक्षक, अभय सर्व नैं आपीजै रे लोय। स्वाम. १० कोइ कहै हिवड़ां पंचम काळ छै, पूरौ साधपणौं न पळायौ रे लोय। तब पूज कहै-चोथा आरा मैं तेलौ, कितरा दिनां रौ कहायो रे लोय? स्वाम. ११ तब ते बोल्यौ-तीन दिन रौ तेलौ, चौथे आरै चित चाह्यौ रे लोय। भीक्ख पछ्यौ-एक गरौ भोगव्यां, तेलौ रहै कै भागै ताह्यौ? रे लोय। स्वाम. १२ तबते बोल्यौ-'परहौ१ भागै' तेलौ, इम चौथा आरा रो तेलौ ओळखायो रे लोय। फेर स्वामी पूछ-पंचम आरै, किता दिवस रो तेलौ कहायौ रे लोय? स्वाम. १३ तब ते बोल्यौ-तेलो तीन दिनां रो, पंचम आरै पिछांणी रे लोय। भीक्खू कहै-एक बूंगरो खाधां, सुद्ध रहै कै भागै सो जांणीरे लोय? स्वाम. १.रंगीन नहीं बना सकता। ७. रक्षा। २. भि. दृ.६५। ८. भि. दृ. १५०। ९. हरियाली। ४. सुरक्षा/परिश्रम। १०.भि.दृ.६! ११. खंडित हो जाए। ६.संरक्षकारखवाला। ३ विपकर। - - " .. ..... ... ... ५. तब। भिक्ख जश रसायण Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तब ते बोल्यो-परहौ भागै तेलो, वलि पूज बोल्या वायो रे लोय। __ भुंगरा सूं ई तेलौ परहौ भागै, दोष थाप्यां संजम किम ठहरायो रेलोय? स्वाम. १५ काळ दुषम रै माथै काय न्हाखौ, 'नेय? छहुं" चरण ते नीकौ रे लोय। पंचम चौथा आरां मैं प्रत्यख, सहुरै त्याग है एक सरीखो रे लोया स्वाम. १६ दोष लागां रो डंड दोनूं आरां में, डंड लीधां चारित्र दोनूं आरौ रे लोय। दोनें आरां मांहै दोष थाप्यां तूं, चारित दोन आरां मैं हुवै छारो रे लोय। स्वाम. १७ भीक्खू स्वाम दृष्टंत भली पर, वारू भिन्न-भिन्न भेद बताया रे लोय। ज्यां पुरसां जिण-माग जमायौ, स्वामी च्यारतीर्थसुखदायारेलोय॥स्वाम. १८ एहवा पुरसां रा औगुण बोलै, कृतघ्न कर्म-रेख काळी रे लोय। दुर्लभ बोध अवर्णवाद सूं दाख्यौ, सूत्र ठांणांग लीजो संभाळी रे लोय। स्वाम. १९ अष्टवीसमी ढाळ अनोपम, भीखू रा दृष्टंत भाळी रे लोय। उत्पत्तिया भेद मति रौ है आछौ, नंदीमैं पाठ नीहाळी रे लोय।।स्वाम. १. छह प्रकार के नियंठ/निग्रंथों में। २. ठाणं ५/१३३। ३. नंदी सूत्र ३८। ४. देखो। भिक्खु जश रसायण : ढा. २८ A Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ किणहिक' भीक्खू नै कह्यौ- संजम लेउं सार। ___मन ऊठै है माहरौ, स्वाम कहै सुखकार॥ २ घर मैं पुत्रादिक घणा, रुदन करै धर राग। तुझ काचौ हीय तेहथी, अति हि कठण अथाग। ३ न्याती रोता निरखनै, मोह धरे मन माय। तूं पिण रुदन करै तदा, काम कठिण कहिवाय।। ४ तिण कह्यौ स्वामी! तहत वच, आंसू तौ आय जाय। परियण रोता पेख मैं, म्हारे पिण मोह आय।। ५ स्वाम कहै-कोइ सासरै, जाय जमाई जांण। आंणौ२ ले आतां छतां, त्रिय तौ रोवै तांण॥ ६ पिण उण री देखा-देख पिउ, जेह जमाई जोय। रुदन करै मोह-राग सूं, हासी जग मैं होय॥ ७ त्रिय रोवै पियर तणौ, विजोग पड़े विशेष। वर रोवै किण वासतै? उपनय कहूं अशेष। ८ ज्यूं संजम लेवै जरै, स्वारथ रुदन तत चारित लेवै तिकौ, मोह धरै किम मन? ९ तिण सूं संजम कठिण तुझ, दियौ इसौ दृष्टंत। वलि हेतु आख्या विविध, स्वाम भला सोभंत॥ ढाळः २९ __ (सुमित्रनंदन श्री मुनिसुव्रत) १ जगत तौ मोह नै दया जाणे छै, दया ओळखणी दोहरी। प्रत्यख राग अठारै पाप मैं, साची श्रद्धा नही सोहरी रा॥ भविक जन ! भीक्खू रा दृष्टंत भारी॥ २ पूज मोह ओळखायौ प्रत्यख, दीयौ एहवौ दृष्टं तौ। परण्यां पछै कोइ परभव पौहता, बाल अवस्थावंतो रा।। भविक. १. भि. दृ. ३७। ससुराल को आना। २. विवाहोपरान्त वधु का पहली बार ३. भि. दृ. २५७। स्वजन। ८८ भिक्खु जश रसायण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मूंऔ देख हाहाकार माच्यौ, प्रत्यख हाय-हाय शब्द पुकारै, ४ कहै बापरी' छोहरी रौ घाट कांइ हुसी बारै वरस री विधवा हुइ सो, ५ एम विलाप करै लोक अधिका, कुरणा दया इण छोहरी नीं करै छै, पिण भोळा इतरी नहि पेखै, जाऊ रह्यौ तौ जीवतौ तौ, ७ दो-च्यार हुंता डावरा - डावरी, ६ पिण न जांणै आ काम भोगां थी, ८ तिण री चिंता तौ नहीं तिणां नैं, ते पिण मूळ चिंता नहीं त्यांनै, ९ ग्यांनी पुरुष मरण - जीवण सम गिरौं, मूढ मिथ्याती मोह राग नैं, १० अथवा राग-द्वेष रै ऊपर, Start किण ही माथा मैं दीधी, ११ उण नैं सहु कोई देवै ओलूंभा, क्रोध करी दीयां द्वेष कहै सहु, १२ डावरा नैं किण ही लाडू दीधौ, कोइ न कहै इणनैं कांय डबोवै, १३ औ राग ओळखणौ दोहरौ अति ही, दुर्जय रागं दसम तांई देखो, १४ इम राग-द्वेष भीक्खू ओळखाया, स्वाम भीक्खू न्याय- सूतर सोधी, १. भौंचक्का (विस्मित) २. बेचारी / असहाय । ३. हाल / दशा । ४. खराब । भिक्खु जश रसायण : ढा. २९ त्रिया रोवै तिण वेळा । भयचक्र' जन हुआ भेळा रा॥ भविक. री देखौ अवस्था ऐसी । किण विध दिन काढेसी रा? भविक. जगत इण नैं दया जांणै। इण रा॥ भविक. काम भोगो। मूंहर्ख तो इम मां औ वंछै इण रा सखर मिल्यौ थौ संजोग रा॥ भविक. भोग भला भोगवती । दूजौ माठी गति माहि पड़ती रा।। भविक. तथा पिऊ 'किण गति पांगरीयौ ॥ जगत माया मोह जुड़ीयौ रा। भविक. 'उलट सोग' नहिं आंणै। जीवणां नैं दया जानैं रा ।। भविक. दृष्टंत दीधौ । सांप्रत द्वेष प्रसीधौ रा ।। भविक. डावरा रै माथा मैं कांय देवै? कोइ आछौ नहीं कैहवै रा ।। भविक. अथवा मूंळौ दीयौ आणी । प्रत्यख राग पिछाणी रा ।। भविक. इणनैं दया कहै छै अजांणो । वीतां वीतराग कहांणो रा ।। भविक. मोह-राग पाखंडी दया मांगें। निरवद दया आज्ञा मैं जांणै रा ।। भविक. ५. कौन सी गति में उत्पन्न हुआ। ६. हर्प। ७. भि. दृ. ६ । ८. दसवें गुणस्थान तक। ८९ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ भरत-खेतर मैं दीपक भीक्खू, द्वीपा समान दीपायौ। जिहाज तुल्य भीक्खू जशधारी, प्रत्यख ही पेखायौ रा॥ भविक. १६ याद आवै भीक्खू मुझ अह-निश, तन-मन शरण तुम्हारौ। त्यां पुरसां री आसता तीखी, जिण रौ है सफल जमारौ रा। भविक. १७ गुणतीसमी ढाळे ग्यांनी गुर ना, वारू वचन बताया। कठा तिलक भीक्खूगुण कहिये, चिर जश-कलश चढाया रा।। भविक. १. कहां तक। २० भिक्खु जश रसायण Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा जाय। १ विहरत' पूज पधारीया, 'काफरले' किण वार। संत गौचरी संचऱ्या, आज्ञा लेइ उदार।। २ एक जाटणी रै उदक, जाच्यौ साधां ते धोवण नहीं दै तिका, कहै-देवै सौ पाय।। ३ साधां आय कह्यौ सही, स्वाम पास सुविहांण। एक जाटणी रै अधिक, पिण नहीं देवै पांण।। ४ तब स्वामी आया तिहां, बाइ जळ वहिराय। जब ते कहै-देवै जिसौ, परभव मैं फळ पाय॥ ५ औ धोवण यूं आपनै, परभव धोवण पाय। जे जळ पीधौ जाय नहि, मुझ सेती मुनिराय॥ ६ पूज तास पूछा. करी- गाय भणी दै घास। तिण रौ स्यूं दै ते गउ, आपै दूध उजास।। ७ इम मुनि नैं जळ आपीयां, परभव सुख फळ पाय। निरदोषण नां फळ निमळ, स्वाम दई समजाय।। ८ जद आज्ञा दी जाटणी, वहिरी ते सुद्ध वार। आप ठिकाणे आवीया, ऐसी बुद्धि ९ मति ग्यांन महा निरमळी, भीखू नौं भरपूर। नीत चरण पाळण निपुण, स्वाम सिंघ सम सूर। ढाळ : ३० (भगवंत भाख्या रे श्रावक एहवा) १ आज म्हारा पुज सूं रे पाखंड थरहडै, सुर गिर आप सधीरो जी। पारस साचौ रे भीक्खू परगट्यौ, हद स्वाम अमोलक हीरो जी। आज. २ पादूर सैहरे रे पूज पधारीया, उतऱ्या उपासरै आंणो जी। शिष हेम संघातै रे गौचरी ऊठतां, इतलै कुंण अवसांनो जी। आज. उदार।। १. भि. दृ. ३४। २. भि. दृ. १०। ३. वृतान्त। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३० Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आया दोय जणा रे तिण अवसरै, सांमदासजी रा साधो जी। खांधे पोथ्यां तणा जोड़ा खरा, मैंला वस्त्र मर्यादो जी॥ आज. ४ विहार करंता उपात्रै आवीया, बोलै मुख सूं बोलो जी। कठै भीखनजीरे भीखनजी कठै? तब भीक्खू बोल्या तोलो जी।। आज. ५ भीखन नाम म्हारौ स्वामी भण, वलि ते बोल्या विसेखो जी। थांनै देखण री मन मैं हुंती, तब स्वाम कहै तुम देखौ जी॥ आज. ६ वलि उवे बोल्या थे सगली वारता, आछी कीधी अमांमोजी। एक बात आछी नहीं आदरी, तब पूज कहै-कहौ तामो जी॥ आज. ७ वलि ते कहिवा रे लागा वारता म्हे बावीस टोळा रा साधो जी। त्यां सगला नैं असाध कहौ तिका, विरुइ बात विराधो जी। आज. ८ मुनि भीक्खू कहै-तुझ टोळा मझै, लिखत इसौ अवलोयो जी। __ इकवीस टोळा रौ तुझ गण आवीया, संजम देणौ सोयो जी॥ आज. ९ ऐसौ लिखत थांरा गण मैं अछै, जांणौ कै थे न जाणौ जी? जद उवे बोल्या-रे म्हे जांणां अछां, छै मुझ लिखत अछांनौजी'। आज. १० भीक्ख पभणै-इकीस टोळां भणी, थेइज प्रत्यख उथाप्या जी। गृही नैं दिख्या देइ लौ गण मझै, थे गृही तुल्य त्यांनै ई थाप्या जी।। आज. ११ इकवीस टोळा रा तुझ गणआवीयां, दिख्या दे लेवौ माह्यौ जी। गृही नैं दिख्या देइ लौ गण विषै, गृही तुल्य तास गिणायो जी॥ आज. १२ इकवीस टोळा इमथेइज उथापीया, तुझ टोळी रह्यौ तेहो जी। तिण रौ लेखौ वतावू तो भणी, सांभळजो ससनेहो जी।। आज. १३ डंड बेला रौ आवै जिण भणी, तेलौ देवै तहतीको जी। तेला रो डंड आवै तिण भणी, श्री जिन वयण सधीको जी।। आज. १४ इकवीस टोळां नैं साध सरधौ अछौ, वले नवौ साधपणों देवौ जी। तिण लेखै दिख्या रे तुझ आवै नवी, विवेक लोचन सूं वेवो जी।। आज. १५ थांरौ टोळौ पिण इण लेखा थकी, ऊथप गयौ उवेखो जी। इम वावीस टोळा ऊथप गया, दंभ तजी नैं देखो जी।। आज. १६ एम सुणीनै ते बोल्या-इण विधै, वारू वयण विचारी जी। सुणौ भीखनजी! रे साची वारता, बुद्धि तौ थारी भारी जी।। आज. १. ज्ञात। २. विचारो। ९२ भिक्खु जश रसायण Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ इम कहि जावा रे लागा उण समैं, रहौ तौ चरचा करां रूड़ी तरै, १८ तब उवे बोल्या रे-मुझ रहिवा तणी, ततक्षण एम कही नैं तिहां थकी , स्वाम कहै सुखकारौ जी । न्याय तणी निरधारो जी।। आज. हिवडां थिरता न होयो जी। रह्या चालता दोयो जी।। आज. विनोदो जी। जी ॥ द्वेषी द्वेषज धारै २० रागी सुण नैं रे चित मैं रित' लहै, उलट बुद्धि नर अवगुण आदरै, २१ वर भीक्खू री रे सुंदर वारता, हलुकर्मी जन सुण हरखै घणां, २२ तंत तीसमी रे ढाळ तपासनीं, वच सुण मूंह विगाड़ै जी || सांभळतां सुखकारी आज. पूज वारता प्यारी जी।। अति बुद्धि भीक्खू नीं औनो जी | अंतरजांमी रे याद आयां छतां, चित्त मैं पांम्यो चैनो जी || आज. १९ ऐसी बुद्धि रे अनोपम आपरी, चिमतकार अति पामैं चित मझे, १. रति (क ) । भिक्खु जश रसायण : ढा. ३० पांमैं बुद्धिवंत प्रगटपणें प्रमोदो २. तत्त्व की पहचान कराने वाली । आज. जी । आज. जी । ९३ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा जोय।। १ विचरत पूज पधारिया, सरीयारी मैं सोय। प्रश्न' वौहरै पूछीया, जाति खीवसरा २ जीव नरक मैं जाय तसुं, तांणणवाळौर तांम। कुंण है कहौ कृपा करी? इम पूछ्यौ अभिरांम।। ३ भीक्खू उत्तर इम भण, सखर जाब सुखकार। पत्थर कूआ मैं न्हाखीयां, कुंण तसुं खांचणहार? ४ कठिण पत्थर भारे करी, आफेई तल जाय। कर्म-भार सूं कुगति लहै, स्वाम कहै इम वाय॥ ५ बोहरै पूछा वलि करी- जीव स्वर्ग किम जाय। कुंण लेजावणहार तसुं, वारू अर्थ बताय? ६ भीक्खू कहै वौहरा भणी- प्रतख पाणी माय। काष्ट न्हांखै कर ग्रही, ते किण रीत तिराय? ७ तिण काष्ट रै तळं कहौ, किण मांड्या है हाथ? हळकापणा स्वभाव सूं, ऊपर तिरनै आत।। ८ हळको कर्म करी हुवां, जीव स्वर्ग मैं जाय। सगला कर्म रहीत सो, परम मोक्ष गति पाय॥ ९ ऐसा उत्तर आपीया, वारू बुद्धि विनांण। वलि उत्पत्तिया बुद्धि थकी, सखर जाब सुविहांण।। ढाळ ३१ (देवै मुनिवर देशना) १ पूज भणी किण पूछीयौ५- हळको जीव किम होय ललना! दृष्टंत स्वाम दीयौ इसौ, सांभळजो सहु कोय ललना। तंत दृष्टंत भीक्खू तणा ॥ १. भि. दृ. १४१। २. खींचने वाला। ३. अपने आप। ४. भि. दृ. १४२। ५. भि. दृ. १४३। भिक्खु जश रसायण Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ तंत दृष्टंत भीक्खू तणा, तंत वचन तहतीक ललना। तंत स्वाम नाव तारणी, न्याय तंत निरभीक ललना। तंत. ३ पइसौ मेहलै पांणी मझै, ततखिण डूबै तेह ललना। उणहीज पइसा नैं अग्नि मैं, अधिक तप दे एह ललना।। तंत. ४ कूटी-कूटी वाटकी करी, तिरै उदक मैं ताय ललना। वलि उण वाटकी नैं विषै, पइसौ मेल्यां तिराय ललना॥ तंत. ५ तिम जीव संजम-तप करी, करै आतम हळकी कोय ललना। कर्म-भार अळगौ कीयां, तिरियै भव-दधि तोय ललना।। तंत. ६ किणहिक स्वाम भणी कह्यौ, दुरंगा पात्रा देख ललना। काळा-धोळा-लाल किण कारण? स्वाम कहै सुविशेष ललना॥ तंत. ७ विविध रंग कुंथुआ हुवै, इक रंग सूं दूजा पर आय ललना। . सांप्रत दीसणौ सोहिलौ, कारण एह कहाय ललना।। तंत. ८ अतिभार हींगलू एकलौ, काळौ फोरों कहिवाय ललना। वलि सोहरौ वासी' उतारणो, इत्यादिक ओळखाय ललना॥ तंत. ९ जू जूआ रंग देवै जुदा, निगम में वरज्या नांहि। वरज्या ते ममत्व भावे करी, ते ममत री थाप न ताहि ललना। तंत. १० बालपणें स्वामी वैणीरामजी', भीक्खू प्रतै भाखंत ललना। हींगलू सूं पात्रा रंगणा नहीं, तब कहै भीक्खू तंत ललना। तंत. ११ म्हारै तो पात्रा रंग्या अछै, तुझ मन संका है तांम ललना। तौ तुझ पात्रा रंगौ मती, म्हे तो दोष न जांणां आम ललना।। तंत. १२ तब बोल्या वैणीरामजी- केलू थी रंगवा रा भाव ललना। भीक्खू तास भली परै, निर्मल वतावै न्याव ललना।। तंत. १३ जो कैलू लेवा तूं जाय छै, पहिला पीलौ कचा रंग रौ पेख ललना। पका लाल रंग रौ आगै पड्यौ, पहिलौ छोड़णौ नहीं तुझ लेख ललना। तंत. १४ पहिला देख्यौ कच्चा रंगरौ परहरी, चोखौ केलू हेरै चित चाय ललना। जद तौ ध्यान घणां रंग रोज छै, इम कहि. दीया समजाय ललना।। तंत. १. रखे। २. जल। ३. भि. दु. १६१। ४. हल्का । ५. चिकनाहट। ६. सूत्र/आगम। ७. भि. दृ. १६०। ८. खपरेला ९. खोजता है। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ऐसी बुद्धि उत्पात री, नहीं मान वडाई री नीत ललना । आत्म-: ओपता, -अर्थी पूरी ज्यां री प्रतीत ललना ॥ तंत्. दोष जांणी कीया दूर ललना । निरमळौ सम आदरीयौ सूर ललना ॥ तंत. १६ आप ववहार मैं निरदोष जांण्यौ ओळखी, १७ प्रथम आचारंग पेखलो, पंचम अधेन पिछांण ललना । पंचम उदेशै परवडौर, वीर तणी ए वांण ललना ।। तंत. १८ सुद्ध ववहार आलोचीयां, असम्य पिण सम्य थाय ललना । ते कांमी नहीं तिण दोष नौं, सुद्ध साधु नीं रीत सुहाय ललना॥ तंत. १९ उत्तम ए पाठ ओळखी, कोइ बोल रौ भर्म-कर्म जोग ललना । तौ भीक्खू री आसता राखीयां, पांमै सुख पर-लोग ललना।। तंत. २० आखी ढाळ इकतीसमीं, भीक्खू बुद्धि भंडार ललना। दृष्टंत दिल मैं देखतां चित्त पांमैं चिमत्कार ॥ तंत. १. आयारो. अ. ५ उ. ५ सूत्र ९६। २. अच्छा। ९६ " " ३. असम्यग्। भिक्खु जश रसायण Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जांण। १ किणहि' भीक्खू नै कह्यौ- जीव छोड़ावै __ स्यूं फल तेहनौं संपजै? वर भीक्खू कहै वांण। २ घट मैं ग्यांन घाली करी, हिंस्या छोडायां धर्म। जीवण वांछै जेहनौं, कटै नहिं तसुं कर्म। ३ ऊंची कर बे आंगुली, आखै भीक्खू आप। औ बकरौ, राजपूत औ, कहौ बांधै कुंण पाप? ४ मरणहार बूडै महा, कै बू - मारणहार? ऊ कहै-मारणहार सो, जासी नरक मझार॥ ५ भीक्खू कहै-डूबता भणी, तारै संत तिवार। समजावै राजपूत नैं, सिव मारग श्रीकार। ६ जे बकरा रौ जीवणौ, वांछै नहीं लिगार। तिण ऊपर दृष्टंत ते, सांभळजो सुखकार॥ ७ साहूकार रै दोय · सुत, इक कपूत अवधार। ऋण करड़ी जागा तणौ, माथै करै। अपार॥ ८ दूजौ सुत जग-दीपतौ, जश संसार मझार। करड़ी जागा रौ करज, उत्तारै तिण वार॥ ९ कहौ किण नैं वरजै पिता, दोय पुत्र मैं देख। वरजै करज करै तसुं, कै ऋण मेटत पेख? ढाळ : ३२ (समता रस विरला) १ करज माथै सुत अधिक करंतो, वार वार पिता वरजंतो रे। समजूने नर विरला ॥ करडी जागा रा माथै काय कीजै, प्रतख दुख पांमीजै रे॥ समजू. २ अधिक माथा रौ जे करज उतारै, जनक तास नहि बारै रे। स. पिता समान साधू पहिछांणौ, बकरौ राजपूत बे-सुत मांणौ रे।। स. १. भि. दृ. १२८। २. अंश मात्र। ३. तत्त्व को पहचानने वाले। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३२ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ कर्म रूप ऋण माथै कुंण करतो, आगला कर्म कुंण. अपहरतौ रे। कर्म ऋण रजपूत माथै करै छै, बकरा संचित कर्म भोगवै छै रे। समजू. ४ साधु रजपूत नैं वरजै सुहाय, कर्म करज करै काय रे। कर्म बांध्यां घणां गोता खासी, परभव मैं दुख पासी रे॥ समजू. ५ सखरपणे तिण नैं समजायौ, तिणरौ तिरणौ वंछ्यौ मुनिरायो रे। बकरा जीवावण नहिं दै उपदेश, रूड़ी ओळखै बुद्धिवंत रेस रे।।समजू. ६ इमहिजरेकसाइ सौ बकरा हणतो, सुद्ध उपदेश दे तार्यो संतो रे। कसाइ गुणग्रांम साधु रा करंतो, मुझ तारक आप महतो रे। समजू. ७ बकरा हरख्या जीवां वंचीया विशेष, यारै काज न दियौ उपदेश रे। ___ 'ग्यांनादि चिउकसाइघट आया, पिण बकरा तौ मूळ न पाया रे।। समजू. ८ कहै कसाइ दोनूं कर जोड़, सौ बकरा करै सोर रे। कहौ तौ नीलौ चारौ यांनै चराऊं, पछै 'काचौ पांणी' त्यांनै पांऊ रे। समजू. ९ आप कहौ तौ एवर' मैं उछेरूं, कहौ तौ अमरियाई करेरूं रे। आप कहौ तौ सूंपूं आपनैं आंणी, पाइजो धोवण ऊंन्हौ पांणी रे। समजू. १० तुम सूको चारौ नीरजो बहुतेरौ, एवर साधां रौ उछेरौ रे। साधु कहै सूंस सखरा पाळीजे, जाबता सूंसा री कीजै रे॥ समजू. ११ सूंसा री एम भळावण देवै, बकरां नी मूळ न वेवै रे। उपदेश देवै जो बकरा वचावण, तौ बकरां री देत भळावण रे।। समजू. १२ समज्यौ कसाइ सखर सिव साई, इण री मुनि नैं दलाली आई रे। जेहिज धर्म साधु नैं जोय, पिण बकरां रौ धर्म न कोय रे।। समजू. १३ कसाइ अग्यांनी रौ ग्यानी कहायौ, पिण बकरां तौ ग्यांन न पायो रे। कसाइ मिथ्याती रौ समकती कहियै, सुद्ध तत्व बकरा न सदहियै रे।। समजू. १४ हिंसक रौ दयावांन हुऔ कसाइ, दिल बकरां रै दया न आई रे। तिरियौ कसाइबकरा नहीं तिरिया, दुर्गति सूं नहीं डरीया रे॥ समजू. १५ कसाइ तिर्यो ते धर्म इण काज, तारक महामुनिराज रे। तिरण-तारण कसाइ रा तपासो, वारू हीया मैं विमासौ रे॥ समजू. १. अच्छी २. भि. दृ. १४०। ३. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप। ४. अप्रासुक जल। ५. भेड़ या बकरियों का झुंड। ६. अबध्य। ७. त्याग। भिक्खु जश रसायण Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तसकर नौं दूजौ दृष्टंत तेह, सांभळजो ससनेह रे। किणहि मेश्री' नी हाटे किण वार, ऊतरीया अणगार रे॥ समजू. १७ तसकर रात्रि समैं तिण वार, खोल्या है आय कमाड़ रे। तब मुनिवर कहै जागी नै तांम, कुंण हौ? आया किण काम रे? समजू. १८ कहै तसकर-म्हे तो चोर कहाया, इहां चोरी करण नैं आया रे। सहंस रुपीया री थेली मेहली सेठ, निडर ले जावसां नेठ रे।। समजू. १९ तब साधु उपदेश देवै तिण वार, कह्या चोरी रा फळ दुखकार रे। आगे नरक-निगोद नां दुख अधिकाया, भिन-भिन भेद बताया रे। समजू. २० धन तौ न्यातीला सहु मिल खासी, परभव दुख तूं पासी रे। रूडौ उपदेश देइ मुनिराया, त्याग चोरी नां कराया रे।। समजू. २१ तसकर कहै-मुझ डूबतां तार्यो, विषम कर्म स्यूं वार्यो रे। वारू विविध गुण करत विख्यातं, प्रगट थयौ प्रभातं रे॥ समजू. २२ इतलै दुकांन तणौ धणी आयौ, ग्यांन नहीं घट माह्यो रे। पेढी नैं नमस्कार करि प्रसीधो, कांयक लटकौ साधुनैई कीधौ रे।।समजू. २३ तसकर नै पूछा करी तिवार, कुंण हो? खोल्या किण दुवार रे? तसकर बोल्या-म्हे चोर छां तांम, अब तौ त्यागे दीधी आंम रे।। समजू. २४ हुंडी बटाय नै रुपिया हजार, थेली माहै मेहली थे तिवार रे। सो म्हे सांझे देखता था सोय, आया लेवण अवलोय रे।। समजू. २५ साधां उपदेश देइ समजाया, चोरी नां लखण छोड़ाया रे। साधा रौ भलौ होयज्यो काज साऱ्या, तुरत डूबतां नैं ताऱ्या रे॥ समजू. २६ मेसरी सुण नैं हरख्यौ मन माह्यौ, पड़ीयौ साधां रै पायो रे। . आप म्हारी हाटे भलाइ ऊतरीया, सकल मनोरथ सरीया रे।। समजू. २७ थेली म्हारी आपराखी थिर थापी, प्रत्यख ले जावता चोर पापी रे।.. हिवडां ले जावता रुपीया हजार, निपट हुँतो निराधार रे॥ समजू. २८ च्यार पुत्र मुझ चतुर विचारा, कर्म वस रहिता कुंवारा रे। सुत च्यारूंई परणावसूं सार, ओ आप तणौ उपगार रे॥ समजू. १. महेश्वरी। २. निश्चित। ३. डूबता ने (क)। ४. दुकान। ५. नमस्कार का दिखावा। ६. भुनाकर। ७. बिलकुल। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३२ ९९ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ इम कहै मेसरी वयण अथागो, ऋषजी तणौ तौ न रागो रे। धन राखण उपदेश म धार, ते तौ तसकर तारणहार रे। समजू. ३० कसाइ समज्यां वकरा कुसले कह्याजी, तसकर समज्यां धन रौ धणी राजी रे। कसाइ-चोर तारण ऋष कामी, धन-बकरा राखण नहीं धांमी रे।। समजू. ३१ तीजो दृष्टं त कहूं तंत सार, एक पुरुष लम्पट अधिकार रे। सो पुरुष पर-नारी नौं सेवणहार, अति ही बंधांणी पीत अपार रे।। समजू. ३२ ते लंपट आयौ मुनि तणें पाय, साधां दियौ समजाय रे। पर-स्त्री नौं पाप सुणी भय पायौ, अधिक वैरागज आयो रे।। समजू. ३३ ते त्याग जावजीव कीधा ते ठाम, गावै मुनि नां गुणग्रांम रे। आप मोनैं डूबता नैं उबार्यो, 'निकुच विसन' थी निवारयौ रे।। समजू. ३४ सील आदरीयौ सुण्यौ तिण नार, ऊपनौ द्वेष अपार रे। उण नैं कहै-म्हैं धार्यो इकतार, धुर' ही थी थां पर धार रे॥ समजू. ३५ काम औरां सूं नहीं मुझ कोय, इसड़ी धारी अवलोय रे। कैहतौ म्हारौ कह्यौ मांन लै तास, म्हांसू करै ग्रहवास रे।। समजू. ३६ कह्यौ न मान्यौ तौ कुऔ पड़तूं, मोत कुमोते मरतूं रे। __जब ते कहै मो. मिलीया जिहाज, परतख भवदधि पाज रे॥ समजू. ३७ त्यां पर-नारी नों पाप बतायौ, म्हैं त्याग किया मन ल्यायो रे। तिण सूं म्हारै थां तूं मूळ न तार, करै अनेक प्रकार रे॥ समजू. ३८ इम सुण अस्त्री कुऔ पड़ी आय, तिण रौ पाप साधु नैं न थाय रे। समज्यौ कसाइ बकरा वच्या सोय, तसकर समज्यां रह्यौ धन जोय रे। समजू. ३९ नर लंपट समज्यां कूऔ पड़ी नारो, चतुर हीया मैं विचारो रे। तसकर कसाइ लंपट नै तारण, साधां उपदेश दीयौ सुधारण रे॥समजू. ४० ए तीनूं तिऱ्या साधु तारणहार, यां रौ धर्म साधां नैं उदार रे। मुक्ति-मारग यां तीनां रै वधाया, घणां जामणरे मरण मिटाया रे।। समजू. ४१ बकरा वच्या धणी रे धन रहीयौ, तिण रौ धर्म साधु रै न कहीयौ रे। नार कूऔ पड़ी तिण रौ न पापो, अदल विचारो आपो रे॥ समजू. १. निकृष्ट व्यसन। . २. पहले। ३. जन्म। ४. निष्पक्षा १०० भिक्खु जश रसायण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ केइ अग्यांनी कहै भूला भर्मो, जीव-धन रह्यौ तिण रौ है धर्मो रे। उण री सरधा रै लेखै इम थापो, प्रत्यख नार मूआं रौ है पापो रे।।समजू. ४३ नार मूंआं रौ पाप दिल नांणै, जीव वचीया रो धर्म कांय जांणै रे। वले धन रह्या रौ धर्म कांय धारो, बुद्धिवंत न्याय विचारो रे।। समजू. ४४ भीक्खू स्वाम इम भेद बताया, असल न्याय ओळखाया रे। ___ कसाइ तसकर लंपट केरौ, भीक्खू दृष्टंत दियौ भलेरो रे।। समजू. ४५ ऐसा भीक्खू ऋष महा अवतारी, त्यां सरधा सोधी तंत सारी रे। ज्यां पुरसां री जे प्रतीत करसी, त्यांरो जीतव-जन्म सुधरसी रे।।समजू. ४६ ऐसा भीक्खू याद आवै मोय, हरख हीयै अति होय रे। समरण आप तणौ नित्य साधूं, भीक्खू पारस साचौ म्ह लावू रे।। समजू. ४७ सुरगिर सांप्रत आप सधीरा, मोंनै मिलिया अमोलक हीरा रे। पंचम आरा मैं कीयौ प्रकास, सखरी फैली है वास सुवास रे।। समजू. ४८ दोय तीसमी ढाळे दृष्टं तो, वर्णन बहु विरतंतो रे। स्वाम भीक्खू ओळखायौ विशेष, तिण सूं म्हैं पिण आख्यौ असेस रे।समजू. भिक्खु जश रसायण : ढा. ३२ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ किणहिक' भीक्खू नैं कह्यौ- जीव वच्या जे जाण। दया कहीजै तेहनैं, जीवण दया पिछांण॥ २ भीक्खू कहै-कीड़ी भणी, कीड़ी जाणै कोय। ग्यांन कहीजै तेहनैं, के कीड़ी ग्यांनज होय? ३ तब ते कहै-कीड़ी भणी, जे कोइ कीड़ी जांन। ग्यांन कहीजै तेहनैं, पिण कीड़ी नहीं ग्यांन॥ ४ वलि भीक्खू कहै-कीड़ी भणी, कीड़ी सरधै कोय। समकत कहिजै तेहनैं, के कीड़ी समगत होय? ५ तब ते कहै-कीड़ी भणी, कीड़ी सरधै तत। समगत ते सरधा सही, पिण कीड़ी नहीं समकत।। ६ त्याग कीड़ी हणवा तणा, दया तेह . दीपाय? के कीड़ी रही तिका दया, भीक्खू पूछी वाय॥ ७ तब ते कहै-कीड़ी रही, तिका दया कहिवाय। खोटी सरधा थापवा, बोल्यौ झूठ बणाय॥ ८ भीक्खू कहै-पवने करी, कीड़ी उड गइ ताय। तुझ लेखै दया उड़ गइ, निरमळ निरखौ न्याय॥ ९ जद ऊ कहै विचारनै, कीड़ी हणवा रा त्याग कीयाह। दया तेहज दीसै खरी, पिण कीड़ी रही न दयाह।। ढाळ : ३३ (कर्म भुगत्यां इज छूटीयै) १ वलता भीक्खू बोलीया, कीड़ी मारण रा पचखाण लाल रे। __तेहिज दया साची कही, वारु सुणौ इक बांण लाल रे। जोयजो रे बुद्धि भीक्खू तणी ॥ २ रूड़ी दया निज घट मैं रही, के कीड़ी पास कहाय? लाल रे। तब ते कहै-पोता कनैं, कीड़ी पास न काय लाल रे।। जोयजो. १. भि. दृ. १४९। १०२ भिक्खु जश रसायण Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पूज कहै-घट मैं दया, कीड़ी पै दया नहि काय लाल रे। किण रा जतन करणा कहौ? साचौ जाब सुहाय लाल रे।। जोयजो. ४ करणा यत्न दया तणा, के कीड़ी रा जतन कराय लाल रे? उ कहै-जत्न दया तणा, इम साच वोली आयौ ठाय लाल रे। जोयजो. ५ त्रिविध त्याग हणवा तणा, ए दया संवर रूप देख लाल रे। त्याग विनाई हर्णै नहीं, सखर निर्जरा संपेख लाल रे।। जोयजो. ६ इमज छकाय हर्णै नहीं, दया तेहिज दीपाय लाल रे। जगत हर्णै जीवां भणी, निज-पोता री दया न जाय लाल रे। जोयजो. ७ भारी बुद्धि भीक्खू तणी, सखर सिद्धत संभाळ लाल रे। न्याय मिलाया निरमळा, भांज्या भर्म भयाळ लाल रे। जोयजो. ८ किणहिक' इम पूछा करी, महा मोटो मुनिराय लाल रे। अति ही थाकौ उजाड़ मैं, चालण शक्ति न काय लाल रे।। जोयजो. ९ सैहजेई गाड़ौ आवतौ, तिण गाडा ऊपर बेसांण लाल रे। गांम माहै आंण्यौ सही, तेहनैं कांइ थयौ जांण लाल रे।। जोयजो. १० भीक्खू कहै-गाडी नहीं, पूंणीया आवत पेख। ____ गधै चढाय आंण्यो गांम मैं, तिण मैं स्यूं थयौ तुझ लेख लाल रे? जोयजो. ११ तब ऊ बोल्यौ तड़कनै, गधा री क्यूं करौ बात लाल रे? स्वाम कहै-साधू भणी, दोन अकल्प देखात लाल रे।। जोयजो. १२ गाडे बेसांणे आण्यौ गांम मैं, थे धर्म तणी करौ थाप लाल रे। तौ गधै बैसांण्यां ही धर्म है, पापछै तौ दोयां मैं इ पापलाल रे॥जोयजो. १३ उत्पत्तिया बुद्धि आकरी', निरमळ चारित नीत लाल रे। सरधा सुद्ध सोधी सही, वारू स्वाम वदीत लाल रे। जोयजो. १४ पाणी अणगळ' पावीयां, केइ पाखंडी कहै पुन लाल रे। केयक मिश्र कहै तिहां, जे दोनूंइ सरधा जबून लाल रे।। जोयजो. १. भि. दृ. १५३। ४. आपरी (क)। २. सहज रूप में/अनायास ५. अनछाना। ३. पूणी-रुई की बनी हुई पोणी/वत्ती, ६. ते (क)। जिसे कातने पर सूत का धागा बढ़- ७. निकृष्ट, मिथ्या। चढ़कर निकलता है, उनको विक्रयार्थ गधों पर लाद कर लाने वाले। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३३ १०३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पुन्यवाळा कहै पूज नैं, सुणौ भीखणजी बात लाल रे। ___ महाखोटी सरधा मिश्र री, किहांइ मेल न खात लाल रे॥ जोयजो. १६ भीक्खू स्वामी' इम भणे, किण री फूटी एक लाल रे। किण री दोय फूटी सही, वारू करलौ विवेक लाल रे।। जोयजो. १७ मिश्र कहै छै मानवी, त्यां री फूटी एक लाल रे। पुन परूपैपाधरौ, दोनूं फूटी देख लाल रे॥ जोयजो. १८ जाब दीयै इम जुगत सूं, अहो-अहो बुद्धि अनूप लाल रे। ___अहो-अहो! खिम्या आपरी, चित्त चरचा हद चूंप लाल रे।। जोयजो. १९ तूं२ . चिंतामणि सुरतरु, पंचमै कीयौ प्रकास लाल रे। आसापूरण आप छौ, वारू तुझ विसवास लाल रे।। जोयजो. २० तंत ढाळ तेतीसमी, भीक्खू गुण भंडार लाल रे। अंतरजामी माहरा, सुख संपति दातार लाल रे।। जोयजो. १.भि. दृ. १२६। २. दियौ (क)। ३. तुम (क)। ४. पांचमे आरे में। १०४ भिक्खु जश रसायण Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा सार। जायवा १ पचाव.' वर्स पूज जी, सैहर कांकरोली - सैहलोतां री पौळ मैं, ऊतरीया तिण वार॥ २ प्रत्यख बारी पौळ री, जड़ी हुंती जिणवार। ऋष भीक्खू रहितां थकां, एक दिवस अवधार॥ ३ बारी खोली वारणे, दिशा देख। नीसरीया भीक्खू निशा, पूछ्यौ हेम संपेख॥ ४ स्वामी बारी खोलण तणौ, नहीं कांइ अटकाव? ___तब भीक्खू बोल्या तुरत, प्रतख ते प्रस्ताव।। ५ पाली सैहर तणौ प्रत्यख, नाम चौथजी न्हाळ। दर्शण करवा आवीयौ, ए देखै इण काळ।। ६ अति संकीलौ ए अछै, पिण इण बात री तांम। संका इण रै नां पड़ी, केम पड़ी तुझ आंम? ७ हेम कहै-माहरै हियै, कांइ संका रौ काम? पूछण रूप म्ह पूछीयौ, नहि संका रौ नांम।। ८ पूज कहै-पूछ इसी, इण रौ नहीं अटकाव। अटकाव हुवै जो एहनों, म्है खोलां किण न्याव।। ९ हेम सुणी जाण्यौ हियै, किवाड़ीयों खोलाय। आहार लीयां मैं दोष नहीं, खोल्यां दोष किम थाय॥ ढाळ : ३४ (सुण जो नर नाथ!) १ स्वाम भीक्खू रा दृष्टंत सुहाया, भव्य उत्तम जीवां मन भाया। सुणजो चित्त शांत, भीक्खू ना भारी दृष्टंत।। २ वचन-सुधा वागरै स्वामी वारू, सुद्ध भवि-जन तारण सारू । सुखदाया, स्वामी ना दृष्टंत सुहाया।। सुणजो १. भि. दृ. १७२। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३४ १०५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. असल न्याय भिन्न-भिन्न ओळखाया, प्रभु-पंथ भीक्खू हद पाया। भेषधारी सरधा हीण भयाला, दीयौ दृष्टंत पूज दयाला। ४ समक्तहींण जे अधिक असार, यांसै असल नहीं आचार। थोथा चणां री भखारी थी एक, साबतो३ चणौं मूल म पेख। ५ ऊंदरा रड़बड़ कीधी आखी रात, एक कण पिण नायौ हाथ। सांगधा- माहै समकत नांय, प. उंदर सम नर पाय। ६ कहौ साध श्रावक त्यांनै केम कहाय, जै तौ दोनूं सरीखा देखाय। समकत रहित दो→ई न तंत, दीयौ स्वाम भीक्खू दृष्टंत। ७ कोयलां री तो राब अति काळी, काळा बासण मैं रांधी कराली। अमावस नीं रात्रिआंधा जीमण वाळा, परुसण वाळाई आंधा पयाला। ८ जीमता बोलै खूखारा करंता, काळौ कूखौ' टाळजो मतिवंता। कहै-खबरदार होय जीमजो सोय, रखै आय जायला काळौ कोय। ९ मूढ इतरौ नहीं जांणै समेळौ, काळौहीज काळौ हुओ भेळौ। ___ज्यूं सरधा-आचाररौ नहीं ठिकांण, सगळौ मिलियौ सरीखौ घांण। १० साध-श्रावकपणां रौ अंस नहीं सारो, संवर लेखै दोयां रै अंधारो। __न्याय री बात नहीं सुद्ध नीत, वले बोलै वचन विपरीत। ११ वस्त्र-पात्र अधिका राखै विसेख, आधाकादिर्प दोष अनेक। वले कहै-भीखनजी! काढौ इण रौ तार', सुद्ध स्वाम बोल्या सुखकार। १२ तब पूज कहै-काटै तार कांई, थांदें डांडा ही सूझै नाहीं। सबल आधाकर्मी आदि न सूझै, कहौ नान्हा दोष किम बूझै? १३ दोष री थाप थारै दिन रेणो, कठण काम सरधा रौ तौ कैहणौ। ___ 'वायरै वंग' घरटी मांडी बाई, पीसती जावै ज्यूं उड्यौ जाई। १४ आखी रात्रि पीसी ढाकणी मैं उसार्यों", एहवौ दृष्टंत भीक्खू उतार्यो। ज्यूं दोष लगायनै डंड न लेवै, कुमति दोष री थाप करेवै। १. भि. दृ. १७३। २.अनाज ईंधन आदि रखने का अंधेरा कोठा या एक प्रकार की छोटी कोठरी। ३. पूरा। ४. बर्तन। ५. तिनका। ६. साधु के लिए बनाया हुआ आहार आदि। ७. रहस्य। भि. दृ. १७४। ८. हवा के सामने। ९. मिट्टी से बना हुआ ढंकने का बर्तन। १०. समेटा १०६ भिक्खु जश रसायण Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ क्यारै क्यारै क्यूं ही नहीं रहै कांई, औसा भीक्खू ऋष आप ओजागर, १६ उत्पत्तिया बुद्धि अधिक अमांमी, जिण आगन्या माहै धर्म जतायौ, १७ संखला' न्याय मेल्या सूत्र देख, याद आयां तन मन उलसाय, १८ स्यूं ओपमा तुझनैं कहूं सार, उवाइ' में ओपम एह अनूंप, १९ आदिनाथ ज्यूं काढी धर्म आदि, वारू सरण आप रौ सुविसाल, २० सांम भीक्खू गुण गावत समरीयौ, चौतीसमीं ढाळे भीक्खू चित चाह्या, वारू १. सखरा / स्पष्ट । २. सिद्ध पुरुषों द्वारा वरदान के रूप में दी जाने वाली रसभरी कूंपी। जिसके रस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३४ देश- सर्व दृष्टं सरणागत महाबुद्धि धुर जिन आज्ञा परमति आज्ञा बारै असुभ सहु वाह वाह भीक्खू बुद्धि रस ' -कूंपिका तूं 'अजिणा जिण- सरिसा सखर थिवरा नैं दीधी सखरी उपजाई आप म्हारै तूं हीज म्हारौ हिवड़ौ हरख परमानंद देखाई | सागर। धांमी । आयौ । विसेख । ऋषराय । ३. ओवाइयं. सूत्र २६ । उदार । सद्रूप । समाधि । दीन दयाल | सूं भरीयो । वरताया। १०७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा काळवादी करलौ घणौ, नहि समकत सुद्ध नीव'। सिद्धा मैं पावै नहीं, आखै तास अजीव।। २ वखतरांमजी नाम तसुं, पुर माहै पहिछांण। कुकळा कुबुद्धिज केलवी, विहार करी गया जांण।। ३ इतलै भीक्खू आवीया, चरचा करत पिछांण। मेघ भाट मुनि नैं कहै, वगताजी री वांण।। काळवादी इसड़ी कहै, 'अति घन वात अतीव।' भीखनजी गाथा मझै, कहै एकलड़ौरे जीव।। भिक्षू कृत गाथा एकलड़ौ जीव खासी गोता, जद आडा नहीं आवै बेटा-पोता। नरक माहै खातां मारी, पायौ मनुप जमारौ मत हारौ।।१।। दूहा ५ इण 'विध भीखनजी कहै, गाथा मैं इक जीव। वलि नव-तत मैं पांच कहै, विरुई बात - अतीव॥ ६ जो पांच जीव नव तत्त्व मैं, तौ कहिणो पांचलड़ौ जीव। एकलड़ौ ते किम कहै! इम पूछा तिण कीव। ७ पूज कहै-तसुं पूछणौ, सिद्धां मैं सुखकार। कहौ आतमा केतली? तब काळवादी कहै च्यार। ८ फिर त्यांनै इम पूछणौ- ते च्यारूं जीव कै न्याय? __ जब कहैं च्यारूं जीव है, च्यार जीव तसुं न्याय॥ ९ चौलड़ौ जीव त्यां ही कह्यौ, मुझ लड़ अधिकी एक। सांभळ. ते समजीयौ, मेघौ भाट विसेख॥ ३. भि. दृ. ५०। १. नींव (क)। २. अत्युक्ति। १०८ भिक्खु जश रसायण Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : ३५ (राजा दशरथ दीपतौ रे) १ पूज' भीखनजी पधारीया रे, देस ढूंढार दीपायो रे। ___ अति घणां श्रावगी आवीया रे, चरचा करण चित चाह्यो रे। भारी बुद्धि भीक्खू तणी रे॥ २ स्वाम भणी कहै श्रावगी रे, नग्न-मुद्रा . मुनि नागा रे। ____ तार मात्र वस्त्र न राखणौ रे, राखै ते परिसह थी भागा रे। तंत दृष्टंत भीखू तणा रे।। ३ वस्त्र राखौ शीत टालवा रे, तौ भागा शीत परिसह थी ताह्यो रे। तिण सूं वस्त्र नहीं राखणौ रे, जद पूज बतावै न्यायो रे।। तंत. ४ स्वाम कहै-कितरा सही रे, परिसह भेद प्रकासौ रे? ते कहै-परिसह बावीस छै रे, वलि पूछ पूज विमासो रे। तंत. ५ कहौ प्रथम परिसह किसो रे? ते कहै खुध्या रौ ताह्यो रे। पूज कहै-थांरा मुनि रे, आहार करै कै नाह्यौ रे? तंत. ६ श्रावगी कहै-करै सही रै, इक टक आहार ते जागा रे। पूज कहै-तुझ लेखै मुनि रे, प्रथम परिसह थी भागा रे॥ तंत. ७ ते कहै-खुध्यां लागां छतां रे, आहार करै अणगारो रे। स्वाम कहै-सी लागां सही रे, वस्त्र म्हे राखां विचारो रे॥ तंत. ८ पूज वली पूछा करी रे, प्रगट तुझ मुनि पहिछांणी रे। पांणी पीवै कै पीवै नहीं रे, उत्तर आपौ सुजांणी रे? तंत. ९ श्रावगी कहै-पीवै सही रे, इक टक उदक ते जागां रे। स्वाम कहै-तुझ लेखै तिकै रे, दूजा परिसह थी भागा रे॥ तंत. १० ते कहै-त्रिस लागा छतां रे, उदक पीयै अणगारो रे। स्वाम कहै-सी टालिवा रे, वस्त्र ओढां म्हे विचारो रे॥ तंज. ११ भूख लागा अन्न भोगवै रे, प्यास लागा पीयै पांणी रे। इम निर्दोषण आचर्यो रे, न भागै परिसह थी नांणी । तंत. १.भि. दृ. ३०। २. एक बार। एक टक (क) भिक्खु जश रसायण : ढा. ३५ - १०९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तिम शीत डंसादिक टाळवा रे, मूर्छा रहित मुनिरायो रे। . वस्त्र मानोपेत' वावरैः रे, ते परिसह थी भागै किण न्यायो रे? तंत. १३ इत्यादिक उत्पात सूं रे, उत्तर दीधा अमांमो रे। स्वाम गुणां रा सागरू रे, ऊंडी बुद्धि अभिरांमो रे। तंत. १४ एक दिवस बहु आवीया रे, श्रावगी सांमी पासो रे। कहै-वस्त्र न राखौ तौ तुम तणी रे, वारू करणी विमासो रे। तंत. १५ स्वाम कहै-श्वेताम्बर शास्त्र थी रे, घर छोड़ थया अणगारो रे। तिण माहे तीन पछेवड़ी रे, चोलपटादि कह्या सुविचारो रे॥ तंत. १६ तिण कारण राखां तिके रे, आसता तुझ शास्त्र नीं आयां रे। नग्न होय जासां वस्त्र न्हांख नैं रे, प्रतीत दिगंबर नी पायां रे। तंत. १७ जाब दिया अति जुगत सूं रे, बुद्धिवंत हरखै विसेखो रे। न्याय-नीत यां रै निरमळी रे, पक्ष रहित संपेखो रे॥ तंत. १८ वाह-वाह भीक्खू मुनिवरु रे, अंतरजामी आपो रे। दीपक तूं इण काळ मैं रे, जपूं तुम्हारौ जापो रे। तंत. १९ पैंतीसमीं ढाळ परवरी रे, चरचा दिगंबर नी छांणी रे। भीक्खू भजन स्यूं भय मिटै रे, 'जय-जश' सुख हद जांणी रो। तंत. १. निर्धारित नियमानुसार। २. काम में लेते हैं। ३. तात्कालिक बुद्धि से। ४. भि. दृ. ३१॥ भिक्खु जश रसायण Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा महाराज। १ दया-धर्म अति दीपतौ, श्री जिण आण सहीत। भीक्खू स्वाम भली परै, पवर धर्यो अति पीत।। २ केइ हिस्याधर्मी कहै- दया दया पुकारौ कांय। दया रांड लोटै पडी, 'उकरड़ी'२ रै माय॥ ३ भीक्खू ऋष भाखै भली, दया मात दीपाय। __ 'उत्तराधेन चौबीस मैं ३, कही आठ प्रवचन माय।। ४ किण सेठ आउ पूरौ कीयौ, स्त्री रही लारै सोय। सपूत सुत है ते सही, जत्न करै ते जोय।। ५ कपूत व ते मात नैं, वदै वचन विकराल। रंडकार नी गाल दै, बोलै आळ-पंपाळ।। ६ धणी दया नां दीपता, महावीर ते तो मोख सिधावीया, कीधा आतम काज।। ७ श्रावक-साध सपूत ते, दया मात इम जांण। जन करै अति जुगत सूं, विरुइ न वदै वांण।। ८ प्रगट्या कपूत थां जिसा, बोलावौ कहि रांड। दया मात नैं गाळ दै, ते भव-भव होवै भांड।। ९ जिनमत एम जमावता, पाखंड मत परिहार। स्वाम रवि जिहां संचऱ्या, तिमर हरण इकतार।। ढाळ : ३६ (राजनगर भणतां थकां रे) १ किणहिक भीक्खू नैं कह्यौ रे, थे जावो जिण गांम रै माय। धसका' पडै लोकां तण, तिण रौ कांइ कारण कहिवाय? भीक्खू भव तारक भारी. रे, आप प्रगट्या अवतारी रे। उत्पत्तिया बुद्धि अधिकारी रे, दिष्टंत दीया सुविचारी रे ॥ध्रुवपद।। १. भि. दृ. २७। २. कूड़े का ढेर-घूरा। ३. उत्तरज्झयणाणि. अ. २४ गा. १, २। ४. भि. दृ.-२९९। ५. मानसिक आघात। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३६ १११ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ स्वाम कहै तुम्हें सांभळो, गारडू आवै गांम। डाकणीयां नैं काढण भणी जद, कहौ डरै कुंण तांम? भीक्खू. ३ प्रभाते नीला कांटां मझै रे, बाळसां डाकणीयां नै बोलाय। तौ धसका पड़ें डाकणीयां तणें, तथा न्यातीलां रै पडै ताय।। भीक्खू. ४ दूजा तौ लोक राजी हुवै रे, त्यां रै तौ चिंत न काय। जांणै उपद्रव सैहर तणों मिटै, तिण सूं और तौ हरखत थाय।। भीक्खू. ५ ज्यूं गांम मैं साध आयां छतां रे, भेषधाऱ्यां रै धसका पडत। कै त्यांरा श्रावकां रै धसका पड़े, भारीकर्मा तौ इम भिडकंत॥ भीक्खू. ६ वारू सरधा आचार वताय नैं, देसी म्हांनैं ओळखाय। त्यारै धसका पडै तिण कारणै, हळुकर्मी तौ मन हरखाय।। भीक्खू. ७ उत्तम मन इम चिंतवै रे, सुणसां साधां रा बखांण। दांन सुपात्र देइ करी, करसां आतम तणां किल्यांण। भीक्खू. ८ कुगुरां रा पखपाती भणी रे, संत मुनि न सुहाय। दिष्टंतरे स्वाम दीयौ इसौ, ते तौ सांभळजो सुखदाय॥ भीक्खू. ९ जुर२ वाळौ गयौ जीमवारे, जीमणवार मैं जांण। पकवांन तौ कडवा घणा, वद-वद कहै लोकां नैं वांण। भीक्खू. १० लोक कहै-लागै घणां रे, प्रगट मीठा पकवांन। __तुझ शरीर मैं ताव है, जिण सूंकडुआ लागै छै जान।। भीक्खू. ११ ज्यूं मिथ्यात-रोग जाडौ हुवै, संत तास न सुहाय। हळुकर्मी हीयै हरखता, चित मैं मुनि-दर्शण चाय।। भीक्खू. १२ भूखां मरता रोटी वासतै रे, सांग साधु नों धारंत। त्यांने कहै चारित चोखौ पालजौ, जद स्वाम दीयौ दृष्टंत ॥ भीक्खू. १. मंत्रवादी। २. भि. दृ. ३०३। ३. ज्वर। ४. बढ़-बढ़ कर। ५. सघन/गहरा। ६. वेप। ७. भि. दृ. ३०२। ११२ भिक्ख जश रसायण Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथर १३ 'बलवंत बाळे बांध नै रे', तिण नैं कहै सिर नाम। सती माता 'तेजरा'२ तोडजै, ते कांइ तोडै तेजरा तांम? भीक्खू. १४ ज्यूं भेष पहिरै रोटी कारणै रे, तेह. कहौ चोखौ चारित पाळ। ते कठिन चारित पाऊँ किणविधे, दुकर कह्यौ है दीनदयाल। भीक्खू. १५ चोखा-खोटा गुरु ऊपरै, दीयौ नावा नों दृष्टांत। काठ की नाव साजी' कही, एक फूटी नावा छिद्रांत।। भीक्खू. १६ तीजी नाव पथर तणी रे, उपनय हिव अवधार। सुद्ध संत साजी नाव सारिखा, तिकै आप तिरै पर तार।। १७ सांगधारी फूटी नावा सारिखा रे, आप डूबै औरां नैं डबोय। पथर नावा जिसा कह्या पाखंडी, जे तीन सौ तेसठ जोय।। १८ उत्तम तास न आदरै रे, धाऱ्या है तो छोड़णा सुलभ। सांगधारी फूटी नावा सारिखा, त्यां नैं छोडणा घणा दुलभ।। १९ इम भीक्खू ओळखावीया, पाखंडीया मैं पिछांण। स्यूं बुद्धि कहीयै स्वाम नी, वारू किहां लग करूं वखांण।। २० ऊंडी तुझ आलोचना रे, तीर्थ-वछल सासण-नायक स्वाम नैं, करूं वारूं वार सलाम।। २१ तंत ढाळ षट्तीसमी रे, दाख्या स्वाम दृष्टंत। भीक्खू-भजन थी भय मिटै, अरु जय-जश सुख उपजंत।। तांम। __३. भि. दृ. ३०१। ४. अखंड। १. बलवान् व्यक्ति किसी स्त्री को बलात् चिता पर चढ़ाकर जलाता है। २. तीन दिनों के अंतर से आने वाला बुखार। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३६ ११३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताय। दूहा १ किणहिक भीक्खू नैं कह्यौ- टोळावाळा शीत-उष्ण अति कष्ट सहै, करलौर लोच कराय॥ २ तप 'छठ अठमांदिकर' तपै, सखरी करणी सोय। यूं ही जासी यां तणी, एहना फळ अवलोय?।। ३ स्वामः कहै-इक सेठ रै, पड्यौ देवाळौ पेख। तुरत लाख रुपीया तणौ, विगड़ी वात विसेख॥ ४ पछै एक पइसा तणौ, आंण्यो तेल तिवार। पइसौ तसुं दीधौ परहौ, तौ पइसा रो साहुकार।। ५ रुपीया रा गहुं आंणनै, रुपीयौ पाछौ दीध। तौ साहूकार रुपीया तणौ, प्रत्यख ते प्रसीध॥ ६ इम पइसा रुपीया तणौ, साहुकार अवधार। पिण देवाळौ लाख नौं, तेहनौं नहीं साहकार॥ ५ ज्यूं पंच-महाव्रत पचखनै, आधाकर्मी थाप निरंतर दोष नी, मेट दीधी मर्याद।। ८ औ देवाळी अति घणौ, लोच तपादिक कष्ट। तेहथी किण विध ऊतरै, साधपणा रो भिष्ट।। ९ मासखमणादिक पचखनै, सुद्ध पाळ्यां तसुं साहुकार। पिण महाव्रत भांग्या तेहनौं, साहुकार मत धार ___ ढाळ : ३७ (जीवा! मोह अनुकंपा न आणीयै ) १ किणहिक स्वाम भणी कह्यौ, सांगधार्यां रै साधु रौ सांग रे। ऊही पांणी धोवण ए पिण आचर, मांन मूकी रोटी खावै मांग रे।। तुम्हे सुणजो दिष्टंत स्वामी तणा।। आद। . ३. भि. दृ. २८९। १. कठिन (क)। २. बेले (दो दिन का उपवास), तेले (तीन दिन का उपवास) आदि। ११४ भिक्खु जश रसायण Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ वर्लोवर्से लोच करावता, सीत-तापादि सहै साख्यात रे। विहार नवकल्पी विचरता, तौ औ क्यूं नहीं साध कहात रे? तुम्हे. ३ स्वाम कहै तुम्हे सांभळो, थिर चारित्र इम. किम थाय रे। जेहवी ‘वणी-वणाई ब्राह्मणी', तिण रा साथी ए पिण कहिवाय रे। तुम्हे. ४ कुंण वणी-वणाई-ब्राह्मणी? तब स्वाम कहै सुविसेख रे। मेरां रौ इक गांव घाटा मझै, उठै उत्तम घर नहीं एक रे॥ तुम्हे. ५ महाजन आवै सो दुख पावै घणां, जब कह्यौ मेरां नैं जांम रे। अठै उत्तम घर नहीं एक ही, तिण सूं दुख पावां छां तांम रे।। तुम्हे. ६ घणी लागत देवां छां थां भणी, उत्तम घर विण इहां अवधार रे। पांणी रोटी तणी अबखाई पड़े, सुद्ध राखौ उत्तम घर सार।। तुम्हे. ७ जद मेरां सैहर मांहै जायनै, महाजनां नैं कह्यौ मन ल्याय रे। उत्तम वसौ म्हारै गांम आयनै, तिण रौ ऊपर राखसां ताय रे।। तुम्हे. ८ इम कह्यौ पिण कोइ आयौ नहीं, एक ढेढां रौ गुरु मूंऔ आंम रे। तिण री अस्त्री गुरुड़ी तदा, तिण नैं मेरां आंणी तिण ठाम रे। तुम्हे. ९ वणाइ मेरां तिणनैं ब्राह्मणी, ब्राह्मणी जिसा वस्त्र पैहराय रे। जागा कराय धवल राखी जिहां, तुलसी रौ थांणौ रोप्यौ ताय रे। तुम्हे. १० दोय रुपीयां रा गोहूं आणे दीया, अधेली रा मूंग दिया आण रे। एक रुपीया तणौ घृत आपीयौ, वर्दै मेर तेह. इम वांण रे। तुम्हे. ११ पइसा लेई महाजन रा पासा थकी, आवै ज्यां नैं रोटी कर आप रे। वर्ण११ पूछ्यां वतावजै ब्राह्मणी, थिर जाति फलाणी थाप रे। तुम्हे. १२ जाता-आता महाजन आवै जिके, पूछ उत्तम घर पहिछांण रे। ब्राह्मणी रौ घर मेर वतावता, इम काळ कितोयक जांण रे।। तुम्हे. १३ इतरै च्यार व्यापारी आवीया, घणां कोसां रा थाका ते गांम रे। आय पूछ्यौ मेरां नै इण तरै, उत्तम घर वताऔ आंम रे? तुम्हे. १. भि. दृ. ११६। २. राजस्थान की एक आदिवासी जाति। ३. पहाड़ों के बीच का रास्ता। ४. खर्चा/कीमत। ५. तकलीफ ६. अधिक सम्मान/देखरेख। ७. गुरुणी-ढेढ की पत्नी। ८. अठन्नी। ९. कहने लगे। १०. दो। ११. जाति। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३७ ११५ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तब मेर कहै-जावौ तुम्हे, तिण ब्राह्मणी रै घर तास रे। जद आया व्यापारी च्यारूं जणां, प्रगट वचन कहै तिण पास रे।। तुम्हे. १५ वाई! रोटियां कर रूड़ी रीत सूं, झट घाल थाका आया जांण रे। जद इण गोहां री रोट्यां जाडी करी, 'सुरहौ घृत' घाल्यौ सुविहांण रे।। तुम्हे. १६ कीधी दाळ तिण मैं घाली काचऱ्या, जीमवा लागा च्यारुंइ जांण रे। करडी भूख रोट्यां पिण करकड़ी, वणिक जीमता करै वखांण रे। तुम्हे. १७ रांधणरे देखी फलाणां गांम री, अमकड़िया नगर नी अवलोय रे। रांधणां देखी बड़-बड़ा सैहर नीं, इसड़ी चतुराई नहिं देखी कोय रे। तुम्हे. १८ कहै-देखौ रै दाल किसी करी, अति चोखी है, स्वाद अत्यंत रे। माहै काचरिया किसी स्वाद है, घणी करै प्रसंसा जीमंत रे॥ तुम्हे. १९ जद आ बोली-वीरां! वात सांभळी, तीखण' मिली हुँती तौ तांम रे। खबर पड़ती काचरीयां रा स्वाद री, पिण ते मिली नहीं अभिरांम रे।। तुम्हे. २० जद यां पूछ्यौ-तीखण कहै केहनैं? तब आ कहै-तीखण छुरी तांम रे। काचरीयां बनारवा' कारणे, छुरी मिली नहीं अभिरांम रो। तुम्हे. २१ तब यां पूछ्यौ छुरी तोनै नां मिली, तौ किण स्यूं वनारी तेह रे? आ कहै दांतां सूं वनार-वनारनैं, इण दाल माहै न्हाखी एह रे। तुम्हे. २२ तब औ बोल्या-तड़कनै हे पापणी! म्हांनै भिष्ट किया तैं जीमाय रे। इम कहीने लगा थाळी पटकवा, तब आ बोली उतावळी ताय रे।। तुम्हे. २३ रे वीरां! थाळी भांगजो मती, अमकड़िया डूंमरी आंणी मांग रे। जद मै बोल्या-हे पापणी! तूं कुंण जाति री? कुंण तुझ सांग? रे। तुम्हे. २४ जद आ बोली--वीरां!बात सांभळी, वणी-वणाई ब्राह्मणी छू ताय रे। ____ असल जाति री तौ गुरुड़ी अडूं, मेरां ब्राह्मणी दीधी वणाय रे। तुम्हे. २५ धुर सूं बात सारी कही मांडनै, सांभळनै च्यारुंइ पछतात रे। भीक्खू कहै-साथी ब्राह्मणी तणा, सांगधारी सर्व साख्यात रे।। तुम्हे. २६ ऊंन्हौ पांणी धोवण नित्य आचरै, पिण समगत-चारित्र नहीं काय रे। तिण सूं वणी-वणाई ब्राह्मणी, तिण रा साथी कह्या इण न्याय रे। तुम्हे. ५. काटने के लिए। ६. परिगणित जाति। १. काली गाय का असली घृत। २. भोजन बनाने वाली। ३. अमुक। ४. छुरी। ११६ . भिक्खु जश रसायण Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ दृष्टंत स्वाम इसौ दीयौ, सुध हेतु मिलाया सार रे। ___भारी-कर्मा सुण द्वेष माहै भरै, चित पांमैं उत्तम चिमत्कार रे।। तुम्हे. २८ स्वाम सावज्ज-निरवद सोधीया, व्रत-अव्रत जूआ वताय रे। आज्ञा-अणआगन्या ओळखायने, दीधी दान-दया दीपाय रे। तुम्हे. २९ भीक्खू स्वाम प्रगटीया भरत मैं, आप कीधौ अधिक उद्योत रे। __ऐसौ उपगारी कुंण इण काळ मैं, जिन ज्यूं घण घट घाली जोत रे।। तुम्हे. ३० इसा उपगारी गुण आगळा, त्यांरा दृष्टंत सांभळ तंत रे। हळुकर्मी हरख हिवडै धरै, बहुलकर्मी रौ मूंह विगड़त रे।। तुम्हे. ३१ तंत ढाळ कही साततीसमी, स्वामी मेल्या है न्याय साख्यात रे। रखे संका-कंखा भर्म राखनै, मत पडिवजजो' मिथ्यात रे। तुम्हे. १. धारण करना। भिक्ख जश रसायण : ढा.३७ ११७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ किणहिक भीक्खू नै कह्यौ, पाखंडी पहिछांण। सूत्र-सार जिन वच सरस, वाचै सखर वखांण।। २ स्वाम कहै-तुम्हे सांभळी, वाचै सूत्र-वखांण। जीव खवायां पुन्य मिश्र, छेह. इम करै छांण॥ ३ जिम बायां रातीजगैरे, संसार लेखै जान। - गीत भल-भला गावती, तीखै मन कर। तांन॥ ४ गीतां छेह. गावती, मोर्यो-मारू३ मंद।। __ज्यूं प्रथम सूत्र 'प्रगमाय नै", छेह. सावज फंद। ५ दीपावै सावज दया, दाखै सावज्ज दांन॥ मोऱ्या-मारू नी परै, सर्व बिगाडै तांन॥ ६ किणहिक भीक्खू नै कह्यौ'- बुद्धिहींण इक बाल। भाठा सूं कीड्यां भणी, कचरंतो तिण काळ।। ७ उण रौ पथर लै उरहौ, खोसी करी कषाय। कहौ तिण नैं कासं थयो? जद स्वाम कहै सुण वाय॥ ८ तसुं पासा थी खोस लै, तसुं कर मैं स्यूं आत? तब ऊ बोल्यौ उण तणें, भाठौ आयौ हाथ।। ९ भाखै पूज-विचारलौ, धर्म जिण आज्ञा माय। जबरी कौ जिण नां कह्यौ, इम सर्व वस्तु गिणाय॥ ढाळ : ३८ (सल कोई मत राखज्यो) १ किणहिक भीक्खू नै कह्यौ- टोळावाळा ताह्यौ रे। आप साध न सरधौ यां भणी रे, तो साध कहौ किण न्यायो रे॥ तंत दृष्टंत भीक्खू तणा।। १. भि. दृ. १८४। ३. खराब गीत। २. विशेष अवसरों पर औरतों द्वारा ४. आगम के अनुसार सिद्धांत बतलाकर। मांगलिक गीत गाते हुए किया जाने वाला ५. भि. दृ. १२४। रात्रि-जागरण। ६. बल प्रयोग। ७. भि. दृ. ९८। ११८ भिक्खु जश रसायण Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ औ साध ! अमकड़िया टोळा तणा, इम साध कही वैण ऊचर्यां ३ स्वाम कहै किण हि सैहर मैं, नैहता' फेरै नगर मैं, ४ अमकडिया रे नैहतो अछै, अमकडिया रे नैहतो अछै, देवाळौ त्यां काढे दीयौ, खेमो देवाळ्यौ वाजै नहीं, द्रव्य ६ ज्यूं संजम नहीं पाळै जिके, नांम द्रव्य निक्षेपै साधू कह्यां, मूंळ न मृषावादो नाम ७ लकड़ी रा घोड़ा भणी, असद्भाव-थापना, ८ किणहि भीक्खू नैं कह्यौ - कहौ - साध यां मैं कवण ? स्वाम कहै-इक सैहर मैं, नागा कितरा इण नगर में, १० वैद विचक्षण इम वदै घाल सूझतौ तो भणी, ११ नागा- ढकिया तूं निरखलै, स्वाम कहै-- साध-असाध री १२ पछै साध-असाध तूं परख लै, कजियौं' पहिली तिण सूं करै, १३ किणहिक वलि इम पूछीयौ, सांभळौ, स्वाम कहै - तुम्हे १४ संजम लेइ पाळै सही, मूंक दै, महाव्रत आदर ९ १. मृत्यु भोज । . न्यौता । २. ३. भि. दृ. ९९ । फळांणा टोळा रा साधो रे । वच सत्य कै मृषावादो रे? तंत. किरियावर किण रै थायो रे । वदै इसीपर वायो रे ॥ तंत. खेमासाह रा घर रौ जांणो रे । पेमा साह रा घर रौ पिछांणो रे॥ तौ पिण बाजै साहो निक्षेपो देखायो रे । तंत. रे । तंत. धरावै साधो रे । भिक्खु जश रसायण : ढा. ३८ रे ॥ तंत. नाह्यो रे । तंत. दोष अश्व कह्यां कहिण मात्र कहिवायो रे ॥ टोळावाळा मैं ताह्यौ रे। असाध कुंण यां माह्यो रे? तंत. 'आंख अखम" पूछै वायो रे । कितरा ढकीया कहिवायो रे? तंत. औषध तुझ आंख्यां माह्यौ रे । हूं कर देसूं ताह्यौ रे ॥ तंत. वैद बोल्यौ इम वायो रे । ओळखणा देसां बतायो रे । तंत. कहै नाम लेइ कोयो रे । जिण सूं कैहणौ अवसर जोयो रे।। तंत. कुंण यां मैं साध असाधो रे? विरुऔ तज विषवादो रे। तंत. साधु सुखदायो रे। असाध ते असुहायो रे॥ तंत. ४. अचक्षु । ५. लड़ाई। ६. वितंडावाद । ११९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ दृष्टंत' भीक्खू दीयौ इसौ, किणहिक पूछ्यौ किवारो रे। साहुकार कुण सैहर मैं, कुंण है देवाळ्यौ विकारो रे॥ तंत. १६ लेइ पाछौ देवै लोक मैं, साहुकार कहै सोयो रे। देणौ न देव देवाळीयौ, झगड़ा उलटा मांडै जोयो रे। तंत. १७ ज्यूं संजम लेइ पाळ्यां साध है, दोष थाप्यां नहीं साधो रे। अथवा डंड न आदरै, वरतां नै देवै विराधो रे॥ तंत. १८ भीक्खू इसा न्याय भाखीया, स्वाम बिना कुंण सोधै रे? पूज गुणां नों पीजरौ, पूज भविक प्रतिबोधै रे॥ तंत. १९ भीक्खू है दीपक भरत मैं, भीक्खू भळौ भवतारण रे। साहिब भीक्खू साचलौ, भीक्खू है विघन-विडारण रे।। तंत. २० याद आयां हियौ ऊलसै, अंतरजामी आपो रे। समरण सूं सुख संपजै, थिर चित्त में करी थापो रे। तंत. २१ स्वाम जिसौ इण भरत मैं, दीनदयाल न दूजौ रे। ___ भविक जीवां! तुम्हे भाव सूं, पवर भीक्खू गुण पूजौरे।। तंत. २२ तन-मन सेती तुझ भणी, हिरदय ओळख हरख्यौ रे। आसापूरण आप हौ, म्हैं तो प्रतख भीक्खू परख्यो रे। तंत. २३ आखी ढाळ अडतीसमी, समर्यो है भीखू सनूरो रे। 'जय-जश' सुख संपति मिलै, दालिद्र दुख गया दूरो रे॥ तंत. १.भि. दृ. १००। १२० भिक्खु जश रसायण Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा * PTFE आय। १ उपयोग री खांमी ऊपरै, दीयौ स्वाम दृष्टंत'। निरमल-नीकी नीत सूं, सुध जाणौ तसुं संत॥ २ कुंणकौ२ देखी गुर कह्यौ, ए कुणकौ शिष जोय। ऊपर पग दीजौ मती, तहत कीयौ शिष सोय। ३ थोडी वार थी शिष तिकौ, फिरतौ-फिरतौ पग दीधौ तिण ऊपरै, तब गुरु बोल्या ताय।। ४ तुझ म्हैं वरज्यौ थौ तदा, मत दीजौ पग साख्यात। शिष कहै-उपयोग सुद्ध, चूको स्वामीनाथ!।। ५ बीजी वेला शीष वलि, फिरतां-फिरतां फेर। पग दीधौ कण ऊपरै, गुरां निषेध्यौ घेर।। ६ आगै तुझ वरज्यौ हुँतौ, कहै शीष कर जोड़। महाराज! उपयोग मुझ, चूक गयौ इण ठोड़। ७ गुर कहै-अबके चूकीयौ, तो काल विगै३ रा त्याग। फिरतां-फिरतां शीष फिरी, वलि चूको ते जाग। ८ इम वार-वार खांमी पड़ी, ते विगै टाळण थी ताहि। __ वलि कण ऊपर पग देण थी, राजी नहीं मन माहि॥ ९ कर्म-जोग उपयोग मैं, खामी तौ अधिकाय। पिण नीत सुद्ध अरु थाप नंहि, साधपणौ ते न्याय॥ ढाळ : ३९ (किरपण दीन अनाथ ए) EEEEEEEEEEEEEEE १ स्वाम भीक्खू नै सोय ए, किण ही पूछा करी इम जोय ए। . साध साधवीयां रै माय ए, अवगुण दीसै अधिकाय ए॥ २ ज्या नहीं इरज्या रौ ठिकांण ए, भाषा सुमति मैं पिण दीसै हांण ए। केइ करै चालंता बात ए, सुन्य उपयोग री साख्यात ए॥ १. भि. दृ. २१४। २. धान्य कण। ३. दूध, दही आदि छह प्रकार की विगय। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३९ १२१ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ सुमति एषणादिक मैं सोय ए, अधिक फेर दीसै अवलोय ए। तीन गुप्त कही तंत सार ए, अतिही दीसै है फरक अपार ए॥ ४ केकारी प्रकृति करड़ी धार ए, छेड़वीयां सूं करै फूंकार ए। मांन माया लोभ मैं मंत ए, किम कहियै तिणां नै संत ए? ५ करडी प्रकृति देख्या साध ए, कोइ बोल्यौ वचन विराध ए। यांमैं साधपणा रौ न अंश ए, अवगुण री करां केम प्रसंस ए॥ ६ वर बोल्या है भीक्खू वाय ए, सुण दृष्टंत एक शोभाय ए। एक साहुकार अवधार ए, कराइ हवेली सुखकार ए। ७ रुपीया हजारां लगावीया ए, जाळी झरोखा अधिक झुखावीया ए। ओपे माळिया-महिल अनेक ए, सुद्ध शोभता सखर संपेख ए॥ ८ चारू रूप विविध चित्रांम ए, अति कोरणीयारे अभिरांम ए। सुखदाई रूप सुविहांण ए, पूतळीयां मन हरणी पिछांण ए॥ ९ आवै लोक अनेक ए, देख-देख नैं हरखै विसेख ए। ___नर-नारी हजारां आवता ए, घणा देख-देख गुण गावता ए॥ १० महिल-माळीया महा श्रीकार ए, तिके जू-जूआ देखै तिवार ए। ___कहै देखौ कोरणीया तांम ए। चतुर रूप रच्या चित्रांम ए॥ ११ साहुकारादिक सहू आय ए, ए तौ सगलाइ रह्या सराय ए। जठै भंगी देखण आयौ जांन ए, धुन सेतखांना सूं ध्यान ए।। १२ महिल-माळिया सांहमी न दिष्ट ए, जाळी झरोखा सूं नहीं इष्ट ए। तिण रै सेतखांना सूं काम ए, तिण सूं तेहज छै परिणाम ए॥ १३ कहै-सेतखांनौ तौ आछौ नहीं ए, सेठ सुणता अवगुण बोलै सही ए। जब सेठ कहै-सुण वाय ए, ताडतखानौ३ किण वासतै ताय ए? १४ सेतखांनी आछौ किम थाय ए, महा नीच वस्तु इण माय ए। निंदनीक वस्तु ए निदांन ए, तू पिण नीच तिण सूं थारो ध्यान ए।। १५ झरोखा जाळ्यां आदि दे जांण ए, प्रगट आछा है अधिक प्रधान ए। स्वाम कहै सुविचार ए, कहूं उपनय ए अवधार ए। १६ संजम तप तौ हवेली समांन ए, सेतखांना ज्यूं अवगुण जांन ए। साहुकारादिक देखणहार ए, ते सम उत्तम जीव उदार ए। १. हवेली के अनुरूप लग रहे हैं। ३. शौचालय २. पत्थर पर की हुई खुदाई। १२२ भिक्खु जश रसायण Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ त्यांरी दिष्ट संजम ऊपर ताम ए, पिण अवगुण सूं नहीं काम ए। गुण-ग्राहि उत्तम गुणवंत ए, ते तौ संजम-तप जाणे तंत ए॥ १८ संजम गुण जाणे सुद्ध मांन ए, पिण अवगुण सूं नहीं ध्यान ए। छिद्रपेही भंगी सम छार ए, संजम नै नहीं जाणै लिगार ए॥ १९ छठौ गुणठाणौ इण विध जाय ए, त्यांने ते पिण खबर न काय ए। छठौ गुणठाणौ इम ठहराय ए, ते पिण जांणपणौ नहीं ताय ए॥ २० अवगुण नै करै अगवांण ए, महानिंदक मातंग मांण ए। कहै अवगुण आछा नांय ए, तिण नैं कैहणौ इण रौ कहिसी कांय ए। २१ अवगुण तौ कद ही आछा न होय ए, ए तो प्रत्यख ही अवलोय ए। एतौ निंदवा जोग निषेध ए, इण मैं तें काइ काढ्यौ भेद ए॥ २२ पिण संजम-गुण इण मांय ए, तिण सूं वंदवा जोग कहाय ए। - तूं मूंदै आंणै अवगुण वार-वार ए, थारै कुमति हिया मैं अपार ए॥ २३ दीधौ हवेली रौ दृष्टंत ए, भीक्खू भविक नी भांजण दंत. ए। स्वामी सूतर न्याय श्रीकार ए, त्यां रा जांण भीक्खू तंत सार ए॥ २४ औ तौ दियौ भीक्खू दृष्टंत ए, त्यां रा हेतु नैं पुष्ट करंत ए। सूत्र शाख कहै 'जय' सार ए, तिण रौ सांभळज्यो विस्तार ए। २५ कह्यौ सूत्र भगवती माय ए, शतक पचीसरे मैं सुखदाय ए। उत्तरगुण पडिसेवी पिछांण ए, बुकस नियंठो श्री जिन वांण ए॥ २६ जगन दोय सौ कोड़ ते जांन ए, नहिं विरह कदै नहीं हांन ए। पंचम पद छठे गुणठांण ए, चारित्र रा गुण लेखै पिछांण ए॥ २७ मूल गुण नैं उत्तर गुण" माय ए, दोष लगावै ते दुखदाय ए। पडिसेवणा कुशील पिछांण ए, जगन दोय सौ कोड़ ते जांण ए॥ २८ नहीं विरह एह थकी ओछा नाय ए, ए पिण छठे गुणठाणे कहिवाय ए। ____ यां मैं चारित गुण श्रीकार ए, तिण सूं वंदवा जोग विचार ए॥ २९ पुलाग नेयठौ५ पिछांण ए, लब्धि फोड्यां कह्यौ जिन जांण ए। थिति अंतर्महूर्त्त थाय ए, लब्धि नी थिति तौ अधिकाय ए॥ १. चंडाल। २. भगवई शतक २५ उ.६ सू. ४४७। ३. पंच महाव्रत। ४. दस प्रत्याख्यान। ५. नेयंठो (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ३९ १२३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विरह उत्कृष्ट संखेजवास ए, यां मैं चारित्र गुण श्रीकार ए, ३१ कसायकुशील नेयठा माय ए, षट् समुद्घात कहिवाय ए, ३२ बहु फोड़वै लब्धि प्रकाश ए, पिण चारित्र गुण श्रीकार ए, ३३ पुलाक बुकस पडिसेवणा पेख ए, यां मैं दोष तणौ डंड जोय ए, ३४ तिण कारण चारित्र चीज ए, जितरौ डंड तितरौ चरण जाय ए, ३५ हींण - वृद्धि पजवां मैं होय ए, फेर अनंत गुणौ पजवां माय ए, ३६ दशमैधेन' ज्ञाता मैं दयाल ए, एकम आदि पूनमचंद पेख ए, ३७ ते सम संत समृद्धि ए, क्षांति आदि ब्रह्मचर्य माय ए, ३८ इम विद पख चंद समांन ए, किहां एकम किहां पूंनम चंद ए, ३९ चौथै ठांणे चौभंगी उपन्न ए, दूजौ शीलसंपन्न मदेख ए, ४० तीजौ शीलसंपन्न सुभाव ए, चौथो शील चारित नहीं तांम ए, ४१ शीतल प्रकृति तौ नहीं कोय ए, वर न्याय हीयै सुविचार ए, ४२ नसीत वीसमैं न्हाल ए, इम सांभळ छांड़ौ अनीत ए, १. भगवई शतक २५ अ. ६ सूत्र ३४९ से ३६२ । २. ज्ञाता श्रुत. १ अ. १० सूत्र १ से ५ । ३. ठाणं ४ सूत्र ४१० ४. न (क) । १२४ पछै तो अवस्य प्रगटै विमास ए । तिण सूं वंदवा जोग विचार || पांच शरीर छ लेस्या पाय ए । इंण रौ पेटौ भारी है अथाय ए|| मोहकर्म उदय थी विमास ए। तिण सूं वंदवा जोग विचार ए । दिल सूं कषायकुशील वले दोष री थाप न देख ए । कोय ए ॥ दोष थाप्यां जावै गुण छीज ए || दोष थाप्यां सर्व विललाय ए॥ प्रगट शतक पचीसमौर जोय ए। तौ पिण चारित्र गुण सुखदाय ए ॥ कह्यौ चंद दृष्टंत कृपाल ए। वलि विद पख चंद विसेख ए ।। जती धर्म दसमैं हीन वृद्धि ए । एकम थी पूनम तांइ गिणाय ए ॥ क्षमादिक गुण मैं फेर जान ए। दसूं धर्म एम वृद्धि मंद ए ॥ शीलसम्पन्न नो चरितसंपन्न ए। चारित सहित कौ विसेख ए ॥ 'विले' चारित्र सम्पन्न साव ए६ । शील शीतल स्वभाव नों नांम ए ॥ दूजै भांगै चारित्र कह्यौ जोय ए । प्रकृति देखी म भिड़कौ लिगार ए ।। वार वार रौ डंड राखौ सूत्र नीं विसाल ए। प्रतीत ए । ५. विलय । ६. पिण चारित्र तणो अभाव ए (क)। निशीथ उ. २० । ७. भिक्खु जश रसायण Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ भारीकर्मा सुणी भिडकाय ए, बोलै ऊधमती इम वाय ए। करै ढीली परूपणा काज ए, हिवै दोष तणी कांइ लाज ए।। ४४ इम बोलै मूढ गिवार ए, ज्यां रा घट माहै घोर अंधार ए। पिण इतरी न जाणै साख्यात ए, सर्व कही सूतर नी बात ए। ४५ स्थिर राखण समगत सार ए, अति मेटण भर्म अंधार ए। आगम रहिस बतावै अमाम ए, ते तौ एकंत तारण काम ए॥ ४६ अति मानणौ तसुं उपगार ए, थिर समगत राखणहार ए। रह्यौ गुण मानणौ तौ ज्यांहीज ए, उलटी क्यूं करौ त्यां पर खीज' ए। ४७ परम दुर्लभ समगत पाय ए, रखे संका राखौ मन माय ए। संका राख्या सूं समगत जाय ए, तिण सूं वार वार समजाय ए॥ ४८ पज्जवा नैं हीण पाडै कोय ए, बुकस पड़िसेवणादिक जोय ए। तौ तिण री तिण नैं मुसकल ए, पिण पोतै क्यूं घालौ सलले ए॥ ४९ खोड़ा ऊंट री ऊंट नैं होय ए, ज्यूं पज्जवाहीण तसुं सोच जोय ए। न फिरें छठौ गुणठांण ए, तठा ताई असाध म जांण ए॥ ५० श्रावक कह्या मा तात समान ए, पवर चौथै ठाणै पहिछांण ए। __ हेत सूं कहै रूड़ी रीत ए, पिण अंतरंग मैं अति पीत ए॥ ५१ स्वामी भीक्खू तणे प्रसाद ए, पांमी समगत चरण समाध ए। दियौ हवेली रौ तौ दृष्टांत ए, संक्षेप थकी चित शांत ए। ५२ त्यां रा प्रसाद थी अनुसार ए, साखां न्याय कह्या जय सार ए। सूत्र मैं जिम न्याय वतावीया ए, लेश मात्र अणहुंता न ल्यावीया ए॥ ५३ धिन-धिन भीक्खू स्वाम ए, साऱ्या घणा जणां रा काम ए। त्यांरी आसता राखौ तहतीक' ए, तिण सूं होवै मोख नजीक ए॥ ५४ स्वामी दान-दया दीपाय ए, आज्ञा अणआगन्या ओळखाय ए। ज्यां रा गुण पूरा कह्या न जाय ए, प्रत्यख पारस भीक्खू पाय ए।। ५५ स्वामी याद आवै दिन रैन ए, चित मैं अति पांमै चैन ए। __ ऐसा भीक्खू औजागर आप ए, समरण सूं मिटै सोग-संताप ए॥ ५६ नव तीसमी ढाळ नीहाळ ए, भर्म-भंजण समय संभाळ ए। हवेली रौ हेतु कह्यौ स्वाम ए, सूत्र साख जीत कही तांम ए॥ १. क्रोध। २. शल्य। ३. कुलक्षण/खोट। ४. ठाणं ४ सूत्र ४३०। ५. सही। भिवतु जश रसायण : ढा. ३९ १२५ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ विचरत' पूज पधारीया, पादू सैहर मझार। शीष हेम साथै सखर, संत अवर पिण सार।। २ इक भायौ इह अवसरै, भीक्खू भणी भणेह। हेम चदर हाथै करी, अधिकी. दीसै एह॥ ३ चतुर स्वाम ते चदर ले, माप दिखायौ मांन। लांबपणे चौड़ापणे, अधिक नहीं उनमांन॥ ४ पूज कहै-देखौ प्रगट, पछेवड़ी परमाण। ते कहै-अधिकी तौ नहीं, ए तौ छै उनमांन॥ ५ तूं अधिकी कहितौ तदा, तब तै बोल्यो तांम। मुझ झूठी संका पड़ी, तब घणौ निषेध्यौ स्वाम।। ६ च्यार अंगल रै वासतै, संजम खोवां सार। मुझ भौला जाण्या इसा, आंण्यौ भर्म ७ इती२ प्रतीत न तौ भणी, तौ मारग रै माय। पय काचौ पीवै तदा, तो– खबर न काय॥ ८ इत्यादिक वचने करी, अधिक निषेध्यौ आप। कर जोड़ी नै ते कहै, कूड़ी संका किलाप। ९ सखरी इण पर शीख दै, खोड मिटावण काम। फिर संका तसं नहि पडै, पवर परिणांम॥ अपार॥ स्वाम __ ढाळ : ४० (जाणपणौ जग दोहिलौ रे लाल) १ स्वाम भीक्खू गुण-सागरूरेलाल, खरा भीक्खू खिम्यावांन सुखकारी रे! संवली वेवै स्वामजी रे लाल, सुणौ सुरत दे कान सुखकारी रे! सुणजो गुण स्वामी तणा रे लाल॥ १. भि. दृ.७७। २. ऐती (क)। ३. झूठी। ४. सही रूप में लेते हैं। १२६ भिक्खु जश रसायण Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सोभाचंद' सेवग हुँतो रे लाल, नाडोलाइ नों न्हाल। सुखकारी रे! आयौ पाली मैं एकदा रे लाल, तिण मैं कहै पाखंडी ते काळ। सुखकारी रे! सुण. ३ तूं विश्वर जोड़ भीखणजी तणारेलाल, तो. देसां बहु रुपीया तांम। सुखकारी रे! भीखनजी सूं वातां कर जोड़ सूं रे लाल, इम कहै सोभाचंद आंम।। सुखकारी रे! सुण. ४ इम कही खेरवै आवीयौ रे लाल, जिहां पूज विराज्या जांण।सुखकारी रे! ऊभौ भीक्खू रै आगलै रे लाल, वंदणा कीधी आंण।। सुखकारी रे! सुण. ५ पूज कहै वच परवड़ा रे लाल, तुझ नाम सोभाचंद ताय। सुखकारी रे! सोभाचंद कहै हां सही रे लाल, एहिज नाम कहाय।। सुखकारी रे! सुण. ६ भीक्खू वलि तसुंइम भणे रे लाल, सुत रोडीदास नों सोय? सुखकारी रे! सेवग कहै स्वामी भणी रे लाल, सत वच तुझ अवलोय।। । सुखकारी रे! सुण. ७ वलि सोभाचंद बोलियौ रे लाल, आप आछी न कीधी एक। सुखकारी रे! उथापौ श्री भगवान नैं रे लाल, विरुइ वात विसेख।। सुखकारी रे! सुण. ८ वळता भीक्खू बोलीया-रे लाल, म्हे क्यांनैं उथापां भगवांन? सुखकारी रे! म्हे भगवंत रा वचनां थकी रे लाल, घर छोड़ साधू थया जांन। । सुखकारी रे! सुण. ९ वलि सोभाचंद बोलियौ रे लाल, आप देवरौ दीयौ उथाप।सुखकारी रे! जाब देवै स्वामी जुगत सूं रे लाल, चतुर सुणौ चुपचाप।।। सुखकारी रे! सुण. १० हजारां मण पत्थर देवळे तणौ रे लाल, 'कहौ उथापियै केम'? सुखकारी रे! म्हे तो सेर दोय सेर प्रयोजन विना रे लाल, आछौ पाछौ करां नहीं एम।।। सुखकारी रे! सुण. ११ फेर सोभाचंद पूछतौ रे लाल, आप जिन प्रतिमा दी उथाप। सुखकारी रे! प्रतिमा नै कहौ पाषांण छै रे लाल, ए आछी न करी आप।।सुखकारी रे! सुण. १२ स्वाम कहै-तूं सांभळे रे लाल, म्हे प्रतिमा उथांपा किण कांम। सुखकारी रे! ____ म्हारै त्याग है झूठ बोलण तणां रे लाल, इणरौ न्याय कहूं अभिराम।। सुखकारी रे! सुण. १३ सोना री प्रतिमा भणी रे लाल, सोना री प्रतिमा कहंत। सुखकारी रे! रूपा री प्रतिमा भणी रे लाल, म्हे रूपां री कहां धर खंत॥ सुखकारी रे! सुण. १४ सर्व धातु नी प्रतिमा भणी रे लाल, सर्व धातु नी कहां सोय। सुखकारी रे! पाषांण री प्रतिमा भणी रे लाल, कहां पाषांण री जोय। सुखकारी रे! सुण. १. भि. दृ. ९६। २. निंदा सूचक छंद। ३. मंदिर (देवालय), देहरो (क्व.)। ४. मंदिर। ५. कैसे उठाया जा सकता है। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४० १२७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पाषांण री प्रतिमा भणी रे लाल, तिण सूं कहां छां प्रतिमा पाषांण री रे लाल, १६ सोभाचंद इम सांभली रे लाल, इसडा उत्तम महापुरस ना रे लाल, १७ गुण चाहिजै इण पुरुस ना रे लाल, दोय छंद जोड्या दीपता रे लाल, १८ स्वामी नैं छंद सुणाय नैं रे लाल, पाखंडमतीयां पूछीयौ रे लाल, १९ ते कहै - छंद वणावीया रे लाल, भीखणजी रा श्रावकां रै आगलै रे लाल, २० स्वामीजी रा श्रावकां कनै रे लाल, पाखंडमती श्रावकां भणीरे लाल, २१ सेवग ओ निरापेखी सही रे लाल, थांरै म्हांरै तौ सरधा पक्ष नीं रे लाल, २२ सोभाचंद नैं इम कहै रे लाल, सुद्ध छै किंवा असुद्ध छै रे लाल, २३ उणां री सरधा उणां कनैं रे लाल, तौ पिण पाखंडमतीया कहै रे लाल, २४ अब सोभाचंद कहै - सांभळौ रे लाल, कहिसूं मोनैं दरससी जिसा रे लाल, २५ सोभाचंद सेवग इम सांभळी रे लाल, ते छंद दोनूंइ गुणां तणां रे लाल, १ अनभय कथणी रहिणी करणी अति, गुणवंत अनंत सिद्धंत कळा गुण, शास्त्र सार बत्तीस जांणै सहु, पंच इंद्री कूं जीत, न मांनत पाखंड, साध मुक्ति का वास - वंदार सहु, १. यथार्थ (न्याययुक्त ) । १२८ सोना री कह्यां लागै झूठ । सुखकारी रे ! म्हे तौ दीधी है झूठ नैं पूठ। सुखकारी रे! सुण. हरख्यौ घणौ हीया मांय । सुखकारी रे ! किम अवगुण कहिवाय? सुखकारी रे! सुण. वारू इसडी विचार । सुखकारी रे ! सांभळतां सुखकार । सुखकारी रे! सुण. पाछौ आयौ पाली माहि । सुखकारी रे ! तैं छंद बणाया कै नाहि ? सुखकारी रे! सुण. पाखंडमती बोल्या फेर ॥ सुखकारी रे ! छंद कहिजै होय सेर । सुखकारी रे! सुण. आया सेवग लेइ साथ। सुखकारी रे ! वारू सुणौ मुझ वात।। सुखकारी रे! सुण. अदल' कहिसी अवलोय । सुखकारी रे ! इण रै तो पख नहिं को । सुखकारी रे ! सुण. भीखनजी साधु किसाएक । सुखकारी रे ! तब सेवग कहै सुविसेख॥ सुखकारी रे! सुण. आपां री आपां पास। सुखकारी रे ! तूं तौ निसंक प्रकास। सुखकारी रे! सुण. गुण-अवगुण भीखनजी मैं होय । सुखकारी रे! तब औ कहै - दरसै जिसा तोय ॥ सुखकारी रे! सुण. सुध कह्या त्यां छंद श्रीकार । सुखकारी रे ! सांभळजो सुखकार । सुखकारी रे! सुण. (सोभाचंद सेवग कृत इन्दव छंद ) अधिकारी । पुण भारी । उपकारी। आठूंई कर्म जिपै प्राकम पौहच विद्या केवलज्ञानी का गुण साध मुनिंद्र बड़ा भीखम स्वाम सिद्धंत है भारी॥ २. मुख्य सेवक। सतधारी । भिक्खु जश रसायण Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ स्वामी परभव कै स्वार्थ साचहै, वाचहै सूत्र कला विसतारी। तेरा ही पंथ साचा त्रिहूं लोक में, नाग सुरेन्द्र नमैं नर नारी। 'सुणीहै " सत्य वात सिद्धत सुज्ञान की, बौहत गुणी करणी वलिहारी। प्रथी के तारक पंचम आर मैं, भीखम स्वामी का मारग भारी॥ (मूल) २६ सोभाचंद छंद कह्या इसा रे लाल, सांभळ ते गया सरक। सुखकारी रे! मन माहै मुरझाणा घणां रे लाल, स्वामीजी रा श्रावक होय गया गरक।सुखकारी रे! सुण. २७ पूज खिम्या रा प्रताप सूं रे लाल, पड़ी पाखंड्यां री आब।सुखकारी रे! ऐसा भीक्खू गुण आगळा रे लाल, सुजस विस्तरीयौ सताव। सुखकारी रे! सुण. २८ ऊंडी पूज आलोचना रे लाल, वारु बुद्धि नां जाब। सुखकारी रे! धोरी धर्म तणी धुरा रे लाल, दीयौ पाखंड मत दाब।सुखकारी रे! सुण. २९ अवतरीया इण भरत मैं रे लाल, खरै मारग रह्या खेल। सुखकारी रे! सूतर बुद्धि समसेर सूं रे लाल, पाखंड मत दियौ पेल॥ सुखकारी रे! सुण. ३० समरण तुझ गुण संभरू रे लाल, आवै निश दिन याद। सुखकारी रे! रोम-रोम सुख रति लहुं रे लाल, पामूं परम समाध।। सुखकारी रे! सुण. ३१ चारू ढाळ चाळीसमी रे लाल, भय भर्म भंजन स्वाम। सुखकारी रे! 'जय-जश'संपति दायका रेलाल, आशा पूरण आंम॥ सुखकारी रे! सुण. १. सुणियै (क)। २. पृथ्वी (क)। ३. खिसक गए। ४. खुशी में डूब गए। ५. इज्जत। ६. तलवार। ७. हटा दिया। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४० १२९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ॥ १ बूंदी मैं 'बूझा करी", सवाइरामजी सोय। वखांण संपूर्ण हुआं पछै, आप जहत मांगो अवलोय॥ २ नूंहत घाल सौगन करौ, इसड़ी कहौ छौ आप। ___कांइ आपरैई तोटौ अछै, ते तोटौ बूरण ए थाप? ३ सुता परणाइ सेठ किण, न्यात जीमाई न्हाळ। तोटौ बूरण –हत लै, ज्यूं सूं तोटो तुम भाळ? ४ स्वाम कहै-इक सेठ तिण, सुता परणाइ सोय। बोलाया बहु गांम रा, न्यात मित्र अवलोय॥ ५ जीमण कर जीमावीया, सगळां नैं पकवान। दिवस घणां राख्यां पछै, सीख दीधी सनमांन॥ ६ एक-एक पकवान री, साथ कोथली दीध। रसतै भूख भाजण, इम सुखे पूगता कीध।। ७ ज्यूं म्हे पिण बहु दिवस लग, वखांण मैं विसतार। वातां विविध वैराग री, संभळाइ सुखकार॥ ८ हळुकर्मी सुण हरखीया, कर्म कट्या अधिकाय। छेहडै ए पकवान री, कोथली रूप कहाय॥ ९ त्याग करावा तेहनैं, सुखे मोख मैं जाय। इम टोटौ मेटण अवर नौं, नूंहत मांगा इण न्याय॥ ढाळ : ४१ (धीज करै सीता सती रे लाल) १ स्वाम भीक्खु बुद्धि -सागरू रे लाल, निरमळ मेल्या न्याय रे। सुगुण नर। सुविनीत सुण हरखै सही रे लाल, अविनीत नैं असुहाय रे। सुगुण नर। सुणजो दृष्टंत स्वामी तणां रे लाल।। २ अविनीत साधु ऊपरै रे लाल, दीधौ स्वाम दृष्टंत। रे सुगुण नर। ___एक साहुकार नी असतरी रे लाल, पांणी काजै गइ धर खंत। रे सुगुण नर। सुण. १. जानकारी। . २. न्यौता। ३. मिटाने के लिए। ४. ज्ञाति (सम्बन्धी) समूह। १३० भिक्खु जश रसायण Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ बेहड़ौ तौ माथै पांणीसूं भर्यो रे लाल, पोता रै घर आवतां पेख रे सुगुण नर। ____ मारग मैं तिणरी वाहिली मिली रे लाल, वातां करवा लागी विसेख रे सुगुण नर। सुण. ४ एक घड़ी तांइ तौ ऊभां थकां रे लाल, हिलमिल वातां करी हरखाय रे सुगुण नर।। पछै घर आवी निज पीउ भणीरे लाल, तिण हेलौ पाड्यौ ताय रे सुगुण नर॥ सुण. ५ तुरत घड़ी उतारौ मुझ सिर तणौ रे लाल, जो किंचित वेला थी भरतार रे सुगुण नर। बेहड़ौ उतार्यो तिण बैर नौ रे लाल, तौ क्रोध मैं आई अपार रे सुगुण नर॥ सुण. ६ कहै म्हारै माथै तौ बेहड़ौ उदक नौ रे लाल, सो हूं भाया मूंइ घणी सोय रे सुगुण नर। थांनै तो मूळ सूझै नहीं रे लाल, जिण सूं वेळा इतरी लगाई जोय रे सुगुण नर। सुण. ७ संसार तणै लेखै सही रे लाल, नार इसी अविनीत रे सुगुण नर। रसतै एक घड़ी बेहड़ा छतां रे लाल, पोतै बातां करी धर पीत रे सुगुण नर।।सुण. ८ किंचित जेज' पीउ करी रे लाल, तड़का-भड़का करवा लागी तांम रे सुगुण नर। इसड़ी अजोग ते असतरी रे लाल, अविनीत जग कहै आंम रे सुगुण नर।।सुण. ९ अविनीत साधू एहवौ रे लाल, गोचरीयादिक माहि रे सुगुण नर। किणहि बाइ भाइ सूं वातां करै रे लाल, एक घड़ी तांइ ऊभां ताहि रे सुगुण नर।। सुण. १० अथवा दर्शण देवा कोई भणी रे लाल, झट चलायनै परहो जाय रे सुगुण नर। तिहां ऊभां घणी वेळा लगै रे लाल, वातां करै-वणाय वणाय रे सुगुण नर॥ सुण. ११ वड़ा थोड़ोई काम भळावीयां रे लाल, करतां कठमठाठा करै जेह रे सुगुण नर। तथा पांणी राख्यौ ते लेवा मेलीयारे लाल, टाळाटोळौ कर देवै तेह रे सुगुण नर।। सुण. १२ अथवा जातौ दोहरौ हुवै रे लाल, वले देवै मुंह विगाड़ रे सुगुण नर। गुर शीख दीयै चूकती पड़यां रे लाल, तौ करै उळटौ फूंकार रे सुगुण नर।। सुण. १३ अविनीत साधु नैं दीधी ओपमा रे लाल, अविनीत अस्त्री नी भीक्खू आप रे सुगुण नर। इम सांभळ उत्तमां नरां रे लाल, थिर चित सुविनय थापरे सुगुण नर।।सुण. १४ वले विनीत-अविनीत री चोपी विषै रे लाल, आख्या दृष्टंत अनेक रे सुगुण नर। संखेप थकी कहूं छू सही रे लाल, सांभळजो सुविवेक रे सुगुण नर।।सुण. १५ अविनीत नैं थावरीया नी ओपमारे लाल, गर्भवती मैं कहै डाकोय रे सुगुण नर। पुत्र हुसी 'पुन्य-आगलौ०' रे लाल, पाडोसण नैं कहै पुत्री होय रे सुगुण नर।। सुण. १. दो घड़े। ६. टालमटोल। २. सहेली। ७. भूला ३. पत्नी। ८. कहै है। ४. विलंबा ९. डाकोत/देशांतरिया/सनिचरिया/तेलिया ५. उत्तर-पडुत्तर। १०. पुण्यवान। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४१ १३१ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गुर -भगता श्रावक-श्राविका कनैरेलाल, गावै गुर रा गुणग्रांम रे सुगुण नर। आपरै वस जाणै तिण क. रे लाल, अवगुण बोले ताम रे सुगुण नर॥ सुण. १७ कनैं रहै साधू ते थकी रे लाल, वैर - बुधी ज्यूं जांण रे सुगुण नर। और अळगा रहै ते थकी रे लाल, हेत राखै सुविहांण रे सुगुण नर।।सुण. १८ कूह्यां कांनां री कुती भणी रे लाल, काढ़े घर सहू कोय रे सुगुण नर। ज्यूं अविनीत जिहां जावै तिहां रे लाल, आदर मांन न होय रे सुगुण नर॥ सुण. १९ भंडसूरौ कण छांडी नैं भिष्टौ भखै रे लाल, हरिया जव छांडी मृगपडै पास रेसुगुण नर। ज्यूं अविनीत विनय छाडी करी रे लाल, अविनय धारै उलास रे सुगुण नर।। सुण. २० गधौ घोड़ौ गलियार' अविनीतड़ौ रे लाल, कुट्यां विणआघौ नहि चालै कोयरे सुगुण नर। ज्यूं अविनीत नैं काम भळावीयां रे लाल, कह्यां नीठ-नीठ पार होय रे सुगुण नर॥सुण. २१ बुटकनै गधै मांमा बळद नैं रेलाल, मरायौ कुबुद्धि सीखाय रे सुगुण नर। ____ ज्यूं अविनीत री संगत कीयां रे लाल, भव - भव मैं दुख पाय रे सुगुण नर।। सुण. २२ वेस्या मुतलब थी पुरुषां नै रीझावती रे लाल, स्वार्थ न पूगां तुरत देवै छेह रे सुगुण नर। ज्यूं अविनीत मुतळब विनय करै घणौ रे लाल, स्वार्थ नहीं सझ्यां तोडै सनेह रे सुगुण नर॥सुण. २३ बांध्यौ काळ्या री पाखती गोरीयौ रे लाल, वर्ण नावै तौ पिणलखण आयरे सुगुण नर।। ____ ज्यूं अविनीत री संगत करै रे लाल, तौ ऊ अविनय कुबुद्धि सीखाय रे सुगुण नर॥ सुण. २४ सौक रा सौक लोकां कनै रे लाल, अवगुण बोलै नैं वांछै घात रे सुगुण नर। ज्यूं अविनीत वरतै गुरु थकी रे लाल, अवगुण-ग्राहीसाख्यात रे सुगुण नर॥सुण. २५ कुजाति री त्रिया पिउ सूं लड़ी रे लाल, ताकै कूए कै ऊठे और साथ रे सुगुण नर। ____ करै अविनीत क्रोध सूं सलेखणा रे लाल, कै गण छोड़ जुदौ होय जात रे सुगुण नर। सुण. २६ सोर ठंढौ हुवै मुख मैं घालीयां रे लाल, तातौ अग्नि मैं घाल्यां हुवै ताय रे सुगुण नर। ___ज्यूं वस्त्रादिक दीयां अविनीत राजी रहै रेलाल, स्वार्थअण पूगां अवगुण गायरे सुगुण नर॥सुण. २७ सोर सोरीगर रा घर थकी रेलाल, दूरा रहै बुद्धिवांन रे सुगुण नर। ज्यूं अविनीत सूं अळगा रहै रे लाल, ते डाहा चतुर सुजांण रे सुगुण नर॥सुण. २८ आछी वस्त घालै जो अग्नि मैं रे लाल, ते छिन माहै होय जावै छार रे सुगुण नर। ज्यूं अविनय-अग्नि सूं गुण बढ़ रे लाल, अवगुण प्रगटै अपार रे सुगुण नर॥ सुण. १. सड़े कान वाली। २. सूअर। ३. दुष्ट/समर्थ होते हुए भी काम न देने वाला। ४. कान-कटा। ५. निकट। १३२ भिक्खु जश रसायण Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ नाग खीजावै नांन्हों जांण नैं रे लाल, ज्यूं नान्हां गुरनीं पिण निंद्या कीयां रे लाल, ३० काळौ नाग कोप्यौ करै रे लाल, 'गुरु- चरण २ अप्रसन हुआं रे लाल, ३१ कदा अग्नि न बाळै मंत्र जोग सूं रे लाल, कदा तालपुट विष पिण मारै नहीं रे लाल, ३२ कोइ वांछै सिर सूं गिर फोड़वौ रे लाल, कोइ भाला री अणी नैं मारै टाकरां' रे लाल, ३३ कदा गिरपिण फोड़े कोइ मस्तके रे लाल, कदा भालो न भेदै टाकर मारीयां रे लाल, ३४ ज्यूं काष्ट बूहो जाय जल मझै रे लाल, कुशिष अभिमानी क्रोधी आतमा रेलाल, ३५ गुर सीख दियै अविनीत नैं रे लाल, ते डांडे करी‘ठेलै लिखमी आवती६' रे लाल, ३६ केइ हाथी घोड़ा अविनीत छै रे लाल, तौ धर्म आचार्य रा अविनीत नैं रे लाल, ३७ अविनीत नर-नारी इण लोक मैं रे लाल, डांडै - शस्त्रे करी ताड़ीजता रे लाल, ३८ वले देव दांणव अविनीत छै रे लाल, गुरु नां अविनीत नैं दुख अति घणौ रे लाल, ३९ विनीत अविनीत जातां वांट मैं रे लाल, अविनीत कहै-पग ए हाथी तणो रे लाल, ४० विनीत कहै - हथणी पिण काणी डावी आंख री रेलाल, वले पुत्र-रत्न तिण री कूख मैं रे लाल, ४१ एक बाइ प्रश्न आगै पूछीयौ रे लाल, म्हारौ सुत प्रदेश ते मिलसी कदे रे लाल ? १. अत्यधिक । २. पग गुरु ना (क) ३. पर्वत । भिक्खु जश रसायण : ढा. ४१ तौ ऊ घात पांमै ततकाल रे सुगुण नर । आपद पांमै असराल' रे सुगुण नर|| सुण जीव-घात सूं अधिक म जांन रे सुगुण नर। अबोधि दुर्गत दुख खांन रे सुगुण नर ॥ सुण. कदा कोप्यौई सर्प न खाय रे सुगुण नर । पिण गुरु हेलणां सूं मुगति न जाय रे सुगुण नर। सुण. कोई सूतौई सीह जगाय रे सुगुण नर । ज्यूं गुरु नीं अशातना थाय रे सुगुण नर ॥ सुण. कदा कोप्यौ सीह न खाय रे सुगुण नर । पिण गुरु हेलणां सूं सिव नाय रे सुगुण नर॥ सुण. ज्यूं अविनीत तांणीजै संसार रे सुगुण नर । धुरत मायावीयौ धार रे सुगुण नर॥ सुण. तौ ऊ क्रोध करै तिण वार रे सुगुण नर । साची सीख न सरधै लिगार रे सुगुण नर॥ सुण. दीसै प्रत्यख दुख रे सुगुण नर । कहौ हुवै किम सुख ? रे सुगण नर। सुण. विकलेंद्री सरीखा विपरीत रे सुगुण नर । अति दुख पांमै गुरु नों अविनीत रे सुगुण नर॥ सुण. दुखीया ते पिण देख रे सुगुण नर । काळ अनंत संपेख रे सुगुण नर ॥ सुण. दोनूं जणा हथिणी रौ पग देख रे सुगुण नर। इण नैं ऊंधौ सूझै असेख रे सुगुण नर॥ सुण. ऊपर राजा री रांणी सहीत रे सुगुण नर । विवरा सुध बोल्यौ सुविनीत रे सुगुण नर। सुण. ऊभी सरवर पाळ रे सुगुण नर । कहै - - अविनीत उण कियौ काळ रे सुगुण नर॥ सुण. ४. मुट्ठी बंद करके उल्टी अंगुली से किया जाने वाला प्रहार । ५. बहता हुआ। ६. आती हुई लक्ष्मी को धकेलता है। १३३ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ हूं काटूं-बाढं जीभड़ली ताहरी रे लाल, तूं विरुऔ बोलै केम? रे सुगुण नर। ____तूं धसकौ क्यूं न्हाखै पापी एहवौ रे लाल, जब विनीत कहैछ एम रे सुगुण नर॥सुण. ४३ पुत्र थारौ घर आवीयौ रे लाल, आज मिलसी तोसूं निसंक रे सुगुण नर। ___इण रौ वचन म माने औ झूठौ घणौ रे लाल, इणरैजीभ वेरण रौ बंकरे सुगुण नर॥सुण. ४४ ए. दोनू बोलां अविनीत झूठौ पड्यौ रे लाल, पछै गुर सूं झगड्यौ आय रे सुगुण नर। कहै मो न भणायौ कपटे करी रे लाल, गुर पूछ निरणौ कियौ ताय रे सुगुण नर॥ सुण. ४५ इहलोक मैं गुर नां अविनीत री रे लाल, अकल बिगड़ गई एम रे सुगुण नर। तौ धर्म आचार्य रा अविनीत री रे लाल, ऊंधी अकल रौकहिवौ केमरे सुगुण नर॥सुण. ४६ नकटी बूटी' कुलहीणी नार नैं रे लाल, परहरी निज भरतार रे सुगुण नर। जोगी भखरादिक तिण नैं आदरै रे लाल, उवा पिणजाउणलाररेसुगुण नर॥सुण. ४७ नकटी-सरीखौ अविनीतडौ रेलाल, तिण सूं निज गुरु न धरै प्यार रे सुगुण नर। तिण नैं आप सरीखौ आवी मिलै रेलाल, तब पांमै हरख अपार रे सुगुण नर॥ सुण. ४८ नकटी तौ जोवै भखरादिक भणी रेलाल, अविनीत जोवै अजोग रे सुगुण नर। जो असुभउदै हुवै अविनीत रे लाल, मिल जाय' सरीखौ संजोग रे सुगुण नर।। सुण. ४९ सौ वार पाणी सूं कांदा धोविया रे लाल, विरुइ न मिटै वास रे सुगुण नर। घणौ उपदेश दै गुर अविनीत नैं रे लाल, पिण 'मूळ न लागै पास' रे सुगुण नर।। सुण. ५० अविनीत उझिया भोगवती जिसौ रेलाल, रखीया रोहिणी जिसौ सुविनीत रे सुगुण नर। ___गुरु गण सूपै सुविनीत नैं रे लाल, पूरी तिण री प्रतीत रे सुगुण नर। सुण. ५१ किण ही गाय दीधी च्यार विप्रां भणी रे लाल, ते वारै - वारै दूहै ताय रे. सुगुण नर। पिण चारौ न नीरै लोभी थका रे लाल, तिण सूं दुखे-दुखे मुंइ गाय रे सुगुण नर॥ सुण. ५२ गाय सरीखा आचार्य मोटकारे लाल, दूध सरीखौ ज्ञान अमोल रे सुगुण नर। शिष मिल्या ब्राह्मण सारिखा रेलाल, ते ज्ञान लीयै दिल खोल रे सुगुण नर॥सुण. ५३ आहार-पांणी आदि व्यावच तणी रे लाल, न करै सार संभाळ रे सुगुण नर। ___एहवा अविनीतारैवस गुर पड्या रेलाल, त्यां पिण दुखे-दुखे कीयौ काळ रे सुगुण नर॥ सुण. ५४ ब्राह्मण तौ एक भव मझै रे लाल, फिट-फिट हुआ इहलोक रे सुगुण नर। ___गुरु ना अविनीत रौ कहिवौ किसूं रेलाल, पीड़ा विविध परलोक रे सुगुण नर॥ सुण. ५५ गर्ग आचार्य नै मिल्या रे लाल, पांच सौ शिष अविनीत रे सुगुण नर। तिण रौ विस्तार तौ छै घणौ रे लाल, 'उत्तराधेन माहै संगीत'रे सुगुण नर॥सुण. १. नाक कान कटी हुई। ३. बिल्कुल रंग नहीं चढ़ता। २. जावै (क) ४. उत्तराध्ययन अ. २७। १३४ भिक्खु जश रसायण Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ एकल थकी पिण बुरौ अविनीतड़ौ रे लाल, साधां रा गण माहै जांन रे सुगुण नर। ___सांमद्रोही सेवग सारिसौ रे लाल, दुमनौ' चाकर दुसमण समानरे सुगुण नर॥सुण. ५७ छळ-बळ खेलै चोर ज्यूं रे लाल, छिद्री थकौ रहै टोळा माहि रे सुगुण नर। ____ चरचा-उपदेश तिण रौ अति बुरौ रे लाल, फाड़ा-तोड़ा काजै करै ताहि रे सुगुण नर॥ सुण. ५८ और साधां रा काढ़े ग्रहस्थ खूचणा रे लाल, तिण सूं बात करै दिल खोल रे सुगुण नर। अंतरंग मैं जांणै आप रौ रे लाल, तिण नै सीखावै चरचा बोल रे सुगुण नर॥ सुण. ५९ गुणग्राम गावै सुविनीत रा रे लाल, तौ अविनीत सूं सह्या नहि जाय रे सुगुण नर। निज आपौ परगट करै रे लाल, म्हांनै तो ललपल' न सुहाय रे सुगुण नर।। सुण. ६० और साधां री आसता उतारवा रे लाल, आपौ प्रगट करै मूढ रे सुगुण नर। गुरु सीख देवै खामी-मेटवा रे लाल, तौ सांहमौ मंड जाए करै खोटी रूढ रे सुगुण नर।। सुण. ६१ जिण नैं आप तणौ करै रागियौ रे लाल, संका औरा री घाल रे सुगुण नर। अभिमांनी अविनीत नी रे लाल, एहवी छै ऊंधी चाल रे सुगुण नर॥ सुण. ६२ सुविनीत रा समजावीया रे लाल, 'साल दाळ ज्यूं' भेळा होय जाय रे सुगुण नर। अविनीत रा समजावीया रे लाल, कोकला ज्यूं कानी थाय रे सुगुण नर।। सुण. ६३ समझाया सुविनीत अविनीत रा रे लाल, फेर कितोयक होय रे सुगुण नर। ज्यूं तावड़ौ नैं छांहड़ी रे लाल, इतरौ अंतर जोय रे सुगुण नर। सुण. ६४ अविनीत नैंअविनीत मिलै रे लाल, ते पामै घणौ मन हरख रे सुगुण नर। ____ ज्यूं डाकण राजी हुवै रे लाल, चढवा नैं मिलियां जरख रे सुगुण नर॥सुण. ६५ डाकण मारै मनुष नैं रे लाल, औ करै समगत री घात रे सुगुण नर। डाकण चोर राजा तणी रे लाल, ओ तीर्थंकर नो चोर विख्यात रे सुगुण नर।।सुण. ६६ लंपट रूप-गृद्धी फिट-फिट हुवै रे लाल, जे न गिरें जाति कुजात रे सुगुण नर। ____ ज्यूं अविनीत गृद्धी घणौ खाण रौ रे लाल, विकळां नैं मूंडै विख्यात रे सुगुण नर॥ सुण. ६७ ए अविनीत साधू ओळखावियौ रे लाल, इमहिज साधवी जांण रे सुगुण नर। वले श्रावक नैं श्राविका तणी रे लाल, तिमहिज करजौ पिछांण रे सुगुण नर।।सुण. ६८ साध-साधवीयां री निंद्या करै रे लाल, अवगुण बोलै विपरीत रे सुगुण नर। सूंस कराय ग्रहस्थ भणी रे लाल, त्यांरी भौळा मांनै परतीत रे सुगुण नर। सुण. ६९ केई श्रावक खावै घर तणौ रे लाल, केयक मांगै खाय रे सुगुण नर। ___पिण अविनीतपणौ छूटौ नहीं रे लाल, तौ गरज सरै नहीं काय रे सुगुण नर॥ सुण. १. दो मन वाला। ३. चावल-दाल। २. चाटुकारिता। ४. सूखा हुआ काचर। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४१ १३५ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० त्यांनै दीधा मैं पुन्य परूपीयां रे लाल, स्वान ज्यूं पूंछ हलाय रे सुगुण नर। ____साधु पाप परूपै त्यांरा दांन मैं रे लाल, तौ लागै अभ्यंतर लाय रे सुगुण नर। सुण. ७१ कोई अविनीत हुवै साध-साधवी रेलाल, कदा गुर दै लोकां नैं जताय रे सुगुण नर। __जो अविनीत श्रावक सांभळे रे लाल, तो तुरत कहै तिण मैं जाय रे सुगुण नर। सुण. ७२ साधां नैं आय वंदणा करै रे लाल, साधवीयां नैं न वांदै रुड़ी रीत रे सुगुण नर। ____ त्यांने श्रावक-श्राविका म जांणजो रे लाल, ते तौ मूढमती छै अविनीत रे सुगुण नर॥ सुण. ७३ तिण श्री जिन धर्म न ओळख्यौ रे लाल, वले भण-भण करै अभिमांन रे सुगुण नर। आप छांदै माठी मति ऊपजै रे लाल, तिण नैं लागौ नहीं गुरु कांन" रे सुगुण नर।। सुण. ७४ मोटो उपगार मुंनी तणौ रे लाल, कृतघ्नी कीधौ न गिणंत रे सुगुण नर। ____ एहवा अविनीत साधु श्रावक ऊपरै रे लाल, भीक्खू आख्यौ एक दृष्टंत रे सुगुण नर॥ सुण. ७५ कोई सर्प पड्यौ उजाड़ मैं रे लाल, चेत नहीं सुद्ध काय रे सुगुण नर। __तिण सर्प री अनुकंपा करी रे लाल, दूध मिश्री घाली मुख माय रे सुगुण नर। सुण. ७६ ते सर्प सचेत थयां पछै रे लाल, आडौ फिरीयो आय रे सुगुण नर। ____ जो ऊ 'लूठौ' हुवै तौ उण दाब दे रे लाल, काचौ द्वै तो दै डंक लगाय रे सुगुण नर॥ सुण. ७७ सर्प सरीखा अविनीत मानवी रे लाल, एकल फिरै ज्यूं 'ढोर रुळियार' रे सुगुण नर। . त्यां नैं समगत चारित पमायनै रे लाल, कीधौ मोटौ अणगार रे सुगुण नर।। सुण. ७८ एहवौ उपगार कीयौ तिकौ रे लाल, ततकाल भूलै अविनीत रे सुगुण नर। ___उळटा अवगुण बोलै तेहनां रे लाल, उण रै सर्प वाळी छै रीत रे सुगुण नर॥सुण. ७९ आहारपांणी वस्त्रादिक कारणै रे लाल, ते पिण झूठौ झगड़ौ जोय रे सुगुण नर। इण नैं उपरलो हुवै तौ दाबै डंडदै रेलाल, आघौ का? तो उलटो भांडै सोय रे सुगुण नर॥ सुण. ८० सर्प मैं मिश्री दूध पायां पछै रे लाल, डंक दै ते 'गेरी" सर्प देख रे सुगुण नर। ___ज्यूं औसमगत चारित्रलीयां पछै रे लाल, हूऔ साधां रौ वेरी विसेख रे सुगुण नर।। सुण. ८१ वले खाणा-पीणा रौ हुवौ लोळपी रे लाल, आप रा दोष नहीं सूझै मूळ रे सुगुण नर। ___छेरवीयां सूं साहमौ मंडै रे लाल, वलै क्रोध करै प्रतिकूल रे सुगुण नर॥सुण. ८२ तिण नैं दूर करै तौ दुसमण थको रे लाल, बोलै घणौ विपरीत रे सुगुण नर। असाध परूपैसगळा साध नैं रेलाल, तिणरै गेरी सर्प नी रीत रे सुगुण नर।। सुण. ३. बिना मतलब इधर-उधर घूमने वाला १. गुरु की शिक्षा कानों में नहीं पड़ी। २. बलवान। पशु ४. दुष्ट। १३६ भिक्खु जश रसायण Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ८३ सुगुरा साप नैं दूध पायां थकां रेलाल, ऊ करै पाछौ उपगार रे सुगुण नर। तिण नैं धन देई धनवंत करै रे लाल, वले दीठां हुवै हरख अपार रे सुगुण नर।। __ भाव सुणो सुविनीत रा रे लाल॥ ८४ केइ आप छांदै फिरै एकला रे लाल, पिण सरल परिणामी सुद्ध रीत रे सुगुण नर। तिण नैं समझाय समकत चारित दीयौ रे लाल, ते आज्ञा पाकै रूड़ी रीत रे सुगुण नर॥ भाव. ८५ तिण रै समकत नैं संजम बिहुं रे लाल, रुचिया अभ्यंतर सार रे सुगुण नर। चलावै ज्यूं चालै छादौ रूंध नैं रे लाल, ज्यां सूं करै पाछौ उपगार रे सुगुण नर। भाव. ८६ मोटो उपगार त्यांरौ किम वीसरै रेलाल, सूंपै सर्व देही त्यारै काज रे सुगुण नर। त्यांरौ दर्शण देख हरखत हुवै रेलाल, सर्व काम मैं धोरी ज्यूं समाज रे सुगुण नर॥भाव. ८७ वले गामां-नगरां फिरतां थकां रे लाल, सदा-काळ करै गुण ग्राम रे सुगुण नर। ते सुविनीत गुण-ग्राही आतमा रे लाल, त्यांनै वीर बखाण्यां तांम रे सुगुण नर॥ भाव. ८८ शिष सुविनीत नै सोभती रे लाल, ओपमा दीधी अनेक रे सुगुण नर। सूत्र-न्याय भीक्खू स्वामजी रे लाल, सांभळजो सुविसेख रे सुगुण नर॥ भाव. ८९ भद्र किल्याणकारी घोड़े चढ्यां रे लाल, असवार रै हरख आणंद रे सुगुण नर। ज्यं सीख दीयां सुविनीत नैं रे लाल, गुरु पांमै परमानंद रे सुगुण नर।। भाव. ९० सुविनीत हय देखी चाबखो रे लाल, असवार रै गमतौ चालंत रे सुगुण नर। चाबखा रूप वचन लागां बिना रे लाल, सुविनीत वर्ते चित शांत रे सुगुण नर।। भाव. ९१ अग्निहोत्री ब्राह्मण सेवै अग्नि नैं रे लाल, घृतादिक सींची करै नमस्कार रे सुगण नर। सुविनीत सेवै इम गुरु भणी रे लाल, केवळी छतौ पिण अधिकार रे सुगुण नर।। भाव. ९२ सुविनीत हय-गय नर-नारी सुखी रे लाल, सुखी देव दानव सुरीत रे सुगुण नर। ते तौ पूर्व पून्य ना प्रभाव सूं रे लाल, दीसै लोक मैं विनय सुरीत रे सुगुण नर॥ भाव. ९३ केइ पेट-भराइ सिल्प कारणे रेलाल, संसार नां गुरु कनैं सोय रे सुगुण नर। राजादिक नां कुंवर डांडादिक सहै रे लाल, करडा वचन सहै नर्म होय रे सुगुण नर॥ भाव. ९४ तौ सिद्धंत भणावै ते सतगुर तणौ रे लाल, किम लोपै विनयवंत कार रे सुगुण नर। समगत चारित्र पमावीयौ रे लाल, औ उतकष्टौ उपगार रे सुगुण नर।। भाव. ९५ धर्म रूप वृक्ष रौ विनय मूळ छै रे लाल, बीजा गुण शाखादिक सम जांण रे सुगुण नर। तिण सूंशीघ्र वृद्धि कीर्त्त-सूत्र नी रे लाल, 'दशवैकालिक नवमां रे दूजे वांण रे सुगुण नर॥ भाव. १. चाबुक। २. दशवैकालिक अ. ९ उ. २ गा. १। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४१ १३७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ वृक्ष नौं मूळ सूका छता रे लाल, शाखा पान फळादिक सूक जाय रे सुगुण नर। ____ ज्यूं विनय मूळ धर्म विणसीयां रे लाल, सगळाई गुण विललाय रे सुगुण नर॥ भाव. ९७ एहवौ विनय गुण वर्णव्यौ रे लाल, सांभळ नै नर नार रे सुगुण नर। ___अविनय नै अळगौ करौ रे लाल, करौ विनय धर्म अंगीकार रे सुगुण र॥ भाव. ९८ अविनीत रा भाव सांभळी रे लाल, अविनीत बहु दुख पाय रे सुगुण नर। केइ कुगुरु सुध-बुद्धि-बाहिरा रे लाल, ते पिण हरखत थाय रे सुगुण नर॥ भाव. ९९ विनीत रा गुण सांभळी रे लाल, विनीत रै आनंद औछाव रे सुगुण नर। तौ पिण कुगुरु हरखत हुवै रे लाल, विनय करावण चाव रे सुगुण नर। भाव. १००ते समझ नहीं जिन-धर्म मैं रे लाल, आज्ञा अणआज्ञा ओळखै नाय रे सुगुण नर। ते व्रत-विहंणा नागड़ा रे लाल, प्रतख प्रथम गुणठांणै देखाय रे सुगुण नर॥भाव. १०१हाल देखी हंसली तणी रे लाल, बुगली पिण काढी चाल रे सुगुण नर। पिण बुगली सूं चाल आवै नहीं रे लाल, ए दृष्टंत लीजौ संभाळ रे सुगुण नर। भाव. १०२कुगुरु साधां नैं देखी करी रे लाल, ते पिण करवा लागा अभिमांण रे सुगुण नर। आडंबर कर विनय करावता रे लाल, नहीं सरधा आचार रौ' ठिकांण रे सुगुण नर॥ भाव. १०३ कोयल रा टहुका सुणी करी रे लाल, क्रां क्रां शब्द करै काग रे सुगुण नर। सोभाग सुण सतीयां तणां रे लाल, कुडै' कुसतीयां अथाग रे सुगुण नर॥ भाव. १०४ सांगधारी कुसतीयां काग सरिखा रे लाल, असुद्ध सरधा आचार रै माहि रे सुगुण नर। ठाला। बादळ ज्यूं थोथा गाजता रे लाल, विनय करावता लाजै नाहिं रे सुगुण नर।। भाव. १०५ गयवर नी गति देखनै रे लाल, भुसै स्वांन ऊंचा कर कान रे सुगुण नर। ज्यूं भेषधारी देखी साध नैं रे लाल, स्वांन ज्यूं कर रह्या तांन रे सुगुण नर॥ भाव. १०६ ते पिण विनय करावण रा भूखा घणा रेलाल, साथी सीप सींगोट्यां रा सोय रे सुगुण नर। ___ मिथ्या-दृष्टि ते मूळगा रे लाल, त्यांने ओळखै बुद्धिवंत लोय रे सुगुण नर॥ भाव. १०७ त्यां ठाम-ठांम थांनक बांधीया रे लाल, थापे जीव खवायां पुन्य रे सुगुण नर। ते पिण नाम धरावै साध रौ रे लाल, संवलौ नहि सूझै समकत सुन्य रे सुगुण नर।। भाव. १०८पोपांबाई रा राज मैं रे लाल, नव तूंबा तेरै नेगदार रे सुगुण नर। ज्यूं विकळ सेवग स्वामी मिल्या रे लाल, एहवौ भेषधार्यां रै अंधार रे सुगुण नर॥ भाव. १. नुं (क)। २. कूडै (क)। ३. जल रहित। ४. न (क)। ५. नेग (भेंट) पाने के अधिकारी। १३८ भिक्खु जश रसायण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ वस्त्र-पात्र अधिका राखता रे लाल, आडा जडै कमाड़ रे सुगुण नर। ___मोल लिया थांनक माहै रहै रे लाल, इसडी थाप निरंतर धार रे सुगुण नर॥ भाव. ११० आज्ञा बारै पुन्य सरधता रे लाल, आज्ञा मैं पाप समाज रे सुगुण नर। ____काचौ पाणी पायां पुन्य सरधता रे लाल, प्रत्यख पोपांबाई रौ राज रे सुगुण नर।। भाव. १११ ते समज न पडै श्रावका भणी रे लाल, ज्यांरा मत माहै मोटी पोल सुगुण नर। पिण आंधां मैं मूळ सूझै नहीं रे लाल, तांबा ऊपर झोळ रे सुगुण नर॥ भाव. ११२ कुगुरु निषेध्यां अविनीतड़ौ रे लाल, ऊंधा अर्थ करै विपरीत रे सुगुण नर। ते सतगुरु नैं कुगुरु कहै रे लाल, नहीं विनय करण री नीत रे सुगुण नर॥ भाव. ११३ उण सूं विनय कियौ जावै नहीं रे लाल, तिण सूं बोलै कपट सहीत रे सुगुण नर। कहै विनय कह्यौ छै सुद्ध साध नौ रे लाल, इणरै भ्यंतर खोटी नीत रे सुगुण नर। भाव. ११४ साधा नैं असाध सरधायवा रे लाल, बोलै माया सहीत रे सुगुण नर। तिण नै बुद्धिवंत 8 ते ओळखै रे लाल, औ पूरै मतै अविनीत रे सुगुण नर? भाव. ११५ कहै-आचार मैं चूकै घणां रे लाल, म्हां सूं विनय कियौ किम जायरे सुगुणनर? ते बुद्धि-हींण जीव बापड़ा रे लाल, न जाणै सूतर - न्याय रे सुगुण नर॥ भाव. ११६ बुकस पडिसेवणा भेळा रहै रे लाल, अवधि मनपर्यव केवळी अवंक रे सुगुण नर। ते भेळा आहार करता संकै नहीं रे लाल, इण नै विनय करतांआवैसंकरेसुगुण नर॥भाव. ११७ देखौ अंधारौ अविनीत रैरे लाल, निज अवगुण सूझै नांय रे सुगुण नर। ___ विनय नौं तौ गुण पोतै नहीं रे लाल, तिण सूं पर तणौ औगुण देखायरे सुगुण नर॥ भाव. ११८ दर्शण-मोह उदय घणौ रे लाल, पूरौ विनय कियौ नहीं जाय रे सुगुण नर। ओळखै अवगुण आपरौ रे लाल, ए उत्तमपणौ सुहाय रे सुगुण नर॥ भाव. ११९ ते कहै केवळी बुकस भेळा रहै रे लाल, मोह बळ्यौ तिण सूं नावै लैहर रे सुगुण नर। लैहर आवै चित थिर नहीं रे लाल, ते जाणै निज कर्म हैं जैहर रे सुगुण नर॥ भाव. १२० बुकस पडिसेवणा कदै नहीं मिटै रे लाल, तीइ काळ रै माय रे सुगुण नर। दोयसौ कोड सूंघटै नहीं रे लाल, चित्त अथिर सूं ते न मिटाय रे सुगुण नर॥ भाव. १२१ ज्यारै सूत्र तणी नहीं धारणा रे लाल, प्रकृति अतिघणी अजोग रे सुगुण नर। ते थोड़ा मैं रंग-विरंग हुवै रे लाल, मोटौ दर्शणमोह रोग रे सुगुण नर॥ भाव. १२२ केका रै दर्शणमोह तौ दीसै घणौ रे लाल, पिण सैंणा घणा बुद्धिवांन रे सुगुण नर। ___ ते गुरु नैं सुणाय निसंक हुवै रे लाल, ज्यारै समगति रौ जोखो मत जांण रे सुगुण नर॥ भाव. १२३ दोष री थाप गुरां रै नहीं रे लाल, दोष रा डंड री थाप रे सुगुण नर। और री कीधी थाप हुवै नहीं रे लाल, इम जांण निसंक रहै आप रे सुगुण नर॥ भाव. भिक्खु जश रसायण : ढा. ४१ १३९ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ इम सांभळ उत्तमां नरां रे लाल, राखौ देव गुरां री प्रतीत रे सुगुण नर। आसता राख आगै घणां रे लाल, गया जमारौ जीत रे सुगुण नर॥ भाव. १२५ वरण-नाग नतूआ तणौ रे लाल, मिंत्र तर्यो प्रतीत सूं पेख रे सुगुण नर। तौ उत्तम पुरुषां री प्रतीत सूं रे लाल, तिऱ्या तिरै नै तिरसी अनेक सुगुण नर॥ भाव. १२६ श्रीक्खू स्वाम कह्या भला रे लाल, दीपता वर दृष्टंत रे सुगुण नर। केयक तौ सूत्रे करी रे लाल, केयक बुद्धि उपजत रे सुगुण नर॥ भाव. १२७ उत्पत्तिया बुद्धि अति घणी रे लाल, स्वाम भीक्खू नीं सार रे सुगुण नर। स्वाम गुणां नौं पोरसौ रे लाल, स्वाम शासण सिणगार रे सुगुण नर॥ भाव. १२८ स्वाम दिशावान दीपतौ रे लाल, स्वाम तणी वर नीत रे सुगुण नर। आसता तास न आदरै रे लाल, ते अपछंदा अविनीत रे सुगुण नर॥ भाव. १२९ श्रीक्खू दीपक भरत मैं रे लाल, प्रगट्यौ बहु जन भाग रे सुगुण नर। स्वाम भीक्खू गुण संभरूं रे लाल, आवै हरख अथाग रे सुगुण नर॥ भाव. १३० ढाळ भली इकचाळीसमी रे लाल, आख्या दृष्टंत अनेक रे सुगुण नर। भीक्खू स्वाम प्रसाद थी रे लाल, 'जय-जश' करण विसेख रे सुगुण नर।। भाव. १. चेड़ा-कौड़िक के संग्राम में युद्ध करते समय घायल होने पर [वरुण - चेटक के रथिक नाग का दोहित्र, एकांत में जाकर अनशनयुक्त शुभ भावों के साथ मरण प्राप्त कर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। उसके मित्र ने भी श्रद्धापूर्वक उसी तरह किया, जिससे वह मरकर मनुष्य जाति में उत्पन्न हुआ। फिर महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध होगा। (भगवई श.७ उ. ९ सूत्र १९२ से २११) २. तै (क)। १४० भिक्खु जश रसायण Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार॥ १ इत्यादिक दृष्टंत अति, सूत्र - न्याय वलि सार। सखरा मेल्या स्वामजी, भीक्खू बुद्धि भंडार।। २ अनुकंपा रै ऊपरै, करणी पढम गुणठांण। इन्द्रीवादी ऊपरै, बहु दृष्टंत वखांण॥ ३ पोत्याबंध ऊपर प्रत्यख, प्रज्यायवादि पिछांण। काळवादी की चउपई, दृष्टंत त्यां बहु जांण। ४ व्रत - अव्रत री चउपई, अरु सरधा आचार। जिण आज्ञा पर जुक्ति सूं, सखरा हेतू ५ टीकम डोसी कच्छ नौ, सूक्ष्म पूछा सोय। जाब दीया अति जुक्ति सूं, ऋष भीख अवलोय॥ ६ भीक्खू नाम कह्यौ भलौ, सूत्रां मैं बहु ठांम। भेदे कर्म भणी भलौ, गुण निप्पन्न तुझ नांम॥ ७ पंच महाव्रत अंक पंच, बार व्रत नां बार। अव्रत बारै अंक धर, त्रिकरण जोग प्रकार।। ८ इण विध मांड वतावतां, हेतु न्याय अनेक। आप दिखाया अधिक ही, वर्णवै केम विसेख॥ ९ दाख्या ते दृष्टंत नीं, संकलना सुविसाल। कहूं छू संक्षेपे करी, 'सूचा - मात्र संभाळ।। ढाळ : ४२ (डा पूंजादिक नी डोरी) १ पांच सौ मण चणा पिछांण, पंच सी- रा हेतू ते जांण।' डोकरा नै चणां सेर दीवू, पीस पोय जल सूं तृप्त कीचूं। २ 'आखा पजूसणारे मैं न आलै', चोडै परंपरा थित चालै। माता वेस्या नै तैं जळ पायौ, पाप छै पिण सरीखा न थायौ। १. सूची रूप। ३. पयूषण के दिनों में आखा/अक्षत/अनाज २. विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-व्रतां को नहीं देते हैं। लेखो (जयगणिकृत) भिक्खु जश रसायण : ढा. ४२ १४१ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तिम श्रावक कसाइ न सरिखौ, पाप सुणी कोई मत भिड़को। चदर ले गयौ तसकर एक, एक दीधी प्राछित किण रो पेख।। ४ थांरा धणी रौ नाम नाथू होय? कहै - क्यांनै नाथू हुवै सोय। मूळा दीयां कांइ हुवै त्यां नै, पूछ्यौ अमरसिंघजी रा साधा नैं। ५ पड़िया तसकर नै आफू खवायौ, ते तौ सेठ नों वैरी छै ताह्यौ। खेत पाकां करसणी रै बाळौ, तिण रौ रोग मेट्यां फळ न्हाळौ। ६ ममता ऊतरी कहै प्रसीधी, दस वीगा खेती किण नैं दीधी। सावज्ज दांन रा तूं करै त्याग, म्हांनै भांडवा नै कै वैराग"?॥ . ७ जल लोट्यौ सूंपजो म्हारै हाट, ज्यूं पुन कहै सांनी रै वाट। पडिमाधर नै दीयां स्यूं होय? लेण वाळा . ते अवलोय।। ८ कोई काचौ पांणी किण नैं पावै, कोइ पारकी खाई३ लुटावै। धन दीयौ अव्रती नै ताहि, लाय मासूं न्हाख्यौ लाय माहि' ।। ९ घृत - तंबाकू भेळ्यां न मेळ, ज्यूं व्रत अव्रत मैं नहीं भेळ'"। आंख जीभ ओषध रौ दृष्टंत, व्रत-अव्रत पर उपजंत"।। १० सोर अग्नि न्यारा सूं न न्हास, ज्यूं व्रत अव्रत जूजूआ तास । सोमल मिश्री पसारी रै न्यार, व्रत अव्रत जुआ विचार ।। ११ कहै ग्रहस्थ रौ है छंद, छांदा माहै तौ धूल है मंद। खांड घृत मैदौ खरा होय, ज्यूं चित्त वित्त पात्र सुजोय।। १२ थांनै असाध जांणै दीयां दांन, उत्तर, खाधी मिश्री विष जांन22। आक थोड' रौ दूध असुद्ध, सावज दया अनुकंपा न सुद्ध।। १३ लाय बुझायां मिश्र थापंत, तौ नाहर मार्यां न पाप एकंत। __वले कुरणा घणा री आंण, कसाइ नैं माऱ्या मिश्र जांण ।। १४ वले उरपर नै मारै विसेख, तिण मैं पिण मिश्र छै त्यारै लेख। वले अटवी बालंतो जाणै, तिण नैं माऱ्या मिश्र क्यूं न मांणै। १. अफीम। ४. नाश (क)। २. इशारा। ५. अलग। ३. परकोटे के बाहर सुरक्षा की दृष्टि से बनाई ६. थोर (क)। गई जल से भरी खाई। १४२ भिक्खु जश रसायण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कतल करतौ तुरकादिक ताय, तिण नैं माऱ्या मिश्र त्यारै न्याय। गायादिक हिंसक जीव संघारै, त्यांनै मार्यो मिश्र क्यूं नहिं धारै” १६ पासी काटै' ते धर्मी कहिवायौ, तौ थारा गुरु न काटै किण न्यायो? चोर ग्यारां मैं एक छौडायौ, तिण रौ सेठ प्रत्यख फल पायो'। १७ उरपर खाधौ उजाड़ रै माह्यौ, मंत्रवादी झाड़ौ दे वचायौ। साधां सुणायौ श्री नवकार, आज्ञा मैं किसौ छै उपकार ।। १८ साहुकार नी अस्त्र्यां दोय, एक रोवै न रोवै ते जोय। कहौ साधुजी किण नै सरावै, संसारी रै मन कुंण भावै34? १९ मोहकमसींग जी पूछ्यौ महाराज! आप गमता लागौ किण काज?। नार हरखै कासीद नै निरख, तिम सिव मग नौं यारै हरख ।। २० तुझ आंगुण२ काढै है ताय, थारा मुंहढौ देख्यां नरक जाय। ताकड़ी डांडी रौ दृष्टंत, कहै ओघा भणी वांदंत । २१ गुण गोळी सीरा सूं सोभाय, एक भागां पांचूं किम जाय। करौ थानक म्हे कद आख्यौ, सीरौ करौ जमाई न दाख्यौ। २२ सखरी मुझ करौ सगाई, डावरै कद कह्यौ छै ताहि? जती रै उपासरौ कहाय, मथेण रै पोसाल है ताय ।। २३ झालर सुण स्वान रुदन करंत, विहाव री मुंआ री न जाणंत। दुख नीं रात्रि मोटी दिखाय, सुख रात्रि छोटी दीसै ताय।। २४ गाम रै गोरवै खेती वाइ, गधा न पड्या है तौ छैहराई। करड़ा दृष्टंत कहौ किण न्याय, करडौ रोग फूंजाळ्यां न जाय।। २५ गौहां री तौ दाळ हुवै नांहि, अल्प बुद्धि न समझै ताहि। आप री भाषा नहीं ओळखाय, पोतै लिख्यौ वच्यौ नहीं जाय। २६ गो-पगडांडी पाखंड मग ताहि, जिण माग रस्तौ पातसाई। पाग चोरी मूदौ न पोहचाय, झूठौ ठाम-ठाम अटकाय।। २७ साधां सूंस करायौ सोय, भांग्यां साधु नैं पाप न होय। कपड़ौ वेच नफौ लीयौ सार, साधु नै घृत दीयौ उदार। २८ वैरागी वैराग चढ़ावै, कसूबो गळियां रंग पमावै। कहै-म्हे जीव वचावां, ए ठागौ, चोकी छोड़ चोऱ्या करवा लागौ । १. कालै (क)। ३. पौंचाय (क)। २. अवगुण (क)। ४. अटक जाय (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४२ १४३ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ ऋषपाल जिम छै तिम राखै', पूरौ न पळे पंचम-काळ भाखै। तेलौ तीन दिनां रौ ते काळ, हिवड़ा पिण तीन दिवस नों न्हाळ।। ३० दिख्या लेऊ पिण आंसू तौ आय, जमाई रोयां सोभ न पाय। बाल-विधवा देखी लोक रोय, तिण रा कांम-भोग वांछै सोय। ३१ डावरा रै माथै दीयां द्वेष, लाडू दीधौ ते राग संपेख। जाटणी रौ उदक जाच्यौ जाय, चारौ नीऱ्या दूध दै गाय।। ३२ और गण रौ थारै माहै आय, तिण नैं दिख्या देइ लेवौ माय। नरक मैं जाय कुंण तसं तांणै? पत्थर नैं कुए तळि कुंण आंणैः ।। ३३ कुंण स्वर्ग ले जावै ताय? काष्ट जल पर कुंण ठहराय? __पइसौ डूबै, वाटकी तिराय, संजम तप सूं हळको इम थाय ? ३४ पात्रा रै रंग कुंथवा दोहरा, काळा लाल सूं देखणा सोहरा। म्हारै केलू सूं रंगवा रा भाव, कचौ कैलू छोडै किण न्याव? ३५ कुजागा रा करै एक माथै, एक करज मेटै निज हाथैः। चोर हिंसक कुसीळिया तीन, त्यांरा तीन दृष्टंत सुचीन। ३६ कीडी नैं कीडी जाणै ते नांण, पिण कीड़ी ज्ञान मत जांण। ___ साधु थाका नैं गाडै बैसाण, किणहि गधै बैसाण्यौ जांण। ३७ पुन्य मिश्र ऊपर अवलोय किण री एक फूटी किण री दोय। पोळ बारी खोली दिशा बार, देखी हेम नैं उत्तर उदार।। ३८ थोथा चणा री भखारी विख्यात, उंदरां रड़बड़ की सारी रात”। कोयलां री राब वासण काळा, वले आंधा जीमण परुसण वाळा' ।। ३९ तार काढौ, कालै तार कांइ! थां. डांडा ही सूझै नाहीं। वाय-वंग घरटी उड्यै जाय, दोष थाप्यां संजम किम ठहराय? ४० एकलड़ौ जीव कहै किण लेख, त्यारै लेखै ही चौलड़ौ देख।। वस्त्र राख्यां सी परिसह थी भाजै, तो अन सूं प्रथम रहै किण लाजै॥ ४१ श्वेताम्बर शास्त्र थी गृह छंड, तिण सूं राखां छां तीन सुमंड। अनार्य कहै दया नैं रांड, करै कपूत माता नैं भांड।। ४२ डाकणीया डरै गारडू आयां, साधु आयां पाखंडी भय पाया। कड़वा पकवान जुर सूं कहाय, मिथ्या जुर सूं साधू न सुहाय ।। १. रहस्य। १४४ भिक्खु जश रसायण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ बांधी बाळ्यां किम तेजरा तोडै? चारित्र वैराग विण किम जोडै? दीयौ तीन नावां नौं दृष्टंत, सुगुर-कुगुर ऊपर सोभंत। ४४ भेषधारी पिण तप करै ताय, मोटौ देवाळौ केम मिटाय। वणी वणाइ ब्राह्मणी री वात, सांप्रत तिण रा साथी साख्यातः ।। ४५ सूत्र वांचै छेहडै हिंस्या थाप, छेहडै मोऱ्या मारू ज्यूं किलाप। पत्थर खोस्यो तिण नैं कई होय, तिण रै हाथ आयो ते तूं जोय"। ४६ खेमासाह रा घर रौ नैहतौ होय, द्रव्य साध यांनें कहां सोय। साध-असाध कुंण कहौ वाय? नागा ढकीया कितरा गांम माय? ४७ वले कुण देवाळ्यौ साहुकार, लखण वतावू करलौ विचार। दीयौ कुणका पर पग तीन बार, खांमी छै पिण तिण सूं न प्यार ४८ दीयौ सेतखाना रो दृष्टंत, छिद्रपेही ऊपर दाखंत"। ___हेम पछेवड़ी कही अधिकाय, तिण नैं कठिण शीख समजाय ।। ४९ सोभाचंद नै कह्या सुद्ध न्याय, पाषांण नै सोनौ न कहाय। नैहत मांगौ आप किण न्याय? सुता ब्याहव मैं मित्र बोलाया। ५० अविनीत त्रिया नौं पिछांण, अविनीत साधु ऊपर जांणा। कह्या संखेप थी अल्प मात, पाछै वर्णवी सगळी वात।। ५१ चौपी विनीत-अविनीत री तास, आसरै तिण सूं हेतु पचास। ते इक्ताळीसमी ढाळ मैं आख्या, तिण कारण इहां न भाख्या।। ५२ इत्यादिक कह्या हेतु अनेक, पूरा कह्या न जाय. विसेख। हूआ भीक्खू ओजागर ऐसा, सांप्रत काळ मैं श्री जिन जैसा।। ५३ तसुं भजन चिंतामण सरखौ, प्रत्यक्ष पारस भीखू नै परखौ। ___म्हारै प्रबल भाग्य प्रमाण, इण काळ अवतरीया आंण।। ५४ नित्य समरण कर नर-नार, सुख-संपति कारण सार। दुख-दोहग टाळणहार, इह भव पर भव सुखकार।। ५५ निमल ज्ञान नेत्रे करि निरख्यौ, पूज भिक्खू विवध कर परख्यौ। वर पूरौ है तसुं विश्वास, अति वंछत पूरण आस॥ ५६ बयाळीसमी ढाळ विमास, सुद्ध दूजौ खंड सुप्रकाश। स्वामी जय-जश करण सुहाया, प्रबल भाग बले भिक्खू पाया।। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४२ १४५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश १ दृष्टंत वारू अधिक चारू, स्वाम ना ज सुहांमणा। भव उदधि तारण जग उधारण, ऋष भीक्खू रळीयामणा।। सुख वृद्धि संपति दमन दंपति, भरम भंजन अति भलौ। हद बुध हिमागर सुमति सागर, नमो भीक्खू गुणनिलौ।। इति श्री भीक्खु जश रसायणे द्वितीयः खंडः।। १४६ भिक्खु जश रसायण Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ आख्यौ द्वितीय खण्ड रे, असि आ उ सा नै मुनि वर्णन महि मंड रे, तीजौ खण्ड निसुणौ तृतीय खण्ड सोरठा दूहा २ चारित' लीधौ चूंप सूं, पाखंड - पंथ ३ 'उदै-उदै पूजा" तिण सूं पूज प्रगट भवीयण रै मन भावता, हूआ मोटा कही, समण-निग्रंथ नीं थया, ए जिण वचन कही, समण निग्रंथ नैं ४ ओपम तो आछी चोरासी अति दीपती, अणुजोगवार ५ वले 'दसमां अंग अधिकार मैं", तीस ओपमा समण भीक्खू नै सोभती, भाख ६ वले षट् दस दीधी ओपमा, बहुश्रुती 'उत्तराधेन श्री वीर ७ इण अणुसारै सूत्र कही ओपम गुण आछा घणा, तिण रौ तीर्थंकर ८ गुणवंत गुर नां गुण गावतां, हिवै ओपम सहित गुण वर्णवूं, ते १. अ- अरिहंत, सि-सिद्ध, आ-आचार्य, उउपाध्याय, सा- साधु । २. मुनि वैणीराम जी (२८) कृत 'भिक्खु - चरित' की चौथी ढाळ है। जयाचार्य ने इसको इसी रूप में 'भिक्षु जश रसायण' में नामोल्लेखपूर्वक स्थान दिया है। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४३ इग्यारमें ६, औळखौ, भीक्खू नै भली पार न कोई नाम - गोत चित गया सुज नै कह्यौ प्रणम । तुम्हे ॥ निवार | अणगार ॥ जांण । प्रमांण ॥ श्रीकार । मझा ॥ तंत। भगवंत ॥ श्रीकार | विस्तार || भंत । पामंत ॥ बंधाय । ल्याय॥ ३. उत्तरोत्तर पूजा (पज्जोसवणा कप्पो सूत्र ९१) ४. अनुयोगद्वार -४ ५. प्रश्न व्याकरण, अध्ययन १०, सूत्र ११ । ६. उत्तराध्ययन, अ. ११, गा. १५ से ३०|) १४७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : ४३ (हरिया नै रंग भरिया जी नीला जिन निरखू नैण सूं) १ आदिनाथ आदेसर जी जिणेसर जग-तारण गुरु। धर्म आदि काढी अरिहंत। इण दुखम आरै कर्म कटीयाजी, परगटीया आदि जिणंद ज्यूं। ओ इचर्य' इधक आवंत। ' साध भीक्खू सुखदाया जी, मन भाया भवियण जीव नें॥ध्रुवपद। २ स्यांम वरण अति 'सोवै जी, मन मोवै' नेम जिणंद ज्यूं। त्यांरी वाणी अमीय समांण। भवियण नैं मन भाया जी, चित चाया तीरथ च्यार मैं। मुनि गुण रतना री खांण। साध. ३ काळवादी आदि जांणी जी, मत आंणी मारग उथापवा। 'कुबद्यां केलवीया कूर। औ 'पाखण्ड घोचा पोचा जी काइ, ज्ञान करै । गिरवा मुनि। चरचा कर कीया चकचूर। साध. ४ संख उजल श्रीकारीजी, पयधारी दोनूं दीपता। नहीं बिगडै दूध लिगार। ज्यूं थे तप-जप किरिया कीधी जी, कर लीधी आतम ऊजळी। पय 'दश जती धर्म धार! साध. ५ कंबोज देश नौ घोड़ी जी, अति सोरो करै सिरदार नैं। 'नहीं आंणै अहिल लिगार'। -- ज्यूं भवियण नै थे ताऱ्या जी, ऊताऱ्या पार संसार थी। सुखे जासी मोख मझार। साध. १. आश्चर्य। ५. कमजोर। २. सोहै जी मन मोहे (क)। ६. करी (क)। ३. कुबुद्धि वाले व्यक्तियों ने मिथ्या प्रचार ७. क्षांति, मुक्ति आदि। किया। ८. धक्का नहीं लगने देते। ४. पाखंड (शास्त्र विरुद्ध आचरण करने) वाले तिनके। १४८ भिक्खु जश रसायण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सूर-सिरोमणि साचो जी, नहीं काचौ लड़ता कटक' मैं। सुविनीत अश्व-असवार। ज्यूं कर्म-कटक 'दळ' दीधौ' जी, जश लीधौ जाझोरे जगत मैं। चढ सुतर अश्व श्रीकार। साध. ७ हाथी-हथण्यां परवारै जी, बळ धारै दिन-दिन 'ही वधै" बधै साठ वरस सुध मान। ज्यूं थे तयाळी वरस लग जाझा जी, तप ताजा तेज तीखा रह्या। प्राक्रम पिण परधांन॥ साध. वृषभ सींग खंध भारी जी, सिरदारी गायां-गण मझै। थेट भार वहै भली भंत। ज्यूं थे गण-भार थेट निभाया जी, चलाया तीरथ चूंप सूं। सहु साधां मैं सोभंत॥ साध. ९ सिंघ मृगादिक नौं राजा जी, तप ताजा डाढा तेज सूं। जीव न जीपै जोय। ज्यूं आप केसर नी परै गूंज्या जी, धूज्या पाखंड धाक सूं।. थांसू गंज' न सकै कोय।। साध. १० वासुदेव बळ जाण्यो जी, बखांण्यौ वीर सिधंत मैं। ___ संख चक्र ....- गदाधरणहार। ज्यूं थांरा ग्यांन दरसण चारित्र तीखा जी, नहीं फीका त्यां कर तेज सूं। पूज पाखण्ड दीयौ निवार॥ साध. ११ आखा भरत नौं राजा जी, अति ताजा सेन्या सझ करी। आंणै वै- नौ अंत। ज्यूं थे पाखंड सहु ओळखाया जी, हटाया बुध उतपात सूं। तत्त्व बताया तंत॥ साध. १.सेना। २. पछाड़ दिया। ३. बहुत। ४. दीपतौ (क)। ५. केशरी (सिंह)। ६. पाखंडी (क)। ७. जीत। भिक्खु जश रसायण : ढा.४३ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सकइन्द्र सिरदारी जी, वज्रधारी सुर मैं सोभतो। जखादिक जीपै जां ज्यूं सुतर वज्र श्रीकारीजी, बळधारी बुध उतपात सूं। पूज पाडी पाखंड री हांण ॥ साध. विणासै १३ आइच्च' उगां आकासै जी, तिमर तेज सूं। करै उद्योत । मुगत रो। इधिको ज्यूं थे अज्ञान अंधार मिटायौ जी, बतायौ घण-घट १४ चंद सदा सुखकारी जी, परिवारी ग्रह नां सोमका मारग १६ सर्व वृक्षां मैं अत सोवै जी, १५० घाली कोठागार ज्यूं ज्ञांनादिक गुण भरीया जी, परवरीया पूज आधार १. शक्रेन्द्र। - प्रथम देवलोक का इन्द्र । २. आदित्य (सूर्य)। ३. अंधकार । ज्यूं च्यार तीरथ सुखदाया जी, मन भाया भवियण भीक्खू भला जसवंत ॥ १५ लोक घणां आधारी जी, अति भारी धांनांकर जोत ॥ साध. मझै । सोभंत । जीव रै। गण अथाय ॥ भूत मन मोवै दसै सुदरसण जंबू ज्यू संतां मैं सिरदारी जी मत भारी भीक्खू भरत उपना इचर्यकारी आंण ॥ १७ सीता नंदी सिरै जांणी जी, वखांणी वीर सिधंत पांचसै जोजन ज्यू तप-तेज अति तीखा जी, नहीं फीका, रह्याज सदा-काळ परंगट साध. भयो । कहाय । थया। साध. दीपतौ । जांण । ४. अनेक व्यक्तियों के हृदय में। ५. शान्तिकारी । ६. शोभित होते हुए। मैं । साध. मैं । प्रवाह । फाबता' । सुखदाय ॥ भिक्खु जश रसायण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मेरू नी ओपम आछी जी, नहीं काची कही किरपाळ जी। ते ऊंचौ घणौ अत्यंत। ओषद अनेक छाजै जी, विराजै गुण त्यां मैं घणा। ज्यूं औ बहुश्रुति बुधवंत।। साध. १९ 'स्वयंभूरमण समुद्र रूड़ो जी, पूरो पाव-राज पिहलो पड्यौ' प्रभूत रत्न भरपूर। सागर जेम गंभीरा जी, सूरवीरा गुण कर गाजता। सूतर चरचा मैं सूर॥ साध. २० औ षट् दस ओपम आछी जी, कांइ साची सूतर मैं कही। बहुश्रुति नैं श्रीकार। ___ इण अनुसारै जांणो जी, पिछांणौ करल्यौ पारिखा। भीक्खू गुण भंडार॥ साध. २१ ओपम अनेक गुण छाज्या जी, विराज्या गादी वीर नीं। पूज पाट लायक गुण पाय। समुद्र जेम अथागा जी, जल थागा जिण कह्यौ नहीं। __ ज्यूं गुण पूरा केम कहिवाय? साध. २२ पाट लायक शिष भाळी जी, सुंहाळी प्रकति सुंदरू। भारमलजी गैहर गंभीर। पदवी थिर कर थापी जी, आ आपी आचार्य तणी। जांणे सुविनीत सधीर॥ साध. १. स्वयंभूरमण समुद्र पाव (एक रज्जु का २. विपुल। चौथा भाग) रज्जु चौड़ाई वाला है। असंख्य योजन का एक रज्जू होता है। .भिक्खु जश रसायण : ढा.४३ १५१ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा वर १ भाग बली भीक्खू तण, संत हुआ गण माहि। वर्णन संखेपे पवर, आंखू धर ओछाहि। २ केयक पंडित मरण कर, कीधौ जन्म कल्याण। कर्म-जोग केयक टळ्या, सुणजो चतुर सुजांण।। ३ बड़ा संत भीखू थकी, जनक-सुतन वर जोड़। पिता स्वाम 'थिरपालजी', 'फतेचंद' . सुत मोड़। ४ वड़ा' टोळा में था बिहुँ, राख्या वड़ा सुरीत। - सरल भद्र बिहुं श्रमण सुध, पूरी तसुं प्रतीत।। ५ तपसी तप करता बिहुँ, शीत उष्ण वरसाळ। वड़ वैरागी विनय वर, रूड़ा मुनि ऋषपाल। ६ निरहंकारी निर्मळा, निर्लोभी निकलंक। हळुआ कर्म उपधि करि, आर्जव उभय अवंक।। ७ शीतकाल अति शीत सहै, पछेवड़ी परिहार। जन निशि देखी जांणीयौ, औ तपसी अणगार।। ८ कोटै आप पधारीया, महिपति आवणहार। सांभळ ने ते संत बिहुं, ततक्षण कियौ विहार।। ९ निज आत्म तारण निपुण, वारु वेपरवाह। तप मुद्रा तीखी घणी, चित इक शिव पद चाह।। ढाळ : ४४ (राणी भाखै हे दासी सांभळ बात) १ संत दोनूं हो सोभै गुणवंत वनीत २, त्यां सूं प्रीत पूरण भीक्खू तणी। भीक्खू सेती हो ज्यारै पूरण प्रीत २, गुणग्राही आत्म घणी।। २ पद आचार्य हो, भीक्खू बुद्धि नां भंडार २, जन बहु देखतां युक्ति सूं। आप मूंकी हो पद नौं अहंकार २, कर जोड़ वंदणा करै भक्ति सूं।। १.स्थानकवासी संप्रदाय में दोनों संत दीक्षा में २. वर्षा ऋतु (चतुर्मास काल) बड़े थे। ३. सरल। १५२ भिक्खु जश रसायण Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ किण टोळा नां हो, तुम्हे संत कहिवाय २, इण विध लोक पूछ घणा। मांन मूंकी हो, बोलै बिहुं मुनिराय २, म्हे भीखनजी रा टोळा तणां॥ ४ प्रश्न चरचा हो त्यां नै कोइ पूछंत २, तौ संत दोनूं इम भाखता। भीक्खू भाखै हो तेहिज जांणजो तंत २, रुड़ी आसता भीक्खू नी राखता॥ ५ म्हांनै तो हो, पूरी खबर न काय २, भीखनजी नैं पूछी निरणौ करौ। सुध जांणौ हो, तेहिज सत्य वाय २, प्रगट कहै इम पाधरौ।। ६ त्यांरा तपनों हो, अधिकौ विस्तार २, कायर सुण कंपै घणा। अति पांमै हो, सूरा हरख अपार २, संत दोइ सुहामणा। ७ संजम पाळयौ हो, बहु वर्स श्रीकार २, विचरत 'बरलू' आवीया। धर्म-मूर्ति हो, ज्ञानी महा गुणधार २, हलुकर्मी हरषावीया।। ८ सुद्ध तपसा हो फतैचंदजी सैंतीस २, अधिक कियौ तप आकरौ। वारु करणी हो, ज्यांरी विसवावीस २, क्षांति गुणे मुनिवर खरौ॥ ९ पिता दीधौ हो तसुं पारणौ आंण २, ठंडी घाट बाजरी तणी। फत्ता ! करले हो पारणौ पहिछांण २, सरलपण कहै सुत भणी॥ १० निरममती' हो सुत संत निहाल २, प्रगट अपथर कीयौ पारणौ। कर गयौ हो तिण जोग सूं काळ २, सुमती जन्म सुधारणौ।। ११ इकतीसे हो, वर्से समत अठार २, फतैचंद फतै कर गया। निरमोही हो तात निमळ निहार २, थिर चित संजम अति थया। १२ मुनि आयौ हो खेरवा सैहर माहि २, सलेखणा मंडीया सही। चिहुं मासे हो, पारणा चित चाहि २, आसरै चउद किया वही॥ १३ थिर चित सूं हो मुनिवर थिरपाल २, बर्स बत्तीसे विचारीयौ। , कर तपसा हो मुनि कर गयौ काळ २, जीतब जन्म सुधारीयौ।। . १. ममत्त्व रहित। ढाल है। उसमें मुनि थिरपाल जी का सं. २. अपथ्य भोजन। १८३३ कार्तिक बदि ११ के दिन स्वर्गवास ३. मुनि थिरपालजी का स्वर्गवास शासन हुआ, यह मिलता है। यह ढाल खेरवा में विलास तथा ख्यात में सं. १८३२ कार्तिक बनाई गई है। उस वर्ष मुनिश्री का चतुर्मास कृष्णा ११ के दिन हुआ लिखा है। किन्तु खेरवा में था। उनके साथ मुनि सुखजी तथा १८३२ मृगसर बदि७के लिखत तथा १८३२ तिलोकजी थे। इन्ही सभी प्रमाणों के आधार जेठ सुदि ११ के लिखत में उनके हस्ताक्षर पर १८३३ ही सही लगता है। . हैं। और गुमानजी लूणावत (पीपाड़) द्वारा लिखित पोथे में श्रावक नेमीदास जी कृत भिक्खु जश रसायण : ढा. ४४ १५३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जोड़ी जुगती हो, तात-सुतन जिहाज, स्वाम भीक्खू रा प्रसाद थी। पंडित मरणौ हो, ओ तो भवदधि पाज २, पाम्या है परम समाधि थी। १५ सखरी भाखी हो, चौमाळीसमी ढाळ २, स्वाम भीक्खू गुण सागरू। वारु करवै हो जय जश सुविशाल २, अधिक गुणां रा आगरू। १५४ भिक्खु जश रसायण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ समत अठार बतीस मैं, भीख बुद्धि-भंडार। प्रकृति देख साधां तणी, लिखत कीयौ तिण वार।। २ सहु साधां नैं पूछ नै, बांधी इम मर्याद। सुखे संजम पाळण भणी, टाळण कलेश उपाध॥ ३ पद युवराज समापीयौ, भारीमाल नै जांण। सर्व साधु नैं साधवी, पाळजो यांरी आंण।। ४ भारमलजी री आज्ञा थकी, विचरवौ शेषै काळ। चोमासौ करिवौ तिकौ, आज्ञा ले सुविशाळ॥ ५ दिख्या दैणी अवर नैं, भारीमाल रै नाम। पिण आज्ञा लीधां बिनां, शिष नहीं करणौ तांम॥ ६ इच्छा हुवै भारीमाल री, शिष गुरु भाई सोय। पदवी देवै तेहनै, तसं आज्ञा अवलोय॥ ७ एक तणी आज्ञा मझै, रहिवौ रूड़ी . रीत। एहवी रीत परंपरा, बांधी स्वाम वदीत।। ८ टोळा मां सं कोइ टळे, एक दोय दे आद। धुरत बुगलध्यानी हुवै, तिण नैं न गिणवौ साध॥ ९ तीर्थं मैं गिणवौ न तसुं, चिउं संघ नों निंदक-जांण। एहवा नैं वांदै तिके, आज्ञा बार पिछांण। अ है ढाळ : ४५ (पांडव बोलै बोल) १ एहवौ लिखत अमांम, सखर मर्यादा हो बांधी स्वांमजी। नीचे साधां रा नाम, कठिण संजम नैं हो पाळण कामजी॥ २ मेटण क्लेश मिथ्यात, थिर चित थापण हो मर्यादा थुणी। वारु बुद्धि विख्यात, सुगुण सुबुद्धि हो हरख पांमैं सुणी॥ ३ अपछंदा अविनीत, दोषण काळे हो इण मर्याद मैं। कुबुद्धि कहै कुरीत, अवगुण ग्राही हो आत्म असमाध मैं॥ भिक्खु जश रसायण : ढा. ४५ १५५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ विगड्यौ पछै 'वीर भांण'', 'पाछै कह्यौ प्रबंध पहिछांण', तंतसार, सुखकार, भाळ, सुविशाल, सुखकार, साज ८ बगड़ी सार, सैर विसेख, देश ढूंढार मैं देख, ९ स्वाम भीक्खू रै प्रसाद, उपजै मन ५ ' टोकरजी" संत ' भारीमाल' ६ संत ७ सोम्य दोनूं नै बड़ा मूर्ति थी संजम अहिलाद, युवराज, १० भारीमाल पदवीधर भव पाज, ११ 'लिखमैजी' संजम लीध, 'पडिवाइ कहौ कद सीध', १२ 'अखेरामजी" १५ भेषधार्यां नें १३ पारख जाति लोहावट नां १४ धर तप छेड़े अखै दीवाली 'अमरोजी "" अभवी थी १६ संत बड़ा समझाया भीक्खू सुमंड, छंड, पिछांण, सुजांण, धिन्न, दिन्न, धार, अधिकार, छूटक › 'सुखराम ३ स्वाम, १. पूर्वोक्त ढाल ८ गा. २१, २२, २३। २. जो प्राणी सम्यक्त्व से गिर जाता है, वह प्रतिपाती सम्यक्दृष्टि कहलाता है । वह उत्कृष्टतः अर्ध पुद्गल परावर्तन काल में मुक्त होता है, १५६ आज्ञा लोप्यां सूं हो स्वामी अळगौ कियौ । दर्शण मोह पिण हो तिण नैं दबावीयौ ॥ हाजर रहीता हो स्वामी 'हरनाथजी " । वर जश वारु हो तास विख्यात जी ॥ पद युवराज हो पूज समापीयौ । दंभ मेटी नैं हो थर चित थापीयो॥ स्वाम प्रसंस्या हो अंत्य समैं सही। कीति भीक्खू हो आप मुखे कही ॥ स्वाम टोकरजी हो संथारो लीयौ। हद संथारो हो हरनाथ जी कीयौ ॥ संत दोनूंई हो जन्म सुधारीयौ ॥ समरण साचौ हो अति सुख कारीयौ ॥ सेव स्वामी नीं हो अंत तांई सिरै । अणसण आछौ हो वर्स अठतरै ॥ कर्म प्रभावे हो गण सूं न्यारौ थयौ । देसूंण अद्ध पुद्गल हो उत्कृष्ट जिन कह्यौ । स्वाम भीक्खू पे हो संजम आदयौ । सुध मन सेती हो पवर चरण धर्यौ ॥ पारख साची हो थे पूर्ण करी । चरण आराध्यौ हो थिर चित आदरी ॥ छतीस तेला हो चोला मैं चलता रह्या । वर्स इकसठे हो परभव मैं गया ।। पंच काया थी हो अभवी अनंत गुणा । ज्ञानी देवां भाख्या हो पडिवाइ अनंत गुणा || वासी लोहावट ना हो पोत्याबंध वही । सुर-तरु सरिखौ हो चरण लियौ सही ॥ ऐसा भगवान् ने कहा है । ३. शासन विलास और ख्यात के अनुसार 'अखेरामजी' और अमरोजी से सुखरामजी बड़े थे। भिक्खु जश रसायण Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ देव-मूरत सम देख, धुनि ईर्या नी हो निरमळ धारणा। वारू चरण विसेख, सोम्य सुप्रकृति हो महा सुख कारणा।। १८ आसरै बयांलीस वास, निरमळ चारित्र हो स्वामी गुणनिलो। बास वरस विमास, दिवस पचीसै हो अणसण अति भलौ। १९ स्वाम भीक्खू साख्यात, तत्त्व ओळखाइ हो बहु जन तारीया। वर्णवीयै स्यूं वात, स्वाम सोभागी हो महासुखकारीया।। २० समरूं हूं दिन रैन, याद आया तूं हो हिवड़ौ उल्लसै। चित माहि पा{ चैंन, वंछित पूरण हो तुं मुझ मन वसै। २१ पांच चाळीसमी ढाळ, समण सोभाया हो भजन वंछित फलै। 'जय-जश' करण विशाल, समरण संपति मन चिंतत मिले।। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४५ १५७ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सोरठा १ छूटक 'तिलोकचंद' रे, वासी चेलावास । चंद्रभाण कर फंद रे, जिलौ बांधनै फटावीया।। २ 'मोजीराम' गण माय रे, सुध मन सूं संजमलीयो। कर्मा दीयौ धकाय रे, ते पिण छूटक जांणजो॥ दूहा ३ 'सिवजी4' स्वामी सोभता, स्वाम तणा सुविनीत। पिंडतमरण कियौ पवर, गया जमारो जीत।। सोरठा ४ जाति चोरड़िया जांण रे, पुर नां वासी पिछांण जो। चारित्र 'चंद्रभाणा। रे, सुध मन सूं संजम लीयौ। ५ भण्या बुधि भरपूर रे, पिण प्रकृति अहंकार नी। अविनय अवगुण भूर' रे, आज्ञा कठण आराधवी।। ६ जिलौ बांधीयौ जांण रे, तिलोकचंद सूं तुरत ही। मन मैं अधिकौ मांण रे, साध फटाया अवर ही।। ७ संत अवर समझाय रे, स्वांम भीख सिंघ सारिखा। एक-एक नैं ताय रे, छोड्या बिहुं नैं जूजूआ।। ८ अवगुण अधिक अजोग रे, त्यां बोल्या भीक्खू तणा। प्रत्यक्ष कषाय प्रयोग रे, असाध परूप्या स्वाम नैं। ९ भीक्खू बुद्धि भंडार रे, सुध मन सूं समझावीया। प्रायश्चित कर अंगीकार रे, पाछा आया गुण मझे।। १० सहु नैं किया निसंक रे, आया डंड अंगीकरी। विरुऔ यामैं वंक रे, प्रत्यक्ष लोकां पेखीयौ। ११ समणी संत समाध रे, किण नैं डंड न ठहरावीयो। सहु नैं कह्या असाध रे, त्यां रा इज पग वांदीया।। १. दलबंदी। २. बहुत। १५८ भिक्खु जश रसायण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिगड़ी १२ मांन घणौ घट माहि रे, प्रायश्चित नहीं ले ताहि रे, १३ वर्णन बहु विस्तार रे, रास' बिहुं अल्प इहां अधिकार रे, दाख्यौ १४ अणंदै " बिना विचार रे संथारौ चौविहार चित्त धार रे, गांम तृखा अपार रे, सतरै करै संथार रे, तिण 'संतोषचंद " " १६ 'पनजी"" छूटक पेख रे, चंद्रभाणजी देख > रे, दोनूं भणी केका नै १७ केइ पोतै हुआ न्यार रे, अपछंदा अवधार रे, त्यांनै १५ ऊपनीं सैंणा तिण सूं नैं साथै माहि म्हैं १. ' अविनीत रास'। २. उपनी (क) । छोड़ीया ॥ रच्यौ । थीं ॥ सही। 'वीठौरै' पूज गण॥ दिन सूं नीसर्यौ । सूं पहिला तोल नैं। 'सिवराम" नैं। फटावीया ॥ ढाळ : ४६ (दलाली लालन की ) चारित्र भिक्खु जश रसायण: ढा. ४६ १ नीत निपुण 'नगजी 20' निरमल, 'कूंड्या ३ ना संथारौ कर कारज साऱ्या, कीधौ जन्म सुविनीत शिष आय मिल्या, धिन धिन हो भीक्खू थांरा भाग । सुखदाइ शिष आय मिल्या ॥ध्रुवपद || भीक्खू प्रस्ताव धौ दूरा बातड़ी। कीया। दोहिलौ ॥ २ सांम रांम बूंदी नां वासी, जाति श्रावगी जांण। जुगल जोड़लै दोनूं जाया, सोम्य भद्र सुविहांण ।। सुविनीत. पूज भीक्खू पै तांम। संजम ३ कर मनसोबौ आया केलवै, 'आज्ञा साम"' भणी आपीनै, ४ इह अवसर मैं श्रीजीदुवारे, - नांम खेतसी - निरमल नीकौ, वसवांन। कल्यांण । दीवायौ रांम ॥ सुविनीत. भो पौ सुत सार । साह थयौ संजम नैं - त्यार ।। सुविनीत.. ४. मूल प्रति में साम के स्थान राम और राम के स्थान साम था, पर ' शासन विलास' आदि ३. वह गांव 'चित्तोड़' जिला (राजस्थान) में में पहले सामजी और फिर रामजी के है। दीक्षित होने का उल्लेख है, जो ठीक है । अत: यहां वैसा ही कर दिया गया है। 1 १५९ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ दोय व्याहव पहिली कर दीधा, तीजौ करता त्यार। उत्तम जीव खेतसी अधिकौ, इण रै वंछा न लिगार॥ सुविनीत. . ६ बहिन दोय रावळिया ब्याही, जाय तिहां किण वार। बहिन-बैनोई न्यातीला नै, समझावै सुखकार॥ सुविनीत. ७ विफज करत मुख जैपा विध सूं, वर वैराग वधाय। चित चारित लेवा सूं चढतौ, आज्ञा मांगी नहीं जाय॥ सुविनीत. ८ इसा विनीत तात ना अधिका, इतलै तिण पुर माह। संजम लै रंगू सती रे, सांभळ्यौ भोपै साह॥ सुविनीत. ९ भोपौ साह कहै खेतसी भणी रे, चित तुझ लेण चरित्र। कहै खेतसी बे कर जोड़ी, मुझ मन अधिक पवित्र।। सुविनीत. १० आज्ञा हरष धरी नै आपी, वदै भोपौ साह वाय। रगूंजी भेळा करौ रे, इण रा महुछव अधिकाय।। सुविनीत. ११ अड़तीसै संजम आदरीयौ, भीक्खू , ऋष रै हाथ। ... विहार करी 'कोठ्यारै' आया, लारै तौ चल गयौ तात॥ सुविनीत. १२ भीक्खू पूछ्यां सतजुगि भाखै, मन चिंता किम मोय? पहिली उवे अबै आप मिल्या पिय', विरह पड्यौ नहि कोय॥ सुविनीत. १३ परम विनीत खेतसी2' प्रगट्या, स्वाम भणी सुखकार। कार्य भळायां बे कर जोड़ी, तुरत करण नै त्यार॥ सुविनीत. १४ कोमल-कठिन वचन कर भीक्खू, शीख दीयै सुखकार। क्षांति-हरस कर धरै खेतसी, तहत वचन तंत सार॥ सुविनीत. १५ हरष धरी रहै भीक्खू हाजर, अंतरंग प्रीत अपार । सेव करी रीझाया स्वामी, सो जांण लिया तंत सार। सुविनीत. १६ सतजुग सरिसा प्रकृति विनय तूं, निमल सतजुगी नाम। गण आधार खेतसी गिरवारे, सरायो भीक्खू स्वाम।। सुविनीत. १७ सतजुगि-चिरत माहि छै सगलो, विवरा सुध विस्तार। --..- इहां-संखेप करीनै आख्यौं, संत वर्णन माहै सारा सुविनीत. १. पिता। २. ठीक। ३. गहरा/गंभीर। ४. चरित्र। ५. संक्षेप (क)। १६० भिक्खु जश रसायण Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पांच-पांच ना पवर थोकड़ा, वर किया बोहळी वार। उत्कृष्टो तप दिवस अठारै, एक टक उदक आगार॥ सुविनीत. १९ उभा रहिवा री तपसा अति, एक पौहर उन्मांन। जे बहु वर्सी लग जांणजौ, खेतसीजी गुण खांन॥ सुविनीत. २० शीत उष्ण मुनि सह्यौज' अधिकौ, सकल संघ सुखकार। स्वाम सतजुगि संभ- रे, आवै हरख अपार।। सुविनीत. २१ सतजुगी तणा प्रसंग थी रे, ते आगे चलसी विस्तार। बे बहिन भाणेजे चारित्र लीधौ, छेहड़ा लग सुविचार॥ सुविनीत. २२ वर्स बावीस स्वाम नी सेवा, आसरै वर्स अठार। भारीमाल नी छेह लग भगती, अधिक हुवौ उपगार॥ सुविनीत. २३ संलेखणा छेहडै करी सखरी, सखरौ ही संथार। भीक्खू भारीमाल पाछै परभव मैं, असीये वर्स उदार॥ सुविनीत. २४ भीक्खू स्वाम प्रसाद थी रे, सतजुगी . संजम सार। ___पछै 'रामजी' संजम पचख्यौ, ओ भीखू तणौ उपगार॥ सुविनीत. २५ भीक्खू भांज्या भर्म घणां रा, भीक्खू भवदधि पाज। भीक्खू दीपक भरत खेत्र नों, जगत उधारण जिहाज॥ सुविनीत. २६ भाग बली भीक्खू ऋष भारी, शिष मिलिया सुविनीत।, भीक्खू याद आवै निश दिन मुझ, परम भीक्खू सूं पीत॥ सुविनीत. २७ पवर ढाळ कही छयांळीसमी, सतजुगीनों विस्तार। __ सेव करै स्वामी नी सखरी, 'जय-जश' करण उदार।। सुविनीत. १. सह्यौ (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४६ १६१ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा भाळा . १ सांम राम साधू सरल, संतां नै सुखदाय। भद्र प्रकृति भारी घणी, नीत निपुण नरमाय॥ २ वर्स पेंसठै उवास' मैं, भीक्खू पाछै पाली मैं परभव गया, निरमळ सांम निहाळ॥ ३ राम ऋषि रळियांमणा, इन्द्रगढ़ मैं आय। चौला' मैं चलता रह्या, संतरै वर्से ताय॥ ४ देवगढ दिख्या ग्रही, संभूजी4' सुविचार। . वार-वार संका पडै, छोड़ दियौ तिण वार॥ ५ तौ पिण गण बारै छतौ, करै साधां . नी सेव। साध आहार आंण्यां पछै, आप ल्यावै नित मेव।। ६ पीत मुनि थी अति पवर, मुनि जिण गांव मझार। ___ आवै दर्शण करण कू, पिण संका थी हुऔ खुवार॥ ७ 'संघजी' थौ गुजरात रौ, चरण लियौ चित चाय। सरियारी मैं नीकल्यौ, दुधर व्रत दिखाय॥ तदनंतर संजम लीयौ, 'वरल्या-वौहरा'२ जोय इकचालीसै आसरै, नाम 'नानजी261 सोय॥ स्वाम भीक्खू पाछै सही, एकोतरै अवलोय। तेला मैं चलता रह्या, धर्मध्यान मैं जोय॥ ढाळ : ४७ (परम गुरु पूजजी मुझ प्यारा) १ नानजी पछै चरण निहालौ रे, मुनि नेम मोटौ गुणमालौ रे। वासी रोयट नों सुविशालौ रे। हरष ऋषराय नै नित्य वंदो रे। १. उपवास (क)। ढाळ ३ गाथा १७, १९ के अनुसार राम ऋषि २. हेम नवरसा' ढाळ ५ गाथा २ के अनुसार संथारा पूर्वक दिवंगत हए। तेले की तपस्या में तथा 'हेम गुण वर्णन' ३.बरल्या जाति के बोहरा-- ब्याज पर कर्ज देने का काम करने वाले। १६२ भिक्खु जश रसायण Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ पवर चरण भीक्खू पास पायौ रे, संजम बहु वर्से सोभायोरे। मुनि जिन शासण दीपायौ, भीक्खू शिष्य सोभता नित्यवंदौ रे। ३ सैहर नैणवै कीयौ संथारौ रे, पाम्यौ भव सायर नों पारौ रे। औ तौ भीक्खू तणौ उपगारौ।। भीक्खू. ४ तदनंतर वर्स चोमालो रे, 'वैणीरांमजी28 अधिक विसालो रे। निकळंक चरण चित्त न्हालो॥ भीक्खू. ५ दीख्या भीखनजी स्वामी दीधी रे, वसवान वगड़ी रा प्रसीधी रे। मुनि गण माहै सोभा लीधी।। भीक्खू. ६ हुवौ वैणीरांम ऋष नीको रे, प्रबल पिंडत चरचावादी तीखौ रे। मुनि लीयौ सुजश नौं टीकौ।। भीक्खू. ७ वारु वाचत सखर वखाणौ रे, सखर हेतु दृष्टांत सुजाणो रे। भरत मैं प्रगट्यौ जिम भांणो॥ भीक्खू. ८ हद देसना मैं हुसीयारौ रे, श्रोता नै लागै अधिक सुप्यारो रे। __चित माहै पांमै चिमत्कारो।। भीक्खू. ९. जाय मालव देश जमायौ रे, खंडी' सूं चरचा कर ताह्यौ रे। बहु जन नैं लिया समझायो।। भीक्खू. १० त्यांरी धाक तूं पाखंड धूजै रे, वैणीरांम केसरी जिम गूंजै रे। प्रगट हळुकर्मी प्रतिबूझै॥ भीक्खू. ११ उत्पत्तिया है बुद्धि उदारौ रे, समझाया घणां नर-नारौ रे। हुऔ जिन शासण सिणगारौ।। भीक्खू. १२ घणा नै दीयौ संजम भारो रे, धर्म वृद्धि मूरत सुखकारौ रे। ओतो भीख तणौ उपगारो।। भीखू. १३ कीयौ स्वाम भीक्खू पछै काळौरे, सैहर चासटूरे मैं सुविशालौ रे। ___समत अठारै संत न्हालौ।। भीक्खू. १४ भीक्खू ताऱ्या घणा नर नारौ रे, भवि तारक भीक्खू विचारो रे। स्वामी जय-जश' करण श्रीकारो॥ भीक्खू. १५ सैंतालीसमी ढाळ सुहाया रे, भीक्खू सीस मोटा मुनिराया रे। स्वाम संग परम सुख पाया।। भीक्खू. १. अन्य संप्रदाय के साधुओं से। ३. सं. १८७० ज्येष्ठ शुक्ला १० २. यह गांव-जयपुर के पास है। (वेणी चौढालियो ढा १४ गा. ५६।) भिक्खु जश रसायण : ढा. ४७ १६३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ तिण अवसर कोटा तणा, दोलतरांमज़ी आया तसुं टोळा थकी, संत सोरठा रे, वारू संपेख रे, स्वाम बहुमान रे, छूटौ प्रकृति अजोग पिछांण रे, सुरतौ २ दोय रूपचंद 29 देख 'सूरतौजी 31 ३ रूपचंद दूहा ४ बड़ा संत विचरत- विचरत वृद्धमांनजी, संजम आवीया देश ५ लू रा कारण थी लीयौ, मारग समत अठार पचावनैं, लीधौ ७ पछै परिणाम कच्चा पड़या, हूं थांरै नहीं कांम कौ, ८ इम कहिनै अळगौ थयौ, काळ इक चेलौ कीधा पछै आयौ ९ शिष तज कहै ग्रहस्थां भणी - तंत भीक्खू नैं वहिरावजो, मुझ १० इम कही साधुपणौ पचख, दीयौ पांच दिवस नैं आसरै, परभव ६ लघु 'रूपचंद " " स्वाम गण, माधोपुर अणसण रौ बंधौ कीयो, वैणीरांमजी १. पहोंतौ (क)। १६४ बोल्यौ रत्न च्यार ऋष गणे तेह पिण वर्द्धमांन जी। संजम लीयौ॥ सरल ढूंढार मैं प्रयोग थी। थयौ ॥ छूटक संजम रै एहवी कांकरौ कितौ इम इन्द्रगढ देख। सुविसेख ॥ सूत्र मुझ गुरु भीक्खू संथा पहूतौ सुधार। मझार ॥ संथार सार ॥ माहि । पाहि ॥ वाय। थाय ॥ थाय । माय॥ तांम। स्वांम ॥ ठाय । जाय ॥ भिक्खु जश रसायण Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ११ जती भेष नैं जांण रे, 'मायारामजी' मूंकीयो। प्रत्यक्ष ही पहिछांन रे, भेषधा- मैं आवीयो॥ १२ भेषधार्यां नैं छंड रे, संजम लीधौ स्वाम पै। बहु वर्स चरण सुमंड रे, निकळ काळवादी थयौ। १३ 'विगतौ- नाम'विचार रे, वासी बोरावड़ तणौ। संजम ले सुखकार रे कर्म प्रभावे नीकळयौ।। ढाळ : ४८ (बाजोट पर नहीं बेसणौ मुनि पग ऊपर पग मेल) १ तदनंतर 'टुंगच'२ ना वासी, 'सुखजी' नाम श्रीकार। ___ स्वाम भीक्खू पै संजम लीधौ, आंणी हरख अपार रा। भीक्खू स्वाम ओजागर! आप रा सुविनीत भला शिष्य, जिण मारग जमायौ रे। __सुगुणा परम पूज रै प्रसंग, सुज्ञांनी जय-जश छायौ रे ॥ध्रुवपद।। २ स्वाम भीक्खू पछै चोस?, कांइ सैहर देवगढ सार। अणसण कर आत्म उजवाळी, तो शुद्ध दश दिन संथार ग॥ भीक्खू. ३ वर्स तेपनै सरीयारी वासी, 'हेम आछा' हद जात। संजम स्वाम समाप्यो सुवर्णन हेम-नवरसे विख्यात रा॥ भीक्खू. .४ उत्पत्तिया बुद्धि आगला, स्वामी हेम-सखर सुविनीत। प्रबल-बुधि पुन्य-पोरसा, कांइ पूर्ण पूज सूं पीत ॥ भीक्खू. ५ परम विनयवंत परखीया, वारू बुधि भारी सुविचार। हद कीयौ सिंघाड़ौ हेम नौं, भारी ज्ञानी गुणां रा भंडार ग॥ भीक्खू. ६ हेम सुनिमळ हीया तणा, अरु हेम स्वामी हितकार। ___हेम सुमति ना सागरू, अरु हेम गुप्ति गुणकार रा॥ भीक्खू. ७ हेम दिशावान दीपतौ, मुनि हेम मोटौ महाभाग। हेम ओजागर ओपतौ, वर हेम हीयै वैराग रा॥ भीक्खू. १.बगतोजी नाम से भी इनका उल्लेख मिलता २. 'मोखंदा' के पास (मेवाड़) में है। भिक्खु जश रसायण : ढा. ४८ १६५ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ हेम हेम ९ हेम दया दिल मैं हेम शील माहि रम रह्यौ, १० हेम - संग रहित सुर-तरु, चिंतामणि सारीखौ, म ईर्ष्या - धुनि गंभीर गैहरौ ११ सुंदर मुद्रा पेखत चित प्रश्न' हुवै, १२ समत अठारसे तेपना पाछै, वकचूलिया १३ बारै संत ओपती, गति जांणै चाल्यौ घणौ, घणी, म नीं , १. प्रसन्न ( क ) । १६६ प्रत्यक्ष आर १६ भीक्खू भारीमाल ऋषराय रै, चरचावादी सूरमा, १७ घणां जणां नै संजम दीयौ, कीया, बहु भणाय पंडित १८ म नवरसा मैं कह्यौ, ग्रंथ वधंतौ जांणनै, १९ भीक्खू भारीमाल चलीयां पछै, उगणी चौकै समैं, २० भाग प्रबल भीक्खू तणा, हेम गजेंद्र समौ गुणी २१ आठ चाळीसमी सोभती, स्वाम भीक्खू गण गजराज । औ तौ हेम गरीबनिवाज रा॥ भीक्खू. सधीर । मैं वारता, आगै हुंता, तेरमा, भीक्खू तणै, पाखंडी पग मांडै नहीं, पड़ै हेम नीं धाक अपार म हुवा संत १४ भाग बली १५ चौथै आरै सांभळ्या, ऐ तौ पंचमै, ऐ तौ हेम वरतारा खिमा - सूरा सरीखा संत रा॥ मैं हेम शुद्ध सत दत हेम वारुकर्म - - काटण बड़ , - वीर रा॥ भीक्खू. कांइ ओतो हेम जांणै पर पीड़ रा ॥ भीक्खू. अरु अतिसय कारी ऐन । चित माह पांमै चैन रा॥ भीक्खू. धर्म वृधि अधिकाय । आ तौ प्रत्यक्ष मिली इहां आय रा॥ भीक्खू. कांइ स्वाम भीक्खू पै सोय । तठा पछै न घटीयौ कोय रा॥ भीक्खू. शिष हेम हुआ वृधिकार | ॥ भीक्खू. अरिहंत । हेम मेरू जिम धीर । भीक्खु. वदीत । लीया घणां पाखण्ड्यां नै जीत रा॥ भीक्खू. देश - व्रत घणां नै सुलंभा हेम जिन शासन रौ थंभ रा॥ भीक्खू. म तण वर विस्तार | इहां संखेप्यौ अधिकार रा॥ भीक्खू. वरतार | भीक्खू. संत - शासन - सिणगार । ऋषराय सरीयारी मैं हेम संथार रा॥ हुआ वले आखूं अवर अणगार रा॥ भीक्खू. आखी ढाळ रसाळ सुरतरु, ओ तौ 'जय - जश' करण उदार रा॥ भीक्खू. अपार । भिक्खु जश रसायण Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा भलौ, वर पवर, ‘उदैराम”” मझै, पूज सांवण मैं संजम लीयौ, अधिक ३ अति उमंग तप आदर्यौ, वर बयालीस ओळी लगै, चढ्योज ४ अवर तप कीधौ अधिक, छठ-छठ आठ सौ इकतालीस आसरै, आंबिल ५ साठ स्वाम पछै सही, सखरौ चेलावास चलतौ रह्यौ, भारीमाल सोरठा १ तदनंतर तपसी वास केलवा नौ २ पचावनैं पाली ६ तदनंतर तिण वार कर्म- जोग प्रकृति कठिण अपार रे, ७ ' ओटो 39 जाति सोनार रे, स्वाम कनैं समाचार रे, आय वासी ८ अति कायौ हुवौ बाप रे, तूं मुझ क्यूं दै ताप रे, ९ म्हांरी कानी सूं जांण रे, इक नर सुणतां कही वांण रे, १० प्रकृत त प्रताप रे, संजम कठिण परिषह ताप रे, छूटौ ११ 'नाथोजी " पोरवाल रे, वासी १२ जिभ्या लोळपी जांण रे, छूटौ तेह पिछांण १. राणावास के पास । सुत-गृह छांडी सार रे, संजम भिक्खु जश रसायण : ढा. ४९ रे, 'खुशालजी' आज्ञा कर जोगी स्वामी चपलोत मुनि रे, पिण तुझ २. हैरान । भीखनजी धर्म ते आंबल चढतै आदि कीया कर उतार्यौ कहै इण दी मुझ दाय संजम थी -खारचीयां जती विचार | अधिकार ॥ पास। उजास ॥ वृद्धमान। ध्यांन ॥ विचार | लीयौ। नकळ्यौ । है तब संजम उदार ॥ संथार पार ॥ आवै रीत सूं॥ इण परै । जिसौ ॥ ढूंढी यौ । दीयौ ॥ पाळणौ दोहिळौ । तब छिनक मैं॥ देसूरी तणौ। पै ।। --तणौ । - सरै स्वाम बांधी.... मर्याद श्रद्धा सनमुख - नैं। रह्यौ ॥ १६७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावळीया गणपति नाली, थिर ढाळ : ४९ जै जै जै गणपति नमूं रे नमूं १ समत अठारै वर्स सतावनैं, गांम रावळीया गुणीयै। लघु वेस'ऋषराय"' दीख्या ली, थिर चित सेती थुणीयै। __ जै जै जै गणपति नमूं रे नमू, नमूं रे नमूं हूं तो घणी रे खमूं। जय जय गणपति शिष नमूं रे नमूं ॥ध्रुवपद।। २ बंब जाति चतुरौ साह सुतवर, नाम रायचंद नीकौ। वर्स इग्यार आसरै वय मैं, संजम सखर सधीकौ।। जै. ३ हथणी होदे हरख हूऔ अति, मात कुशालां वारु। साथै संजम पूज समाप्यौ, चैत्री पूनम चारु॥ जै. ४ प्रबलबुद्धि गुण पुन्य पैखनै, परम पूज फुरमायौ। पद लायक ए पुन्य पोरसौ, वचनामृत वरसायौ।। जै. ५ दिशावान ऋषराय दीपतौ, भाग्य बली बुद्धि भारी। ---- हस्तमुखी' मूर्ति हद हरखत, पेखत मुद्रा प्यारी॥ जै. ६ पाट तीजै आगूंच परुप्या, स्वाम . वचन सुखदाया। ___जंबू स्वाम जिसा जयवंता, जाझा _थाट . जमाया। जै. ७ अंत काल भीक्खू नैं अधिकौ, साहज सखर सुखदाया। भारीमाल रै पास भुजागळ', रायचंद ऋषराया।। जै. ८ गुणंतरै वर्स भारीमाल नी, आज्ञा ले अगवांणी। ___ 'प्रथम सीस' ऋष जीत कियौ, निज पट लायक सुविहांणी।। जै. ९ भारीमाल नैं स्हाज दीयौ अति, 'अन्त सीम' अधिकायौ। आप ओजागर अधिक अनोपम, दीन-दयाल दीपायौ। जै. १० तस उपगार तणौ वर्णन, करतां अति ग्रंथ वधीयौ। भीक्खु तणौ संबंध इहा, तिण कारण संखेपीयौ। जै. १. हंसमुख। पीछे तो भार संभालने वाले तुम हो ही, तुम्हें २.भुजा की तरह अगुआ/हर कार्य में अपने उत्तराधिकारी की आवश्यकता होगी, सहयोगी। __ अतः तुम ही उसे दीक्षा दो। .. ३.सं. १८६९ माघ कृष्णा ७ के दिन जयपर उसी आदेश के अनुसार मुनि रायचदजी ने में जीतमलजी (जयाचार्य)को दीक्षा देने के जीतमलजी को अपने हाथ से दीक्षित किया। लिए आचार्यश्री भारीमालजी ने मनि 'ऋषि राय पंचढ़ाळियो' ढा. १/२२-२४। रायचंदजी को भेजा। उन्होंने कहा--मेरे ४. जीवन भर। अंत समय (क)। १६८ भिक्खु जश रसायण Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ संसारी लेखै मामा, सतजुगी महा मतिवंता। ___भल भाणेज रायचंद भणीयौ, जशधारी जैवंता। जै. १२ भीक्खु ऋष अति भाग्य बली, शिष्य मिलिया रायचंद नीका। गिरवा गैहर गंभीर गुणागर, पूज प्रथम ही परिखा॥ जै. १३ बहु वर्सी लग मार्ग नी वृद्धि, जिणजी आणू जांणी। भीक्खु रै अति भाग्यबली, ऋषराय मिल्या शिष आंणी॥ जै. १४ ऐसा भीक्खु आप ओजागर, शिष्य पिण मिल्या सरीखा। तस पग छेहडै संत हुआ ते, सांभळीयै सुवृधिका॥ जै. १५ ए गुणपचासमी ढाळ अनुपम, मिल्यौ संत मन मान्यौ। कहियै धर्म-वृधि नौं कारण, 'जय-जश' करण सुजाण्यो॥ जै. भिक्खु जश रसायण : ढा. ४९ १६९ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ समत अठार सतावनैं, जेठ मास मैं जोय। पिता पुत्र धर चरण-पद, हरष घणौ अति होय॥ ॥ २ 'ताराचंदजी' तात सुत, 'डूंगरसी' महामंड। पिता भार्या परहरी, सुतन सगाइ छंड। ३ वड वैरागी संत बिहुँ, सखरौ कर संथार। भीक्खू स्वाम पछै उभय, समचित सुधार॥ ४ अणसण इकताळीस दिन, ताराचंद उवेख। दश दिन अणसण दीपतौ, डूंगरसी देख॥ ५ तदनंतर संजम लीयौ, 'वरल्या-वौहरा' ____ 'जीवौ' मुनि तासोल नों, महा मोटो मुनिराय॥ ६ सरल भद्र प्रकृति सखर, तीन पाट नी तांम। सेव करी साचै मनै, धुन सुविनय मैं धाम॥ ७ भीक्खु भारीमाल पाछै भलौ, नेउए वर्स निहाल। गोधूंदे अणसण गुणी, महा मुनी गुणमाला ढाळ : ५० (चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु) १ 'जोगीदासजी' स्वाम जोरावर, तदनंतर त्रिया त्यागी। स्वाम भीखनजी संजम दीधौ, बालपणै बड वैरागी॥ __भरम छांड भीक्खु शिष्य भजलै, तज मिथ्या मति तालंदा। कर्म-जाळ काटौ करणी कर, परम ज्ञान परमानंदा ॥ध्रुवपद।। २ सैहर केलवा रा वासी सुद्ध, जोगीदास साचौ जोगी। सखर सोभागी ममता त्यागी, भल सुमती पिण नहीं भोगी॥ भरम. ३ अल्प काळ मै अचाणचक रौ, सैहर पीसांगण मैं सुणीयौ। चौविहार संथारौ चोखौ, थिर चित सूं मुनिवर थुणीयौ॥ भरम. गुणसठ वर्स मुनि गुणवंतौ, पूज छतां परभव पहुंतौ। आतम तायॊ जन्म सुधार्यो, हिय निर्मल ऋषराज हुतौ॥ भरम. REFEEEEEEEEEEEE ताय। १७० भिक्खु जश रसायण Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ तदनंतर 'जोधौ' मारू ते, गांम केरड़ा नों गुणीयौ। स्वाम भीक्खू स्व.हस्त संजम शुद्ध, भारी तपसी तप भणीयौ। भरम. ६ अढी मास तप आछ आगारै, तप उत्कृष्टपणै तपियौ। सरल भद्र मुनिवर सोभागी, जाप विविध तन मन जपियौ। भरम. ७ दिन अड़तीस कोचले दीप्यो, संथारौ सखरौ सुणीयौ। स्वाम पछै परभव सुमति सुध, जोधो धिन माता जणीयौ।। भरम. ८ सैहर खेरवा ना 'भगजी' सुध, वर आज्ञा दी बहिन बड़ी। संजम भीक्खू स्वाम समाप्यौ, सखर विनय थी सोभ चढी॥ भरम. ९ जाति वैद महता जशधारी, भगजी भक्ति करी भारी। भीक्खू भारीमाल ऋषराय तणी भल, पेखत ही मुद्रा प्यारी॥ भरम. १० ऋषराय तण वरतारै रूड़ौ, पंडित मरण मुनि पायौ। निनाणूंए आत्म नैं निंदी, सुद्ध परिणाम सोभायौ॥ भरम. सोरठा सारठा. ११ जोगड़ जाति सुजांण रे, वासी बीदासर तणौ। __पूज समीप पिछांण रे, 'भागचंद' आवी करी।। १२ वारु गुणसठै वास रे, चारित धार्यो चूंप सूं। वर्स कितेक विमास रे, कर्म-जोग थी नीकल्यौ। १३ चंद्रभांणजी माय रे, रह्यौ- पंच मास आसरै। भारीमाल पै आय रे, कहै मुझ नै ल्यौ गण मझै।। १४ हूं रह्यौ चंद्रभाण माय रे, त्यांनै साध न सरधीया। थे मोटा मुनिराय रे, साधु सरधतौ स्वाम गण।। १५ भारीमाल ऋषराय रे छेद दीयौ षट मास रौ। ___ लीयौ तास गण माय रे, अवलोकीभीक्खू लिखत॥ १६ आंपां माहिलौ जांण रे, जाय चंद्रभाणजी मझै। अल्पकाळ पहिछांण रे, आहार पाणी भेळौ करै।। १७ पिण आपां नैं साध रे, सरधै सुद्ध मन सूं सही। सरधै तास असाध रे, नवी दिख्या दैणी न तसुं। १. उदयपुर संभाग का एक गांव । भिक्खु जश रसायण : ढा. ५० १७१ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जथाजोग्य डंड जांण रे, दे लैणौ तसुं गण मझै। वर्स सैंतीसै वांण रे, लिखत भीक्खु ऋष नौं कीयौ। १९ एहवौ लिखत अवलोक रे, नवी दिख्या दीधी न तसुं। छेद दे मेट्यौ दोख रे, भारीमाल ववहार थी। २० पासथा पास पिछांण रे, आहार लेवै देवै तसुं। नसीत बीसमैं जांण रे, डंड चौमासी दाखीयौ। २१ चौमासी डंड स्थान रे, वार-वार सेव्यां छतां। ववहार प्रथम कही वांन रे, चौमासी प्रायश्चित तसुं। २२ इम बहु न्याय विचार रे, वली मर्याद विमास नैं। वारु देख ववहार रे, छेद देइ माहै लीयौ। २३ वीतौ कितोयक काळ रे, फिर 'छटी रथयौ' एकलौ। ___ इक शिष्य कीधौ न्हाल रे, नाम भवांनजी तेहनौं।। २४ डंड ले आया माहि रे, तप नौं अभिग्रह आदर्यो। नायौ पालणी ताहि रे, तिण कारण थयौ एकलौ॥ २५ काळ कितोक वदीत रे, फिर आयौ भारीमाल पै। संत , सत्यां नैं सुरीत रे, कर जोड़ी वंदना करी॥ २६ बोलै बेकर जोड़ रे, मुझ नैं लेवौ गण मझै। ___ अढीधीप ना चोर रे, त्यां सूं हूं अधिकौ घणौ। २७ छठ-छठं तप पहिछांन रे, जावजीव अदराय दौ। कहौ तौ करूं संथार रे, पिण मुझ नैं ल्यौ गण मझे।। २८ भारीमाल बहु जांण रे, दीख्या दे माहै लीयौ। समत अठारै पिछांण रे, एकोतरै चरण आदर्यो।। २९ मासखमण बहुवार रे, विकट तप मुनिवर कीयौ। सताणूए सुखकार रे, जन्म सुधारे जश लीयौ। (चेत चतुर नर कहै तनै सत गुरु) ३० भारी तपसी 'भोप' हुवौ भल, कोसीथळ वासी कहियौ। जाति तणौ चपलोत जांणिजै, लाभ स्वाम हाथै लहियौ।। भरम. १ दश प्रायश्चित में छेद' सातवां प्रायश्चित है। २ छूटक थई(क) १७२ भिक्खु जश रसायण Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ पाली मैं संजम लै प्रत्यक्ष, मुनि तपसा करवा मंडीयौ। कबहिक छासठ कबहिक अठावन, चढत-चढत अधिकौ चढीयौभरम. ३२ कदहिक च्यार मास मैं कीधा, सतर पारणा सुमति सहू। ग्रंथ-बहुल भय-तप वर्णन गुण, तिण कारण सहु ते न कहूं। भरम. ३३ साढी च्यार पौहर संथारौ, स्वाम पछे सुद्ध गति सारु। पाली धर्म-उद्योत प्रगट हद, वरस छासढ़ मुनि वारु॥ भरम. ३४ मुनि महिमागर अधिक ओजागर, गुण सागर नागर ज्ञानी। 'वचन-सुधा-वागर धर्म जागर', धर्म-धुनी३ धर महाध्यानी।। भरम. ३५ अंजन मंजन चंदन अंगन, शिव शंजन रंजन साधी। भ्रम-भंजन भीक्खू गुरु भेटी, अरि गंजन मति आराधी। भरम. ३६ स्वाम-शरण सुख-करण तरण शुद्ध, तम-भ्रम हरण स्वाम तरणी। . शिववधु-वरण धरण दुधर सम, कहा कहूं मुनि नी करणी? भरम. ३७ सुरगिर धीर गंभीर समीर सदा- सुख सीर सुतार सजै। तोड़ जंजीर वीर वड़ तुम हो, ऋष भीक्खु गुण हीर रजै॥ भरम. ३८ पर्म प्रतीत रीत प्रभु वच सैं, लोक वदीत अनीत लजै। ज्ञान-संगीत नीत हद गुणियण, भल भीक्खू ऋष जीत भजै॥ भरम. ३९ वांण विमल अति निमल कमल वर, जमल अमल सिव मग जांणी। समल तमल मिथ्या मति सोखी, आप सुति अघ दल - हाणी॥ ४० आप तणें प्रशाद अनोपम, तंत मुनिस्वर बहु तरीया।। आप सुरतरु आप गुणोदधि, आप घणा ना अघ हरीया।। ४१ समरण स्वाम तणों नित साधु, स्वाम तणों मुझ नित सरणौ। आसापूरण सांम अनोपम, निमळ चित्त कीधौ निरणौ।। ४२ सखरा स्वाम मुनी गुण साचा, म्हैं संक्षेप थकी थुणिया। जल-सागर किम झालै गागर, गुण अनंत अथग अनग गुणीया।। १३ निमळ पचासमी ढाळ निहाळी, भल भीक्खू गुण सूं भरीया। 'जय-जश' संपति करण जांणजो, इण -खंड भीक्खू · अवतरीया।। १. वचन रूप अमृत बरसाने वाले। २. धर्म में जागृत रहने वाले। ३. धर्म में तन्मय। ४. सूरत। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५० १७३ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ अड़ताळीस मुनि अख्या, पूज छतां पहिछांण। चारित्र लीधौ चित धरी, उजम' अधिकौ आंण॥ २ अष्टवीस गण मैं सही, सखर रह्या सुजगीस। गुर छंदै गिरवा गुणी, अलग रह्या छै वीस॥ ३ वीसां माहै एक वर, रूपचंद सुध रीत। छेहडै अणसण-चरण लिय, पूज आंण प्रतीत॥ ४ पूज थकां चारित्र प्रगट, अब सतियां अधिकार। केइक बारै नीकळी, पोहती केइक पार॥ ५ एक साथ व्रत आदऱ्या, तीन जण्यां तिण वार। 'कुसलांजी' बड़ी करी, कुसल खेम अवतार।। ढाळ : ५१ (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) १ पवर चरण सुध पालता जी, कुसलांजी नैं विचार। 'दीर्घपृष्ठरे' गूंदोच मैं जी, ते डसीयौ तिण वार॥ खिमावंत धिन सतीया अवतार ॥ध्रुवपद-||-- - - - -२-जंत्र-मत्र झाडा भणी जी, वंछयौ नहीं तिण वार। सुध परिणामे महासती जी, पोहती परलोक मझार। खिमावंत. ३ 'मटूजी' मोटी सती जी, स्वाम आंण सिर धार। पद आराधक पांमियौ जी, ओ भीक्खू नों उपगार॥ खिमावंत. सोरठा ४ 'अजबू' प्रकृति अजोग रे, कर्म जोग सूं नींकली। प्रकृति कठण प्रयोग रे, चारित्र खोवै छिनक मैं। (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) ... . ३. सांप। १. उद्यम। २. पहोंती (क)। १७४ भिक्खु जश रसायण Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ नाम 'सुजाणा' निरमळी जी, 'देऊजी। दीपाय। स्वाम तणे गण मैं सही जी, पर-भव पोहती जाय।। खिमावंत. समावंत सोरठा लीधौ ६ तदनंतर तिण वार रे, साधुपणौ ___ 'नेऊ' नाम निहाळ रे, कर्म-प्रयोगे (खिमावंत जोय भगवंत रौ.) सही। नीकळी॥ ७ सती 'गुमांना'' सोभती जी, संजम वर संथार। इमज 'कसूंबांजी' अखी जी, अणसण अधिक उदार। खिमावंत. ८ 'जीऊजी' वलै जांणियै जी, स्वाम तणै गण सार। पोते बहू सुत परहरी जी, वासी 'रीयां' रा विचार।। खिमावंत. ९ काळ कितैक पछै कीयौ जी, सैहर पीपाड़ संथार। . इकतालीस खंडी ओपती जी, मांढी करी तिवार॥ खिमावंत. सोरठा १० 'फत्तू' 'अखूजी'' न्हाल रे, 'अजबू 12 - 'चंदूजी' अज्जा। भेषधार्यां मैं भाल रे, पछै चरण लियौ पूज पै।। ११ समत अठारै सोय रे, वरस तेतीस वारता। लिखत करी अवलोय रे, मुनि लीधी टोळा मझै॥ १२ आप मतै अवधार रे, मन छंदै रही मोकळी। अति तसुं कठिन अपार रे, छांदै गुरां रै चालणौ। १३ असुद्ध प्रकृति अविनीत रे, सुमते जाणै स्वामजी। __ऋष भीक्खु शुद्ध रीत रे, तंतु धाम्यौ तेहने॥ १४ तुझ नैं कल्पै तेह रे, ते तंतु लेवौ तुम्हे। इम कही कपड़ौ देह रे, फतू आदि पांची भणी॥ १५ पूछ्यौ तास प्रमाण रे, कहै मुझ अधिकौ को नहीं। पूज करै पहिचान रे, निसुणौ निरणय निरमळौ।। १६ अखैराम अणगार रे, मेल्यौ कपड़ौ मापवा। तस थानक तिण वार रे, माप्यां अधिकौ नीकळ्यौ। १. कपड़ा। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५१ १७५ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ इम तंतू अति राख रे, झूठ बोली वले जांण नैं। __ सुध नहिं संजम साख रे, नीत चरण पाळण तणी॥ १८ च्यारूं ते पहिछांन रे, 'चैना भेळी पंचमी। झट पांचू नैं जाणं रे, छोड़ी चंडावळ मझै॥ (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) १९ मैणांजी15 मोटी सती जी, वासी पुर का विचार। स्वाम कनै संजम लीयौ जी, छांडी निज भरतार॥ खिमावंत. २० पढी-भणी पंडित थई जी, बहु सुत्रां नी रे जाण। साठे संथारौ करे जी, कीधौ जन्म किल्यांण। खिमावंत. सोरठा २१ 'धनु' 'केलीजी' धार रे, 'रतू18' 'नंदूजी' वली। मांढा गांम मझार रे, छोड़ी यां च्यारां भणी॥ (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) २२ 'रंगूजी' रळियामणी जी, श्रीजीदुवारा ना सार। ___पोरवाल प्रगटपणे जी, संजम लियौ सुखकार।। खिमावंत. २३ अड़तीसै व्रत आदऱ्या जी, स्वाम खेतसी रे साथ। सरियारी चलता रह्या जी, वारु भणी विख्यात।। खिमावंत. २४ 'सदांजी21' मोटी सती जी, तलेसरा · तंत सार। श्रीजीदुवारा ना सही जी, सखर कियौ संथार।। खिमावंत. २५ सुत बहु तज संजम ळियौ जी, कंटाळ्या ना कहिवाय। ___अणसण लोटोती मझै जी, 'फुलांजी2' सुखदाय॥ खिमावंत. २६ उत्तम 'अमरां3' आर्यां जी, स्वाम तणै उपगार। जीतब जनम सुधारीयौ जी, सखरौ कर संथार॥ खिमावंत. २७ ढाळ एक पचासमी जी, भीक्खु नैं गण भाळ। बडी-बडी सतियां हुई जी, वारु गण सुविशाल॥ खिमावंत. १७६ भिक्खु जश रसायण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १ 'रत्तू24' ले चारित्र रे, छूटी खोयौ चरण नैं। पाली माहि पवित्र रे, पछै संथारौ पचखीयौ।। २ उपाय कीया अनेक रे, भेषधा- लेवा भणी। तौ पिण राखी टेक रे, त्यां माहै तौ नां गई। दूहा . ३ सुध चित सूं 'तेजू सती'., पोरवाल पहिछांन। वासी 'ढोल-कंबोल' रा, संजम लियौ सुजांन॥ ४ काळ कितेक पछै कीयौ, संथारौ सुविहांण। दिवस बयांळी दीपता, कीधौ जन्म किल्यांण॥ सोरठा ५ वनांजी सुविचार रे, संजम लीधौ - सुध मनैं। कर्मी करी खुवार रे, टोळा , सूं न्यारी टळी।। दूहा ६ वगूतजी' वगड़ी तणा, वर कुल जाति 'सवेत। हीरा हीरकणी जिसी, भारीमाल मानेत ।। ७ नाम 'नगी'२९ गुण निरमळी, वैणीरांमजी री हैन। एक दिवस तीनूं अज्जा, चरणधार चित चैन। ८ चमालीसै वर्स स्वामजी, संजम दे इक । साथ। झंप्या रंगूजी भणी, वारु जश विख्यात॥ ९ ए तीनूं भीक्खु पछै, संथारा । कर सार। 'महियल . मोटी महासती, पांमी भव नौ पार।। १० सरूप भीम ऋष जीत नी, 'अजबू' भुआ सुजोग। चौमालै धार्यो चरण, अठ्यासीयै परलोग। १.ना नेत (मू., क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५१ १७७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सिरियारी ना महासती, 'पनांजी'31 पहिछांण। संजम पाळ्यौ स्वाम गण, संथारौ सुविहांण॥ सोरठा १२ कांकरोली री कहाय रे, 'लालांजी'32 संजम लीयौ। 'परवस सीत' सुपाय' रे, इण कारण गृह आवीया।। १३ बहु वरसां सूं विचार रे, श्रावक धर्मज साधीयौ। तप-जप कियौ उदार रे, फिर चारित्र नहीं पचखीयौ। ढाळ : ५२ (ज्यांरा इन्द्र नरेन्द्र रखवाला) १ 'गुमांना'33 महा गुणवंती, तासोल तणी चित संती। जीवा मुनि री बड़ी मा जांणी, सती संजम लीयौ सुखदाणी हो लाल॥ सतियां नामज मोटी॥ध्रुवपद ॥ २ एक मास कीयौ अति भारी, दोय मास छेह है दिल धारी। सुद्ध राजनगर संथारौ, सती सरल भद्र सुखकारौ हो लाल।। सतियां. ३ वर सैहर बूंदी रा वासी, वारू श्रावगी कुल सुविमासी। खेरवै संथारो खंती, 'खेमांजी' खेम करती हो लाल।। सतियां. सोरठा ४ जूं परिसह थी जांण रे, छूटी 'जसु' छिनक मैं, 'चोखी' टळी पिछांण रे, कांकरोली री बिहुं कही। (ज्यांरा इन्द्र नरेन्द्र रुखवाला) ५ सतजुगी री बहिन सुख वासी, ऋष रायचंदजी री मासी, पिउ पुत्र तज्या पहिछांणी, 'रूपांजी'' महा रलियांणी हो लाल।। सतियां. १.शीतांग/सन्निपात/चित्तविभ्रमता के कारण पागल सी हो गई। १७८ भिक्खु जश रसायण Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संजम बावनै' सधीकौ, खुशालांजी री लघु बहिन कहियै, ७ 'सरूपांजी '38 कंटाळ्यै संथारौ, माधोपुर ना वसवांनो, वदीत विमासी, तिण रौ भीक्खू तोल बधायौ, ९ ' विजाजी 40 महा व्रधकारी, करड़ौ तप छेहड़ै कीधौ, १० ' वनांजी '41 सुविनयवंती, सुध चरण पाळ चित संती। सुखदायक गण सुविशाली, सती आतम नैं उजवाळी हो लाल ।। सतियां. दीधी भीक्खु एक दिन दिख्या। समणी हद मुद्रा सारो हो लाल ।। सतियां. सोरठा • १२ वीरां 42 जाति कुभार रे, संजम प्रकृति असुध अपार रे, तिण कारण ( ज्यांरा इन्द्र नरेन्द्र रुखवाळा ) ६ 139 ८ 'वरजूजी 3 ११ सुद्ध यां तीनां नै सिख्या, सखरौ छेहड़ै संथारौ, सतावनैं संथा नीकौ, रूपांजी जग जश लहियै हो लाल॥ सतियां. अग्रवाल जाति अवधारौ । सुत तीन तजी व्रत ध्यानो हो लाल।। सतियां. रूड़ी सील गुणां री रासी । सती सुजश शासन मैं पायौ हो लाल॥ सतियां. धर चरण- सील सुखकारी। सती जग मांहै जश लीधौ हो लाल । सतियां. तिण वरस हुवौ १६ संसार लेखै १३ ' उदांजी 43 उद्यमवती, सती जाति सोनार सोहंती । 144 सार। छपने वर्स संजम १५ वर्स सतावनें बहु वर्सा चरण सुविचारौ, आंवेट माहै संथारौ हो लाल।। सतियां. १४ 'झूमांजी ' जाति पोरवाल श्रीजीदुवारा ना लीधौ, स्वाम पछै संथारौ सीधो हो लाल । सतियां. सुविचारौ, चरण हितकारी । उपगारौ, तिण रौ सांभळजौ विस्तारौ हो लाल । सतियां. सो भाया, लखपती ल्होड़ै लीयौ चरण पिउ सुत छंडी हो लाल ॥ सतियां. ऋषराय सजनाया' । मतिवंत 'हस्तु 45 महि मंडी, १. शासन विलास, ढा. २, गा. ३० तथा साध्वी कुशालांजी (४६) की गुण वर्णन गीतिका गा. ३९ में ९साल साधुत्व पालने का उल्लेख होने से दीक्षा वर्ष १८४९ ठहरता है। विस्तृत समीक्षा 'शासन - समुद्र' में वर्णित भिक्खु जश रसायण : ढा. ५२ पै, लीधौ स्वाम गण सूं टळी ॥ साध्वी रूपांजी (३६) के प्रकरण में पढ़ें। २. ओसवाल जाति में जो बीसा हैं वे 'बड़े साजन' और जो दसा हैं वे 'ल्होड़े साजन' कहलाते हैं। १७९ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ दुख घरकां बोहळौ दीधौ, सती अडगपण व्रत लीधौ। हस्तु गुण ज्ञान भंडारौ हो लाल । सतियां. सतजुगी नीं बहिन व्रत लहियै । संजम ले पामी साता हो लाल । सतियां. सुखदाता हो लाल सतियां. लाहवै संथारौ, रावळीयां रा कहियै, ऋष रायचंदजी नीं माता, जिन शासन मैं १९ भल हस्तूजी नीं भगनी, सुत पीउ छांड व्रत धारो, २० ल्हावा थी संज़म लीधौ, ताणू १८ 'कुशालांजी घणी बुद्धि अकल गुणवंती, २१ सिरियारी ना सुमगन मैं, संथा बोहिंतरे सीधौ, २२ सुद्ध एक वरस मैं सिख्या, पांचांइ पिउ नैं छंडी, २३ गुणसठै वरस गुणवंती, त्यांमै तीन जण्यां इक साथै, २४ 'कुशालांजी '०' नाथांजी '5' विजांजी 52, तीनंं शीलामृत कूंपी, २५ सतंतरै कुशालांजी संथारौ, माधोपुर मास कार्त्तिक मैं, २६ नाथाजी गांम जासोल न्हाली, संसारी लेखै ऋधवंती, २७ तप दिवस बत्तीस सुतपिया, तीन दिवस तणौ संथारौ, २८ सरूप भीम जीत ना ताह्यौ, गुणसठै दिख्या गुणवंती, २९ ' जशोदा 54 खेरवां नीं वासी, संजम भिक्खु छतां सारो, १. सरदारगढ (लावा) १८० सती 'कस्तूरी' सुभ लगनी। सतंतरै उजेण संथारौ हो लाल ॥ सतियां. पिउ छांड परम रस पीधौ । 'जोतांजी " महा जशवंती हो लाल।। सतियां. छांड्यौ पिउ सुत तिण छिन मैं । 'नोरांजी 49 जग जश ली धौ हो लाल ॥ सतियां. दुरमति तज लोधी दिख्या। ज्यां री प्रीत मुक्ति सूं मंडी हो लाल ॥ सतियां. बहु चरण धार बुद्धिवंती । हद दिख्या भीक्खू नैं हाथै हो लाल।। सतियां. पाली ना त्रिहुं भ्रम-भांजी। दिख्या दे नै व्रजूजी नै सूंपी हो लाल॥ सतियां. भारीमाल भेळा सुविचारो । परलोके पोहता छिनक मैं हो लाल ।। सतियां. वर संथारौ सुविशाली | समणी सुध प्रकृति सोहंती हो लाल ॥ सतियां. जिन जाप विजांजी जपिया। वरस छयांसीये अवधारौ हो लाल । सतियां. 'कलूंबै ‍ काकी कहिवायौ । 'गोमांजी ३ नेउए पार पोहंती हो लाल। सतियां. 'डाहीजी 55 'नोजांजी 56 विमासी । बहु वर्सा पाछै संथारो हो लाल ।। सतियां. २. कौटुम्बिक 141 भिक्खु जश रसायण Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ए स्वाम तणौ गण सारू, छप्पन गण चरण प्रकारू। सतरै छूटक हुइ अज्जा, छोड़ी लोकिक लोकोत्तर लज्जा हो लाल॥सतियां. ३१ रही गुणचाळीस गण राची, पिउ छांड सात व्रत जाची। दोय बहिन भायां रा जोड़ा, सतजुगी वैणीरांम सु होडा हो लाल।। सतियां. ३२ ऋष रायचन्द मा साथै, संजम लीधौ पूज हाथै। आख्यौ समणी नों अधिकारी, ओ तौ भीक्खू तणौ उपगारौ हो लाल॥ सतियां. ३३ आगै संत कह्या अड़ताळी, अज्जा... छपन इहाँ भाळी। ... सहु थया एक सौ च्यार, स्वामी गण लियौ चरण सुसार हो लाला। सतियां. ३४ बीस सतर गण वारी, अठवीस " गुणचालीस सुधारी। बीसां मैं रूपचंद सुद्ध रीतं, राखी स्वाम तणी प्रतीत हो लाल।। सतियां. छंद (भुजंगी) ३५ थया संत मोटा बड़ा सुथिर्पालं', भलूं नंद नीकौ फतेचंद भालं। विनयवंत वारु सुटोक्रं विशालं, निजानंदकारी हरुनाथ न्हालं॥ ३६ भला धर्म धोरी मुनि भारीमालं', चल्या आप चारू वडा नी सुचालं। अखैस्थान काजै अखैराम आछा, सदानंदकारी सुखाराम' साचा।। ३७ सिवानंद सारू सिवौ स्वाम शीशं, नगो' स्वाम नीकौ नगिंद्र नमीसं। भला सामजी संत हुआ सुभारी, सही खेतसीजी" सदा शांतिकारी। ३८ ऋषी राम" रूड़ी भीक्खु शीस राजै, वलि नांनजी स्वामी स्वामी नीवाजै। निभै नेम जाचा' मुनि नेम नामं, वडो संत ज्ञानी भलौ वैणीराम। ३९ वली संत मोटौ बड़ौ वर्द्धमानं", सुखौ” स्वाम साचौ सुध्यानं सुग्यानं। हदां हेम जैसा सु हेमं हजारी, उदैराम' आछौ तपस्वी उदारी॥ ४० ऋषी पाट थाप्यो मुनि रायचंद, दिपै तेज तीखौ सुमेरु दिनंदं। भलौ संत तारासुचंद्र भणीजै, गिरेन्द्र समौ संत डूंगर गिणीजै॥ १. स्वामी भीखणजी के अनुग्रह को प्राप्त २. संयम यात्रा। करने वाले। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५२ १८१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ जयो जीवराजं अरु जोगीदासंग, दमीश्वर जोधौ तपै देह त्रांसं। भगो नाम नीकौ भीक्खू शीष भारी, सही भागचंद” पछै ही सुधारी।। ४२ थयो भोप28 भारी तपे ध्यान थापी, पका संत सूरा भीक्खू नैं प्रतापी। रह्या स्वाम आण 'धुरां-छेह'रुड़ा, सही के टली नैं थया फेर सूरा॥ अख्या संत नामं अठावीस आछा, जिके जीव ताऱ्या भीक्खूस्वाम जाचा।। छप्पय ४३ इसा भीक्खु अणगार, सार जिन मारग सोधी। अधिक कीयौ उपगार, बहु भवि नैं प्रतिबोधी। समणी-संत सुजाण, सखर कीधा सुखकारी। परम-धर्म पहिछांण, धुरा जिन आणा धारी। अरु देशव्रत धारक अधिका, नित्य कृत भजन तुम नाम कौ। सुख करण सरण हद जग सुजश, सखर भीखनजी स्वाम कौ।। दूहा '४४ अष्टवीस मुनिवर अख्या, सखरा गण सिणगार। बीस थया गण बाहिरै, तास नाम अवधार॥ ४५ वीरभाण' लिखमो' वली, अमरोजी' अभिधान। तिलोक' मोजीरामजी', चंद्रभांणजी' जान। ४६ अणंदोजी' पनजी अख्या, संतोष' शिवजीराम .. संभू" संघजी रूपजी', लघु रूपजी तांम।। ४७ सुरतौजी' संघ सूं टळ्यौ, मयाराम ___पहिछांण। विगतौ" खुशालजी वली, ओटो" नाथू जाण।। ४८ केका नै न्यारा किया, केयक टळिया आप। अब कहियै छै अर्जिका, चतुर सुणौ चुप चाप।। छप्पय ४९ 'कुसला' 'मटु कहाय, 'सुजांणां" कहियै साची। ___ 'देउ'५ 'गुमानां देख, 'कसूंबाजी"नहि काची। १. आदि से अंत तक। १८२ भिक्खु जश रसायण Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जीऊ' 'मैणा जिहाज, 'रंगू" 'सदा10 'फूला'' सुखकारी। 'अमरां12 'तेजू आण, वलि 'वगतू 14 वृद्धकारी। 'हीरांजी15 हीर-कणी जिसी, सती-सिरोमणि सोभती। निकलंक 'नगा 6 'अजबू” निमल, महियल ए मोटी सती ॥ ५० ‘पन्नां 18 सती पिछांण, 'गुमानां'। 'खेमां 20 गुणियै। 'रूपांजी 21 वर रीत, 'सरूपां22 समणी-सुणियै। 'वरजू 23 'विजा 24 विसाल, 'वना ऊदा हद वारु। • 'झूमा 7 'हस्तु 28 जिहाज, 'कुसाला गण सुखकारू। 'कस्तूरां 30 'जोतांजी' कही, सुद्ध संजम 'नौरा'32 सझी। इक वरस माहि व्रत आदऱ्या, पांचूं यां पीतम तजी।। ५१ सखर 'खुशाला 33 सती, पवर 'नाथां'34 पुनवंती। विनय 'विजा 35 सुविनीत, घj 'गोमां'36 गुणवंती। चरण 'जशोदा'37 चित्त, हीयै 'डाही'38 हरखंती। 'नोजां'39 निमल . निहाल, स्वाम आणा समरंती। गुणचाली अज्जा गण मैं अखी, इक सोनार सुजाणियै। कुलवंत इतर सतीयां कही, वडी वैराग वखांणियै। - दूहा ५२ सतरै छूटक नाम तसुं, 'अजबू" 'नेतू ताय। वले 'फत्तू' नैं 'अखू", फिर 'अजबू' कहिवाय॥ ५३ चंदू' 'चैना” छूटक वलि, 'धनू केली" धार। 'रत्तू 10 'नंदू11 फिर 'रतू 12, 'वनां13 थइ गण बार। ५४ 'लालां 14 परवस नीकळी, 'जसु15 'चोखी 16 'वीरा” जांन। सतरै छूटक सांभळी, गणं गुण्याली सुज्ञान।। (ज्यांरा इन्द्र नरेन्द्र रुखवाळा) ५५ भीक्खु हुआ ओजागर भारी, हद करणी री बलिहारी। नित याद आवै मुझ मन, तन मन अति होय प्रसन्न हो लाल।। जिन शासन में सुखदाता॥ भिक्खु जश रसायण : ढा. ५२ १८३ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सुमतागर सासन स्वामी, जश धर मुझ अंतरजामी। सखरौ कुण स्वामी सरखौ? पूज गुण ‘सुखम दृग' परखो हो लाल।। जिन. ५७ आसापूरण आपौ, जपूं आप तणौ नित जापौ। पूरण मुझ आप सूं पीतं, निरमळ सुद्ध आपरी नीतं हो लाल।। जिन. ५८ कही एह बावनमी ढालं, वर 'जय-जश' करण विशालं। मोनैं भाग्य-प्रमाण मिलिया, मननाज मनोरथ फळीया।। जिन. मुंह मांग्या पासा ढळीया हो लाल।। जिन. ५९ तीजो खंड कह्यौ तहतीकौ, निरमळ भीक्खु गण नीको। सासण सुखदाय सधीकौ, 'जय-जश' वृद्धि शिव नौं टीको हो लाल।। जिन. 11 कलश १ मुनि सुगुण माळा वर विसाला, सुमति पाल सुजाणीयै। तम कुगति ताला भर्म ज्वाला, परम दयालं पिछांणीयै।। सुख सद्म संत महंत सुंदर, भ्रांत भंजन अति भलौ। सुमति सागर अमल आगर, निमल मुनि गण गुणनिलौ।। ॥ इति भीक्खु जश रसायणे तृतीय : खंड ।। १. सूक्ष्म दृष्टि। १८४ भिक्खु जश रसायण Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड सोरठा १ समरूं गोयम स्वाम रे, सुधर्म जंबू आद मुनि। वले भीक्खू गुरु नाम रे, चौथों खंड कहूं चूंप सूं॥ २ मुरधर देश मेवाड़ रे, हाड़ोती ढूंढाड मैं। चावा देशज च्यार रे, समचित विचऱ्या स्वामजी।। ३ घेरुलालजी व्यास रे, श्रावक तेरां माहिलो। ते कछ देशे गयो तास रे, टीकम नै समजावीयो।। ४ टीकम डोसी आम रे, देश कछ मैं दीपतो। तेपनै गुणसठै ताम रे, पूज कनै आयो प्रगट।। ५ प्रगट तेह प्रजोग रे, कछ देशे धर्म बाधीयो। सांम तणें संजोग रे, जीव हजारां उद्घऱ्या।। ६ चर्म किल्याण पिछांण रे, इण भव आश्री जाणज्यौ। सुणज्यो चतुर सुजांण रे, पूज भीक्खू नों प्रगट हिव।। दूहा ७ पांचू इंद्रयां परवरी, न पड़ी : काई हीण। वधपणे पिण पूज नी, सीघ्र चाल शुभ चीन।। ८ थांणैः कठैइ नां थप्या, उदमी इधक अपार। चारु चरचा करण चित, पूज तणै अति प्यार।। ९ उठै गोचरी आप नित, अतिसैकारी पूज सुमुद्रा पेखतां, चित मैं पांमै चैन। १० छेहला-छेहला गांम फरसता, छेहलाई करत विहार। चांणोद सूं पीपाड़ लग, विचऱ्या स्वाम उदार।। ऐन। १. प्रसिद्ध। २. वृद्धपणे (क)। ३. स्थिरवास। ४. उद्यमी (क)। ५. अतिशयकारी (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५३ १८५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : ५३ (अभिनंदन वांदूं नित्य मन रली) १ भर्म भय भंजन हो जन-रंजन गुण जिहाज, सुमतिसुमंडन स्वाम सोभावीया। कुमति विहंडन हो मिथ्या खंडन काज, विचरत-विचरत सोजत आवीया।। २ चौहटे चारु हो छत्री छै सुविचार, आज्ञा लेईं नैं स्वाम तिहां ऊतर्यां। जन-मन हरख्या हो निरख्यौ पूज दीदार, जाणक श्री जिन आप समवसऱ्या।। ३ दर्शण कारण हो धारण चरचा बोल, संत-सती बहु स्वाम पै आवीया।। आज्ञा लेवा हो चौमासा री अमोल, परम-पूज पै आवी सुख पावीया।। ४ दम-सम-सागर हो स्वामी परम दयाल, भळाया चौमासा संत-सत्यां भणी। इतलै आयो हो हुकमचंद आछौ न्हाळ, पूज दर्शण कर प्रीत पांमी घणी॥ ५ बेकर जोड़ी हो मांन मरोड़ी बोलंत, विविध विनय करि कर रह्यौ वीनती। स्वाम चौमासो हो सरीयारी करौ संत, सूझती छै पकी हाट मुझ सोभती॥ ६ गुण-निधिज्ञानी हो गिरवा आपगंभीर, ऋषपति अरज करूं हूं रीत तूं। वारु-वचने हो विनती कीधी वजीर, सुगुर प्रसन्न हुवै शिष सुविनीत सूं। ७ स्वामी मानी हो वीनती तसुं सार, विहार करी नैं बगड़ी सूं सोभावीया।। निरमळ चित तूं हो अरज करै नर-नार सैहर कंटाल्यै बगड़ी सूं सोभावीया।। ८ गति गयवर सी हो इर्या-धुन गुण-जिहाज, प्रवर संतां कर मुनिवर परवा । परतख कहियै हो ऋष भवदधि नी पाज, सैहर सरीयारी मैं स्वाम समवसऱ्या।। ९ सैहर सरीयारी हो सोभै कांठा नी कोर, दोलौ' मगरौ' गढ कोट ज्यूं दीपतौ। जन बहु वस्ती हो महाजनां री जोर, जूंना-जूंना केइ पुर भणी जीपतो।। १० निर्भय नगरी हो ऋद्धि-समृद्धि निहोर, ज्यां धर्म-ध्यांन घणौ तप-जाप नौं। राज करै छै हो दौलतसींग राठोड़, कुंपावत कहियै करड़ी छाप नौं। ११ तिहां मुनी आया हो सप्त ऋषी तंत सार, जय-जश धरण करण मन जीपता। सांमी सोभै हो गणनायक सिरदार, दमीसर पूज भीखनजी दीपता।। १२ भरत क्षेत्र में हो भीक्खू सांप्रत भांण, आज्ञा लेइ नैं पकी हाट ऊता । जन बहु हरख्याहो पूज पधारया जांण, धर्मानुराग करी तन मन भर्या।। .३ वखांण वाणी मैं हो आगैवांण विशाल, थिर पद पूज भीखनजी थापीयौ। भार लायक हो सोभै मुनि भारीमाल, पद जुगराज पहिलाई समापीयौ।। चारों तरफ। २. पहाड़। १८६ भिक्खु जश रसायण Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सखर सेवा मैं हो खेतसीजी सुविनीत, पूर्ण त्यांरै हो पूजजी री प्रतीत, १५ उदैरांमजी हो तपसी अधिक उदार, मुनी हो भगजी गुणनां भंडार, १६ ए तो आखी हो तीन पचासमीं ढाळ, रुड़ी निसुणौ हो आगल बात -रसाल, भिक्खु जश रसायण : ढा. ५३ 'सतजुगी' नांम अपर सोभावीयौ। च्यार - तीर्थ माहै जश तसुं छावीयौ || ऋष रायचंदजी बालक - वय राजता । स्वाम तणी हद सेव सुसाजता ।। सरियारी मैं सांम आया सुख कारणा । 'जय - जश' करण भीक्खू जन- तारणा ॥ १८७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा सावण मासे सामजी, पूनम , लगै पिछांण । सखर गोचरी सहर मैं, आप करी अगवांण॥ २ आवसग अर्थ अनोपम, लिख-लिखनै अवलोय। शिष नैं आप सिखावता, जसधारी मुनी जोय॥ ३ सांवण सुद छेहडै सही, मुनी तणै तन माहि। कांइक कारण उपनो, 'फेरा५ तणौज ताहि॥ ४ तो पिण ऊठै गोचरी, गांम माहि मुनीराय। 'दसा' बाहिर जावै सही, लांबी गिणत न काय॥ ५ ओषध लीयो अणायनै३, कारण मेटण काम। पिण कारण मिटियौ नहीं, पूज समा परिणाम॥ ढाळ : ५४ (कै तैं पूजी गोरज्या कै तैं इसर देवो ए) १ चरम किल्यांण चतुर सुणौ मास भाद्रवा माह्यौ ए। सुखदायो ए, हुई वृद्धि अति धर्म नी क. भवियण ए॥ २ पज्जुसणां मैं परवाड़ा, वारू हुवै वखाणो ए॥ सुविहांणो ए, सरस तीन टक देशना क. मुनिवर ए।। ३ सुंदर वांण सुहांमणी, निसुण बहु नर नारौ ए। सुखकारो ए, चौथज आई चांदणी क. मु.।। पिंजर तन हीण्यौ पड्यौ 'परम पूज पहिछांण्यौ ए। मन जांण्यो ए, आउ नेडौ उनमांन थी क. मु.॥ ५ स्वाम कहै सतजुगि भणी, थे सखर शिष सुविनीतो ए। धर पीतो ए, साज दीयौ संजम तणो क. मु.॥ ६ टोकरजी तीखा हुंता, विनयवंत सुविचारी ए। हितकारी ___ए, भक्ति करी भारी घणी क. मु.॥ १. दस्त। २. शौचार्थ। ३. मंगाकर। ४. व्याख्यान। ५. हीणौ (क)। १८८ भिक्खु जश रसायण Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ भारमलजी सूं भैळप भली, रहीज अति प्रीतो ए, ८ सखर तीनां रा साझ सूं, वर म्हैं पाळ्यौ ९ चित्त समाधि रही हुसीयारी १० शिष सुविनीत हुवै चित चंदो ११ गुणग्राही एहवा दिल देखौ कीजै १२ ऐसी सुविसालो ए, सतजुगी टोकरजी सारिखी क. मु.॥ १३ जोड़ी वीर गोयम जिसी, पवर स्वाम शिष पीतो ए। ए, चाल सखर 'चौथा तणीं' क. मु.॥ कह्यौ संबंधो मैं, सखरौ ए। हदरीतो चौपनमी ढाळ ए, स्वाम भीक्खू नो सोभतौ क. मु.॥ १४ ए प्रबंधो रूड़ी रीतो ए । जांणक पाछिलभव तणी क. मु.॥ संजम उजवाळ्यौ ए। ए, प्रत्यख ही सूरापण क. मु.॥ घणी, म्हारा मन मझारी ए । ए, यां तीनां रा साझ थी क. मु.॥ सही, तो गुर रै रहै आंणदो ए। ए, देव जिनेन्द्रे दाखीयौ क.मु.॥ पूज भीखनजी गुणी, पेखौ ए। ए, स्वाम गुणज्ञ सुहांमणा क. मु.॥ पीतड़ी, जैसी भीक्खू भारीमालो ए। १. चौथे आरे की सी। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५४ १८९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा पत नकारा वदै १ साध श्रावक नैं श्राविका, बहु सुणता तिण वार। - सीखावण दै स्वामजी, हद २ वीरजि - मोख विराजतां, वारू कियौ वखांण। सोलै पौहर रै आसरै, सीख दीधी सुविहांण। ३ इण दुखम आरा मझै, स्वाम भीखनजी सार। प्रत्यख श्री जिन नी परै, आखी सीख उदार॥ ४ सखर बुद्धि वांणी सखर, सखर कळा सुखकार। - नीत सखर चित निरमकै, वचन सुविचार।। ढाळ : ५५ (भावे भावना) १ जिम मुझ नैं जांणता, म्हारी परतीतो रे। राखजो, भारमलजी री रीतो रे॥ सीख स्वामी तणी॥ २ सहु संत-सत्यां रा, भारमलजी नाथो रे। आज्ञा आराधजो, मत लोपजो वातो रे॥ सीख. यांरी आंण लोपीनें, निकळे गण बारो रे, __ तसुं गिणजो . मती, चिऊं तीर्थ मझारो रे॥ । सीख. आंण आराधै, सदा रहै सुविनीतो रे। तसुं सेवा करौ, ए जिण मग रीतो रे॥ । सीख. ५. हैं पदवी आपी, भार लायक जांणी रे। भारमलजी . . भणी, सुद्ध प्रकृति सुहांणी रे॥ सीख. ६ नींत चरण पाळण री, भल ऋष भारीमालो रे। संक म राखजो, सुद्ध साधू नी चालो रे॥ सीख. ७ सुद्ध समण सेवजो, अणाचार्यां सूं दूरा रे। सीख __दोनूं ध-, हुवै मुक्ति हजूरा रे॥ सीख. यांरी १९० भिक्खु जश रसायण Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अरिहंत गुरु आज्ञा, लोपै कर्म जोगो रे। ___अपछंदा' तिके, नहीं वंदण जोगो रे। सीख. ९ उसनारे नै पासथा, कुशीळ्या प्रमादी . रे। अपछंदा इणां, जिण आंण विराधी रे॥ सीख. १० यांनै वीर निषेध्या, ज्ञाताई मैं विसालो रे। संग करणौ नहीं, बांधी जिन पाळो रे॥ सीख. ११ आणंद लियौ अभिग्रहौ, जिण-गण थी न्यारूं रे। तसुं वायूँ नहीं, पहिली वच न उचारूं रे॥ सीख. १२ अन्यमति ना देव गुरु, अथवा जमाली रे। तास नमूं नहीं, नहीं वंदू न्हाळी रे॥ सीख. १३ वलि विगर बोलायां, बोलण रौ नेमो रे। आहार . आपूं-.-..-नहीं, अभिग्रह लियौ एमो रे। सीख. १४ अभिग्रह जिन आगळ, आणंद ए लीधौ :- । - सप्तम अंग" मैं, शुद्ध पाठ प्रसीधो रे॥ सीख. १५ रीत एहिज राखणी, चिहुं संघ नै चारू रे। टाळोकर तणी, संग दूर निवारू रे॥ सीख. १६ ए रीत आराध्यां, पामौ भव पारो रे। श्री जिन सीखड़ी, सरध्यां सुख सारो रे॥ सीख. १७ सहु साध-साधवी, वर हेत विशेषो रे। ____ रूड़ौ राखजो, धरणौ नहीं द्वेषो रे॥. सीख. १८ वलि जिलौ न बांधणौ, गुरु आण सुगांमी. रे। ___सीख प्रथम सही, दी भीक्खू स्वामी रे॥ सीख. . १९ गुरु आज्ञा लोपी, बांधै जे जिलौ रे। अति अविनीत ते, दीयौ कर्मी टिलौ रे।। सीख. २० एकल सूं ई खोटौ, इसड़ौ अविनीतो रे। तसुं समजायनै, रखणी सुध रीतो रे॥ सीख. १. स्वच्छन्दा ५. प्रमाद असावधानी करने वाला साधु। २. निज धर्म पालन में आलसी साधु। ६. ज्ञाता श्रु. १ अ.,५ सूत्र १२५। ३. शिथिलाचारी साधु। ७. उपासकदसा, अ. १, सू. ४५। ४. कुत्सित/दूषित आचार वाला साधु। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५५ . १९१ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ दिल देख देखनै, दीख्या सुध दीजो रे। ___ वलि जिण-तिण भणी, गण मैं म मूडीजो रे॥ सीख. २२ सरधा आचार रौ, कल्प सूत्र रौ बोलो रे। गुरु बुद्धिवंत री, राखौ प्रतीत अमोलो रे॥ सीख. २३ कोई बोल न बैसै, केवळियां नै भळावी रे। तांण कीजो मती, मन नैं समजावी रे॥ सीख. २४ अपछंदे विण आज्ञा, नहीं थापणौ बोलो रे। गुरु - आज्ञा थकी, तीखौ गण तोलो रे॥ सीख. २५ एक दोय तीन आदि, नीकलै गण बारो रे। ___साध म सरध्यो, सुध सीख श्रीकारो रे॥ सीख. २६ एक आज्ञा मैं रहीजो, ए रीत परंपर-~रे। -~-लिखत- आगै-कीयौ, सहु धरजो खराखर रे॥ सीख. २७ कोइ दोष लगावी, वलि बोलै कूड़ो रे। __प्राछित नां लियै, तिण नै कर दीजो दूरो रे॥ सीख. २८ शासण प्रव्रतावण, सीख दीधी स्वामी रे। और ___ कारण नहीं, भल अंतरजांमी रे॥ सीख. २९ सुणतां सुखदाई, स्वामी नां बोलो रे। बहु सुणतां कह्या, आछा नै अमोलो रे॥ सीख. ३० ऐसा स्वाम अनोपम, गण तारक ज्ञानी रे। कहा कहियै तसुं, . बतका सुविहांनी रे॥ सीख. ३१ पचपनमीं चारू, कही ढाळ रसाळी . रे। बात सुणौ वली, 'जय-जश' सुविशाली रे॥ सीख. १९२ भिक्खु जश रसायण Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सीखांवण दी स्वामजी, आछी अधिक अनूंप। हळुकर्मी धारै हियै, सखरी सीख सद्रूप॥ २ नीर गंगा ज्यूं निरमला, पूज तणा परिणाम। निमल ध्यान निकलंक चित्त, समता रमता स्वाम॥ ३ पद युगराज सु आदि मुनि, पूछा करै सुजोय। अछै खेद सूं आपरै? स्वाम कहै नहिं कोय॥ ४ निमल चरण वर करण निज, विमल... सुधा सम वांण।. · अमल दियै उपदेश अरु -सुणज्यों चतुर सुजाण॥ ढाळ : ५६ . (सायर लैहर स्यूं जाणै) १ भारीमाल शिष भारी जी, आदि साधां भणी। स्वाम कहै सुविचारी जी, वांण सुहांमणी॥ २ परभव निकट पिछांणो जी, दीसै मुझ तणौ। मुझ भय मूल न जाणो जी, हरख हियै घणौ॥ ३ घणां जीवां रै घट माह्यौ जी, समकत रूपीयो। - हैं बीज अमोलक वायो जी, मग ओळखावीयो॥ ४ देशव्रत दीपायो जी, लाभ अधिक लीयो। साधपणौ सुखदायो जी, बहु जन नैं दीयो।। ५ में जोड़ां करी सूत्र-न्यायो जी, शुद्ध जांणे सही। ' म्हारा मन रै माह्यौ जी, ऊंणारत' नां रही। ६ थे पिण थिर चित्त थापी जी, प्रभू पंथ पाळजो। कुमति कलेश नैं कापी जी, आत्म उजवाळजो।। ७ रायचंद ब्रह्मचारी नै जानो जी, सीख दे सोभती। तूं बालक छै बुद्धिवानो जी, मोह कीजै मती॥ १. उणायत (क)। २. मिटाकर। भिक्खु जश रसायण : ढा.५६ १९३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूकौ । ८ ब्रह्मचारी कहै वांणो जी, सुध वच सुंदरू। आप कौ जन्म रो किल्यांणो जी, हूं मोह किम करूं। ९ वले स्वाम सीख दै सारो जी, सहु संतां भणी। आराधजो आचारो जी, मत अणी॥ १० इर्या भाषा उदारौ जी, अधिकी एषणा। वस्त्रादि लैतां विचारो जी, 'परठत पेखणा॥ ११ सखरी पांच सुमती जी, गुप्त गुणी धरो। दया सत सील सुदती जी, ममता मत करो। १२ शिष शिषणी पर सोयो जी, उपगरण ऊपरै। ___ मूर्छा म कीजौ कोयो जी, प्रमाद परहरे॥ १३ पुद्गल ममत. प्रसेंगोजी , तन मन सूं तजी। संजम सखर सुचंगो जी, भल भावै--- भजी। ....१४- आछी सीख अनूंपी जी, अति अभिरामजी। अमृत रस नी कुंपी जी, दीधी स्वामजी।। १५ आखी ढाळ उदारो जी, षट 'पंचासमी। 'जय-जश' करण श्रीकारो जी, स्वामी मति समी।। १. परिष्ठापन करते समय सजगता रखना। १९४ भिक्खु जश रसायण Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा FEEEEEEE भाव। १ सीख सखर दै स्वामजी, हद वाणी हितकार। स्वाम वचन सुणतां छतां, चित पामै चिमत्कार।। २ समता खमता सखर चित, दमता रमता देख। नमता जमता निमल मुनि, वमता वंक विसेख। ३ भव-समुद्र तिरवा भणी, भीक्खू भलैज वृद्धि भाव हद वीर रस, जांण तिरण रौ डाव।। ४ वर वायक वांणी विमल, दायक अभय दयाल। पद लायक भीक्खू प्रगट, नायक स्वाम स्वाम निहाल।। __ढाळ : ५७ (धन धन जंबू स्वाम नैं) १ शिष भारीमाल सुहांमणा, परम भक्ता पहिछांन हो मुणिंद। पिंडत-मरण पेखी पूज रौ, बोले एहवी वांण हो मुणिंद।। धिन-धिन भीक्खू स्वाम जी धिन-धिन निरमल ध्यान हो, मुणिंद।। धिन -धिन पवर सूरापणौ। धिन-धिन स्वाम नों ज्ञान हो मुणिंद।। २ सखर स्वांम नां संग थी, मन हुसियारी माय हो मुणिंद। अबै विरही पड़े आपरौ, जांणै श्री जिन राय हो मुणिंद॥ धिन-धिन. ३ प्रभू-गोयम री पीतड़ी, चौथे आरै पिछांण हो मुणिंद। प्रत्यख आरै पंचमैं, भीक्खू भारीमाल री जांण हो मुणिंद।। ४ तिण कारण भारीमालजी, आखी अल्प सी बात हो मुणिंद। विरह तुम्हारौ दोहिलौ, जाणे श्री जगनाथ हो मुणिंद। धिन-धिन. ५ भीख वलता इम भणै, थे संजम पालसो सार हो मुणिंद। निरतीचारे निरमळौ, होसौ देव उदार हो मुणिंद।। धिन. ६ महाविदेह खेतर मझै, मुझ थकी मोटा अणगार हो मुणिंद। __ अरिहंत गणधर आदि दे, देखजो तसुं दीदार हो मुणिंद।। धिन. भिक्खु जश रसायण : ढा. ५७ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सतजुगी भाखै स्वाम नै, आप जाता दीसौ झंडमाहि' हो मुणिंद। स्वाम कहै-सुण साधजी! चित मैं न झंड री चाहि हो मुणिंद। धिन. ८ सुख स्वर्गादिक ना सहु, पुद्गल रूप पिछांण हो मुणिंद। ___ 'पांमला सुख पोचा घणा', ज्यांनै जांणू जैहर समांण हो मुणिंद। धिन. ९ वार अनंती भोगव्या, अधिका सुख अहमिंद हो मुणिंद। तौ पिण नहि हुऔ तिरपतौ, तिण कारण ए सुख फंद हो मुणिंद॥ धिन. १० तिण सूं म्हारै झंड तणी, वंछा नहीं लिगार हो मुणिंद। मुझ मन एकंत मोक्ष मैं, सासता सुख श्रीकार हो मुणिंद॥ धिन. ११ वैरागी एहवा मुनिवरू, जांण्या पुद्गल जैहर हो मुणिंद। स्वाम संबंध सुण्यां छतां, आवै संवेग नी लैहर हो मुणिंद। धिन. १२ सखर सतावनमीं सोभती, ढाळ रसाळ अपार हो मुणिंद। समरण भीक्खू स्वाम नौं, 'जय-जश' करण श्रीकार हो मुणिंद।। धिन. १. देवों के झुंड (समूह) में। ३. अहमिंद्र (नवग्रैवेयक एवं पंच अनुत्तर २.खुजली के सुख के समान अत्यंत तच्छ। विमान के देव)। ४. वैराग्य। भिक्खु जश रसायण Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सुख कारण तारण सुजन, कुगति विघन विडारन अति पवर, सीख २ पंडत - मरण सुकरण पर, धरण सिव-वधू वरण रु तरण सुद्ध, ३ निमळ नीत सुद्ध रीत निज, अंत-काळ आयां छतां, ४ समय जांण स्वामी सखर, आलोवण आतम सुद्ध करै आपणी, ते ५ पूज पूज वारू १. अशुभ। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५८ निवारण समापी आराधक परम प्रथम ही अधिक ढाळ : ५८ ( राम पूछै सुग्रीव नै रे ) सुणजो आयौ त १ स्वाम भीक्खू तिण अवसरै रे, आउ नैड़ौ करै आलोवण किण-विधै रे, सखर भविक रे भीक्खू गुण रा भंडार ॥ हिंस्या करी हुवै कोय। 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय ॥ भविक. लोभ वसै अवलोय। 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय ।। भविक. ज्यांरा भेद अनेक 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय।। सुजोय । भविक. २ तस थावर जीवां तणी रे, त्रिविध-त्रिविध कर तेहनौ रे, ३ क्रोध मांन माया करी रे, झूठ लागौ हुवै जेहनौ रे, ४ अदत्त जे कोइ आचर्यो रे, हद जिण आज्ञा लोपी हुवै रे, ममत धरी हुवै मिथुन सुं रे, मन वचन काय माठा' तणौ रे, ६ 'परिग्रह नवूं प्रकार नों' रे', त्रिविध-त्रिविध ममता तणौ रे, ७ किणहि सूं क्रोध कियौ हुवै रे, करडी सीख किण नै कही रे, जागता सूता रै सोय । 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय॥ भविक. शिष- शिषणी उपधि पर सोय । 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय ॥ भविक. वले क्रोध वसे वच कोय । 'मिच्छामि दुक्कडं ' मोय ॥ भविक. २. क्षेत्र, वस्तु आदि नौ प्रकार का परिग्रह। काम। स्वाम॥ धाम । परिणांम ॥ पेख । विसेख ॥ अधिकार । विसतार || जांण। सुविहांण ॥ १९७ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ मांन माया लोभ मन मैं धर्यो दिल धऱ्या राग-द्वेष दोय। इत्यादिक पाप अठार नौं रे, 'मिच्छामि दुक्कडं' मोय। भविक. ९ राग कियौ हुवै रागी थकी, द्वेषी सूं धर्यो हुवै द्वेष। ___मन साचै हिव माहरै रे, वर 'मिच्छामि दुक्कडं'विशेष।। भविक. १० पांचूं आश्व पाइआ' रे, लागौ जाण्यौ किण वार। संभाळ-संभाळ स्वामजी रे, आलोया अतिचार। भविक. ११ पांच सुमति तीन गुपति मैं रे, पंच महाव्रत मझार। ___याद करे अतिचार नैं रे, आलोवै भीक्खू अणगार।। भविक. १२ सहु जीवा-जोनि संसार मैं रे, चउरासी लाख सुचिंत। ज्यांरा भेद जूजूआ जांणजो रे, खमाउं धर खंत॥ भविक. १३ बड़ा शिष्य सुविनीत छ रे, अंतेवासी अमोल। आगै लेहर आई हुवै रे, खमावै दिल खोल॥ भविक. १४ वले संत अनै सतियां मझै रे, केका नै करडा रै देख। कठिण सीख कड़वौ कह्यौ रे, खमाउं सुविसेख। भविक. १५ श्रावक नैं वले श्राविका रे, केइ कठिण प्रकृति रा कहाय। कठिण वचन कह्यौ हवै रे, खांत करी नै खमाय॥ भविक. १६ केइ गण बाहिर नींकळ्या रे, साध-साधवी रै सोय करड़ौ काठी कह्यौ हुवै रे, ज्यां सूं खमत-खांमणा जोय।। भविक. १७ चंद्रभांणजी थळी मझै रे, तलोकचंदजी रै ताम। कहिजो खमत-खांमणा माहरा रे, त्यां तूं पड़ीयौ बौहलौ काम।। भविक. १८ चरचा कीधी चूंप सूं रे , घणां जणां सूं बहु ठांम। वच कठण कह्या जाण्या तसूं रे, खमावै ले नाम। भविक. १९ केइ धर्म तणां द्वेषी हुंता रे, 'छिद्रपेही अधवसाय'। त्यां ऊपर खेद आई तिका रे, सगळां नैं देऊं खमाय॥ भविक. २० चिउं तीर्थ शुद्ध चलायवा रे, सीखामण दैतां रै सोय। कठिन वचन जो कह्यौ हुवै रे, मुझ खमत-खांमणा जोय॥ भविक. १.खराब। २.इच्छा । ३. गौर। ४. छिद्रान्वेषी दृष्टिकोण वाले। १९८ भिक्खु जश रसायण Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ इण विध करी अलोवणा रे, गिरवा महा गुणवंत। सांम भीखनजी शोभता रे, पदवीधर पूज महंत॥ भविक. २२ एहवी आलोवण कांनां सुण्यां रे, आवै अधिक वेराग। करै त्यां रौ कहिवौ किस्यूं रे, त्योरै माथै मोटा भाग। भविक. २३ अठावनमीं शोभती रे, आखी ढाळ सु जैन। 'जय-जश' करण भीक्खू भला, चित सुणतां प्रांमै चैन।। भविक..--.-- - १. किसूं (क)। भिक्खु जश रसायण : ढा. ५८ १९९ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा REFEEEEEEE १ इण विध करी आलोवणा, निरमळ निरतीचार। स्वाम हुआ शुद्ध रीत सूं, अब अणसण अधिकार।। २ भाद्र सुकल पंचम भली, संवच्छरीनों सार। ___स्वाम कीयौ, उपवास सुद्ध, चित उजल चौविहार। ३ अतुल तृखा नी ऊपनी, अधिक असाता... आंम। सखर आंण सूरापणौ, समचित सहीज स्वांम।। ४ पूज कियौ छठ पारणौ, ओषध अल्प आहार। पिण ते समौ न परगम्यौ, वमन हुऔ तिण वार।। ५ तिण दिन तीनूं आहार नां, त्याग किया तहतीक। पुद्गल स्वरूप पिछाणीयौ, निमळ स्वाम निरभीक। ढाळ : ५९ (राजा राघव राया रो राय कहायौ) . १ सातम-आठम भीक्खू स्वामजी, अल्प सो लियौ आहारो। ततखिण त्याग कियौ मन तीखै, हद पूज रौ मन हुसियारो॥ भीक्खू स्वाम आप जिनमत अधिक जमायौ॥ २ खेतसीजी स्वामी कहै खांच 'नै तरकै न करणा त्यागो। पूज कहै-देही पतळी पाड़णी, वारु विशेष चाहिजै वेरागो। भीक्खू. ३ भाद्र सुकल नवमी दिन भीक्खू, कहै-करूं आहार नां पचखांण। कहै खेतसीजी-मुझ कर केरौ, चरम आहार ल्यौ पिछांण।। भीक्खू. ४ अल्प आहार खेतसीजी आणीयौ, चाख किया पचखांणो। वारू मन राख्यौ शिष सुविनीत रौ, पिण बहुल इच्छा मत जांणो।। भीखू. ५ दशम दिन भारीमाल वीनवै, स्वामी आहार कीजै सुविहांणो। चाळी चावळ दश मोठ रै आसरे, चाख किया पचखांणो॥ भीक्खू. १. जोशीले शब्दों में। २. शीघ्र। २०० भिक्खु जश रसायण Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ 'इग्यारस आहार त्याग दीयौ मुनि, अमल-पाणी उपरंतो'।. मुझ हिव आहार लेतौ मत जांणजो, कह्यौ वयण अमोलक तंतो॥ भीक्खू. ७ बारस रै दिन बेलौ कियौ पूज, तीन आहार तणा किया त्यागो। सखर संथारौ करण सूं स्वामी नों, वारू चढ़तौ वैरागो॥ भीक्खू. ८ सांमली हाट सूं ऊठ मुनीश्वर, चलीया-चलीया आयो। पकी हाट नै पका मुनीश्वर, सुणजो पको संथारौ सुहायो॥ भीक्खू. ९ सयण शिषां कीधौ सुखदाई, वारू पूज लियो विसरामो। इतले ऋष रायचंदजी आयनै, रूड़ा वचन वदै अभिरामो॥ भीक्खू. १० स्वामी किरपा कीजै दर्शण दीजियै, वदै ब्रह्मचारीजी विख्यातो। पूज साहमौ जोवै नेत्र खोलनै, हद मस्तक दीधौ हाथौ॥ भीक्खू. ११ पूज नै कहै-'प्राकम'हीणा पड़िया, ऋषराय तणी सुण वायो। भीक्खू पहिला तन तोल त्यारी था, सुण सीह ज्यूं उठ्या मुनिरायो।। भीखू. १२ भीक्खू कहै-बोलावो भारीमाल नै, वले खेतसीजी नै विचारो। याद करतां इ संत दोनूंइ, झट आय ऊभा है जिवारो।। भीक्खू. १३ णमोत्थुणं कीयौ अरिहंत सिद्धां नै, तीखै बच बोल्या तांमो। ____ बहु नरनारी सुणतां नै देखतां, संथारौ पचख्यौ भीक्खूस्वामो। भीक्खू. १४ शिष परम भगता कहै स्वाम नै, क्यूं न राख्यो अमल नों आगारो? __ पूज कहै आगार किसौ हिवै, किसी करणी काया नी सारो? भीक्खू. १५ भाद्रवा सुदि बारस भली, तिथि सोमवार सुविचारो। अणसण आदर्यो वैराग आणी नै, सुद्ध छेहलौ दुघड़ीयौ सारो।। भीक्खू. १६ घणा जन आवंता गुण गावंता, बोलता बेकर जोड़ो। धिन-धिन हो थे मोटा मुनिश्वर, कीधी वडा-वडेरा री होडो।। भीक्खू. १७ केइ सनमुख आया नै प्रणमैं पाया, विकसित होवै विलासं। खांत करीनै स्वामी नै खमावता, हिवड़े आंण हुलासं। भीखू. १८ धिन-धिन पूज रौ धीरापणौ, धिन-धिन पूज नौं ध्यानो। धिन-धिन स्वाम सूरा घणा सदरा', मन कीयो मेरू समानो।। भीक्खू. १९ आखी ए गुणसठमी ओपती, सुद्ध ढाळे स्वाम संथारो। भल 'जय-जश' कर स्वाम भीक्खू नौं, समरण महा सुखकारो॥ भीक्खू. १. एकादशी के दिन स्वामीजी ने अफीम २. बिछौना। और पानी के अतिरिक्त प्रत्याख्यान कर दिया। ३. शारीरिक शक्ति। 'दस्तों के कारण वे औषध रूप में अफीम ४. अमृत का। लिया करते थे। ५. अडिग भिक्खु जश रसायण : ढा. ५९ २०१ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा . १ केका अभिग्रह एहवौ कीयो, यां सुद्ध मत काढ्यौ सार। (तो) छेहडै अणसण आवसी, पकौ ऊतरसी पार॥ २ इण विध अभिग्रह आदर्यो, भोळा लोकां तांम। बात सुणी कहै पचखीयो, अणसण भीक्खू स्वाम॥ ३ धेषी था जिन-धर्म नां, चित पाम्या चिमत्कार। जाण्यौ ए मारग खरौ, केइ वांदै वारूंवार॥ ४ अति नर-नारी आवता, गावता मुनि गुणग्रांम। बाजार माहि अमावता', सरावता धिन स्वांम। ढाळ : ६० (राम को सुजश घणो) १ स्वाम तणौ संथारौ सुणी हो, आवै लोक अनेक। कोड करीनै करै घणां हो, वारु वैराग विसेख॥ स्वामी नों सुजश घणौ॥ २ कोइ कहै-संथारो सीझै स्वाम नौ हो, त्या लग काचा पांणी रा त्याग। कोइ कहै-त्याग कुशील रा हो; वर चित आंण वैराग॥ स्वामी. ३ केइ अग्नि आरंभ नहीं आदरै हो, केइ करै हरी नां पचखांणा केकां रात्रि-भोजन तज्यौ हो, इत्यादिक वैराग वखांण। स्वामी. ४ केइ धर्म तणा द्वेषी हुंता हो, ते पिण अचर्य पांम्या तिण वार। अनमी केइ आवी नम्या, स्वाम तणे संथार।। स्वामी, ५ पडिकमणौ कीधां पछै हो, स्वाम भीक्खू . सुविहांण। भारीमाल आदि शिष भणी हो, · कहै वारु करौ वखांण।। स्वामी. ६ शिष सुविनीत कहै सही हो. संथारो आपरै . सोय। बखांण नों स्यूं विशेष छै हो? तब पूज- बोल्या अवलोय। स्वामी. ७ किणहि आरजीयां अणसण कियौ हुवै हो, तौ करौ बखांण त्यां जाय। मुझ अणसण माहै देशना हो, नहि करौ थे किण न्याय? स्वामी. १. नहीं समाते। २. साध्वियां। २०२ भिक्खु जश रसायण Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ बखांण कियौ विस्तार सूं हो, शिष सुविनीत श्रीकार। ___ भाग वली भीक्खू तणे हो, मिलियौ जोग उदार॥ स्वामी. ९ परिणांम चढता पूज रा हो, इण विध नीकली रात। दिन तेरस हिव दीपतौ हो, परगटियौ परभात। स्वामी. १० गांम-गांम रा आवै घणा हो, दर्शण करवा देख। जांणक मेळौ मंडीयौ हो, वारूहरख विसेख॥ ११ गुण स्वामी ना गावता हो, आवता अति जन-वंद। हिवड़े हरख हुलसावता हो, पावता परमानंद।। १२ जसकरमी था जीवड़ा हो, जय-जश करता परम पूज मुख पेखनै, तन मन होय प्रस्न ।। १३ धुर ही थी धर्म छांणनै हो, शुद्ध मग लीधौ सार। अंत तांई उजवाळीयौ हो, जिन मारग जयकार। १४ धोरी' थे जिन-धर्म ना हो, इम बोलै नर-नार। सूरपणे सखरौ कीयौ हो, स्वामी थे संथार॥ १५ ए साठमी गुण आगळी हो, रूड़ी ढाळ रसाल। 'जय-जश' करण स्वामी तणा हो, वारू गुण विशाल। .-. EXEEEEEEEEEEEE १.प्रसन्न। २. अगुआ। भिक्खु जश रसायण : ढा.६० २०३ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ पांणी पीधौ पूजजी, आफे' चित उजमाल। पौहर दिवस जाझौ प्रगट, आयौ थौ तिण-काळ॥ २ साध बैठा सेवा करै, आंणी हरष अपार। श्रावक-श्राविका स्वाम नौं, देख रह्या दीदार। ३ भीक्खू ऋष सुद्ध भाव सूं, ध्यावता । निरमल ध्यान। 'सकै तौ'२ जांणू स्वाम नैं, ऊपनौं अवधि सुज्ञान॥ ४ 'साध श्रावक होवै सही, वैमानिक विख्यात। अवधि-ज्ञांन तसुं ऊपजै',' आगम वच आख्यात॥ ५ दिन चढ्यौ पौहर दौढ़ आसरे, सांभळता सहु कोय। वचन प्रकासै किणविधै, भल सुणियै भवि लोय॥ ढाळ : ६१ - (भवियण नमो अरिहंताणं) . १ साधू आवै साहमा जावौ, मुनी प्रकासै वाणं। वले साधवीयां आवै बारै, स्वामी बोलै वचन सुहाणं। भवियण नमो गुरु गिरवाणं, नमो भीक्खू चतुर सुजांण।। .. २.. के तौ. कह्यौ अटकळ उनमांनै, कै कह्यौ बुद्धि प्रमाणं! कै कोइ-अवधि ज्ञान ऊपनौं, ते जाणे सर्वनाणं॥ भवि. ३ केइ नर नारी मुख सूं इम भाखै, स्वामी रा जोग साधा मैं वसीया। इतलै एक महुरत आसरै, साध आया दोय तिसीया।। भवि. ४ विकसत-विकसत साधू वांदै, चरण लगावै शीसं। नर-नार्या जाण्यौ अवधि ऊपनौं, साचौ विसवावीसं॥ भवि. ५ स्वामी साधू आया जांणी, मस्तक दीधौ हाथं। इतलै दोय महुरत आसरै, आयौ साधविया रौ साथ।। भवि. १. अपने-आप। ४. "हेमराजजी स्वामी रौ जोड्यौ भीक्खू २.संभवतः। चारित तेहनी ढाळा १३ ३. जो साधु,श्रावक वैमानिक देवलोक में तिण मैं दशमी ढाळ तेहज राखी ते उत्पन्न होते हैं, उन्हें अन्तिम समय में लिखिये छ।' अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है, ऐसा आगम जयाचार्य द्वारा लिखित टिप्पणी। में कहा है। २०४ भिक्खु जश रसायण Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वैणीरामजी साध वदीता, साथै खुशालजी आया। साधवीयां वगतूजी झूमा डाहीजी, प्रणमैं भीक्खू पाया। भवि. ७ परचा' ज्यूं-ज्यूं आय पूगै छै, . नर-नारी हरषत थावै। धिन हो धिन थे मोटा मुनीश्वर, आप तुलै कुंण आवै? भवि. ८ आया ते साधू गुण गावै, भांत-भांत परिणाम चढावै। थे मोटा उपगारी महिमा भारी, सखरौ सुजश सुणावै।। भवि. ९ थे पका-पका पाखण्डी हटाया, सूत्र-न्याय . बताया। दांन दया आछी दीपाया, बुद्धिवंता मन भाया। भवि. १० सावज निरवद भला निवेरा, कीधा बुद्धि परिमाणं। सूत्र-न्याय सरधा सुद्ध लीधी, धारी अरिहंत आणं॥ भवि. ११ साधां जाण्यौ स्वामी सूतां नैं,- घणी हुइ छै वारं। आप कहौ तौ बैठा करां हिव, जब भरीयौ काय हुंकारं॥ भवि. १२ बैठाकर साधू लारै बैठा, गुण स्वामी रा गावै। बहु नर-नारी-दर्शण देखी, मनमैं.. हरषत. थावै॥ भवि. १३ आयौ आउखौ अणचिंतवीयौ, बैठां-बैठां जाणी---- __ सुख-समाधे बाह्य दीसत, चटदे छोड्या प्रांणं। भवि. १४ अणसण आयौ सात भक्त नौं, तीन भक्त । संथारं। सात पौहर तिण मांहे वरत्या, पकौ उतार्यो पारं॥ भवि. १५ मांहडी सीवे दरजी पूगा, कहै सुई पाग मैं घाली। .. - अचर्य लोक पांमीया अधिकौ, चट स्वामी गया चाली॥ भवि. १६ समत अठारै साठे वर्से, भाद्रवा · सुदि तेरस मंगलवारं। __पूज पौहता परलोक सरियारी, गुण गावै नर-नारं॥ भवि. १७ दिन पाछलौ दौढ़ पौहर आसरै, उण वेला आउखौ आयौ। दिवसे मरवौ राति जनमवौ, कहै विरला नै थायो॥ भवि. १. स्वामीजी के मुखारविन्द से निकले हुए द्वादशी के दो दो तघा त्रयोदशी का एक ; अदृष्ट वचन। कुल-७ भक्त। २. तुरंत। ४. द्वादशी के दिन में संथारा हुआ। अत: दो ३. दिन और रात के दो भक्त गिने जाते हैं। भक्त तघा त्रयोदशी का एक कुल -३ भक्त। तदनुसार भाद्र शुक्ला दशमी सूर्यास्त से पहले प्रत्याख्यान होने से दो भक्त, एकादशी, भिक्खु जश रसायण : ढा. ६१ २०५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ संथारौ कीधौ सखर, सखर स्वाम श्रीकार। सूरपणें सीझ्यौ सखर, सखर सुजश संसार॥ २ साधां तन वोसिरायनै, चिउं लोगस चित धार। कियौ तदा सुद्ध काउसग, अरु तिण दिन तज आहार॥ ३ पूज तणौ विरहौ पड्यौ, कठिण अधिक कहिवाय। याद किया अरिहंत नैं, सम-भावे सुख पाय॥ ४ अहो अथिर संसार ए, संजोग जठै विजोगा-... पूज सरीखा पुरुष था, पौहता आज़: परलोग। ५ देख्या भीखू दिल करी,- वारु- - - - निसुणी वांण। याद करै ते अति घणां, जन-गुण-ग्राही जांण॥ ६ चिउं तीर्थ आवी मिल्या, स्वाम तणे संथार। मास भाद्रवा .... मझै, अचर्य-~~~-ए-------अधिकारी .७ प्रबल पुन्य ना पोरसा, प्रबल गुणागर जांण। पूज हुंता प्रगट पण, पर-भव कियौ पयांण।। ढाळ : ६२ (आज आनंदा रे) १ स्वाम संथारौ सीझीयां गुणधारी रे, मैहल्या मांहढी रै माया । स्वाम सुखकारी रे। तेरै खण्डी मांहढी तणी गुणधारी रे, महिमा कीधी अथाय। स्वाम सुखकारी रे॥ २ रुपीया सइकडां लगावीया गुणधारी रे अनेक उछाल्या लार। भीक्खु ऋष भारी रे। ए सावज किरतब संसार ना गुणधारी रे, तिण मैं नहीं तंत सार। स्वाम. ३ वात हुई जिसी वरणवै गुणधारी रे, समभावे . सुविचार॥ स्वाम. . तिण माहै पाप म तांणजो गुणधारी रे, दंभ तजी दिल धार। स्वाम. ४ अति घन जन-वंद आवीया गुणधारी रे, आदरै संस अनेक। स्वाम. विविध वैराग वधावता गुणधारी रे, वारू आंण विवेक॥ स्वाम. २०६ भिक्खु जश रसायण Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज संथारौ पेखनै गुणधारी रे, धिन धिन भीक्खू स्वामजी गुणधारी रे, ६ आदेज' वचन सु ओपतौ गुणधारी रे, खिम्यावंत स्वामी खरा गुणधारी रे, ७ नीत स्वाम नीं निरमळी गुणधारी रे, लियानदुरमती गुणधारी रे, वाम बुद्धिना सागरू गुणधारी रे, परतख आरै पांचमैं गुणधारी रे, ९ उद्यमी स्वामी अति घणां गुणधारी रे, स्वाम गुपति हद सोभती गुणधारी रे, १० मणिधारी स्वाम महामुनी गुणधारी रे, जग-तारक स्वाम जांणजो गुणधारी रे, ११ दिशावान स्वाम दीपतौ गुणधारी रे, मिथ्या तिमर सुमेटवा गुणधारी रे, १२ सखर भीक्खू नाम सांभळी गुणधारी रे, भक्खू जगत मैं गुणधारी रे, १३ स्वाम तिलक शासण तणौ गुणधारीरे, ५ ८ वाम समी हद शोभता गुणधारी रे, १४ स्वाम सुदांन दीपावीयौ गुणधारी रे, स्वाम सुजांन सोभावीयौ गुणधारी रे, १५ द्रव्य-भाव स्वाम देखावीया गुणधारी रे, पुन - पाप नै परख नै गुणधारी रे, १६ स्वाम संवर अरु निरजरा गुणधारी रे, • स्वाम जीवादिक जूजूआ गुणधारी रे, १७ स्वाम दया ओळखाय नैं गुणधारी रे, स्वाम सावज्ज-निरवद सोध नैं गुणधारी रे, १८ शुभ जोगां नैं स्वामजी गुणधारी रे, आसता स्वामनीं आदऱ्यां गुणधारी रे, १. प्रियकारी । २. विदित (सुप्रसिद्ध ) । भिक्खु जश रसायण : ढा. ६२ गावै नित्य-प्रत स्वामी स्वाम निमळ जन सखरा प्रीत स्वाम निरमळ मेल्या जिन-मत दियौ स्वाम पूरण अधिकी स्वाम स्वाम स्वाम स्वाम स्वाम स्वाम बंध स्वाम लीजै सिंघ स्वाम सूर्य पाखंड देश-देश वदीत सुमति स्वाम स्वाम गुण- ग्राम। प्रबल स्वाम नौं बुद्धि भय आश्व दीया मोख ३. तेजस्वी । मैं आज्ञा सु दमीसर सुज्ञांन सुमांन दिखाया स्वाम. नांम ॥ स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. सरूप। सद्रूप ॥ गुण- पूर। सनूर ॥ न्याय । जमाय ॥ सुखदाय । नरमाय ॥ संतोष । उत्पात । साख्यात ॥ पामंत | दीपंत ॥ स्वाम अति घन कीध घण घट घाली ओळखाया हद जाय जमारौ स्वाम. पोष॥ स्वाम स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. उवेख । स्वाम. देख || स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. सरध । मरद || ओळखाय। सरधाय ।। पहिछांण । सुजांण ॥ उद्योत । जोत ॥ रीत । स्वाम. स्वाम. स्वाम. स्वाम. जीत ॥ २०७ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ इंद्रीवादी' ओळखावियौ गुणधारी रे, कर काळवादी निकंद। स्वाम. प्रज्यायवादी पिछांणीयौ गुणधारी रे, स्वाम साचेलौ चंद।। स्वाम. २० आचार सरधा ऊपरै गुणधारी रे, स्वाम सोध्या सुद्ध न्याय। स्वाम. स्वाम सूत्र-वच सिर धरी गुणधारी रे, व्रत-अव्रत वताय॥ स्वाम. २१ सोध्या तौ लाधै नहीं गुणधारी रे, स्वाम सरीखा साधा स्वाम. ___कड़लौं काम पड्या चरचा तणौ गुणधारी रे, आवैला भीक्खू याद।। स्वाम. २२ स्वाम भीखणजी सारिखा गुणधारी रे, भरत खेत्र रै माय। स्वाम. हुआ नै होसी वले गुणधारी रे, हिवडां नहीं देखाय। स्वाम. २३ ऐसा भीक्खू ऋष ओपता गुणधारी रे, याद करै नर-नार। स्वाम. पूज गुणां रो पंजरो', स्वाम सकल सुखकार। स्वाम. २४ स्वाम तणौ नाम संभस्यां गुणधारी रे, आवै हरस अपार। स्वाम. ____ तौ प्रत्यख नौं कहिवौ कि गुणधारी रे, पांमै तन-मन प्यार। स्वाम. २५ सरीयारी मैं स्वामजी गुणधारी रे, साठे वर्स संथार। स्वाम. मास भाद्रवा मैं भलो गुणधारी रे, जीत गर्भ मैं जिवार।। स्वाम. २६ पंचमा काळे हूं ऊपनौं गुणधारी रे, पिण इक मुझ हरष परम। स्वाम. .. आप सुद्ध मग धाऱ्या पछै गुणधारी रे, जन्म थइ पायौ धरम।। स्वाम. २७ आसा-पूरण आप छौ गुणधारी रे, मेटण सकल संताप। स्वाम. समरण नित्य प्रति स्वाम नों गुणधारी रे, जपूं तुम्हारौ जाप॥ स्वाम. २८ बासठमी ढाळ ओपती गुणधारी रे,. समस्या स्वाम सुजाण। स्वाम. 'जय-जश' करण भीक्खू भला गुणधारी रे, पूरण प्रीत पिछांण॥ स्वाम.. १. इन्द्रियवादी -- इन्द्रियों को सांवद्य मानने वाले। २. कालवादी -- कार्य की निष्पत्ति में काल (समय) को मुख्य मानने वाले। ३. पर्यायवादी -- पर्याय को ही प्रमुखता देने वाले। ४. कठिन। ५. पींजरा। २०८ भिक्खु जश रसायण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ऊजम १ वरस तयाळी विचरीया, जाझौ कांयक जोय। चारित्र पाळ्यौ चूंप सूं, हरष हीयै अति होय॥ २ इधिकौ बळ इन्द्रयां तणौ, निरमळ देह निरोग। भीक्खू सूरत अति भली, अरु तीखौ उपयोग। ३ सखर चौमासा स्वाम ना, वारू अधिक विशाल। सांभळजो भवियण सहू, चरम सहित . चौमाळ। ४ आठ चौमास आगै कीया, असल नहीं अणगार। सतरा सूं साठा लगै, वरत्यौ . सुद्ध ववहार॥ ५ किहां किहां चौमासा कीया? जूजूआ नाम सुजांण। संक्षेपे निरणय सहू, आखू आण॥ ___ढाळ : ६३ (सीता आवै रे धर राग) १ सैहर कैलवै षट चौमासा, सतरे इकवीसे सोय। ___पचीसे अड़तीसे गुणपचासे, अठावने अवलोय। भीखू भज ले रे धर भाव।। २ वारू एक चौमासौ 'वड़लू', वरस अठारे विचार। राजनगर वीसे सुद्ध रीते, कीयौ घणौ उपकार॥ भीक्खू. ३ दोय चौमासा कीया दीपता, पवर कंटाळ्यै पिछांण। चौवीसै अठवीसै चारू, जन्मभूमि निज जांण॥ भीख. ४ वगड़ी तीन चौमासा वारू, सतवीसै सुविसेख। तीसै अरू छतीसै त्यां द्रव्य, दीख्या-महोच्छव देख॥ भीक्खू. ५ 'गढ रिणतभंवर क्लिा री तलेटी, नगर माधोपुर न्हाळ। __दोय चौमासा कीया दीपता, इगतीसे अड़ताळ॥ भीक्खू. ६ दोय चौमासा कीया दीपता, परगट सैहर पीपार। चउतीसे पैंतालीसै वर्स, कीयौ घणौ उपगार॥ भीक्खू. REFERREEEEEEEEEEE १. रिणतभंवर गढ़ के किले के तलहटी में बसा हुआ माधोपुर नगर। भिक्खु जश रसायण : ढा. ६३ २०९. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ एक चौमासौ सैहर आंबेट में, वरस पैंतीसै विचार। सेंतीसै पादू सुखदाई, भीक्खू गुण-भंडार॥ भीक्खू. ८ सोजत सैहरे कीयौ स्वामजी, चारू एक चौमास। ___ वर उपगार तेपनै धर्म-वृद्धि, हेम-चरण तिण वास॥ भीक्खू. ९ श्रीजीदुवारे तीन चौमासा, तसुं धुर वरस तयाळ। पवर पचासै छपनै पूरण, वर उपगार विशाल॥ भीक्खू. १० पुर मैं दोय चौमासा परगट, स्वाम किया सुविहांण। सैंताळीसै वर्स सतावनैं, जुऔ छोड़ायौ जांण॥ भीक्खू. ११ सैहर खैरवै पांच चौमासा, छावीसै . बतीसै छांण। वर्स इकताळे अरु छयाळे, वलि चौपने जांण॥ भीक्खू. । १२ सात चौमासा पाली सैहरे, तेवीसै तेतीसै थाट। चाळीसे चमाळे बावने, पचावने गुणसाठ॥ भीक्खू. १३ सात चौमासा सरीयारी मैं, उगणीसे बावीसे सार। गुणतीसे गुणाल बयाल एकावने, साठे कीयौ संथार॥ भीक्खू. १४ पनरै गांम चौमासा प्रगट, स्वाम किया श्रीकार। 'ज्ञान-दिवाकर" घण घट घाली, मेट्यो भरम अंधार॥ भीक्खू. १५ श्री वर्धमान तणो शासण, सखरो दीपायो स्वाम। बहु जीवां नैं प्रतिबोधी नै, पोहता परभव ठांम॥ भीक्खू. १६ सुख कारण तारण भव सारण, विघन विडारण वीर। नरक-निवारण जनम-सुधारण, सखरा स्वाम सधीर।। भीखू. १७ समता दमता खमता रमता, नमता जमता न्हाल। तमता भ्रमता वमता तन-मन, गमता वचन विशाल॥ भीक्खू. १८ आप औजागर गुण-मणि आगर, सागर स्वाम सुजांन। __वयण-सुधा वागर धर्म-जागर, नागर नाथ निध्यान॥ भीक्खू. १९ भरम-विहंडन दुरमति खंडन, महि-मंडन मुनिराज। कुमति-निकंदन मन आनंदन, पूज भवोदधि पाज।। भीक्खू. २० सुमति करण अघ-हरण स्वामजी, शिव-वधू वरण सनूर। भवदधि तरण करण सुख संपति, चरण धरण चित सूर।। भीक्खू. १.ज्ञान-सूर्य। २१० भिक्खु जश रसायण Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ परम धरम भज भरम करम तज, शरम नरम उभ साज। शिव-पद अचरम आप आराधण, रूड़ो भीक्खू ऋषराज॥ भीक्खू. २२ वर-वायक पद-लायक वारू, नायक नाथ निहाल। बोधि-पमायक धरम-वधायक, दायक स्वाम दयाल॥ भीक्खू. २३ ज्ञान-गंभीरा सखर सधीरा, 'षट-पीहरा तज खार। हिवड़े स्वाम अमोलक हीरा, तोड़ जंझीरा तार॥ भीक्खू. २४ जप-तप नी तरवारे झटकौ, पाखंड खटकौ पेल। समय सुलटको गुण नौं गटकौ, मटकौ मन को मेला भीक्खू. २५ ऐसा भीक्खू आप ओजागर, अवतरीया इण आर। स्वाम जिसा चौथे आरे पिण, विरला संत विचार॥ भीक्खू. २६ जन्म किल्यांण कंटाळ्ये जांणो, सरीयारी चरम किल्यांण। द्रव्य-दिख्या-महोछव वगड़ी मैं, जोड़े ए त्रिहुं जाण॥ भीक्खू. २७ स्वाम भीक्खू हिवडै संभरीया, हिय तन मन हुलसाय। सूक्ष्म बुद्धि करी सुविचार्या, विमल कमल विकसाय॥ भीक्खू. २८ भाद्र सुकल तेरस दिन भीक्खू, परभव कियौ पयांण। तिथि चवदस धरती धूजी अति, न्याय जाणै बुद्धिवान॥ भीक्खू. २९ तीन प्रकारे धरती धूजै, ठाणांगरे तीजै ठाण। भेद जूजूआ श्री जिन भाख्या, समजै सखर सयांण॥ भीक्खू. ३० घर में वर्स पचीस आसरै, आठ भेख मैं तास। पछै संजम ले परभव पौहता, चमालीसमै वास॥ भीक्खू. ३१ सर्व आउ सत्तर वरस आसरै, साध्यौ भीक्खू स्वाम। जीव घणां समजायवा रे, कीधौ उत्तम काम।। भीक्खू. ३२ साध-साध्वी स्वाम छतां, आसरै एक सौ चार। बोधि-दिशव्रत दीधौ बहु नै, सखरी रीत सुसार॥ भीक्खू. ३३ अड़तीसहंस आसरै कीधी, युक्ति न्याय सं जोड। मुरधर मेवाड़ ढूंढार हाड़ोती, विचस्या सिरमणि मोड़।। भीखू. ३४ राम नाम ज्यूं रटै स्वाम नैं, मुझ मन अधिक निहोर। हंसा मानसरोवर . हरखै, चित जिम चंद चकोर।। भीक्खू. १. छह प्रकार के जीवों के रक्षक। ३. स्थानांग, स्था. ३, सूत्र ४६४, ४६५। २. श्रृंखला। भिक्खु जश रसायण : ढा. ६३ २११ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ चात्रक मोर पपइया घन चित, गुरजी' ध्यान गगन्न। . राग-विलासी राग आलापै, मुझ भीक्खू मैं मन्न॥ भीख. ३६ पतिवरता समरै जिम पिउ नै, गोप्यां रै मन कांन। तंबोळी रा पान तणी पर, धरूं स्वाम नौ ध्यांन॥ भीक्खू. ३७ आसा-पूरण आप तणां गुण, कह्या कठा लग जाय। सागर जल गागर किम मावै, किम आकाश मिणाय? भीखू. ३८ श्री वीर तणे पट स्वाम सुधर्मा, भीक्खू पट भारीमाल। रायचंद ऋष तीजै पट, दाख्यौ आगूच दयाला भीक्खू. ३९ आप तणा गुण हूं किम विसरूं, आप तणौ आधार। समरण आप तणौ नित्य समरूं, आप दयाल उदार॥ भीक्खू. ४० नांम आपरौ घट-भिंतर मुझ, जपूं आपरौ जाप। तुझ नांमे दुख-दोहग दूरा, कटै पाप-संताप।। भीक्खू. ४१ मन वंछत मिलियै तुझ समरण, साध्या सेती सोय। भजन तुम्हारौ भय-भव-भंजन, हरष अनोपम होय॥ भीक्खू. ४२ मंत्राक्षर जिम समरण मोटौ, परख्यौ म्है तन-मन्न। इहभव परभव मैं हितकारी, भीक्खू तणो भजन्न॥ भीक्खू. ४३ नमो-नमो भीक्खू ऋष निरमळ, मोख तणा दातार। समरण स्वाम तणो सुद्ध साध्यां, सिव-सुख पांमै सार॥ भीक्खू.. ४४ हूंस घणा दिन सूं मुझ हुंती, आज फळी मन आस। ___ 'भीक्खू-जश-रसायण' नामे, ग्रंथ रच्यो सुविलास॥ भीक्खू. ४५ विस्तार रच्यौ भीक्खू मुनिवर नौं, सुणीयौ तिण अनुसार। भीक्खू दृष्टंत हेम लिखाया, देखी ते अधिकार॥ भीक्खू. ४६ वैणीरामजी हे म कृत वर, भीक्खू चिरत सुपेख। इत्यादिक अवलोकी अधिकौ, ग्रंथ रच्यौ सुविसेख॥ भीक्खू. ४७ अधिकौ ओछौ जे कोई आयौ, विरुद्ध आयौ हुवै कोय। सिद्ध अरिहंत देव री शाखे, मिच्छामि दुकडं मोय॥ भीक्खू. ४८ संवत् उगणीसे आठे, आसोज एकम सुदि सार। शुक्रवार ए जोड़ रची, बीदासर सैहर मझार॥ भीक्खू. १. कुरजी - क्रोंच पक्षिणी। २. श्रीकृष्ण २१२ ' भिक्खु जश रसायण Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काटण रै काम। तुम्हारौ नाम।। . भीक्खू. ४९ तेसठमी ढाळे स्वामी समर्या, कर्म कर जोड़ी ऋष जीत' कहै नित्य, लेउं . कलश १ मतिवंत संत महंत महामुनि, तंत गुण सधन गाया परम पाया, हद तज जंत्र-मंत्र सुतंत्र लौकिक, भज सुख-सद्म पद्म सुकरण 'जय-जश' नमो भीक्खू ऋष तणा। सुहाया हिय घणा।.. ए मंत्र मनोहरू। भीक्खू मुनिवरू।। ॥ इति भीक्खु जश रसायणे चतुर्थः खंडः॥... .. भिक्खु जश रसायण : ढा.६३ २१३ Page #261 --------------------------------------------------------------------------  Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. २ लघु भिक्खु जश रसायण जयाचार्य २१५ Page #263 --------------------------------------------------------------------------  Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ताय॥ १ वीर-पाट सौधर्म वर, जंबू प्रभव उदार। भट्ट सिझंभव 'मनक-पिय', जसोभद्र जयकार। २ जसोभद्र ना सीस बे, संभूतविजय सुजाण। भद्रबाहु मुनिवर भला, सोळ स्वपन कृत छाण॥ ३ स्थूलभद्र दृढ़-चित रह्या, चउदश पूरव धार। महागिरी सुहस्त फुन, 'गोत्र एलावच्छ सार। ४ सुद्ध परंपर महागिरी, नंदी नाम उदार। बहुल प्रमुख पट दूसगणी, अंत नामअवधार।। ५ संप्रति नै समझावीयौ, शिथिल थया . सुहस्त। कृतगढ़ अनेषणी प्रमुख, दोष विषै अभ्यस्त॥ ६ महागिरी समझावीयौ, तब बोल्या इम वाय। काळ आगामिक नै विषै, धर्म प्रवर्त्तस्यै ७ दुर्भिख मैं मुनिवर भणी, जन देस्यै अनपाण। आहार-पाणी तब तोड़ियौ, नशीत-चूरणे जाण॥ ८ सुहस्त पट सुस्थित हुआ, कोटिवार जे ताहि। सूर मंत्र जपवा थकी, कोटिक गच्छ कहिवाहि॥ ९ सुहस्त परपाटी थई, तेह असुद्ध जणाय। कल्पसूत्र मैं नाम तसु, वलि बहुश्रुत जाणै ताय।। १० आरंभी सुहस्त थी, सुस्थित सुप्रतिबुद्धाद। अनुक्रम श्रेणज नीकळी, नंदीवृत्ति संवाद।। ११ सुहस्त पाछा सुद्ध हुवा, सुध परिपाटी ते पिण जाणै केवली, वंदे नंदी १२ 'प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका', ग्रंथ कथा मैं सुहस्ति दंड ले सुद्ध थया, एह मिलती दीसै बात। आय। माय॥ ख्यात। बात। १.मनक के पिता २. बे बंधव अधिकार (मू.) ३. नंदी थेरावलिया-गा. २५ से ४१ तक। ४. क्रीतकृत/अनाचार का भेद। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. १ २१७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदी विषे, कल्पसूत्र पिण नाम तसु, विषै कथा, ते धुर परिपाटी असुध में, द्रव्यै सुद्ध बहुश्रुत विषै, दूसगणी १५ पछै सुद्ध दिख्या एहवो न्याय जणाय छै, स्थिरावली १६ नंदी अंत नाम ए आखीयो, पाछै १७ कल्प सूत्र मैं पिण कह्यौ, दूसगणी थया हुवै ए वज्र जिम, ते पिण १८ तथा वज्र पिण बे थया, दूसगणी ते पिण जांणै केवली, निश्चय १९ कल्पसूत्र मैं इम कह्यौ, दूसगणी स्थिरगुप्त जे, वच्छसगोत्रज २० कुमार - धर्म पर्छ, पछै पछै नांम नहीं आखीया, कल्प २१ कल्प विषै शाखा घणी, आखी चरणधार केइ सुद्ध हुवै, ते पिण जांणै क्षमाश्रमण थया १३ वज्रस्वाम १४ नंदीसूत्र पनरैसै ग्रही, १ वीर निर्वाण थकी रह्यौ, प्रवर एक संहस्र वर्सा लगै, सतक संवत भसमग्रह उतरयां ३ धूमकेतु बैठो २१८ ढाळ : १ ( प्रभवो मन में चिंतवै ) तास स्थिति वर्स तीन सौ, सुध असुद्ध तदा, वर पछै, लूंको तदा, दश ४ भस्मग्रह स्थिति वे सहंस वर्स नीं, 'उदै - उदै' पूजा निग्रंथ नी, १. भगवती शतक २० उ. ८ सूत्र ७० । न परिपाटी परंपर अनुसारे चरण परिपाटी वदै ऊपर ऊतरीयां कल्पसूत्र २. उत्तरोत्तर । कह्यौ देवड्ढ़ी विषै पिण छै पूर्व जान। नांम। जांणै केवली ताम पिण दोय। कोय ॥ खबर न पट नो जणाय । पट्ट॥ सुवट्ट | अभिधान ॥ त्यां केवली पट्ट । नो वीमें इकतीसे प्रगट्यौ वर्ष पहला फुन वट्ट ॥ ताय। ताहि । पाहि ॥ नाम। ताम॥ माहि । ताहि ॥ ज्ञान । जान ॥ वास। तास॥ दीस। तेतीस ॥ ताय। वाय ॥ भिक्खु जश रसायण Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषा ५ वंकचूलिया मैं कह्यौ, प्रभु सिव थी संपेख। बे सौ एकाणूं वर्सी लगै, विसुध परूपणा विसेख।। ६ ता पाछै उत्सूत्र नीं, परूपणा अधिकाय। वर्स सोलसौ ऊपरै, निनांण लग ताय॥ ७ तिहां दुष्ट वाणिया मानसै, हिंसा धर्म दिढ़ाय। बहु जन भणी कुपंथ मैं, न्हाखेसी इधकाय।। ८ बे सौ एकाणूं वर्स लगै, सुध परूपणा ख्यात। सोलेसै निनाणूं वर्स ए, असुध अधिक अवदात॥ ९ ए उगणीसै नेऊ थयां, संघ सूत्र जे रास। धेमकेतु तब बैसिस्यै, स्थिति तिण सय तेतीस वास॥ १० ए वर्स तेवीसो तेवीस जे, तठा पछै अधिकाय। उदय संघ नैं सूत्र तणो, वंकचूलिया मैं वाय॥ ११ वर्स तेवीसोतेवीस ए, किसा वर्स लग थाय। ___ तेह तणौ निर्णय कहूं, सांभळजो 'चित । ल्याय।। १२ च्यार सौ सत्तर वर्स लगै, नंदीवर्द्धन नो सोय। संवत बरत्यौ तठा पछै, वीर विक्रम नो जोय॥ १३ अठारै सय तेपनें थया, वर्स तेवीसो तेबीस । धूमकेतु जद ऊतस्यौ, संघ पूजा अति दीस। १४ द्वादश मुनि था तेपर्ने, स्वामभीक्खू रै सोय। तब हेम हुआ मुनि तेरमा, पछै न घटीयौ कोय॥ १५ बे सौ एकाणूं वर्षां लगै, सुध परूपणा किम न्याय। सहस्र वर्ष पूर्वधर रह्या, केइक' सुध देखाय। १६ विसंभोग सुहस्त थी, नसीत-चूरणे न्हाळ। उत्सूत्र तास परंपरा, पूरवधर तिण काळ॥ १७ छ सौ नव वर्सी पछैन, दिगंबर ____इम पूर्वज्ञानी थकां, विरुद्ध परूपण सेख॥ १८ इम बे सौ एकांणु लगै, अति उत्सूत्र न थाय। ___ पाछै उत्सूत्र तणी, परूपणा अधिकाय॥ मत देख। १. ते तौ (क)। २. थयां पाछै (क)। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. १ २१९ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्हा भीक्खू १९ सोलैसै निनाणु वर्स ते, अति उत्सूत्र कुहेतु। ए उगणीसै , नेऊं थयां, बैठौ ग्रह धूमकेतु।। २० पनरसै इकतीसै समैं, लूंको प्रगट्यौ न्हाल। भस्मग्रह तब ऊतस्यौ, धूमकेतु वय बाला २१ लूंका नां प्रतिबोधीया, सुध ववहार जणाय। धूमकेतु बळ बाधीयां, ते पिण ढीला थाय॥ २२ सतरै सै नवकै समै, ढूंढ्या निकल्या ताहि। संकड़ाइ माहै ते रह्या, समगत दीसै नांहि।। २३ समत अठारै सत्तरोत्तरे, पंचांग लेखै । जाण। ___वय वृध धूमकेतु थयां, प्रगट्या भांण।। २४ मंद बल धूमकेतु तदा, लूंकौ प्रगट्यौ ताम। ऊतरतै मंद बल तदा, प्रगट्या भिक्खू स्वाम। २५ तेर संत सूं नीकळ्या, धूमकेतु थो तिवार। तिण सूं तेपनां लग बहु, बध्यौ न संघ विस्तार। २६ अंत . तेपनें ऊतस्यौ, धूमकेतु · अपयोग। ___ता पाछै बाध्यौ बहु, च्यारूं संघ प्रयोग। २७ अठारै सै साठे समै, . एकवीस मुनि योग। अज्जा सतावीस मेलने, पोहता भीख परलोग।। २८ समत अठारै अठंतरे, संत पैंतीस सुचाला ____ अज्जा इकताळीस मेलनै, परभव भारीमाल॥ २९ उगणीसै आठै समै, सतसठ मुनिराय। इकसौ चमालीस अज्जा मेलनै, परभव मैं ऋषराय। ३० भीक्खू नै वरतारे थया, संत सती सुखकार।। एकसौ च्यार रै आसरै, दिख्या दीधी। सार॥ ३१ मुनि अज्जा बयासी थया, भारीमाल छतां सार। थया बे सौ पैताळीस आसरे, रायऋषी छतां । सार॥ ३२ इम दिन-दिन दीसै दीपतौ, च्यार तीर्थ वृद्धिकार। वंकचूलिया री वारता, मिलती दीसै उदार।। ३३ प्रथम ढाळ मैं पीठका, धुर सूं बात प्रकासी। सुध श्रद्धा आचार सूं, 'जय-जश' आनन्द थासी॥ । २२० भिक्खु जश रसायण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ हिव उत्पति भीक्खू तणी, संक्षेपे कहियै अछै, दूहा १ भिक्खू प्रगट्या अतिसय-धारी २ किण स्थानक मुनि जनमीया, सुध श्रद्धा आई किहां, ३ किम चरचा द्रव्य-गुरु थकी, किम बहुजन प्रतिबोधीया, च्यार ४ लिखत मर्यादा किम करी, संलेखणा किण विध संथारौ कीयौ, सहु धुर सांभळजो सहु द्रव्य-दिख्या किण ढाळ : २ (कीड़ी चाली सासरे रे ) भरत मैं रे, मणिधारी ओपता रे, जबर सुगण जन सांभळौ रे || २ दान-दयादिक श्रीजिन आज्ञा सिर धरी रे, ३ सावज्ज - निरवद सोधीया रे, भाग्यबली भिक्खू भला रे, ४ समत सतरै बयांसीयें' रे, सींह सुपने सुत जनमीयौ रे, ५ रमणी एक परण्यां तिहां रे, शील आदरयौ बिहुं जणां रे, ६ अनुमत माता ना दियै रे, द्रव्य गुरु कहै ए गूंजसी, ७ समत् अठारै आठै समै रे, दिख्या- मोहछब दीपता रे, १. विक्रम संवत् १७८३ । लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. २ सूत्र थकी आहार ऊपरै रे, दिया सेती दीपायौ ऊंडी तोड्यौ किण तीर्थ संक्षेप दिशा वारू जश शहर आसाढ़ किम प्रभु अभिराम विविध बुद्धि अवलोय। कोय ॥ ठांम। पंथ ॥ विख्यात ॥ || ग्राम। गुणधाम ॥ अंत। कहंत॥ मुनिराय । अधिकाय । कंटाळ्ये सुध अधिकार || कितै दृष्टंत सुगण. उत्पात। सुगण. सार। सुगण. सुविचार | काळ दिख्या सुगण. सुपने सीह । री दिलधार । देख्यौ 'मृगपति जेम अबीह' ।। सुगण. द्रव्य - गुरु धार्या बगड़ी शहर विख्यात ।। सुगण. रुघनाथ । २. सिंह की तरह निर्भय । २२१ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाण। ८ बहु सिद्धांत वांची करी रे, जाण लियौ तिण वार। थाप बहु दोषां तणी रे, पिण द्रव्य-गुरु सूं अति प्यार। सुगण. ९ पूछ्यां सुद्ध उत्तर नहीं रे, इह अवसर रै माय। बात सुणी रुघनाथजी, कहै भीक्खू नै बोलाय।। सुगण. १० श्रावक राजनगर तणां रे, वंदणा छोड़ी ताहि। थे जइ संका मेट दो रे, बुधिवंत विण मिटै नांहि॥ सुगण. ११ सुण भिक्खू आया तिहां रे, भारीमालजी टोकरजी हरनाथजी, वलि साथे वीरभांण। सुगण. १२ श्रावक. कहै भिक्खू भणी रे, आधाकर्मी आद। थाप दोष री थाहरै रे, म्हे किम सरधां साध? सुगण. १३ द्रव्य-गुरु रौ वच राखवा रे, निज बुद्धि करनै ताय। ___पगां लगाया तेहनैं रे, वलि श्रावक कहै वाय॥ सुगण. १४ संका तौ मुज नां मिटी रे, पिण थांरी परतीत। तिण कारण वंदना करां रे, आप वैरागी वदीत॥ सुगण. १५ इह अवसर भिक्खू तणे रे, तनु मैं प्रगट्यौ ताप। सीयो दुस्सह अति घणौ रे, तब मन चिंते आप। सुगण. १६ म्हे साचां नै झूठा किया रे, प्रत्यक्ष मोटौ पाप। आउ आवै इण अवसरै रे, तौ कुण गति हुवै मिलाप? सुगण. १७ द्रव्य-गुरु काम आवै कदी रे, मिटीयां वेदन मोय। सुध-मारग धारूं सही रे, कांण न राखू कोय॥ सुगण. १८ अभिग्रह एहवौ आदस्यौ रे, तुरत मिट्यौ तब ताव। ___ वार-वार सूत्र वांचीया रे, सखरौ जाण्यौ साव॥ सुगण. १९ सुध हाथे नाई श्रधा रे, असल नहीं आचार। वर-जिन वचन विलोकतां रे, भूला ए भेषधार॥ सुगण. २० ताम श्रावकां नै तदा रे, बोल्या भीक्खू वाय। थे साचा, सुद्ध थाप थी रे, म्हे झूठा छां ताय।। सुगण. - ३. एकदम अच्छी तरह। १. शीत लगकर आने वाला ज्वर। २. बुखार। २२२ भिक्खु जश रसायण Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ सुण श्रावक हरख्या सही रे, आप तणी परतीत। __ जिसी हुंती ते तुरत ही रे, आप दिखाड़ी सुरीत॥ सुगण. २२ इम संवत अठार पनरोत्तरे रे, राजनगर मैं रंग। सूत्र वांच निर्णय कियौ रे, सखरी रीत सुचंग॥ सुगण. २३ हिव चउमासौ ऊतस्यां रे, मरुधर देश मझार। सोजत मैं आवी मिल्या रे, द्रव्य-गुरु सूं तिण वार।। सुगण. २४ द्रव्य-गुरु नै इह विध कहै रे, भूला मारग सार। सुध-सरधा आई नहीं रे, असल नहीं आचार॥ सुगण. २५ सावज करणी पाप री रे, निरवद पुन री होय। पिण एकण करणी मझै रे, पुन्य-पाप नहिं दोय॥ सुगण. २६ असंजती नै दान दै रे, जिन कह्यौ एकंत पाप। ___ 'शतक आठमें भगवती," स्थिर चित सेती थाप॥ सुगण. २७ असंजती रौ जीवणौ रे, वंछ्यां सावज जोग। सावज अनुकंपा कही रे, देखो दे उपयोग। सुगण. २८ आधाकर्मी भोगवां रे, थानक नित-पिंड आहार। मोल लीया वस्त्रादि जे रे, अहोनिश जड़ो कवाड़॥ सुगण. २९ इत्यादिक बहु वारता रे, दाखी विविध प्रकार। द्रव्य-गुरु सुण मांनी नहीं रे, क्रोध चढ्या तिण वार॥ सुगण. ३० जद भिक्खू मन चिंतवै रे, करिवौ कवण प्रकार? हिवड़ा न दीसै समझता रे, समजाविस धर प्यार॥ सुगण. ३१ दोय वर्स के आसरै रे, किया अनेक उपाय। __केतलायक नै समझायवा रे, द्रव्य-गुरु नै पिण ताय॥ सुगण. ३२ वले बगड़ी माहे आवीया रे, बोल्या भिक्खू वाय। सुध सरधा आचार नै रे, धारौ आंण उछाह।। सुगण. ३३ तब द्रव्य-गुरु मांनी नहीं. रे, मन मैं कियौ विचार। ए तो न दीसै समजता रे, हिवै करूं आतम नौं उद्धार। सुगण. ३४ इम मन पक्की धारनै रे, भिक्खू बुद्धि भंडार। ____ तड़के तोड़ी नीकळ्या रे, आया स्थानक रै बार॥ सुगण. १. भगवती शतक ८ उ. ६सू. २४७। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. २ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ सेवग पुर मैं फिर गयो रे, बोल्यौ एहवी वाण। जागां दीधी भीख भणी रे, तो संघ तणी छै आंण॥ सुगण. ३६ करली कुबुधिज केलवी रे, सेज्या' न मिल्यां सोय। आफेई२ आसी उरहा रे, थानक मैं अवलोय॥ सुगण. ३७ पुर मैं जागां नां मिली रे, भिक्खू कीयो विहार। बगड़ी बाहिर आवीया रे, वाउल वाजी तिवार।। सुगण. ३८ जैतसिंहजी री जिहां रे, छतरी अधिक उदार। आवीनै बैठा तिहां रे, सुणीयो शहर मझार।। सुगण. ३९ दूजी ढाळ प्रगट पण रे, स्वाम तणी . सुखदाय। वारूं वतका' सांभळ्या रे, 'जय-जश' हरष सवाय॥ सुगण. १.स्थान १.स्थाना २.स्वतः। ३. वापस। ४. तेज हवा (आंधी)। ५. बात। . हवा (आंधी)। २२४ भिक्खु जश रसायण Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ द्रव्य-गुरु सांभलीयौ तदा, लोक बहू ले लार। आया छत्र्यां नै विषै, भिक्खू कनै तिवार॥ २ द्रव्य गुरु नै भिक्खू तिहां, बैठा छत्र्यां माय। माहोमा बातां करै, ते सुणजो चित ल्याय॥ . ढाळ : ३ (हां रा मेवासी नान्ही सी नणदोळी रा) १ हां रे भिक्खू म्है दीधी तुज दिख्या रा २, धर मुज सिख्या रा २॥ . सुण वारु जी।। २ हारे भीखन!द्रव्य गुरु बोल्या ताह्यौ रा २, सुण मुज वायो रा २॥ सुण. ३ हारे भीखन! ओ दुखमपंचम आरोरा २, अधिक असारो रा २॥ सुण. ४ हारे भीखन! थारे दिढ़ संजम सूं पेमो रा २, निभेलो केमौ रा २॥ सुण. (डाभ मुंजादिक नी डोरी) ५ तब भिक्खू बोल्या ताह्यौ, म्हे किम मानां तुज वायौ। सूत्र वाचेनै कीधौ निरणौ, लेसां जिन-वचनां नो सरणौ।। ६ सूत्र रूप तीर्थ ए जाचौ, रैहसी छेहड़ा ताई साचौ। सुध पाळसां संजम भार, करस्यां आतम तणो उद्धार।। ७ द्रव्य-गुरु सुण वचन उदार, तब तूटी आस तिवार। मोह आयौ तिणवार, मन चिंता हुई अपार।। ८ उदैभाण' बोल्यौ तब एम- इम आंसूपच करौ केम? बाजौ टोळा तणा धणी आप, राखौ थिर चित दृढ़ मन थाप।। ९ कहै-किण रो जावै एक, म्हारा जावै पांच विसेख। औ तौ प्रत्यक्ष ही इह वार, गण माहै प. बघार ।। १० भिक्खू दृढ़ चित कियौ उदार, म्हैं घर छोड्यौ तिणवार। मुज माता रोई अपार, तौ पिण न मान्यौ तिवार।। १. स्थानकवासी सामदासजी के टोले के २. अश्रुपात। साधु। ३. मोटे छिद्र। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ३ २२५ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जो हुं रहुं भागला माय, इम दृढ़ चित ज्ञान विचार, १२ द्वेष सूं तौ तुरत डिगै नांय, द्रव्य - गुरु मोह आण्यौ ताय, १४ हां रे भीखन ! तू जासी कितीयक दूरो रा २, १५ हां रे भीखन ! आगै थारौ नै पूठौ म्हारो रा २, दूहा १. खिन्न। तौ आप मोह - राग थकी चल जाय। पिण कारी न लागी काय ॥ डिगीयो १३ वलि द्रव्य - गुरु मन चिंतवै, इम तौ वलि चलावा कारणे, बोल्या इह विध (हां रा मेवासी नान्ही ) २२६ परभव मैं दुख सैंठा (डाभ मुंजादिक नीं डोरी ) १६ जद भिक्खू बोल्या वाय, इम तौ डरायौ न डरूं कोय, कितौ १७ पछै छत्र्यां सूं कियौ विहार, चरचा कीधी है वरलू माय, १८ तब द्रव्य - गुरु बोल्या ताय, साधुपणौ पळै नहीं १९ तब भीक्खू कहै इम ढीला भागल कहेसी एम २० बल संघयणादिक हीण, पूरौ, वाय, न पळै आचार सुध भाव, नहीं उत्सर्ग नो २१ कह्यौ आगूंच अर्थ उदार, इम कहसी ते द्रव्य - गुरु हुवा कष्ट' अपार, सुध २२ द्रव्य - गुरु भीक्खू रै इहां संक्षेप मात्रज आखी, वलि ताहि, बहु रह्या हूं लोक लगासूं पूरो रा २॥ सुण. रहिसूं लारो रा २॥ सुण. हुआ ते पाय। तिणवार ॥ परिषह खमवा री मन नाय । (हां रा मेवासी नान्ही सी ) वाय॥ काळ जीवणौ रुघनाथजी सांभळजो चित्त ल्याय ॥ लार। सांभळ भीखन ! मुज वाय। ए दुषम काळ करूरो॥ कह्यौ सूत्र आचारांग माय। हिवड़ां न पळै चरण सुध नेम || दुषमकाळ महा क्षीण ॥ माय। मोय? प्रस्ताव ॥ भेषधार । तिवार॥ जाब न आयौ चरचा हुई माहो द्रव्य - गुरु इह विधि भाखी ॥ . माहि । भिक्खु जश रसायण Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ हां रे भीखन! चारित्र निरतीचारो रा २, दुक्करकारो रा २॥ सुण. २४ हां रे भीखन! जो दोय घड़ी निरदोखो रा २, चारित्र पाळे चौखौ रा २॥ सुण. . २५ हां रे भीखन! इम सुध तन-मन सूं भावै रा २, तौ केवल पावै रा २॥ सुण. (डांभ मुंजादिक नीं डोरी) २६ हां इम बोल्या है बिना विचार, भीक्खू सांभळ नै तिणवार॥ पाछौ उत्तर देवै एम, तुम्हें सांभळजो धर प्रेम।। (पूज मोटा भांगै टोटा) २७ इम सुन वचन झट सुघट सुध वच, प्रगट भिक्खू उच्चरै। घटिका जु बेसुध चरण निरमळ, अमल करि केवळ वरै।। २८ 'बे घड़ि तलक'' वक्क काय नासा, रूंध समभावे रहूं। थिर चित्त अधिक पवित्त अति, हित चित थी केवळ लहूं। २९ सौधर्म जंबू मुनि रह्या, छद्मस्थ बहु वर्से सही। सुध निरतीचारज बे घड़ी, त्यां चरण पाळ्यौ कै नहीं? ३० तसु पट्ट प्रभव सिजंभवादिक, पूर्व ज्ञानज पावही। तुज लेख सुद्ध चरित्त, त्यां पिण बे घड़ी पाल्यौ नहीं॥ ३१ मुनि तेर सहसज तीन सय, फुन रह्या जे छद्मस्थ ही। तुज लेख सुद्ध चरित्त त्यां पिण, बे घड़ी पाळ्यौ नहीं॥ . ३२ मुनि गोतमादिक सप्तसय, छद्मस्थ जे बहुकाळ ही। तुज लेख सुद्ध चरित्त, त्यां पिण बे घड़ी पाळ्यौ नहीं॥ ३३ फुन वर्ष द्वादस तेर पख, महावीर प्रभु छद्मस्थ ही। तुज लेख सुद्ध चरित्त, त्यां पिण, बे घड़ी पाळ्यौ नहीं॥ __ सोरठा ३४ ए चर्म सरीरी जेह रे, केवळ उत्पत्ति काळ थी। ____ बहु पूर्व काळेह रे, स्यूं दोय घड़ी पाल्यौ नथी॥ दूहा ३५ इत्यादिक हुई घणी, चरचा माहोमाय। . समजाया समजै नहीं, कीया अनेक उपाय॥ (हां रा मेवासी नान्ही सी) . लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ३ २२७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हां रे सुगणजन! वरलूं तूं कियौ विहारो रार, भीक्खू सारो रा २। जशधारी जी॥ ३७ हां रे सुगणजन! बुद्ध भीक्खू नी भारी रा २, अधिक उदारी रा २॥ जश. ३८ हां रे सुगणजन! भीक्खू चिंतव्यो मन माही रा २, ए तो समज्या नाहीं रा २॥ जश. ३९ हां रे सुगणजन! निज काका गुरु तामो रा २, जैमलजी नामो रा २॥ जश. ४० हारे सुगणजन! समजाऊं सधीको रा २, ते सरल भद्रीको रा २॥ जश. ४१ हां रे सुगणजन! इम चिंतव मन माही रा २, आया चलाई रा २॥ जश. . ४२ हां रे सुगणजन! जैमलजी रे उदारी रा २, श्रद्धा बेसारी रा २॥ जश. ४३ हां रे सुगणजन! तक्षिण भिक्खूरै लारी रा २, ते पिण हुआ त्यारी रा २॥ जश. ४४ हां रे सुगणजन! द्रव्य गुरु सुण नै तामो रा २, भांग्या परिणामौ रा २॥ जश. ४५ हां रे सुगणजन! बुद्धिवंत तुज गण माह्यौ रा २, त्यांनै लेसी ताह्यौ रा २॥ जश. ४६ हां रे सुगणजन! बीजा नै न लेवै लारो रा २, हुसी निराधारो रा २॥ जश. ४७ हां रे सुगणजन! इम ए दुखिया होसी रा २, थानै सहु रोसी रा २॥ जश. ४८ हां रे सुगणजन! थोरे बहु परिवारो,रा २, मतीय' विचारो रो २॥ जश. ४९ हांरे सुगणजन! थे छो घणा रा नाथो रा २, म विचारौ वातो रा २॥ जश. ५० हारे सुगणजन! तुज मुनि जोग सूं तामो रा २, भिक्खू रो होसी नामो रा २॥ जश. ५१ हारे सुगणजन! टोळी भिक्खू रो वाजेसी रा २, थारो नाम न रैसी रा २॥ जश. ५२ हारे सुगणजन! फकीर वालो दुपटौ होई रा २, ए दृष्टांत · जोई रा २॥ जश. ५३ हां रे सुगणजन! इत्यादिक वच करि तामो रा २, भांग्या परिणामौ रा २॥ जश. ५४ हां रे सुगणजन! बोल्या जैमलजी बायो रा २, सुणौ भिक्खू ताह्यौ रा २॥ जश. ५५ हां रे सुगणजन! गला जितो हूं कळियौ रा २, न कहूं वच अलियो रा २॥ जश. ५६ हां रे सुगणजन! थे संजम सुध पालौ रा २, आतम उजवालौ रा २॥ जश. ५७ हारे सुगणजन!पिंडतां रै अवलोयो रा २, जाण वरते सोयो रा २॥ जश. ५८ हारे सुगणजन !जैमलजी रा उदारो रा २, षट अणगारो रा २॥ जश. ५९ हां रे सुगणजन! मन माहि गाढी धारौ रा २, हुआ भिक्खू लारो रा २॥ जश. ६० हां रे सुगणजन! जैमलजी रा षट संचो रा २, द्रव्य-गुरू रा पंचो रा २॥ जश. ६१ हां रे सुगणजन! अन्य गण ना बे धारी रा २, तेरै थया त्यारी रा २॥ जश. १. मति से। ३. अयथार्थ। २. फंसा हुआ। २२८ भिक्खु जश रसायण Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थया श्रावक तेरो रा २॥ जश. क्यूं बैठा बाजारो रा २ ॥ जश. सिंघी पिछाणो रा २॥ जश. क्यूं बैठा बाजारो रा २||? जश. पोसा क्यूं नी कीधा रा २॥ जश. मुज गुरु सारो रा २॥ जश. भिक्खू गुण दरिया रा २ || जश. उत्पत्ति पूछै रा २॥ जश. बहु बातो रा २॥ जश. स्थिर चित्त थुणजो रा २ ॥ स्थिरता अबारूं रा २॥ जश. आचार बतायौ रा २॥ जश. जश. विवादौ रा २॥ जश. छै ६२ हां रे सुगणजन ! शहर जोधांणै समेरो रा २, ६३ हां रे सुगणजन ! सामायक पोसह धारो रा २, ६४ हां रे सुगणजन ! फतैचंद दीवाणौ रा २, ६५ हां रे सुगणजन ! देखी पूछै तिवारो रा २, ६६ हां रे सुगणजन ! थानक माहै सीधा रा २, ६७ हां रे सुगणजन ! श्रावक कहै तिवारो रा २, ६८ हां रे सुगणजन ! तज थानक नींसरिया रा २, ६९ हां रे सुगणजन ! ताम दीवाणजी इच्छै रा २, ७० हां रे सुगणजन ! श्रावक बोल्या साख्यातो रा २, ७१ हां रे सुगणजन ! थिरता है जद सुणजो रा २, ७२ हां रे सुगणजन ! कहै दीवान उदारू रा २, ७३ हां रे सुगणजन ! श्रावक तांम कहै सुणायौ रा २, ७४ हां रे सुगणजन ! आधाकर्मी आदौरा २, ७५ हां रे सुगणजन ! कृतगढ़ नै नितपिंडो रा २, ७६ हां रे सुगणजन ! इत्यादिक आचारौ रा २, ७७ हां रे सुगणजन ! सांभळ सिंघी हरख्यौरा २, ७८ हां रे सुगणजन ! ओहीज मुनि नो आचारौ रा २, ७९ हां रे सुगणजन ! करै प्रसंस सवायोरा २, ८० हां रे सुगणजन ! संत किताक सुमेरो ? रा २, ८१ हां रे सुगणजन ! किता श्रावक थे सारो ? रा २, ८२ हां रे सुगणजन ! म्हे भीखु ऋषि केरा रा २, ८३ हां रे सुगणजन ! सिंघी बोल्यौ तिवारी रा २, ८४ हां रे सुगणजन ! सेवग उभो ज्यांही रा २, तजिया दोषण आख्यौ छंडोरा २॥ जश. उदारौ रा २॥ जश. भीक्खु गुण परख्यौ रा २॥ जश. मग सारो रा २ ॥ जश. हरखायो रा २॥ जश. २॥ जश. सुध मन श्रावक कहै तेरो रा अधिक उदारो रा दूहा साध साधरो गिलो करै, ते सुणजो रे शहर रा लोकां, ए तेरा रा २॥ जश. श्रावक जोग मिल्यौ ए भारी रा २॥ जश. तुको जोड्यौ त्यांही रा २॥ जश. २ ॥ (हां रा मेवासी नान्ही सी नणदोळी रा ) ८५ हां रे सुगणजन ! तेरै श्रावक तेरै संतो रा २, तेरापंथी तंतो रा लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ३ 1 आप आपरो तेरापंथी जंश. २॥ मंत। तंत॥ जश. २२९ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ हां रे सुगपजन! जग विसतारियो तामो र २, तेरापंथी नामो रा २॥ जश. ८७ हा रे सुगज्जन! ताम भिक्खू इम केहवै २, समचित वेवै रा २॥ जश. ८ हां रे सुगणजन! हे प्रभुजी म्है तेरा रा २, अवर अनेरा रा २॥ जश. ८९ हा रे सुगपजन! सुमत गुप्त अठ संचो र २, पाळे व्रत पंचो रा २॥ जश. ९० ा रे सुगपजन! ए तैरै पाऊँ चित संती र २, सो ही तेरापंथी' रा २॥ जश. ९१ हां रे सुगपजन! ढाळ तीजी ए धीय २, जय-जश कीधी रा २॥ जश. भीक्खू कृत छप्पय १. गुण विण भेष कू मूल न मांनत, पुन्य पाप कू भिन-भिन जानत, आवता कर्मा नै संवर रोकत, बंध तो जीव कू बंधिया राखत, इसी घट प्रकाश किया, निर्मळ ज्ञान उद्योत किया, जीव-अजीव का किया निवेरा। आसव कर्मा कू लेत उरेरा। निर्जरा कमां कू देत विखेरा। सासता सुख तौ मोख में डेरा। भव जीव का मेट्या मिथ्यात अंधेरा। ऐ तो है पंथ प्रभु तेरा ही तेरा। २ तीन सौ तेसठ पाखंड जगत मैं, श्री जिन धर्म सूं सर्व अनेरा। : द्रव्यलिंगी केई साध कहावत, त्यां पिण पकड्या त्यांराइज केड़ा। ताहि कू दूर तजै ते संत, विधि सूं उपदेश दिया रूड़ेरा। जिन आगम जोय प्रमाण किया जब पाखंड पंथ मैं पड़िया बिखेरा। व्रत अव्रत दान दया वतावत, सावज निरवद करत निवेरा। श्री जिन आगन्या माहै धर्म बतावत, ऐ तो है पंथ प्रभु तेरा ही तेरा।। २३० भिक्खु जश रसायण Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा कल्याण॥ १ भीक्खू भारीमालजी, आदि संत सुविचार। नवो चरण लेवा भणी, ततखिण होय गया त्यार॥ २ समत् अठार सतरोत्तरे, पंचांग लेखे पिछांण। आषाढ़ सुदि पूनम दिने, वारु चरण ३ अरिहंत नी लेई आगन्यां, शहर केलवा माय। संजम धारयौ स्वामजी, सिद्ध शाखे सुखदाय॥ ढाळ : ४ . (सुण चिरताली थारा लीजै चरित संभाली) १ थिरपालजी फतैचन्दो, दोनूं बाप-बेटा सुखकंदो। जैमलजी रा टोळा रा जाणी, भिक्षु साथ चरण गुणखाणी। सुण सुखकारी,भिक्षु प्रतिबोध्या बहु नर-नारी। सुण सुखकारी, भिक्षु थया ओजागर भारी॥ २ आचार्य भिक्षु ऋषिरायो, वले टोकरजी सुखदायो। ____ हरनाथजी ज्ञान गंभीरा, हद भारीमाल गुण हीरा॥ सुण. ३ संत तेरा मैं ताह्यौ, रह्या दृढ़ चित्त छहुं मुनिरायो। शेष सात नीसरिया, ते पिण बादल जिम बीखरीया।। सुण. ४ भिक्खू दान-दया दीपावै, बहु नर-नारी समजावै। व्रत-अव्रत लेखौ बतावै, हळुकर्मी सुण हरसावै॥ सुण. ५ मुरधर देश मझारो, स्वामी आछौ करै उपगारो। आया देश मेवाड़ो, बहु प्रतिबोध्या नर-नारो॥ सुण. ६ सरधा नै आचारो, व्रत-अव्रत ऊपर विचारो। वली अणुकंपा नी सुरंगी, स्वामी जोड़ करी अति चंगी॥ सुण. ७ धुर गुणठाणा नी करणी, निरवद आज्ञा मैं उचरणी। जिन आज्ञा ऊपर जाणी, स्वामी जोड़ां करी सुखदाणी॥ सुण. ८ च्यार निखेपा नी जाची, पोतियाबंध ऊपर आछी। काळवादी ऊपर सीधी, सूत्र साख देइ जोड़ां कीधी॥ सुण. लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ४ २३१ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ पर्यायवादी पिछाणौ, वले इन्द्रियवादी जाणौ। वले एकल नै ओळखायौ, बहु जोड़ां करी मुनिरायौ। सुण. १० वले टोकम डोसी कहिवाई, तिण री श्रद्धा नै ओळखाई। नव-तत्त्व नी जोड़ सुरंगी, चारु सूत्र साख दे चंगी। सुण. ११ वले विनीत नै अविनीतो, तिण ऊपर जोड़ पवित्तो। टाळोकर नै ओळखायौ, 'वृध रास" माहे बहु न्यायो॥ सुण. १२ वले जोड्या सखर बखाणों, वारू वैराग-रस गुण-खांणों। आसरै अड़तीस हजारो, स्वामी ग्रंथ' जोड्या सुखकारो॥ सुण. १३ सूत्रां नी हूंडी सीधी, वले पोत्याबंध ऊपर कीधी। अवर ही बोल अनेको, वले मेल्या न्याय विशेखो। सुण. १४ उत्पतिया बुध सूं उदारी, स्वामी दृष्टांत दीधा भारी। हळुकर्मी सुण हरषावै, चित चिमतकार अति पावै।। सुण. १५ वले संत-सती बहु कीधा, घणा श्रावक-श्राविका सीधा। विचरया मुरधर नै मेवाड़ो, वले हाडोती देश ढूंढाड़ो। सुण. १६ चूरू ताई थली मैं आया, प्रयोजने ऋषिराया। बहु विचस्या मरुधर मेवाड़ो, दोय चोमासा देश ढूंढाड़ो।। सुण. १७ ओजागर भिक्षु आपो, स्थिर च्यार तीर्थ मैं स्थापो। पूर्वधारी जेहवा, ए तो स्वाम भीखणजी एहवा।। सुण. १८ दशविध जती-धर्म-धारी, ज्यांरी करणी री बलिहारी। परभव चिंता पूरी, ज्यांरी कीर्ति जग मैं रूड़ी॥ सुण. १९ क्षमावंत गुणखांणो, स्वामी अधिक अवसर ना जांणो। सिंह तणी पर सूरा, झट मेलै न्यायज रूड़ा॥ सुण. २० वलै वैराग रस माहै भीना, संवेग करी लहलीना। ____ नाम सुणी पाखंडी धड़कै, जन हळुकर्मी सुण हरखै॥ सुण. २१ सील सिरोमणी साचा, जशधारी भिक्षु जाचा। दयावंत इन्द्रयां दमता, सतरे दत्त निकंचन रमता॥ सुण. २२ एहवा भिक्षु ऋषिरायो, त्यांरा गुण पूरा कह्या न जायो। संक्षेप मात्र · बताया, गुण अनघ अथग अधिकाया।। सुण. १.अवनीत रास। ४. अचौर्य। २. ग्रन्थान। ५. अपरिग्रह। ६.निर्मल। ३. सत्य। २३२ भिक्खु जश रसायण Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ वलि धुर बांधी बहु मर्यादो, बत्ती २४ गणपति दिख्या देनै सूंपणा आणौ, २५ शेखे काळ चौमासो, १. स्वीकार । आतो धारी, अंत गुणसठे लिखत . किण ही खेत्र रे माहि, २६ आचार्य नीं इच्छा सूंपै टोळा रौ २७ सहु संत-संत्या नै जन सुखकारी, वर बांधी मर्यादा भारी || नां दिख्या, करणा शिष्य - शिष्यणी वर शिख्या । लिखतं गुणसठै भिक्खु नीं वाणौ ॥ जन. रहिवौ गणपति आण हुलासौ । गणि आणा विण रहिवौ नाहि । जन. गुरुभाई चेला नै स्वभावै । तिणरी आणा मैं रहिवौ तिवारो ।। जन." रहिणौ एकण री आणा माह्यौ । मार्ग चालै जठा तांई सांधी ॥ जन. गण सूं नीकळ करै विवादौ । न गिणवौ च्यार तीर्थ रे माहि ॥ जन. निंदक जाणव जेही । ते पिण जिण आज्ञा बारै होई || जन. तिणनें साधु नं सरधणो सोई । आरै' कीधौ दीसै अनंत संसारो ॥ जन. तिण नैं टोळा तणा तिण बारो । अवगुण बोलण रा पचखांणौ ॥ जन. तसुं हळुकर्मी न मानें सोई । ते लेखा माहि न गिणायौ ॥ जन. बोलण रा पचखाणौ । अवगुण तौ पिण अवगुण बोलण रा त्यागो ॥ जन. आगला सूंसां रौ नहीं अटकावौ । लिखत पचासै भिक्षु वाणो ॥ जन. तिके बाहिर ले जावणा नांही। खेत्रां मैं रहिवा रा पचखाणो ॥ जन. . ताह्यौ, रीत परंपर बांधी, एह २८ कर्म- जोग इक बे त्रिण आदौ, तिण नैं साधु सरधवौ नांहि, २९ च्यार तीर्थ रौ तेही, वांदे पूजै एहवा नै कोई, ३० नीकळ नवी दिख्या ले कोई, तिण री बात न मांनणी लिगाये, ३१ कर्म-जोगे नीकळीयां बारो, हुंता - अणहुंता जाण, ३२ विटळ होई भांगै सूंस कोई, उण सरीखो विटळ मानै वायो, ३३ इम ही पचासे जाणौ, नीकळ नवी दिख्या ले कुमागो, ३४ म्है नवी दिख्या लीधी समभावौ, यूं पिण बोलण रा पचखाणो, ३५ पत्र लिख्या जाच्या गण माही, इक निशि उपरंत जाणो, है आवै, भारौ, लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ४ आंणी अति अहलादो । उदारी | २. पथ भ्रष्ट । २३३ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ लिखत पैंताळीसे अमोलो, श्रद्धा-आचार-कल्प सूत्र बोलो। गुरु तथा बुद्धिवंत संतो, कहे जिम करणो धर खंतो॥ जन. ३७ पचासे गुणसठे जाणौ, वले सैंतीसे रास मैं वाणो। दोष देखे तो तुरत कहिणौ, घणा दिवस दाबै नहीं रहिणौ। जन. ३८ आचार्य री आज्ञा विण ताह्यौ, एक निशि उपरंत गाम माह्यौ। ____ मुनि-अज्जा नै भेळो न रैणौ, पचास लिखत माहि ए वेणौ। जन. ३९ आहार-पाणी बहिरीनै ल्यायौ, संभोगी नै बांटी देणौ ताह्यौ। • आप आण्यौ जाणी अधिक लेवै, अदत्त लागै प्रतीत न रैवै॥ जन. ४० दैणी दिख्या महाजन नै ताह्यौ, स्वामी छेहरे वचन फुरमायौ। पिण पाना मैं लिखीयौ नाही, सुवनीत धस्यौ दिल माही।। जन. ४१ इत्यादिक मर्यादौ, स्वामी बांधी घर अह लादौ। बहु वर्षा लग तांमौ, स्वामी सासण चलावण कामौ।। जन. ४२ चोथी ढाळ मझारौ, भिक्षु वर्णन अधिक उदारौ। सुख पायौ तास पसायौ, गणि 'जय-जश' हरष सवायौ। जन. १.धैर्य। २३४ भिक्खु जश रसायण Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सतरा सूं साठा लगै, अधिक जीव घणा समजावीया, सखरा २ भीक्खू रा मुख आगलै, भारीमाल अष्टादश बत्तीस मैं, थाप्यौ ३ चित अनुकूल मुनि चालता, प्रकृति गर्व-रहित गिरवा गुणी, विनयवान सा वचन, वारु ४ घन गर्जारव आगलै, गोतम वीर तणा मुख ५ ग्रंथ हजारां तास मुख", अधिक अतिसयधारी ओपता, स्थिरपद थकी, अंत मनै, भामाल ग्रही, खेतसीजी क्षमावंत चित, उपगारी चतुर, वैणीरांम सही, ज्ञान-ध्यान ६ परम प्रीत भीक्खू सेव करी साचै ७ अड़तीस दिख्या भक्तिवंत भारी घणा, ८ चरचावादी विमल चरण चाळीस ९ घर संवेग तणुं उत्पतिया अति चरण चित, वृद्धि लीयौ, भिक्खू १० सतावने संजम पट - लायक परख्यौ ११ अधिक गुणी ए आदि दे, अज्जा १२ अष्टवीस छपन मुनि गण मा १३ बीस रह्या गाढ़ा रह्या, गण वारणै, रूपचंद शाख संजम ग्रही, अणसण इन्द्र्यां परवरी, थाणै चौमासै आवीया, सैहर स्वाम १४ पांचूं चरम १. हजारों पद्य कठस्थ । प्रगट, हस्तमुखी' अड़ताळी लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ५ आसरै, स्वाम आसरै, समणी शेष कयौ तीरथ सुख पद भद्र तास जिम २. हसतमुखी । चातुरी त्यांरी सीम धर धर सूं तैपने बुद्धि छतां नीकळ्या त्यां दीधो थपीया सरियारी उपगार । च्यार ॥ स्हाज । जुवराज ॥ पुन्यवान। जशवान || बखाण | अगवाण ॥ आप। स्थाप॥ अवधार। प्यार ॥ खंत | जसवंत ॥ अधिकाय । मुनिराय ॥ प्रेम । हेम॥ अमंद। नृपचंद॥ अणगार । व्रतसार ॥ गुणचाळीस । दीस ॥ माय। ठाय ॥ नाहि । माहि ॥ २३५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाळ : ५ (धन-धन भिक्खू स्वाम दीपाई दान दया) श्रावण मास मझार, दस्त कारण तन मैं। दिशां जावै पुर बार, गिणत नहीं बहु मन मैं। बहु मन मैं जी फुन बहु जन मैं, पुर माहि गोचरी प्रगटपण। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, भाव आराम घण। २ श्रावण पूनम स्वाम, गोचरी आप गया। भाद्रव मैं अभिराम, अधिक चित शांति भया। चिंतशांति भया जी वर ध्यान लह्या, ऋषि लीन परम भावेज रह्या। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, मरण पंडित उमझा। ३ त्रिहुं टक हुवै वखाण, पजूषण माहि भला। चउथ चांदणी जाण, वयण भाखै विमला। भाखै विमला जी अति ही अमला, वच संत खेतसी नै निमला। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, 'यमल गुण उभय झिला''। ४ थे सखरा शिष्य सुविनीत, चरण नो स्हाज दियौ। टोकरजी वर रीत, भक्ति करि . सुजश लियौ। सुजश लियौ जी तनु-मन ठीयौ, भारीमाल परम भक्ता वरीयौ। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, ज्ञान-गुण नौ दरीयौ। ५ यां तीना रा स्हाज, थकी समभाव पड़ें। पाळ्यौ संजम पाज२, हरख आनंद घड़ें। आनन्द घणे जी त्रिहुं संत तणे, अतहि इकधार रह्या सुमणै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, सुजश तसु जगत थुणै? ६ सुणतां तीरथ तीन, सीख आपै सखरी। रहिज्यौ थे लहलीन, गणी सिर आण धरी। 'आण धरी जी मुझ नी जबरी, भारीमाल तणी तिम धार खरी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, अमल वाणी उचरी। १. ज्ञान और चारित्र गुण के युगल (जोड़ा) २. प्रण। को धारण करने वाले। ३. करता है। २३६ भिक्खु जश रसायण Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ भारीमाल नी आण, अखंडत जेह धरे। .. ते. सुविनीत पिछांण, संत सुगणांज सिरे। सुगणांज सिरै जी कुण होड़ कर, सेव करौ तन-मन सखरै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, अमल सिख्या उचरै।। ८. एह नी लोपै आंण, दूर करिवू जब ही। ते अपछंदा जाण, तीर्थ मैं तेह नहीं। तेह नहीं जी जिन-समय कही, निंदण जोगां ते छै अति ही। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, सीख आपै सुरही। आणंद अभिग्रह कीध, वीर आणा बारे। वंदन नेमज लीध, प्रथम बोलण वारै। बोलण वारै जी इम मन धारै, चिंहु आहार दान तसु परिहारै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, जिनंद ज्यूं इण आरै। १० अज्जा-संत विसेख, राखजौ हेत. अती। दिख्या दीजो देख- देख परभव अरथी। परभव-अरथी जी सम्यक् धुर थी, पिण जिण-तिण नैं मूंडोज मती। धिन-धिन भीखू स्वाम, तास सिर अधिक रती। ११ आलोवण अधिकाय, करी अति स्वाम भली। लख चोरासी खमाय, करै आतम निसली। आतम निसली जी खामैज वली, गण थी टळनैज थया विकळी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, तास चित कुसम कळी।। १२ बड़ा . शीष अवलोय, परम-भक्ता वारु। लैहर आई हुवै कोय, खमावै चित चारु। चित चारु जी निज हितकारू, मुनि-अज्जा अन्य वलि गुणधारु। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, निजातम निस्तारु॥ १३ जे श्रावक-श्राविका तेह, खमावै तास भणी। वलि जती ढूंढीया जेह, जूजूआ नाम गिणी। नाम गिणी चरचाज घणी, तसु लैहर आई हुवै द्वेष तणी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, निसल आतम अपणी।। ३. निशल्या १. सुन्दर। २. दीप्ति (तेज)। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा.५ २३७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अतीचार आलोय, सुमति अरु गुप्ति मझै। दोष लागौ हुवै कोय, महाव्रत पंच रजै। पंच रजै जी अघ थीज लजै, इम निसल थई गुणथीज गजै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, सखर-सिव पंथ सझै।। १५ आयु निकट पिछाण, निसल आतम कीधी। हिवै संलेखण आण, सुणौ भवियण सीधी। भवियण सीधी जी तप असि लीधी, उपवास पंचमी तप वृद्धी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, सुमती नी समऋद्धी।। १६ छट्ठ पारणे धार, अल्प औषधि आहारं। वमन हुवौ तिणवार, साम भीक्खू सारं। भीक्खू सारं तिण दिन धारं, पचखांण करै त्रिणविध आहारं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, हीयै अति हुसियारं।। १७ सातम आठम जाण, अल्प अन्न _आचरीयौ। तुरत कीया पचखांण, कहै सतजुगि दरियौ। सतजुगि दरियौजी गुण रस भरियौ, इम तुरत त्याग किम उच्चरियौ? धिन-धिन भीक्खू स्वाम, जगत जश विस्तरियौ।। १८ नवमी त्याग करंत, खेतसी खांच' कही। अल्प आहार मुज हस्त, तणो लीजैज सही। लीजैज सही जी इम है अही, तसु वचन मान अन्न अल्प लही। (सुविनीत तणौ मन राखण ही) धिन-धिन भीक्ख स्वाम, कीर्ति जग छाय रही।। १९ दशमी त्याग करंत, अरज बड़ शिष्य न्हाळी। दस मोठ आसरै हस्त, लीयै चावळ चाळी। चावळ चाळी जी अघ नै टाळी, उपरंत त्याग कीधा भाळी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, लगी सिव सूं 'ताळी' २० ग्यारस 'अमल आगार', कियौ इम उपवासं। हिव मुज आहार म जाण, वयण इम. परकासं। परकासं जी जन विश्वासं, अणसण थी अति चित हुल्लासं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, अमल सिवपद आसं। १. आग्रह 'पूर्वक ३. इकतारी। २. चालीसा ४. अफीम। २३८ भिक्खु जश रसायण Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ बारस बेलौ कीध, स्वामजी समभावै। हाट स्हामली थकी, पकी हाटे आवै। हाटे आवै जी तनु नै तावै, वर पक्का मुनि-जन गुण गावै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, पको अणसण ठावै।। २२ तांम लियो विश्रांम, अरज ऋषिराय' करै। पुद्गल पड़िया हीण, स्वाम सुण हरष धरै। हरष धरै जी इम वच उचरै, बौलावौ शिष्य भारीमाल सिरै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, तास कुण होड करै।। २३ चट दे ऊभा आंण सुणी भारीमालं। वले खेतसी आदि, मुनि आया चालं। आया चालं जी ऋष गुणमालं, वच वदै स्वाम अति सुविसालं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, 'पीत सिव-पटसालं'। २४ करिवौ मुझ संथार, एम पभणै स्वामी। नमोथुणं गुणतांम, सिद्ध अरिहंत नामी। अरिहंत नामी जी सिवपद कामी, ऊंचै स्वर वच स्थिर चित धामी॥ धिन-धिन भीक्खू स्वाम, परम संपति पामी।। २५ जावजीव लग मोय, त्याग त्रिहुं आहार तणां। श्रावक-श्राविका संत, सुण जन-वृन्द घणां। जन-वृन्द घणा जी गुण करत जणा, अणसण धारयौ भीक्खू सुगुणा। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, काज सारै अपणा॥ (यतनी) २६ शिष्य भारीमाल कहै सार, क्यूं नी राख्यौ अमल आगार। ___ स्वामी कहै धारयौ संथार, किसी करणी देही नी सार।। (धन धन भिक्खू स्वाम) २७ तेरस नै जनवृन्द, दर्श करिवा आवै। संस आंखड़ी करै, स्वाम नां गुण गावै। गुण गावै जी अति हुलसावै, बाजार माहै जन नहिं मावै। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, विमल भावन भावै॥ ३. त्याग। १. मुनि रायचंदजी (ऋषिराय)। २. मोक्ष रूप पृष्ठशाला से प्रीति। लघु भिक्खु जश रसायण : ढा.५ २३९ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सवा पौहर उनमान, दिवस चढ़ियां जाणी। निज कर सेती आप, स्वाम. पीधौ पाणी। पीधौ पाणी जी अति गुण खाणी, आसरै मुहूर्त पाछै जाणी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, वदै इह विधि वाणी॥ २९ आवै संत सुजाण, मुनि स्हामा जायौ। वलि आवै छै अज्जा, वदै इह विधि वायौ। इह विधि वायौ जी जन सुण तायौ, सुणतां वलि वर बहु मुनिरायौ। धिन-धिन . भीक्खू स्वाम, चरम वच फुरमायौ। ३० जन कहै स्वामी तणा, जोग मुनि मैं वसिया। एक मुहूर्त आसरै, साधु आया तिसिया। आया तिसिया जी बे गुण रसिया वंदणा करनै मन हुलसीया। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, दुरितरे दोहगः न्हसिया॥ ३१ वैणीरामजी संत, बड़ा जग विख्यातं। वले कुसालजी साथ, वंदै सिर करि नाथं। करि नाथं जी अति रळियातं, तसु स्वाम दियौ मस्तक हाथं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, अमल जश अखियातं॥ ३२ दोय आंगुली थकी, सैन करिनै जाणी। सुखसाता पूछंत, कची चखु पहिछाणी। पहिछांणी जी उचरंग आणी, सावचेत इसा मुनि गुणखाणी। धिन-धिन भिक्खू स्वाम, मही कीरति माणी।। ३३ साधू आया तेह, अधिक ही गुण गातं। दोय मुहूर्त आसरै, आयौ समणी साथ। समणी साथं वंदै नाथं, जन कहै अवधि उपनो ख्यातं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, कही अचरज वात।। FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP १. दो। २. पाप। ३. दुःख। ४. प्रफुल्लित। ५. इशारा। २४० भिक्खु जंश रसायण Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अटकळ सूं अवधि दाखी। तथा साखी। धिन धिन आख्यात, तथा बुद्धि थी ऊपनौ, तिकौ सर्वज्ञ सर्वज्ञ साखीजी आगूंच आखी, प्रगट पिण छांनें नहीं राखी । भीक्खू स्वाम, बात सूता भणी, हुई बैठा करां, भर्यौ हूंकारं ऋषि जी तिण वारं, बैठा कर मुनि बैठा अचरज भाखी॥ ३५ स्वामी पूछ्यौ तब धिन धिन भीक्खू स्वाम शासण रा महा वारं । हूंकारं । लारं । सिणगारं ॥ उपगारी। संत गुणग्राम, आप पाखंड, हटाया बड़ा-बडा बहु वारी । बहु वारी वलि जन तारी, फुन दान-दया दिल मैं धारी। नेतारी। धिन धिन भीक्खू स्वाम आप परम कीरति प्यारी आप धिन धिन भीक्खू स्वाम, ३७ दरजी मांढी सींव, सूई वदै जनक स्वाम तिवार, गया चट दे कीरति चट दे चाली प्रत्यख भाली, वतका ए अति अचर्यवाली। धिन धिन भीक्खू स्वाम, पूर्ण ३८ मांढी तेरे खंड, तणी महोत्सव कीधा अधिक, कार्य लौकिक धारी जी आज्ञा बारी, कीधी त्यारी। लौकिक धारी । पंच सय कहै लारी। धिन धिन आसरै भीक्खू स्वाम, सप्त अठारै पौहर संथारी॥ साठ, भाद्रव परभव पोंहता पूज्य, तेरस मंगलवारी जी कांई सरीयारी, भारीमाल धिन धिन मैं वर्ष मैं ३६ करै ३९ समत ४० घर भीक्खू स्वाम, जाउं पचीस, आसरै रह्या, पछै वर्ष भीक्खू स्वाम, प्रगट भेषधारयां सुव्रत फासं जी मुनि गुण रासं, धिन धिन लघु भिक्खु जश रसायण : ढा. ५ . मग जग इम पा सुदि पाट तस अठ बहु सुध तयांळीस जन जशधारी । अणगारी ॥ घाली । चाली। पाली॥ सारी। मंगलवारी। बैठा भारी । बलिहारी । वासं । व्रत जाझो फासं। जासं । विश्वासं ॥ २४१ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ आसरै सितंतर वर्ष, आयु पाळ्यौ स्वामी। परभव कियौ पयाण, धर्म मूरत धामी। मूरत धामी जी अति हित कामी, पदधार परम संपति पामी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, निमल जग मैं नामी। ४२ भीखू तणे प्रसाद, जीव बहुला तरिया। सांप्रत काळे तिरै, स्वाम वच सिर धरिया। सिर धरिया जी जन उद्धरीया, तिरस्यैज अनागति गुण-दरिया। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, तास उत्तम किरिया। ४३ भीक्खू 'भवदधि पाज', भाव नावां तरणी। ज्ञान-क्रिया करि युक्त, कहा कहियै करणी। कहियै करणी जी वर उच्चरणी, संक्षेप मात्रविध मैं वरणी। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, मूर्ति तसु मनहरणी। ४४ उगणीसै तेवीस, माघ सुदि तिथ तीज। . गुरुवारे ए जोड़, करी भीक्खू बीजं। भीक्खू बीजं जी तसु जप कीजं, भारीमाल ऋष रमणीजं। धिन-धिन भीक्खू स्वाम, लहै 'जय-जश' रीझं।। इति लघु भीक्खू जस रसायण॥ १. भव-समुद्र पार करने के लिए सेतु। २. दूसरी वार। २४२ भिक्खु जश रसायण Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु - चरित मुनि हेमराज भिक्खु-चरित : ढा. २४३ Page #291 --------------------------------------------------------------------------  Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ अरिहंत-सिध-साधू नमू, भाव-भगत उर' आंण। गुर गिरवा गुणवंत नों, कहुं 'भीखू चरित' वखांण।। २ मोटा-मोटा मुनिवर हुआ, आगेइ चौथे आर। वखाण्या मुख वीर जी, सूतर मैं सुध सार। ३ त्यांनै नेणां नहीं निरखीया, वीर कह्यौ विसतार। पिण धिन-धिन भीखू सांमजी, प्रगट्या पांचमें आर॥ ४ गुण गावै गुणवंत गुर तिणा, भोळा नै मन नहीं भाय। 'ग्यांनी कह्यौ गिनाता मझै,' तीर्थंकर गोत बंधाय।। ५ उतकष्टा परिणाम सूं, उत्कष्टी आवै रसांण। संका म आंणौ सर्वथा, वीर मुंढ़ा री वांण।। ६ तिण काळे नै तिण समै, दुषम आरा नी बात। पूज भीखनजी प्रगट्या, सुखी साध साख्यात।। ७ सुखी कथा सुखी वारता, सुखी सरधा आचार। सुखे-सुखे जाय मुगत मैं, आवागमण निवार॥ ८ जनम किहां दिख्या किहां, परभव . पोहता किण ठांम। किया चोमासा किण विधे, तेहना पिण कहूं नाम।। ९ जस मेहमा घणी जगत मैं, कही कठा लग जाय। पिण थोड़ी सी परगट करूं, सांभळज्यो चित ल्याय॥ ढाळ : १ (हरिया नै रंग भरिया जी.) १ जंबूदीप भरत खेतौ जी, कांइ देस मुरधर दीपतौ। ___ कांइ कांठे-कोर कहवाय। नगर कंटाळ्यौ नीकौ जी, कांइ कमधजरे राज करै तिहां। बखतसिंघ सोभाय। साध भीक्खू सुखदाया जी, मन भाया भवियण जीव रै।। १. हृदय। ३. राठौड़ वंशी क्षत्रिय। २. ज्ञाता श्रुतस्कंध १ अध्ययन ८ सूत्र १८।। भिक्खु-चरित : ढा. १ २४५ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ त्यां भीखनजी अवतरिया जी, कांइ धरिया जणणी' गर्भ मैं। , उत्तम जीव अपार। साध. 'समत सतरेसै बेयासी' जी, सुखवासी नंदण ऊपना। सुपन लह्यौ श्रीकार।। साध. ३ सीह सुपनें माता जी, कांइ सुखसाता सुत नै जनमीया। हवौ हरष उछाव। साध. ___दीपादे अंगजाता जी, कांइ पिता · बलूजी सोभता। कुळ ओसवाळ कहाव। साध. .. ४ बड़े साजन वले वीसाजी, संकलेचा जातज जाणजौ। एक परण्यां था नार। साध. घणो नहीं कियौ ग्रहवासो जी, कांइ आछो सीलज आदरयौ। दिख्या री मन धार।। साध. ५ वरस पचीस आसरै वधिया जी, कांइ सधीया चेत खड़ा हुआ, आयौ घट वेराग। साध. रुघनाथजी गुर धरीया जी, कांइ किरिया काची जांणनै, _ पछै उपनौ सोच अथाग।। साध. ६ सूतर नै सुध वाच्या जी, कांइ राच्या ग्यांन रसाळ सूं, ऊंडो दीयो उपीयोग। साध. भगवंत मारग भूला जी, कांइ डूला छोड़ संसार नै, नहीं दीसै संजम जोग॥ साध. ७ राजनगर मैं भणता जी, कांइ गुणतां ग्यांन भलौ लह्यौ, वरस पनरे चउमास। साध. सूतर माहि साचो जी, कांइ काचौ म्हे पाळां जको, हिवै तोड़ न्हाखू मोह पास। साध. ८ आय कहै गुरां नै किरिया जी, वीसरिया वीर भाखी जका, चूका समगत सार। साध. छोड़ो सुरत संभाळी जी, मन वाळी मारग मोकळो, पिण उहां री उठ न हुई लिगार।। साध. १. जिणणी क्वचिद्। ३. अमर्यादित २. यह जैन संवत् श्रावणादि क्रम से है। ४. उत्थान क्रिया। २४६ भिक्खु जश रसायण Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ अबारूं पांचमों आरो जी, कांइ सारो संजम नहीं पळे, इत्यादिक कह्या ढीला वचन अनेक। साध. पिण सूत्र न्याय सांको लीधा जी, कांइ कीधा कष्ट' रूड़ी परे, . वीर वचन बताय वसेख।। साध. . १० सात चोमासा आगे जी, मन भांगे त्यां माहि रह्या, कितलायक समजावण काज। साध. संजम लेवा सूरा जी, कांइ पूरा असल आचार स्यूं, साझण सिवपुर राज।। साध. ११. भीखनजी आदि विचारी जी, कांइ त्यारी जणा तेरे हुवा, करवा आतम कांम। साध. तेरे श्रावक समाइ पोसा जी, कांइ सैहर जोधांणा मैं किया, ___ जठे तेरापंथी दीयौ नाम। १२ समत अठारो सतरो जी, कांइ सुथरो समोर आयो तिहां, तिहां सबळो हुवो सुगाल। साध. साधपणौ सुध-लीधौ जी, कांइ कीधौ कारज केलवै, परभव सांहमौ भाळ॥ साध. १३ पांच देस प्रगटीया जी, गुण रटीया रांम --नाम - ज्यू, कटीया कर्म करूर। साध. 'पाखंड घौचा' पोचा' जी, कांइ_ग्यांन बले मोटे मुनी, भांज किया भखभूर ।। साध. १४ सांमी ग्यांन करी गुणसागर जी, बुध आगर अर्थ नै हेत रा, ओजागर घणा अमोल। साध. भांत-भांत गुण भरिया तरिया, तार रह्या भव जीव नै, त्यांरो तीखौ बधीयो तोल।। साध. १. निरुत्तर। २. श्रेष्ठ समय। ३. सुकाल। ४. पाखंड (शास्त्र विरुद्ध आचरण करने वाला।)रूप तिनका। ५. कमजोर। ६. नष्ट। भिक्खु-चरित : ढा. १ २४७ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ सुध हाल आले. त्यात मा भारी १५ आप आग्या सुध आराधी जी, कांइ गादी वीर जिणंद री, · आप असल दीसौ अणगार। च्यार तीर्थ सुध थाप्या आप्या, अणुव्रत महाव्रत मोटका, वले आछौ ग्यांन अपार।। साध. . १६ साध भला सिणगारी जी, गुण भारी भीखू सांम मै, मारी ममत बलाय। चतुर ववेकी पूरा जी, कांइ सूरा चरचा कारणे, भवियण रे मन भाय।। साध. १७ सारां सिरे सिष भारी जी, 'सुहाली परकत' जण नै। वले सरल घणो सभाव। भारमलजी पाट थापी जी, कांइ आपी पदवी आचार्य तणी। च्यार तीर्थ चित चाव।। १. कोमल प्रकृति। २४८ भिक्खु जश रसायण Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा आतम १ सांमी मारग साचो लियो, सारण पिण भारी कर्मा जीवड़ा, अळिया २ कुगुरां नां भरमावीयां, बोलै 'आळ - पंपाळ' । बोलै थोड़ा सा प्रगट करूं, सुजो सुरत ढाळ : २ ( धीज करे सीता सती रे लाल ) १ औ गुर नै उथापी अळगा हूवा रे, कोइ जीव बचावे छै तेहनें रे लाल, सुणजो भीखूजीरी २ कोइ संगत यांरी करजो मती रे, निन्हव छै ए नीकळ्या रे लाल, ३ इम भरमाया अनेक जीवां भणीरे, जो तेरापंथ्यां रो मारग ओळख्यां रे लाल, ४ आप आपरा पखियां भणी रे, वले अनेक गृहस्थां नैं सीखावियारे लाल, ५ बावीस टोळां रे 'माहोमा बेधोर' घणो रे, पिण भीखनजी सूं बेधो करे तरै रे लाल, ६ इम अनेक विध कर रह्या रे, पण कहो नै किता दिन ठाहरे रे लाल, ७ कोई धूळ न्हाखें सूर्य मझे रे, ज्यूं भीखनजी सूं भरकायां भांत-भांत सूं रे लाल, ८ हिवे ज्यूं- ज्यूं भीखनजी विचरै जठै रे, घणो कह्यो थो, कने जाइजो मती रे लाल, १. अलीक/असत्य / खराब। २. ऊटपटांग । ३. कभी भी । ४. जमने न देना। भिक्खु-चरित : ढा. २ कांम। आंम॥ ५. परस्पर कलह । ६. उत्पात / ऊधम ७. अपने श्रावक (अनुयायी ) । संभाल॥ वले दान-दया दीधी उथाप रे । भविक जन । ए कहै छै अठारे पाप रे । भ. ज. ॥ वारता रे लाल || लाग जायला थांरे लाळ रे। भ. ज. सुणं ॥ इम देवे अनेक विध आळ रे । भ. ज || घणां गामां-नगरां विख्यात रे । भ. ज. ॥ हरगज' नावै म्हारे हाथ ॥ भ. ज. सुण. ॥ वले अनेक टोळा सूं मिलीया जाय रे । भ. ज. ॥ यांने 'टकवा म देज्यो'' ताय रे॥ भ. ज. सुण.॥ एक-एक नें सरधे असाध रे । भ. ज. ॥ कहै - म्है तो सगलाइ छां साध रे। भ. ज. सुण ॥ आहमी - साहमी घमडोल रे । भ. ज.॥ तांबा ऊपर झोळ रे? | भ. ज. सुण. ॥ आप उपर पाछी पड़ै आय रे । भ. ज.॥ देखो' गांठ रा श्रावक'' जाय रे ।। भ.ज. सुण ।। उवां रा भरमाया आगूंच जोवे वाट रे। भ. ज.॥ आयां थोड़ा में भेळो हुवे थाट रे । भ. ज. सुण ॥ २४९ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ केइ तो प्रश्न पूछवा रे, केइक देखण काज रे। भ. ज.॥ केई कुगुरु ना भरमाविया रे लाल, उंधा बोलता नहीं आणै लाज रे। भ. ज. सुण.॥ १० उपसर्ग अनेक देता थकां रे, केइबोलता वचन विकराल रे। भ.ज.॥ केइ कहै- ए नन्हव अछे रे लाल, केइ कहै जमाली गोसाल रे॥भ.ज.सुण.॥ ११ पिण पूजजी क्रोध करै नहीं रे, सुध बतावै सूत्र न्याय रे। भ. ज.॥ वले व्रत-इव्रत मांड बतावतारेलाल, देवै भिन-भिन भेद दरसाय रे॥ भ. ज. सुण.॥ १२ केइ चतुर ते सुण-सुण चिंतवै रे, कूड़-कपट न दीसै यांमें कोय रे। भ.ज.।। यां तो साची वातां कहीसही रे लाल, घणा इचर्य होय रह्या जोय रे॥भ.ज.सुण॥ साचो धर्म भगवान रो रे लाल॥ १३ भगू भड़काया था बेटां भणी रे, सुध साधां मैं चूक बताय रे। भ. ज.॥ ज्यू लोकां नैं भड़काया भीखनजी थकीरेलाल, ओहीज मेलो न्याय रे।। भ.ज.साचो.॥ १४ वारंवार पूछी निरणो करी रे, कुगुरां नै दिया छटकाय रे। भ. ज.॥ साची सरधा आदरी रे लाल, कहै-धिन-धिन भीखू रिषरायरे॥ भ.ज. साचो.॥ १५ केइका लियो साधुपणो रे, केइ हुआ श्रावक-श्रावका साख्यात रे।भ.ज.॥ __केइ प्रतीतधार पका हुवा रे लाल, छोडी कुगुरां तणी पखपात रे॥ भ. ज. साचो.॥ १६ इम अनेक गांमां-नगरां मझे रे, चरचा कर-कर लिया समजाय रे। भ.ज.॥ जे हळुकर्मी था जीवड़ा रे लाल, ते कुगुरु छोडैनै आया ठाय रे। भ. ज. साचो.॥ १७ जे भारीकरमा जीवड़ा रे लाल, खोटा मत माहे 'रह्या खूत'रे। भ. ज.॥ कुमत-कुबधमाहि कळरह्यारेलाल,' ज्यूं माखी 'रही संघेण मैं सूत २ रे। भ. ज. साचो.॥ १८ रावण रूप किया था घणा रे, बहोरूपणी देवी बोलाय रे॥ भ. ज.॥ पिण लछमण रा बाण सूं रे लाल, रूप गया विललाय रे। भ.ज. साचो.॥ १९ ज्यूं सुध-साधां सूं भड़काया लोकां भणी रे, यांरी संगत म करजौ कोय रे। भ.ज.॥ पिण पूज सूत्र-न्याय ज्ञान-वाण सूरे लाल, भर्म भाग्यो घणां रो जोय रे। भ.ज. साचो.॥ २० चक्रवर्त चढै देस साधवा रे, आंण फेरे छ खंड में आय रे। भ.ज.॥ ज्यूं भीखनजी रिष विचस्या जठे रे लाल, अरिहंत आगन्या दीधी ओळखाय रे। भ.ज. साचो.|| २१ निरजुगता न्याय मेल्या घणां रे, सुध सूत्र जोय-जोय सार रे। भ. ज.॥ वले 'उतपातबुध सूं आछौ कियो रे लाल, आसरै ग्रंथ अड़तीस हजार रे॥ भ. ज. साचो.॥ १. बंधे हुए। ४. युक्ति सहित। २. फंस रहे। ५. औत्पतिकी बुद्धि ३. श्लेष्म में लिपटी हुई। ६. श्लोक संख्या। २५० भिक्खु जश रसायण Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा भाळ॥ काय। १ आचार ऊपर हजारां कीया, समकत ऊपर हजारां सोय। व्रत-इव्रत नै उपरै, ग्रन्थ हजारां जोय॥ २ वले उपदेस अनेक विध, रचीया वचन रसाळ। "तेरे दुवार' ताजा किया, सूत्र सांहमौ ३ उपगार आछौ कीयो, कुमीन राखी _ 'सके तो' जांणू सांम जी, पदवी तीर्थंकर पाय। ४ ज्यां-ज्यां विचस्या पूज जी, मिथ्यात देवै मिटाय। उतकष्टी रसांण उपजै तो, पदवी तीर्थंकर पाय॥ ५ ग्यांनी कह्यौ ज्ञाता मझे, संका म धरजो सोय। बीसमो बोल विचारजो, निरणौ कीजौ जोय॥ ६ उतपात बुध अतही भली, च्यारूं बुध रे माय। ते हुंती घट पूज नै, निरमळ मेळ्या न्याय॥ ढाळ : ३ (धिन धिन जीव जी) १ आठ संपदा सहीत आचार्य, 'कुल-मंडण' कुल-दीवो। पांचमे आरे प्रगट. हुवां रे, भीखू-रिष---वांदो' भवजीवो।।- - धिन भीक्खू सांम जी॥ २ पाखंड-पंथ नै परहस्यो रे, मोटा मुनि मतवंत। सुमत गुपत महाव्रत सही, ऐ तेरे पाळे ते तेरापंथ॥ तिथ. ३ दोष बयालीस टालता रे, बावन टाळे अणाचार।। सूत्र-न्याय सुध-परूपणा रे, अरिहंत आगन्या धार॥ धिन. ४ सूत्र नै सुध वाचता रे, मेलता सुध सरूप। मीठे वचनें मुनिसरू रे, वागरे वांण अनूप।। धिन. ५ केइ पाखंडी अडै आयनै रे, उण रा वचन सुणीनै सांम। उणरा वचन सूं कष्ट उणनै करै रे, आछी बात अमांम॥ धिन. ४. कहते हैं। २. कुल-भूषण। ५. निरुत्तर। ३. कुल-दीप। ६. श्रेष्ठ। १.संभवतः। भिक्खु-चरित : ढा. ३ २५१ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अनेक स्याळ आये अडै रे, को किम भागे सीह? जे आचारे ऊजला रे, ते क्यांनै आणै बीह' धिन. ७ मेवाड़ मुरधर देस मैं रे, कछ देस हाडोती ढूंढार। साची सरधा प्रगट करी रे, घाली घट मैं सार॥ धिन. ८ जठे श्रावक-श्राविका किया घणारे, केइ हुवा साधवी-साध। ते चरणे लागा सांमी तणै रे, आछी टाली असमाध॥ धिन. ९ केइ भेषधारयां नैं छोड़ साधु हुआ रे, चरचा करनै सोय। मान-अहंकार मेळनै रे, कुमी न राखी कोय॥ धिन. १० कुगुर छोड़ी सतगुर किया रे, आ चोथा आरा री रीत। __ घणा गावां नगरां मझे रे, पूज तणी धारी प्रतीत॥ धिन. ११ जस-करमी था जीवड़ा रे, आदेजा वचन 'आताप'। भिक्खू विचरै ज्यां पाखंड भाजतो रे, धर्म आगे ज्यूं पाप॥ धिन. १२ दरसण भीखू रौ ज्यां देखीयौ रे, पेखीया वचन पिछांण। सो जांणे स्वामी री सेवा करूंरं, उजम इधिको आंण।। १३ भज-भज रिष भीखू भणी रे, तज-तज पाखंड तास। धज धरम धारो धुरा रे, करौ मुगत मैं वास।। १४ अनंत भव आगे कीया रे, संत न मिलिया सार। कदा मिलीया तो ही सरध्या नहीं रे, आय उपनों पांचमें आर।। . १५ हिवै भीख मुनीसर भेटीया रे, गुणवंत- . ग्यांन भंडार॥ साचौ संजम लीधौ सही रे, पांमाला बेगा भव पार। ३. तेज। १.भय। २. प्रियकारी। २५२ भिक्खु जश रसायण Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ पूज भीखनजी मोटका, मोटा गुण भरपूर। भव-जीवां भजौ तुम्हें, 'पोह उगते २ वले गुण गांवू भीखू तणा, सांभळजो सहुकोय। मोटा गुण महाव्रत ना कहूं, सूतर स्हांमो जोय॥ भीखनजी भरत खेत्र मझे, कीधौ धर्म उद्योत। जीवादिक ओळखावीया, घट-घट व्यापी जोत॥ ४ भजन कियां भीखू तणां, भाजै भव-भव भूख। कर्म कटै निरजरा हुवै, दूर जावे सब दूख। ५ छांण कीधी जिण धर्म री, भला निवेड्या न्याय। इसड़ा बुधवंत जीवड़ा, नहीं दीसै भरत रे माय॥ ६ तिहां भीखनजी रिष भेटीया, 'त्यारे माथे मोटा भाग'। सुणजो गुण सांमी तणा, एकमना चित लाग।। ढाळ : ४ (कीड़ी चाली सासरे रे) १ सांमी भीखू सारिखा रे, इण दषम आरा माय। __ हुवा नै होसी वली रे, आज न कोइ देखाय॥ भीखू गुण गायलो रे, सुधारया भव दोय। भी.------------- जसवंत बुधवंत जोय, भी., भजन करौ सुह कोय भी.॥ २ मिथ्यात मेट मोटे मुनी रे, कीधौ ज्ञान उजास। धर्म-अधर्म ओळखाविया रे, ज्यूं मुख दीसै काच।। भीखू. ३ धर्म-धुरा धुरंधरू रे, महमा मेर समान। भरत-खेत्र मैं भळके रह्या रे, मरद्या क्रोध नै मांन। भीखू. ४ खिम्या खरी सांमी तणी रे, कर्म काटण तरवार। तपसा पिण तुले आवै नहीं रे, प्रसिध लोक विचार।। भीखू. ५ दयावंत मुनि दीपता रे, गिरवा ज्ञान भंडार। ___एक जीभ कहणी आवै नहीं रे, पूज गुणां रो पार॥ भीखू. १. प्रभात काल में। ३. वे भाग्यशाली हैं। २. छान-बीन। ४. मेरु पर्वत। भिक्खु-चरित : ढा. ४ २५३ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सतवादी मुनि सूरमां रे, साचौ धर्म ओळखावीयो रे, ७ अदत्त न ग्रही दत्त ग्रही रे, नव ही जात रो सर्वता रे, ८ नित-नित नमो भीखू मुनि रे, नरमाई नित-नित करौ रे, ९ साचा गुण सांमी तणा रे, जीवे ज्यां लग भूलै नहीं रे, १० च्यार तीर्थ गुण सेवरा रे, कांम पड़ेला करली' चरचा तणौ रे, ११ भली हुई मुज 'चाकरी" रे, गुण गाया भीखू तणां रे, १२ गुण प्रमांण गण-नायक रे, भार चलावै टोळा तणो रे, १. परिग्रह (क ) । २. प्रख्यात । २५४ नहिं कूड़-कपट री ज्यूं भाख गया जगनाथ। ब्रह्मचारी प्रग्रहा' काटौ मडदो संवरै चावा' हुंता आवैला लेखै सारण थिर रा पचखांण ॥ भीखू . कठोर। भीखू. दिन-रात | भीखू साध। भीखू. कर्म मान-मरोड़ ॥ छै गुण ३. कठिन । ४. उपासना। साख्यात ॥ भीखनजी बात। भीखू . वखांण । जद याद ।। लागी आज। वंछत काज ॥ भीख. कर थाप्या हो सांम। भारीमालजी त्यांरौ नांम ॥ भीखू . भिक्खु जश रसायण Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ बयाली वरसां जग पूजजी, बोहत कियो उपगार। विचरत-विचरत आवीया, मुरधर देस मझार।। २ उपगार कीयौ दोय वरस मैं, मारवाड़ . मैं आय॥ च्यार साध, सात साधवियां हुई, त्यां संजम लीयो सुखाय॥ ३ वले श्रावक-श्राविका किया घौं, विचरया घणां गांमां-नगरां माय। जणे पिण उपगार कीयौ घणां, कह्यौ कठा लग जाय? ४ हिवै चरम किल्यांण सामी तणों, अण भव आश्री जांण। किहां विचस्या किण सैहर मैं, प्रभव पोहता किहां आंण? ५ छेला-छेला गांम फरसता, छेहलाइ करता विहार। विचरत-विचरत आवीया सोजत सैहर मझार।। ढाळ : ५ (अभिनंदन वांदूं नित मनरली) १ विचरत-विचरत हो आया सोजत सैहर मझार, आग्या लेईनै छत्री माहे उतश्याजी। ते छत्री छै हो मुहता रायमल री विचार, उण ठांमे आगेइ उपगार कियौ घणौ जी।। २ त्यां बहु आया हो साध-साधवी सुविनीत, केइ दरसण करवा धर्म चरचा धारणै जी। त्यां नै पूरी हो पूजजी री प्रतीत, केइ आया चोमासा री आग्या कारणै जी।। ३ भीखू त्यां नै हो दिया चोमासा भळाय, मुनि पिण चोमासा रो कीधौ हुवेला मतोजी। एतले आयो हो हुकमचंद आछो चलाय, धर्म दलाली माहि आछो दीपतो जी॥ भिक्खु-चरित : ढा. ५ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ते करै दलाली हो बोलै बे कर जोड़ी ताहि, धर्म आचार्य मोटा गुरु जांणनै जी, सांमी चोमासो करो सैहर सरीयारी माहि, आ वीणती मांनो करपा भाव आणनै जी॥ ५ चतुराइ सूं हो वीणती कीधी वारूंवार, अबको चोमासो सरीयारी कीजिये जी। सूझती छै हो पकी हाट विचार, सांमी तिण ठांमें वासो लीजिये जी।। ६ केतलायक दिन रहेनै हो सांमीजी तो कीधौ विहार, बगड़ी रहेनै कंटाळ्ये आया वही जी। ठांम-ठांम हो वीणती करे नर-नार, सांमी तो सरीयारी चलाय आया सही जी।। ७ सरियारी हो सोभे सैहर कांठा री कोर, 'दोलो-दोलो' मगरो' गढ़ कोट ज्यूं दीसतो जी। राज करै छै हो तिहां राज राठोर, ___ कुंपावत करड़ी छाप नों दीपतो जी॥ ८ जाडी वसती हो त्यां माजना री जाण, जठै महिमा घणी छै जिण धर्म तणी जी। बहु नर-नारी हो सुणे साधां रा बखांण, भली तपस्या करै कइ कर्म काटण भणी जी।। ९ तिहां मुनि आया हो सप्त ऋषि अणगार, सुध संजम पाले इंद्रयां नै जीपता जी॥ सांमी सोभे हो साधां रा सिरदार, गणनायक रिष भीखनजी दीपता जी।। १० आग्या ले नै हो उतऱ्या पकी हाट, रखे दोष लागै तो रहे मुनि धड़कता जी। बखांण-वाणी रा हो लागै छै तिहां थाट, घणा नर-नारी सुण-सुणनै हीयै हरखता जी।। १.चारों ओर। २. पहाड़। ३. सघन। ४.महाजन। २५६ भिक्खु जश रसायण Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ वखांण-वाणी मै हो सांमी भारीमलजी वदीत, साथे खेतसीजी' सतजुगी कहावता जी। उदेरांमजी हो त्यारे तपसा री नीत, बाल ब्रह्मचारी 'रायचंद' मुनि 'जीवो' मन भावता जी।। १२ भगजी कीधी हो सांमीजी री सेवा-भगत, तिण सूं सांधा में सोभा हुई घणी जी। वनीत होवे छै हो तिण ने सरावे जगत, ___ अवनीत माहे 'अवगतिर' कही घणी जी।। १३ आसाढ़ उतरनै हो सावण सुध छेहले आय, सांमजी रे कांयक असाता उठी सही जी। तो ही 'दिसां'२ बारे हो गोचरी उठे गांव माय, लांबी तो गिणत सांमजी राखै नहीं जी।। २. शौचार्थ। १. मुनिखेतसीजी (सतयुगी।) २. अवगति-बुरी गति। भिक्खु-चरित : ढा.५ २५७ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा चाया १ अवसर' काळ आय लगो, सूत्र भणवा । सुध कर-कर सांमजी, सिष नै अर्थ बताय।। २ जोर करै घणी जुगत सं, ओर ही अर्थ अनेक। उदमी छै नहीं आलसू, सांमी सुध ववेक।। ३ फोरी' असाता फेरा तणी, मिटावण मुनि सोय। ओषध लीया अणायन, पिण काम न आयौ कोय। ४ वले पूनम रे दिन पूजजी, उठता गोचरी आप। ओषध आंण खाधी खरी, वेदन रही छै व्याप।। ५ हिवै आगा उपर आदरी, साचे मन सांमीनांथा कार्य सुधारै किण विधे, सांभळजो साख्यात। (कामणगारो छै कूकड़ोरे) १ साध भीखूजी तिण अवसरे रे, आउ नेरो आयौ जांण। करे आलोवण किण विधे रे, साचा-साचा चुतर सुजाण। सुणजो आलोवण सांमी तणीरे॥ २ आज पहली इण जीवड़े रे, हिंस्या कीधी हुवै कोय। मन वचन काया करी रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. ३ क्रोध मांन माया लोभ सूं रे, झूठ कह्यौ हुवै कोय। जांणता नै अजाणतां रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. ४ अदत्त पांच प्रकार नों रे, सेव्यो सेवायो हुवै सोय। भलौ जाण्यौ हुवै सेवतां रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. ५ ममता धरी हुवै महीथून सूं रे, सूतां जागता जोय। मन वचन काया करी रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. १.काल/मृत्यु का अवसर निकट आने लगा। ३. दस्त उसके बाद संलेखणा की वत्ति स्वीकार की। ४. उठ्या. क्व.। २. थोड़ी ५. मिछामि दुकरो (भाषा-भेद)। २५८ भिक्खु जश रसायण Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ परिग्रहो' नवूइ जात नो रे, त्यांरा न्यारा-न्यारा भेद होय। ममता करी हुवै किण ही ऊपरै रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. ७ क्रोध कीधौ द्वै किण ही ऊपरे रे, कड़ली सीख दीधी हुवै कोय। 'करला' 'काठा' वरुवा वचन रौ रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय॥ सुणजो. ८ मांन माया लोभ किया हुवै रे, राग-धेष किया हुवे दोय। इत्यादिक अठारेइ पाप नी रे, 'मिछामी दुकडं' छै मोय।। सुणजो. ९ रागी सूं राग कियौ हुवै रे, धेषी सूं धरियौ हुवैधेष। मन साचे हिवै मांहरे रे, 'मिछामी दुकडं' छै विशेष।। सुणजो. १० प्रथवी अप तेउ वाउ छै रे, ज्यांरी सात-सात लाख जात। हणी हुवै तीन करण-जोग सूं रे, वारूंवार खमाऊं विख्यात।। सुणजो. ११ चवदैलाख साधारण वनसपतीरे, दस लाख प्रतेक। बे ते चोरिद्री बे-बे लाख छै रे, वली-वली खमाऊं आंण ववेक।।सुणजो. १२ नारकी देवता तिर्यंच नी रे, जात च्यार-च्यार लाख। चवदै लाख जात मिनख री रे, खमाऊंअरिहंत सिधारीसाख॥सुणजो. १३ वले बड़ा सिष सुवनीत छै रे, अंतेवासी अमोल। आगे लैहर जे आई हुवै रे, खमावू छू दिल खोल।। सुणजो. १४ एहवी आलोवण कानें सुण्यां रे, आवै इधक वेराग। करै त्यांरौ कहेवौ किसूं रे, त्यारै माथे मोटो भाग॥ सुणजो. १. प्रग्रहौ (भाषा-भेद)। २. कटुक। ३. कठोर। ४. बुरा। भिक्खु-चरित : ढा.६ २५९ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा वाय। १ खांत' करी खमावता, सर्व जीवां नै सांम। वारूंवार विशेष जी, आछी भांत अमांम।। २ बावीस टोळां माहि तेह सूं, कडली चरचा रो पड़ियो हुवै काम। अवर इ अनमती अनेक नै, खमावे ले ले नाम।। ३ वली आप तणां गछ माहिला, गछ बारे वरतै कोय। त्यांनै पिण खमावता, हरषत मन मैं होय॥ ४ हिवै सांवण तो सर्व निकल्यौ, आयौ भाद्रवो मास। साधां नैं तेड़ी सांमजी, बोलै वचन विलास॥ ढाळ : ७ (मीठो छै पुन संसार में) १ श्रावक-श्रावका सुणतां थकां, बोलै अमृत छेहले ' अवसर सांमजी, सीख दियै सुखदाय॥ सुणजो सीख स्वामी तणी रे॥ २ थे आगे जाणता मो भणी, ज्यूं जांणजो भारीमाल। संका म आणजौ सर्वथा, असल साधु री छै चाल।। सुण. ३ साध-साधवी ए सर्व छै, त्यांरा भारीमालजी नाथ। भार सूंप्यो छै टोळा तिणों, कोइ म लोपज्यो यांरी बात॥ सुण. ४ अरिहंत आगन्या माहि रहै, जिण नै सरधजो साध साख्यात। आगन्या लोपनै ऊधौ पड़े, त्यांरी म करजो पखपात॥ सुण. ५ इम ही आगन्या सतगुर तणी, रहै भारमलजी माय। सुध आचार. पालै सही, त्यांनै मत दीजो छटकाय॥ सुण. ६ अरिहंत सतगुर नी आगन्या, कर्म-जोगे लोपै कोय। वंदणा-प्रतीत करजो मती, साध म सरधज्यौ तिण में सोय।। सुण. ७ साची सीख तीर्थं-च्यार नै, विध सूं दीधी छै बताय। इत्यादिक अनेक वचनां करी, कही कठा लग जाय। सुण. १. गौर। २६० भिक्खु जश रसायण Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ हिवे सतजुगी सांम सूं, मुख सूं बोलै एहवी वाय। म्हारै विरहो पड़तौ दीसै पूज रो, आप जाता दीसो झंड' माय। हाथ जोड़ी नै इम कहै। ९ वलता सांमी इम वागर, म्हारै झंड तणी नहीं चाहि। आगे अनंती वार जीवड़ौ, गयौ देवलोकां माहि॥ सुण. १० पुद्गल ना सुख कारिमा', विणसतां नहीं लागै वार। ग्रधी हुवै ते जाये नरक मैं, आगे खाय अनंती मार॥ सुण. ११ म्हें आगे पुद्गल खाधा मोकळा, सार जांण-जांण सोय। देखतां-देखतां विणसे गया, काम न आवै आज कोय॥ सुण. १२ तिण कारण हूं देवलोक नी, करूं नहीं वाछां कोय। ___ पोचारे सुख पुद्गल तिणा, मुगत सुखा सूं मन मोय॥ सुण. १३ थे पिण वंछा पुद्गल तणी, मूल म करजो मन माहि। अफासू नै अनएषणी, चित्त मैं धरजो मति चाहि॥ सुण. १४ वले लोलपणों करजो मति, माया-ममता नै मार। दोष बयालीस टालनै, असल लीजौ सुध-आहार। सुण. १५ अरज्या भाषा नै एषणा, इत्यादिक आठ प्रवचन'। ___मन वचन काया करी, कीज्यौ घणां जतन॥ सुण. १६ साधपणौ सुध पाळज्यौ, चिंता फिकर म करज्यौ तास। म्हांसुइ मिलेला ग्यांनी मोटका, वले वेगो करोला मुगत मैं वास॥सुण. १७ चेलां री ममता करजो मती, लीजो सुध जोय-जोय। असल आचार पाळे तको, काचो म घालजो गण मैं कोय।। सुण. १८ असल आचार आछी तरें, पाळजो प्रभु-वचन पिछांण। आग्यां म लोपज्यो अरिहंत नी, तो वेगा पांमसो निरवांण।। सुण. १९ हूं तो जातो दीसू परभवे, सीख दीधी छै थाने जाम। लोक बतांवे कोइ आंगुळी, कदीय म कीजो एहवो कांम॥ सुण. FFEEEEEEEEEEEEE १. सुर-समूह (सुर-वृन्द)। २. निस्सार। ३. तुच्छ। ४. ईर्या समिति। ५. प्रवचन माता। ६. कमजोर। भिक्खु-चरित : ढा.७ २६१ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सुणजो सहू सांमी तणा, 'मूंढा हंदा रे बोल। : बोल सहु.. रे सुहांमणा, आछा वले अमोल॥ सुण, . २१ साची सीखामण सामी तणी, पाळसी चतुर सुजाण। सूरा-वीरा नै धीरा तिके, उजम मन माहे आंण। सुण. १. मुख के। २६२ . भिक्खु जश रसायण Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी, आछी सीख: आलवणा उज्जम मन माहि आणता, आज्ञा २ वलें आयो पर्व पजूसणां, धर्म सांमी : कार्य किणविधे, सुधारै आप ३ हिवे पांचम रे दिन पूजजी, सुदि पख पांचम नै संवछरी, भाद्रवौ. ४ पूज कीयौ छठ पारणौ, उलटौ किण विध करै संलेखणा, १ दूहा चतुर विचखण चिंतव्यौ दीसै, ४ माहोमा नर-नारी कहै मुख सूं, १. आलोयणा (आलोचना ) । २. नवमी। ३. चावल । ढाळ : ८ (धिन प्रभु रामजी ) ५ तो मन रा मनोरथ आपेइ पूरां, साधां माहोमा विचार करे नै, पूज नै कहै - पुद्गल हटीया दीसै', ६ सांमली हाट सूं उठ मुनीसर, पकोइ हाट नै पका मुनीसर, भिक्खु चरित : ढा. ८ दीधी : वले ऊपर वधंतो छै क्रियौ सुज थो पड़ीयो बे। उपवास २ इग्यारस रे दिन अमल' आगारे, भली भावना भावता भीखू ३ बारस रे दिन बेलो कीयौ, १ सातम आठम नम' मुनीसर, अलप सो लीधौ अहार दसम रे दिन चोखारे चालीस, आसरै दस मोठ विचार वे ॥ धिन. धिन धिन भीखू सांमजी, धिन धिन त्यांरो नांम जी । त्यां कीधौ आछौ कांम जी, आछौ जस अमांम जी ।। कियो औसो बे। करता कर्मा रो नास बे ॥ धिन. पूज पचख दीया तीनूं आहार बे। हिवे वेगौ करणौ संथार बे॥ धिन. जो सांमीजी करे संथार बे। ओ आछो अवसर सार बे ॥ धिन. रायचंद ने मेल्या सीखाय बे। सुण नै सीह जिम उठता मुनिराय बे|| चलीया-चलीयां देवे पको संथारौ ठाय बे॥ आय बे। चित • सार । .. धार।। जाय। ताय ॥ उपवास । मास ॥ आय। ल्याय ॥ ४. अफीम । ५. शारीरिक शक्ति क्षीण होती हुई दिखाई दे रही है। २६३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करै नमोथुणं अरिहंत सिधां नै, तीखे वचनें तांम बे। घणां नर-नारी देखतां-सुणतां, संथारौ पचख्यौ भीखू सांम वे।। ८ भादवा सुध बारस भली तिथ, वार सोम विचार बे। त्यां वेराग आयौ नै संथारो ठायो, छेहलो दुघड़ियो श्रीकार बे।। ९ धिन-धिन कहै बहू नर-नारी, धिन-धिन केंहता वेला देव बे। सुध साध मुनीसर मोटा त्यांरी, इंद्रादिक करै सेव बे।। १० घणां नर-नारी आवै नै सीस नमावै, बोलै बे कर जोड़ बे। धिन-धिन हो धिन थे मोटा मुनीसर, कीधी बड़ा-बड़ा री होड़ बे।। ११ केइ सनमुख आया नै प्रणमै पाया, विकसत हुवै विलास बे। खांत करी खमावै नै अघ उड़ावै, हीये आंण हुलास बे॥ १२ केइकां अभिग्रहौ एहवौ कियौ थो, यां साचौ मत काढ्यौ होसी सार बे। तोसंथारौ करसी नै जीतब सुधरसी, पको उतरसी पार बे॥ २६४ भिक्खु जश रसायण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ इण विध कीधौ अभिग्रहौ, भोळा लोकां तांम। बात सुणी कहै पचखीयौ, संथारौ भीखू स्वाम।। २ जे धेषी हुता जिण धर्म नां, ते चित मैं पांम्या चिमतकार। जांण्यौ दीसै ओ मारग खरौ, केइ वांदै वारूंवार। ३ संथारौ चावो' हुवौ, घणां गांवा-नगरां माय। केइ माहोमा इम कहै, आपें वांदो पूज रा पाय।। ४ गुण गावै मुख सूं घणा, भल-भल भीखू सांम। इण दुषम आरा मझे, भलौ सुधारयौ काम। ५ ठाणे२ कठेइ थपीया नहीं, इंद्री नही पड़ी हीण। __ व्याहार करता विचरता चालता, पका रह्या परवीण।। ढाळ : ९ (एक दिवस लंका पति) . १ संथारौ चोखौ कीयौ, सरणौ अरिहंत नों लीयौ। . सरणौ लीयौ, कियौ कार्य आतम तणों ए॥ २ मनि आंण्यौ मन संतोष ए, मेट्यौ राग नै रोस ए। मेट्यो रोस नें, दोस कर्म नों टाळीयो ए॥ ३ सुमता धारी सांम ए, भजै भगवंत रो नाम ए। भजै नाम नें, काम करै छै आतम तणों ए।। ४ हरष सहीत हुलास ए, तोडै छै करम पास ए। तोडै पास ने, आस तो एक मुगत री ए।। ५ नर-नारी बहु आवता, गुण भीखू रा गावता । गावता, वचन बोलै मन भावता ए। ६ धेषी पिण केइ आवता, खांत करी खमावता । खमावता, गुण भीखू रा गावता ए।। ***** गुण 1 ३. विहार १. प्रसिद्ध। २. स्थिरवास। '. भिक्खु-चरित : ढा. ९ २६५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. बहु गांवां-नगरां आया आय पड़ै पूज रे पाय ए, वंदणा करै, ९ ओर लोक करै ८ १० कहै - उ कीधो ११ नर-नारी है- उत्तम था ए सांम ए, सैकड़ा अमावता, १२ भांत - भांत करै गुणग्राम ए, किसा तणां, नर-नारी श्रावक- आया घणां । घणा, दरसणं करवा गुरां तणां ए॥ नमाय ए वंदना करै सीस सीस नमाय आतम नैं ए अनेक १. नहीं समा रहे । २६६ कहूं १३ सांमी भारमलजी आदि साध ए, कीधी बाध ए, ए, करे विसेख, देख मुनि नै उत्तम ही कांम, नांम जपीजै आवता, बाजार मैं गुण-ग्राम वसेख ए । हरपत हुवै ए|| कीधो कांम इण रिप तणों ए || ए । अमावता' । करै गावता नाम ए । गुण सांमी नां किसा- किसा कहूं नांम, सांमी मैं गुण घणां ए ।। त्यां कीधी सेवा बाध ए । असमाध टाळण सांमी तणी ॥ २. अधिक। ए । भिक्खु जरा रसायण Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ तेरस नो दिन आवीयो, ध्यावता निरमल ध्यांन। सके तो जांणं सांम नै, उपनौ दीसै अवधि ग्यांन।। २ साध बैठा सेवा करै, बोलता मीठी वांण। श्रावक-श्रावका हरस सं. करै सांमी नां बखांण।। ३ दिन दोढ पोहर आसरै, चढ़ती बेळां सोय। __ वचन प्रकासै किण विधे, सांभळजो सहू कोय। ढाळ : १० (वीस विहरमाण सदा सासता) १ साधु आवै स्हांमा जावौ, मुनि प्रकासै वाणं। __वले साधवियां आवै बारे, सांमी बोले वचन सुहाणं।। भवियण ! नमो गुर गिरवांण. नमो भीखू चतुर सुजाणं।। २ कै तो कह्यौ अटकळ उनमांन, के कह्यौ बुध प्रमाणं। कै कोइ अवधि ग्यांन उपनौ, ते जाणै 'सर्व-नाणं"।। भवियण! ३ केइ नर मुख सूं इम भाखे, सामी रा जोग साधां मैं वसिया। एतले एक महुर्त आसरै, साध आया दोय तिसिया।। भवियण ! ४ वकसत-वकसत साधू वांदै, चरण लगावै सीसं। नर-नारी जाण्यो अवधि उपनौ, साचौ वसवावीसं। भवियण ! ५ सांमी साधू आया जांणी, मसतक दीधौ हाथं। एतले एक महुर्त आसरे, आयौ साधवियां रो साथ।। भवियण! ६ वेणीरांमजी साध वदीता, साथे कुसालजी आया। साधवियां वगतू झूमा डाही जी, प्रणमै भीखू रा पाया। भवियण ! ७ परचार ज्यूं-ज्यूं आय पूगै छै, नर-नारी हरपत थावै। धिन हो धिन थे मोटा मुनीसर, इम गुण भीखू नो गावै।। भवियण ! १. सर्वज्ञा २. स्वामीजी के मुखारविन्द से निकले हुए अदृश्य वचन। भिक्षु-चरित : ढा. १० २६७ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ आया ते साधु गुण गावै, भांत-भांत परणाम चढ़ावै। थे मोटा उपगारी मेहमा भारी, आप तुले और कुण आवै।। भवियण! ९ थे पका, पका पाखंड हटाया, सूत्र-न्याय । बताया। दान-दया आछा दीपाया, बुधवंता मन भाया।। भवियण! १० सावज-निरवद भला निवेश्या, कीधा बुध प्रमाणं। सूत्र-न्याय सरधा सुध लीधी, धारी अरिहंत आणं।। भवियण ! ११ साधां जांण्यो सांमी सूतां नै, घणी हुई छै वारं। आप कहो तो बैठा करां, जब भरियौ काय हुंकार।। भवियण! १२ बैठा कर साधु लारे बैठा, गुण सांमी नां गावै। बहू नर-नारी दरसण देखी, मन मैं हरषत थावै।। भवियण! १३ आयौ आउखो अण चिंतवीयो, बैठां-बैठां जांणं। सुखे समाधे बारज दिसत, चट दे छोड्या प्राणं।। भवियण! १४ अणसण आयौ सात भगत रो, तीन भगत संथारं। सात पोहर पिण माहे वरतीया, पकौ उतारयौ पारं।। भवियण! १५ मांढी सीवी नै दरजी पूगा, कहै सूई पाग मैं घाली। इचरज लोक पांमीया अधिको, चट सांमी गया चाली॥ भवियण! १६ संवत अठारै साठे वरस, भाद्र सुदि तेरस मंगलवारं। पूज पोहता परलोक आसरै, गुण गावै नर-नारी।। भवियण! १७ दिन पाछिलौ दोढ़ पोहर आसरै, इण वेळा आउखो आयौ। दिवसे मरवौ राते जनमवौ, कहै विरला नै थायौ। भवियण! २६८ भिक्खु जश रसायण Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा अळगा १ साध देही नै छोड़ नै, विरहौ पड़ीयो छै पूज नो, समभाव संजोग २ अहो - अहो अथिर संसार ए, पुरष पूज सरीखा था, पोहता हर ३ सुख-दुख इण संसार मैं, भुगते ग्यांन सूं, मूरख ४ तीर्थंकर चक्रवर्त मोटका, काळ ग्यांनी जेतौ आउखौ साधां जाण्य याद कीया सिध ५ १ ५ काळ गया जांणी भीखू भणी हो, मेल्या जे मेहमा कीधी मांढी तणी हो, कही सांमीनों सुजस घणो ॥ बांधीयौ, ते तो सांमजी, पोहता अरिहंत नै, काउसग ढाळ : ११ (रघुपति जीत्यो रे ) ३ जो विसतार करै मांढी तिणों हो, पिण साधु रे मुंढै सोभै नहीं हो, ४ संसार किरतब सरावै नहीं हो, पिण बीती बात वरणवै हो, सइकड़ां नर-नारी आवीया हो, जांणे के मेळो मंडीयो हो, ६ वले 'सूंस ” लेवै केइ चूंप सूं हो, शील - व्रत १. नियम । 1 भिक्खु चरित : ढा. ११ - बैठा रह्यां जई आज कोइ कू भुगते न छोडै भुगते परलोक सुख दीधा मांढी कठा रे लग लग अनेक रूपीया लगावीया हो, अनेक उछाळ्या लार । अनेक देइ सोभा करी हो, ते ग्रहस्थ नों ववहार || सांमी. तो सुणतांइ इचरज थाय । तिण रो बुधवंत जांणसी न्याय॥ सांमी. त्यारे सावज जोग पचखांण । वागरै निरवद सांमी. छोडी घरां ना कांम। गावै भीखू नां गुणग्रांम ॥ सांमी. उजम मन माही आंण । केइ आदरै हो, केइ छोड़ै काचौ पांण ॥ सांमी. जाय। थाय ॥ विजोग । परलोग || होय । रोय॥ कोय। सोय॥ वांण ॥ माय। ठाय ॥ जाय। जाय ॥ २६९ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ केइ छोड़ै नीलोतरी हो, केइ आदरै हो, अनेक सांमी बेला तेला ८ वले च्यार तीरथ आय मिल्या हो, काळ गया जब पूजजी हो, ९ जसकर्मी था जीवड़ा हो, वले आगे पिण जस हुंतौ दीसै घणौ हो, १. खेत में उगने वाले कंटीले पौधे, घास, तृण आदि का काटना। २७० छोड़ै 'सूड प्रकारे आंण || निनांण " | सांमी. संथा । त उहां पिण आहार पचख्या मन धार।। सांमी. त्यांरो जस गावै संसार | वेगा पामता दीसै भव पार।। सांमी. भिक्खु जश रसायण Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ आदि काढी आदिनाथ ज्यूं, इण दुषम आरा माय। असल धर्म ओळखावीयौ, धिन भीखू रिषराय॥ २ आपी चीजां अमोलक, घाली घण घट माय। थोड़ी सी परगट करूं, सांभळजो चित ल्याय।। ढाळ : १२ (उस रघुपति के धर्म सुराजै सुखिया सगळा लोग) १ भगवंत भाखी सरधा राखी, असल लियौ आचार। ___ आइच' नी परे ग्यांन उद्योतौ, मेट दिया मिथ्यात अंधार।। __रिष भीखूजी नां धर्म सूं राजी, सुख पावै श्रीकार। २ चंद्रमा ज्यूं सोम निजर थी, दीठां दिल ठराय। क्रोध करी कोइ 'कंटक' आवै, सांमी देख सुख पाय।। ३ इत्यादि तीसों ही उपमा, भीखू नै सोभाय। चतुर होसी ते समजे जासी, भोळा नै खबर न कांय॥ ४ चरचा वाला नै चरचा आपी, ग्यांन वाळा नै ग्यांन। प्रश्न वाला नै प्रश्न आप्यौ, ध्यांन वाळा नै ध्यांन। ५ दिष्टंत वाळा नै दिष्टंत आप्यौ, हेत वाळा नै हेत। क्रोध करी नहीं बोले किरवारे, भली सीखावण देत॥ ६ संजम दे सिवपुर नां कीधा, वले आपी समकत सार। समणोवासक किया देइ नै, श्रावक नां व्रत बार।। ७ खमता दमता सुमता आपी, वले गमता वचन वखांण। दिढ़ता थिरता जमता जुरता, सूत्र-न्याय जोड्या सुध जांण। ८ रागी ते तो राजी होसी, धेखी करसी धेख। रागी धेषी नीं खबर पडेसी, वखांण सुण्या विसेख।। ९ बड़ा सिष बुधवंत वदीता, सारां सिरे सोभाय। आचार्य पदवी त्यांनै आपी, भारमलजी मन भाय॥ १. आदित्य। ३. कडुआ। २. दुर्जना भिक्खु-चरित : ढा. १२ २७१ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीख १० और साध साधवियां नै सांमी, आपी अरिहंत आग्या माहे रहीज्यो, थांरो तीखौ वधै ११ साची बात बतावै सांमी, पोहता गुणां करे सांमी था गिरवा, म्हां सूं पूरा केम परभव हिवड़े १२ नित नित नमो भीखू मुनीसर, मुगत रै हेते करणी करनै, तोड़ आंण न्हाखौ मोह २७२ अमोल। ज्यू तोल॥ माय। कहवाय ॥ हुलास। पास ॥ भिक्खु रसायण Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरे चोमासा चमाली १ घणां वरसां लग स्वाम जी, घणां जीवां नै प्रतिबोधीया, नांम २ हिवे चोमासा सांम नां, 'ववरो" कहूं छू तेहनों, आठ चोमासा आगे किया, जद सतरा सूं साठां लगे, वरत्यौ ३ ४ साधपणौ दूहा २ एक चोमासो वरलू कीयो, बीसे राजनगर कीयो, ३ किया दोय चोमासा कंटाळिये, लीयो, साठां किया, सुणौ तीन चोमासा बगड़ी कीया, ४ दोय चोमासा माधोपुर किया, चोतीसे नें पेंताळीसे मैं, ५ एक चोमासो आंबेट मैं, सैहर ७ नाथदुवारा तयाळीसे, पचासे, १. विवरण । आछौ आर्य सांभळजो ढाळ : १३ (धिन धिन जंबू स्वामी नै ) सेंतीसे पादू कीयो, ६ एक चोमासो स्वामजी कीयो, संवत अठारे तेपनैं, मैं, छपनैं, भिक्खु-चरित : ढा. १३ कियौ देस सहु प्रमाणे असल नहीं सुध सुधी तेहनां १ छ चोमासा केलवे कीया, सतरे इकवीसे पचीसे पिछांण हो । मुणिंद ! अड़तीसे गुणचासे अठावने, हद कीधी करमां री हांण हो । मुणिंद ! धिन धिन भीखू अणगार ने || वरस अठारे विचार हो । मुणिंद ! उठे कीयो घणों उपगार हो । मु. धि. चोबीसे अठावीसे आय हो । मुणिंद ! सतावीसे तीसे छतीसे सुहाय हो । मु. धि. इगतीसे अठचाळीसे आंण हो । मुणिंद ! पीपाड़ सैहर पिछांण हो । मु. धि. वरस पैंतीसे विचार हो । मुणिंद ! भलो कीयो उपगार हो ।। मु. धि. सोजत सैहर मझार हो । मुणिंद ! आछो कीयो उपगार हो। मु. धि. तीन किया चोमास हो । मुणिंद ! तठे तोड़या केतां रा कर्म-पास हो । मु. धि. उपगार । मझार ॥ कोय। सोय ॥ अणगार । ववहार ॥ सांम। नांम॥ २७३ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दोय चोमासा पुर सैहर मैं, सेतालीसे नै सतावनें होय हो। मुणिंद! ____एक सौ नै एक बीस पोसा एक दिन आसरे, वले जूवो छोड़ायो घणो सोय हो। मु.धि. ९ पांच चोमासा पूजजी, सैहर खेरवे उपगार कियो सरस हो। मुणिंद! छबीसे बत्तीसे इगतालीसे समे, छयालीसे चोपने वरस हो।। मु. धि. १० सात चोमासा पाली सैहर मैं, तेवीसे तेतीसे चाळीसे चोमाळ हो। मुणिंद! बावने पचावने गुणसठे , सुखे-सुखे नेड़ो आयो काळ हो। मु. धि. ११ सात चोमासा सरियारी सैहर मैं, उगणीसे बावीसे गुणतीसे गिणाय हो। मुणिंद! गुणाळीसे बयाळीसे एकावने, साठे परभव पोहता मुनि आय हो। मु.धि. १२ सासण श्री वर्धमान रौ आछो, दीपायो भीखू स्वाम हो। मुणिंद! __घणां जीवां नैं प्रतिबोधनै, आप पोहता सुध ठाम हो।। मु. धि. १३ पचीस वरस आसरे घर में रह्या, आठ वरस आसरे भेष धार हो। मुणिंद! एक दिन अधिको सतरे संजम लियो, तिण मैं वरत्या चाली में वरस च्यार।। मु. धि. १४ सरव आउ सितंतर वरस आसरै, पाळ्यौ भीखनजी स्वाम। मुणिंद! __चमालीस वरसां मझे, सारया घणां रा कांम।। मु. धि. १५ एक सौ में च्यार रे आसरै, दिख्या दीधी निज गण माय हो। मुणिंद! एकवीस साध सतावीस साधव्यां, मेले परभव पोहता मुनिराय हो। मु. धि. १६ हजारां श्रावक-श्रावका कीया, सुलभ बोधी हजारां थाय हो। मुणिंद! गुण-ग्रांम करता लाखां गमे, ऐसा हुवा भीखू ऋषराय हो।। मु. धि. १७ मुनि मोसूं उपगार कीयो घणौ, संजम दियौ सुखदाय हो। मुणिंद! जो अनेक प्रकारे गुण अबूं, तो ही उरण नहीं थाय हो।। मु. धि. १८ जनम-मरण री लाय सूं, आप काढ्यौ देइ नै साज हो। मुणिंद! वले मारग बतायौ मोख रो, धिन-धिन भीखू रिषराज हो।। मु. धि. १९ चिरत कियौ भीखू तणों, सुणीयौ जिम अटकल अनुसार हो। मुणिंद! 'सांसा'' सहित 3 निश्चै कह्यौ हुवै, तो मिछामी दुकडं वारूंवार हो।। मु. धि. २० जोड़ कीधी सरियारी सैहर मैं, पके हाट विचार हो। मुणिंद! समत अठारे साठे समें, माह सुदि नवमी सनिसर वार हो। मु. धि. २१ ए गुण गया भीखू तणां, कर्म काटण निरजरा करण हो। मुणिंद! हाथ जोड़ी ऋष हेमो कहै, भव-भव होजो भीखू रौ मनें सरण हो।।मु.धि. ___ इति श्री हेमराजजी स्वामी कृत भीक्खू-चरित समाप्तम् १. संशय। २७४ भिक्खु जश रसायण Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भिक्खु-चरित मुनि वैणीराम भिक्खु-चरित : ढा. १ २७५ Page #323 --------------------------------------------------------------------------  Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ अरिहंत, सिध नै आयरिया, उवझाया, परमेसरू, त्यांनै पद पांचूं सासण-नायक समरियै, महावीर मुगत गया मोटा मुनि, सकल करी, ३ पांचू पद प्रणमी भाव-भगत कर्म-काण रै कारण, कहूं अरिहंत नी, वले २ ४ ५ किहां उपना किहां जनमीया, आग्या ले गुण गाऊं गुणवंत रा, ते ५ ६ जपतां भिक्खु-चरित : ढा. १ सिरै धुर सूं उतपत त्यांरी कहूं, ते सुणजो भल 'भीखू - चिरत' सुगुरु आग्या अणगार । जै-जैकार ॥ सांभळजो परभव पोहता किण सुध ढाळ : १ ( धीज करे सीता सती रे, लाल ) १ तिण काळे नै तिण समैं रे, दुषम आरा रे माय रे । सोभागी ॥ जंबूदीप भरतखेत में रे लाल, मुरधर देस सुखदाय रे । सोभागी । भाव सुणौ भीखू तणा रे लाल, हिरदै राखै धार रे । सोभागी। सतगुर नै समस्यां थकां रे लाल, वरतसी जै जैकार रे । सोभागी ॥ २ गांम कटाळ्यो सोभतो रे लाल, 'कमधज राज करै तिहां रे लाल, ३ साह बलुजी सोभतो रे लाल, ११ तिहां भीखनजी आय अवतरया रे लाल, ४ समत सतरे तस्यासे समे रे लाल, वार मंगल तेरस तिथ मोटकी रे लाल, अनुक्रमे मोटा हुआ रे लाल, पछे सील दोनुंइ आदरयौ रे लाल, विजोग पडीयौ तिरिया तणो रे, छता भोग छिटकाविया रे लाल, १. राठोड़ वंशी क्षत्रिय कांठे कोर कहाय रे । सोभागी । वगतसींघ सोभाय रे । सोभागी ॥ भाव. दीपादे तस नार रे । सोभागी । सिंघ सुपनो देख्यो श्रीकार रे। सोभागी ॥ भाव. असाढ़ मास सुकल पख माय रे । सोभागी । जनम किल्यांणज थाय रे । सोभागी ॥ भाव. एकज परण्या नार रे । सोभागी । कहै चारित लेसां लार रे । सोभागी । भाव. सगपण मलता अनेक रे। सोभागी । आयौ वेराग वसेख रे । सोभागी ॥ भाव, 7. मतवंत॥ सोभंत॥ आंण । वखांण ॥ श्रीकार । नर-नार ॥ ठांम? परिणांम ॥ २७७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ समत अठारे आठे वरस मैं रे लाल, लीधो द्रव्ये संजम भार रे। सोभागी। गुर कीधा रुघनाथजी रे लाल, पूरी नहीं ओळख्यो आचार रे। सोभागी।। भाव. ८ काळ कितोएक वीतां पछै रे लाल, वाच्या सुतर-सिधंत रे सोभागी। ठीक पड़यां पिछताविया रे लाल, मै तो न दीसै संत रे। सोभागी।। भाव. ९ यां'थापीता" थांनक आदल्या रे लाल, वले आधाकरमी जांण रे । सोभागी। मोल रा लीधां माहे रहै रे लाल, यां भांगी भगवंत आंण रे। सोभागी॥ भाव. १० ववेक-विकल बालक भणी रेलाल, मूंडता नहीं संकै लिगार रे। सोभागी। मत बांधण रे कारणे रे लाल, यां लोपी जिणवर कार रे। सोभागी।। भाव. ११ नितपिंड लागा बेहरवा रे लाल, पोथ्यां रा 'गंज'२ ठांम-ठांम रे।सोभागी। पडिलेहां विण पड़िया रहै रे लाल, यांरा किण विध सीझसी काम रे। सोभागी।। भाव. १२ भंड-उपगरण नै पातरा रे लाल, वस्त्र-उपध अनेक रे। सोभागी। इधका राखै जांण नैं रे लाल, ए 'बुडै '२ बिनां ववेक रे। सोभागी।। भाव. १३ किरिया मैं काचा घणा रे लाल, कह्यौ कठा लग जात रे। सोभागी। समकत-रतन जिण भाखियै रेलाल, ते पिण न आयौ हाथ रे। सोभागी।। भाव. १. साधु के लिए स्थापित। ३. डूब रहे हैं। २. ढेर। २७८ भिक्खु जश रसायण Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ विध सूं करी विचारणा, वारूंवार वसेख। सुध-मारग लेणौ सही, परभव सांमो देख॥ २ रखे झूठ लागेला मो भणी, तो खप करणी वारूंवार। सूतर सगला वाचणा, ज्यूं संक न रहै लिगार।। ३ राजनगर भणतां थकां, उघड़ी अभिंतर आंख। हिवै चारित ले सुध पाळणौ, छोड़ आतम रौ वांक॥ ४ म्है वैरागै घर छोडीया, न्यातीला नै रोवाण। इण विध जनम पूरौ कियां, मूळ न होवै किल्यांण॥ ५ वीर-वचन विचारतां, ए निश्चै नहीं अणगार। खप कर समझावां एह नैं, मिल पाळां सुध आचार।। ढाळ : २ (आ अणुकंपा जिण आज्ञा में) १ एहवो विचार कियौ तिण ठांमै, गाढ़ी बात हिया मैं धार। टोकरजी हरनाथजी भारीमाल, समझे नै लागा पूज री लार।ओ भीखू. औ भीखू चिरत सुणौ भव जीवां ॥ २ मुरधर देस मैं आया तिवारी, मिलीया सोझत सैहर मझार। गुर नै कहै वीर वचन संभाळो, आपां मैं नहीं छै सुध आचार॥ ओ भीखू. ३ देव अरिहंत नैं गुर निग्रंथ, केवळी भाख्यो धर्म तंत सार। तीनूंह रतन अमोलख जाणौ, यांमे भेळ म सरधौ लिगार।। ओ भीखू. ४ और वसतरे मैं भेळ पड्यां थी, चोखी वसत विगडै छै वसेख। तो पुन मैं पाप रौ भेळ किहां थी? सांसौ हुवै तो सूतर ल्यो देख । ओ भीखू. ५ आ सुध सरधा पिण हाथै न आई, सुध किरीया थी णि अळगा परीया। आगम न्याय अजे सुध चालौ, तो राखू माथै गुर धरीया।। ओ भीखू. ६ भेषधारयां तो मूळ न मांनी, जब भीखू मन मैं विचारयौ एम। उतावळ कीधां तो समझै नांही, धीरे समझावसां धर पेम।। ओ भीखू. १. कदाचित्। ३. वस्तु। २. वक्रता। ४. अब भी। भिक्खु-चरित : ढा. २ २७९ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ गुर नै कहै चोमासौ भेळौ करसां, चरचा करां दोनूं रूड़ी रीत। सूतर वाचैनै निरणौ करसां, खोटी सरधा आपे छोड़सां विपरीत।। ओ भीखू. ८ रुघनाथजी कहै-चोमासौ भेळौ कीधां, वले म्हारा चेला नै लेवै समझाय। जब भीखू कहै-'जड़बाजांनै" राखौ, त्यांनै चरचा री समझ पड़े नहीं काया।ओ भीखू. ९ इण विध उपाय घणाइ कीधा, पिण चरचा न कीधी चित्त लगाय। कर्म घणा नै 'वोहल संसारी'२, ते तो किण विध आवै ठाय? १० बीजी वार मिलीया बगड़ी मैं, कह्यौ थे तो वीर-वचन वीसरीया। निरणो करंता निश्चै न देख्या, जब भीखू तड़के तोड़ निसरीया।। ओ भीखू. ११ बगड़ी सूं विहार कियौ तिण वेळां, बावल वाजवा लागी तांम। 'अजैणा" जांणे छतरी मैं बैठा, रुघनाथ जी पिण आया तिण ठांम।। ओ भीखू. १२ लोक घणा आया सैहर बारै, रुघनाथजी कहै वांरूवार। टोळौ छोड़े मती निकळौ बारै, धीरप राखौ बात विचार।। ओ भीखू. १३ बात हमारी माने लेवौ, नहीं निभोला ए दुषम काळ। सुध आचार साधु रौ न चालै, भीखू किण विध बोलै रसाळ।। ओ भीखू. ३. तेज आंधी। १. अनपढ़ों को। २. अधिक काल तक संसार में भ्रमण करने वाले। २८० भिक्खु जश रसायण Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ भीखू वलता' भाखै भलौ, म्है किम मांनां थांरी म्है निरणो कियौ, सूतर वाचनै, तिण मैं संक नहीं २ छेला दिन लग चालसी, तीरथ धर्म अरिहंत वचन म्है सुध साधपणौ पाळसां, ३ छतरी मैं बैठां बात? तिलमात ॥ अगाध । अराध ॥ साख्यात। करी, पिण गरज न सरी अंस मात ॥ करो केम। थकां, मोह मन माहे चिंता ४ उदेभांण बोल्यो इसौ, आंसूपच टोळा तणा धणी वाजनै, आछी न .५ किण रो एक जाऔ जरै, चिंता म्हारा पांच जाऔ परा, गण ५ ढाळ : ३ ( कामणगारो छै कूकड़ो रे ) १ फेर बोल्या रुघनाथजी रे, थे जासो आगे थांरो पाछै माहरो रे, हूं भीखू तणो रे || जीवणौ चिरत सुणौ २ भीखू वलता भाखै भलौ रे, परीसा खमसां खिम्या करी रे, ३ विहार कियो वगडी थकी रे, वले चरचा कीधी वडलू मझे रे, ४ रुघनाथजी बात इसड़ी कही रे, चोखौ साधपणौ नहीं पळै रे, भीखू कहै - जिण भाखीयौ रे, ढीला भागळ इम भाखसी रे, 'बल-सिंघेण हीणा करी रे, आगूंच जिणजी इम भाखीयौ रे, १६ १. वापस। २. अश्रुपात । ३. भेद/बड़ा छिद्र । भिक्खु-चरित : ढा. ३ नहीं हुआ ते आंण्यौ दुषम थे लोक सूतर हिवडा' लोपां हुवै लागै पड़ै ती एक लगावसूं कितोएक जिणवर रुघनाथजी सांभळजो काळ मांनलो मांहरी आचारांग * सुध न न पळै एम ॥ अपार । बगार ॥ दूर ? पूर । काळ | पाळ ॥ लार। नर-नार ॥ साख्यात । बात ॥ माय। चलाय ॥ आचार। भेषधार ॥ पूरौ इम कहसी ४. आयारो अ. ६ उ. ४ । ५. इस समय ६. शारीरिक शक्ति व सेंहनन कमजोर होने से। २८१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७ साची सूतर तणी वारता रे, मांनी नहीं रे लिगार। समझाया समझे नहीं रे, जब कष्ट' हुआ तिणवार।। ८ भीखनजी आद देई तिहां रे, तेरै जणा हुआ त्यार। फेर दिख्या लेवा भणी रे, करवा आतम नो उद्धार। ९ श्रावक पिण तिण अवसरै रे, जोधाणा सैहर मै ताम। तैरै भायां समाई पोसां कीया रे, तिण सूं तेरापंथी दीयौ नाम। १० पाखंड पंथ दूरौ कीयौ रे, देख रह्या अरिहंत। अनेरो पंथ मां नहीं रे, जाणै तेरापंथ तंत॥ ११ गया देस मेवाड़ · मैं रे, केलवा सैहर मझार। आग्या ले अरिहंत नी रे, पचख्या पाप अठार।। १२ समत अठारे सतरोतरे रे, असाढ़ सुद पूनम जांण। संजम लीधौ सांमजी रे, कर जिन-वचन प्रमाण।। १३ हरनाथजी हाजर हुंता रे, टोकरजी तीखा सुवनीत। परम भगता 'सिष पाटवी'२ रे, यां राखी पूज री परतीत।। १. खिन्न। २. आचार्य भारीमालजी। २८२ भिक्खु जश रसायण Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ चारित लीधौ चूंप सूं, पाखंड भवियण रै मन भावता, हुआ २ उदै-उदै पूजा कही, समण १ आदिनाथ तिण सूं पूज प्रगट थया, ३ ओपम तो आछी कही, चोरासी अति दीपती, ४ वले दसमां अंग इधकार मैं, समण भीखू नै सोभती, वले षट दस दीधी ओपमा, 'उतराधेन अधेन ६ इण अणुसारे ओळखौ, भीखू नै ओपम गुण आछा घणा, तिण रौ पार न इग्यारमें, श्री वीर कह्यौ तीर्थंकर नाम ७ गुणवंत गुर ना गुण गावतां, हिवे ओपम सहित गुण वरणवूं, ते इण दुषम आरे कर्म कटीया जी, ए जिन-वचन समण - निग्रंथ सूत्र कही भाख १. उत्साह । २. अणुओगदाराई -सू. ७०८ भिक्खु-चरित : ढा. ४ मोटा निग्रंथ नीं आदेसर जी, जिणेसर पंथ ढाळ : ४ ( हरिया नै रंग भरियाजी ) गया बहुश्रुती नै सुणजो नै अणुजोगदुवार तीस ओपमा जग भली निवार | अणगार ॥ जांण । गोत कोइ चित प्रमांण ॥ श्रीकार । मझार ॥ तंत भगवंत ॥ श्रीकार । विसतार ॥ पामंत ॥ बंधाय । ल्याय ॥ तारण धर्म आद कढ़ी परगटीया आद जिणंद भंत । गुरु। अरिहंत । ए इचरज इधक सांम वरण अत सोवै जी, मन मोवै नेम जिणंद ज्यूं त्यांरी वांणी अमीय समांण भवियण रे मन भाया जी चित चाया तीरथ चार मैं। मुनि गुण रतनां री खांन ॥ ३. पण्हावागराई, अ. १० सू. ११ । ज्यूं । आवंत ॥ २८३ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ काळवादी आदि जांणी जी, मत आणी मारग उथापवा। 'कुबध्यां केलवीया कूर"। औ 'पाखंड घोचा'२ पोचार जी, कांइ ग्यांन करै गिरवा मुनी। चरचा कर कीया चकचूर। सांम. ३ संख उजल श्रीकारी जी, पयधारी दोनूं दीपता। नहीं बिगडै दूध लिगार।। ज्यूं थे तप-जप किरिया कीधी जी, कर लीधी आतम ऊजली। __पय 'दस जती धर्म' धार। सांम. ४ कंबोज देस नों घोड़ो जी, अति सोरौ करै सिरदार नै। नहीं आंणै अहिल' लिगार।। भवियण नै थे तारया जी, उतारया पार संसार थी। सुखे जासी मोख मझार।। सांम. ५ सूर सिरोमण साचौ जी, नहीं काचो लड़तां कटक मैं। सुवनीत अश्व असवार॥ ज्यूं थे कर्म कटक दल दीधौ' जी, जस लीधौ जाझौ- जगत मैं। चढ़ सुतर अश्व श्रीकार। सांम. ६ हाथी हथण्यां परवारे जी, बल धारै दिन-दिन ही वधै। साठ वरस सुध मांन। . ज्यूं थे तयाली वरस लग जाझा जी, तप ताजा तेज तीखा रह्या।। प्राक्रम पिण परधांन। सांम. ७ वरषभ सींग खंध भारी जी, सिरदारी गायां गण मझे। ठेट भार वहै भली भंत॥ ज्यूं थे गण भार ठेट निभाया जी, चलाया तीरथ चूंप सूं। सहु साधां मैं सोभंत।। सांम. १. कुबुद्धि वाले व्यक्तियों ने मिथ्या प्रचार ४. क्षांति, मुक्ति आदि। किया। ५. तकलीफ। २. पाखंड (शास्त्र-विरुद्ध आचरण करने ६. संग्राम। वाले तिनके) ७. पछाड़ दिया। ३. कमजोर। ८. बहुत। २८४ भिक्खु जश रसायण Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ सिंघ मिरगादिक ने राजा जी, तप ताजा डाढ़ा तेज सूं। __जीवन जीपै जोय।। ज्यूं आप केसर' नी परै गूंज्या जी, सदा धूज्या पाखंड धाक तूं। थां सूं गंज' सक्यौ नहीं कोय॥ सांम. ९ वासुदेव बळ जाण्यौ जी, बखांण्यौ वीर सिधंत मैं। __संख चकर गदा धरणहार॥ ज्यूं थारा ग्यांन दरसण चरित तीखा जी, नहीं फीका त्यां कर तेज सूं। पूज पाखंड दियौ निवार। सांम. १० आखा भरत नों राजा जी, अति ताजा सेन्या सझ करी। आंणै वेश्यां रो अंत॥ ज्यूं थे पाखंड सहु ओळखाया जी, हटाया बुध उतपात सूं॥ तत्व बताया तंत॥ सांम. ११ 'सक-इन्द्र '२ सिरदारी जी, वजरधारी सुर मैं सोभतो। जखादिक जीपे जांण॥ ___ ज्यूं सूतर वजर श्रीकारी जी, बळधारी बुध उतपात सं। पूज पाड़ी पाखंड री हांण। सांम. .. १२ 'आइच उगां' आकासै जी, विणासै तिमर तेज सूं। इधकौ करै उद्योत॥ ज्यूं थे अग्यांन अंधार मिटायौ जी, बतायौ मारग मुगत रो। घण-घट' घाली जोत।। सांम. १३ चंद सदा सुखकारी जी, परिवारी ग्रह ना गण मझे। सोमकारी सोभंत॥ ज्यू च्यार तीरथ सुखदाया जी, मन भाया भवियण जीव रे। भीखू भलाज संत॥ सांम. १४ लोक घणा आधारी जी, अत भारी धांनां कर भत्यौ। ते कोठागार कहाय॥ ज्यूं ग्यांनादिक गुण भरीया जी, परवरीया पूज परगट थया। आधारभूत अथाय। सांम. १. केशरी सिंह। ४. सूर्य उदय होकर। २. जीत। ५. अनेक व्यक्तियों के हृदय में। ३. शकेन्द्र-प्रथम स्वर्ग का इन्द्र। ६. शांतिकारी। भिक्खु-चरित : ढा. ४ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सर्व वृक्षां मैं सोवै जी, मन मोवै दीसै दीपतौ। __ जंबू सुदरसण जांण। ज्यूं संतां मैं सिरदारी जी, मत भारी भीखू भरत मैं। उपना इचरजकारी आंण।। सांम. १६ सीता नंदी सिरै जांणी जी, बखांणी वीर सिधंत मैं। पंच सै जोजन प्रवाह। ज्यू तप-तेज अत तीखाजी, नहीं फीका, रह्या ज फाबता'। सदा काळ सुखदाय॥ सांम. १७ मेरू नी ओपम आछी जी, नहीं काची कही किरपाल जी। ते ऊंचौ घणौ अतंत। ओषद अनेक छाजै जी, विराजै गुण त्यांमैं घणा। ज्यूं ए बहुश्रुती बुधवंत॥ सांम. १८ 'सयंभूरमण समुद्र रूड़ौ जी, 'पूरौ पाव राज पिहुलो पड्यौ'। . __ प्रभूत रतन भरपूर। सागर जेम गंभीरा जी, सुरवीरा गुण कर गाजता। सूतर चरचा मैं सूर॥ सांम. १९ ए षट दस ओपम आछी जी, कांई साची सूतर मैं कही। बहुश्रुती नै श्रीकार। इण अणुसारे जाणौ जी, पिछांणौ कर लो पारखा। भीखू गुण-भंडार॥ सांम. २० ओपम अनेक गुण छाज्या जी, विराज्या गादी वीर नी। पूज पाट लायक गुण पाय।। समुद्र जेम अथागा जी, जलथागा जिण भाख्यौ नहीं। ज्यूं गुण पूरा केम कहिवाय? सांम. २१ पाटलायक सिष भाली जी, सूहाली परकत सुन्दरू। भारमलजी गैहर गंभीर। पदवी थिरकर थापी जी, आ आपी आचारज तणी। जांणे सुवनीत सधीर॥ सांम. १. शोभित होते हुए। चौथा भाग)रज्जू चौड़ाई वाला है। असंख्य २. स्वयंभूरमण समुद्र पाव (एक रज्जू का योजन , का एक रज्जू होता है। ३. विपुल। २८६ भिक्खु जश रसायण Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ भगोती' मैं भगवंत भाखीयौ, वीसमा सतक मझार। छला दिन लग चालसी, निरमळ तीरथ च्यार।। २ वले 'उतराधेन दसमा अधेन' मैं, गोतम प्रतै कह्यौ भगवान। दुषम आरा तेह मैं, जिण-धर्म चलसी असमांन। ३ धणी बिना ते जूझसी, लेसी आगम वचन अराध। तो हिवड़ा मुज बैठां थकां, समो एक म कर परमाद। ४ वले वंकचूलिया मैं वारता, तेपना पछै विचार। इधक पूजा अरिहंत कही, समण निगरंथ नी श्रीकार।। ५ तिण सूं पूज पूजावीया, दिन-दिन इधक दयाल। उपगार कीधा अति घणा, मेट्या मोह-जंजाळ॥ ६ किहां किहां विचस्या सांम जी, किहां-किहां कीया उपगार? __ थोड़ो सो परगट करूं, ते सुणजो इधकार।। ढाळ : ५ (भरत नरिंद तिण वार) १ हाड़ोती ढूंढार मझार, वले मुरधर देश मेवार। आछेलाल! च्यारूं देसां में विचरीया जी।। २ पाखंड उठ्या अनेक, पूज मेट्या आंण ववेक। ___ आछेलाल! सूतर चरचा रा जोर सूं जी।। ३ कीधा साध-साधवियां रो थाट, रह्या दिन-दिन इधका गैहघाट। आछेलाल! श्रावक-श्रावक किया घणाजी॥ ४ करता पर उपगार, आया मुरधर देस मझार। आछेलाल! चरम उपगार हुवौ घणो जी।। ५ च्यार भाया नैं बायां सात, त्यां दिख्या लीधी जोड़े हाथ। आछेलाल! वैरागे घर छोडीया जी।। ६ चांणोद आद दे जांण, पीपाड़ तांई पिछांण। आछेलाल! छेला दरसण दीधा सांमजी॥ १. भगवई-श. २० सू. ७३। २. उत्तरज्झयणाणि-अ. १० गा. ३१। भिक्खु-चरित : ढा.५ २८७ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ गांमां-नगरां करता उपगार, आया सोजत सैहर मझार। आछेलाल! रायमलजी री छतरी मैं ऊतस्या जी॥ ८ हुकमचंद आछो आयौ तांम, पूज नै वांद्या सीस नाम। ___ आछेलाल! विणती तो विध संकरी जी॥ ९ चोमासौ करौ सरीयारी माय, मारी पकी हाट विराजो आय। __ आछेलाल! पूज मां लीधी वीणतीजी॥ १० बगड़ी कंटाळ्यै होय, वीणती कीधी घणां जोय। आछेलाल! चोमासा री अरज मांनी नहीं जी। ११ पूज आया सरीयारी चलाय, दियौ चोमासौ ठाय।। आछेलाल। आग्या ले पकी हाअ विराजीया जी।। १२ सरीयारी सोभै कांठा री कोर, 'जाडी१ माजन वसती जोर। आछेलाल! 'दोला-दोला" कोट ज्—'मगरा दीसता जी॥ १३ भारमलजी खेतसी उदेरांम, रायचंद ब्रह्मचारी तांम। आछेलाल! जीवोमुनि वैरागी भगजी भगत मैं जी॥ . १४ सप्त रिष सहित तिण वार, ग्यानांदिक गुण रा भंडार। आछेलाल!संजम-तपसुध अराधता जी।। १५ रागी घणा सैहर मझार, तो वांदण आया नर-नार। आछेलाल! भवियण रे मन भाविया जी।। १६ हिवे सांवण मास मझार, आवसग अर्थ विचार। आछेलाल! लिख-लिख सिष नै बतावता जी।। १७ गोचरी पिण फिरिया ठांम-ठांम, दरसण देवा कांम। आछेलाल! सावण सुद पूनम लगे जी।। ३. पहाड़। १. अधिक। २. चारों ओर। २८८ भिक्खु जश रसायण Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ चरम किल्यांण चढ़तौ हूवौ, तिण रौ सुणौ सहू विसतार। सरीयारी मैं सांम विराजीया, हिवे भाद्रवा मास मझार।। २ अलप असाता 'फेरा' तणी, कांयक जणांणी जाण। और असाता इधक न ऊपनी, परबल पुन प्रमाण।। ३ पूरव पाप परबल हुवै, ते 'रिबेर' घणा दिन-रात। एहवी असात वेदनी या नहीं, ए पदवीधर पूज विख्यात। ४ हिवे पजूसणां मैं परवरा, 'तीन टक हुवै वखांण। नर-नारी आवै घणा, सुणवा सुन्दर वांण॥ ५ सुकल पख सुहामणौ, मास भाद्रवै जांण। चोथज आई चांदणी, आउ 'नेरो'५ आयो पिछांण।। ६ सतजुगी नै सांमी कहै, थे आछा सिष सुविनीत। साझ "दीयौ थे मो भणी, मैं संजम पाळ्यो रूड़ी रीत॥ ७ आगै टोकरजी तीखा हुंता, विनैवंत विचार। भगत करी भारी घणी, सुवनीत हुंता श्रीकार।। ८ भारमलजी सूं भेळप भली, रहीज रूडी रीत। जांणक पाछल भव तणी, लगती हुंती पीत। ९ यां तीना रां साझ सूं, पाल्यौ सुध संजम भार। चित समाध रही घणी, थे रह्याज एकणधार। १० उतराधेन पैहला अधेन मैं", भाख गया वीर जिणंद। सिष सुवनीत हुवै सदा, तो गुर नै रहै आणंद।। ढाळ : ६ (पंथीड़ा रे वात कहो नी धुर छेह थी रे) १ देवै रे, देवै सीखावण सांम जी रे, सासण चलावण काम रे। साधज रे साध-श्रावक नैं श्रावका रे, घणां सुणतां था तिण ठाम रे।। सुणजो रे सुणजो सीख सांमी तणी रे।। १. दस्त। २. तकलीफ पाते हैं। ३. श्रेष्ठ। ४. तीनों समय (सुबह, मध्याह्न और रात में) ५. निकट। ६. एकता। ७. उत्तरज्झणाणि-अ. १ गा. १३। भिक्खु-चरित : ढा.६ २८९ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ३ ४ आग्या रे आग्या अराधे एहनी रे, सेवा रे सेवा भगत कीजौ तेहनी रे, पदवी रे पदवी दीधी छै एहनै रे, संका रे संका मूल म आंणजो रे, कोई दोष रे दोष लगावै गण मझे रे, तो कांणरे कांणम राखजो तेहनी रे, ७ सुधरे सुध साधु नै सेवजो रे, आ छेली रे छेली सीखावण धारजो रे, ६ मोनै रे मोने जांणता जिण विधे रे, तिम हिज रे तिमहिज परतीत राखजो रे, आग्या रे आग्या लोपै एहनी रे, तिण नै रे तिनै साधू मत सरधजो रे, ц ८ उसना रे उसना ने पासथा रे, अपछंदा रे अपछंदा छांदै रहै रे, ९ ए पांचा नै रे पांचा नै प्रभु नखेधीया रे, त्यांरो संग परचो करणौ नहीं रे, १० आणंद रे आणंद श्रावक अभिग्रह लीया रे, त्यांरी सेवा रे सेवा भगत करूं नहीं रे, ११ वीर रे वीर जिणंद वखांणीयो रे, आ हीज रे आहीज रीत अराधजो रे, १२ सगला रे सगला साधू नै साधवी रे, जिण तिण ने रे जिण तिण ने मत मूंडजो रे, १३ आ दीधी रे दीधी सीखावण सांम जी रे, ओर' रे ओर कारण त्यारे को नही रे, १. झूठा २. लिहाज । २९० राखता मुज परतीत भारीमालजी री आहीज़ रीत रे ॥ दोष लागां काढ़े गण बार रे । मत गणजो तीरथ मझार रे ॥ सुवनीत सदा रहै रे। आ जिण मारग री रीत रे ॥ भार लायक जांणी भारीमाल रे । यां मैं असल साधां री चाल रे॥ वले कर्म-जोगे लगावै कूर रे। प्राछित न लै तो करजो दूर रे || अनाचारी सूं रहिजो दूर रे। ज्यूं कर्म हुवै चकचूर रे ॥ कुसीलिया परमादी पिछांण रे। त्यां भागी है भगवंत आण रे || नसीत गिनाता विसाल आ बांधी भगवंत पाळ रे ॥ जिण मत थी न्यारा जांण रे। पेंहली बोलण रा पिण पचखांण रे || ओ आणंद अभिग्र' श्रीकार रे । रे । ज्यूं पांमो राखजो रे। भवजल पार रे। हेत वसेख दीजो देख-देख रे || तारण तांम रे। दिख्या एकंत तिण सूं सीझै आतम कांम रे || ३. देखें भिक्षु जस रसायण ढा. ५५ गा. ८, ९ के टिप्पण ४. अभिग्रह। भिक्खु जश रसायण Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ दूहा परम वचन श्री पूज रा, चरम उपदेश तो आछौ दियौ, सांभळता चित २ सुध गति जाणौ जेह नै, जिसा गंगा नीर ज्यूं ३ परम भगता सिख कांइ असाता ठेट आपरै, सांम ४ श्री वीर मुगत निरमळौ, आद दे, इण दुषम ओ पांच मै, वले उपदेश दीधौ किण विधे, भव जीवां तुमे सांभळो, चित किण विराजतां, सोहलै तिम १. ऊनायत (कमी ) । भिक्खु चरित : ढा. ७ अरिहंत वचन आराधजो रे, ६ रायचंद ब्रह्मचारी नै इम कहै रे, मोह म आंणै माहरो रे, वचन इज र सुधी कहै - नहीं पोहर हीज विध नैं ढाळ : ७ ( चतुर नर बात विचारो एह ) र एकण पूछ्यौ रे कियौ १ भारमलजी आद साधां भणी रे, श्री पूज कहै चरम सीखावण माहरी रे, सांभळजो भविक रे, भीक्खू दिया उपदेश ।। संका न हिवड़े हरष २ म्है तो जाता दीसां परभवे रे, मरण रो भय म्हारे नहीं रे, ३ म्है चरित दीयो घणां जीव भणी रे, श्रावक-श्रावका किया घणां रे, ४ म्है जोड़ां कीधी जुगत सूं रे, ' उणारत १ रहीं नहीं रे, ५ थे पिण रहिजो निरमळा रे, 1 चिमतकार | सुखकार ॥ भीक्खू बोल्या आण परणांम। ठांम॥ दीसै अथाय ॥ वारूंवार । लिगार ॥ बखांण । जांण ॥ वांण । ठिकांण ॥ छै बोलाय । सुखदाय ॥ कांय । भविक. समकत पमाई रूड़ी रीत । एकंत तारण नी नीत ॥ भविक. नर-नार । भविक. माय। समझाया म्हारा मन मझार । मोह म कीज्यो मन ज्यूं मोसूं वेगा मिलोला आय।। भविक. तू छै बालक बुधवांन राखजै रूड़ो ध्यांन ॥ भविक. २९१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ब्रह्मचारी कहै - श्री पूज नै रे, पिंडत मरण करौ भलौ रे, ८ वले पूज वाणी इण विध वदै रे, इरिया भाषा नै एषणा रे , ९ भंड उपगरण लेतां - मेलतां रे, जैणा कीज्यो जुगत सू रे, १० सिष - सिषणी उपगरण ऊपरे रे, ममता - मोह कियां थकां रे, ११ पुद्गल ममता कोई मत करो रे, सुमता सदाई राखजो रे, १२ भगतवंत भारमलजी रे, विरहो पड़ै दरसण तणो रे, १३ थे संजम अराध्यां सुर होवसो रे, महाविदेह खेतर मझे रे, २९२ आप जावौ सुध गीत माय । हूं मोह आणूं किण न्याय? भविक. थे आराधजो आचार। लोपज्यो मती लिगार ।। भविक. तांम। परठतां - पूजतां ज्यूं सीझै ममता कर्म इण आतम कांम ॥ म कीज्यौ तणो बंध होय ॥ भविक. कोय। भविक. ममता थी दुख थाय । ज्यूं वेगा जाओ मुगत गढ़ माय ॥ भविक. बोलै एहवी वाय । हिवै पूज बोलै सुखदाय॥ भविक. मुज थकी मोटा त्यांरा देखजो दरसण दीदार || भविक. अणगार । भिक्खु जश रसायण Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ सतजुगी कहै श्री सांम नै - आप जासो 'झंड" रे साधजी! म्हारै नहीं झंड री भोगव्या सांम कहै - सुण म्है अनंती २ पुद्गलीक सुख छै 'पांवलो २, त्यांरी बंछा मूळ करूं नहीं, म्हांरै जांणौ मुगत पिंडत मरण ३ हिवे सकाम मरण करै सांमजी, 13 आलवणा आछी करी, होय गया सुध ४ सदा निरमल था सांमजी, पिण मरण अंत रमाई करै घणी, परभव सांहमौ आलवणा किण विध करै, तिण विध रा हुंता वचन अमोलख वागरै, ते सुणजो चतुर ५ १ अरिहंत सिध री वले सतजुगी री ५ ढाळ : ८ ( मारग वहै रे उतावलौ ) साख सूं, बड़ा साख सूं, वचन सुणज्यो आलवणा सांमी तणी ॥ २ चोरासी लख जीवा जोण नै खमाऊं कर 9 राग- धेष नहीं माहरै, ते देख रह्या भगवंत ।। ३ साध सुवनीत हुआ घणां, केई कठण वचन कह्या तेहनैं, खमाऊं ४ साधवीयां सतीयां मझे, केएक कठण सीख दीधी श्रावक नै वले कठण वचन कह्या भिक्खु चरित : ढा. ८ १. समूह (सुर वर्ग) । झिंड (क) । २. पाम रोग के समान निकृष्ट । ३. आलोचना। सिष ४. गौर ५. काढ्या मुख कठोर प्रकृति वाली। मांहि । चाहि ॥ वार । मझार ॥ पिछांण । सुजांण ॥ वसेख। देख॥ जांण । सुजांण ॥ कुसिष रूड़ी रीत।। करली* हुवै, तो खमाऊं वारूंवार ।। केकां हुवै, तो खमाऊं छू वसेख || सुणज्यो. श्रावका, नै करला सरकार | बार ॥ 'खंत ” । सुणज्यो. अवनीत। सुणज्यो. विचार | सुणज्यो. देख। २९३ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ च्यार तीरथ नै सुध चलायवा, सीख दीधी सुखदाय। करलौ काठौ लागौ हुवै, तो त्यांनै दीज्यौ खमाय॥ सुणज्यो. ७ म्है चरचा कीधी चूंप सूं, घणा सूं ठांम-ठांम। करलौ वचन लागौ जांणीयो, त्यांनै खमाया ले-ले नाम।। सुणज्यो. ८ जिण मारग रा धेषी छै घणा, 'छिद्रपेही १ अथाय। ___ 'खेद २ आई हुवै किण ऊपरै, तो देऊं सकल नै खमाय॥ ९ तस थावर आद जीव री, हिंसा लागी हुवै कोय। मन वचन काया करी, तो मिच्छामी दुकडं' छै मोय।।सुणज्यो. १० क्रोध मांन माया करी, लोभ भय वस होय। जे कोइ झूठ लागौ हुवै, 'मिच्छामी दुकडं' छै मोय। सुणज्यो. ११ कोई अदत मोनै लागौ हुवै, सूतां जागतां जोय। ममता धरी हुवै मइथून सूं, तो आलवण खाते होय॥ १२ सिष-सिषणी वसतर पातर ऊपरै, मुरछा वंछा कीधी देख। मन वचन काया करी, 'मिच्छामी दुकडं' विसेख।। सुणज्यो. १३ एहवी आलोवणा सुणे, आणै मन वेराग। ते पिण कर्म खपावे आपरा, पामै सुख अथाग।। सुणज्यो. १. छिद्रान्वेषी। २. उत्तेजना। २९४ भिक्खु जश रसायण Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ पांचूइ आश्रव माहिलो, लागौ जांण्यो किण वार। व्रत संभाळ्या सांमजी, आलोव्या अतीचार।। २ बड़ा सिष सुवनीत री, जुगती मिलीज जोड़। 'लैहर काई राखी नहीं, काट्या कर्म कठोर॥ ३ 'फोरी' असाता 'फेरा'२ तणी, और असाता नहीं तिणवार। षट सिष सेवा साचवै, एहवा पुन संच्या सार॥ ४ आज्ञा उपर आदरी, भीक्खू भलेज भाव। जनम सुधार्यो जुगत सूं, जांण तिरण रो डाव ॥ ५ सखरी करी संलेखणा, अणसणनों इधकार। ___भाव धरी भवीयण सुणो, आळस सर्व निवार॥ ढाळ : ९ (आवीयो रावण लोक डरावण) भाद्रवा सुकल पख पंचमी परगटी, चोथ भगत चोविहार ठावै। असाता इधक तिरखा तणी उपनी, सूर कायरपणो नाय ल्यावै॥ कर हो जीव!तूं भजन भीखू तणो॥ २ पारणौ कीधौ छठ परभात रो, ओषद अलप सो आहार लीयो। ते पिण आहार समौ नही परगम्यौ , तिण दिन तीनूं आहार नो त्याग कीयौ॥ कर. ३ सातम-आठम आहार ले अलप सो, तितखण त्याग तो कर लेवै। पुदगल सरूप तो पूज पिछांण नै, आसा वंछा सहू मेट देवै॥ कर. ४ खरे मते कहै खेतसी 'खांच कर, 'तरके" त्याग नहीं कहिणो। पूज कहै-देही पातळी पारणी, तेरस दिन तो अणसण लेणौ। कर. ५ विरधो सेठ तो श्रावक सनमुखे, विवध प्रकार सूंखड़ी आपै। पूज़ कहै-वंछा नहीं मांहरै, थिर कर मोख सं पीत थापै॥ कर. १. उच्चावच भाव। ५. सम्यग् रूप में परिणत नहीं हुआ। २. थोड़ी। ६. आग्रह। ३. दस्त। ७. तत्काल। ४. दांव/अवसर। भिक्खु-चरित : ढा. ९ २९५ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भाद्रवा सुकल नवमी तणे दिन, पूज कहै - आहार नों त्याग लेऊ। सतजुगी कहै-मुज हाथ नो चाखियै, चरम आहार थोड़ो आंण देऊा कर. ७ अलप सो आहार आंण्यो सांमी खेतसी, चाख के ततखण त्याग कीधौ। एतो मन राखीयौ सुवनीत सिष तणो, पिण इच्छ्यां सूं आहार त्यां नाह लीधौ।। कर. ८ दसमी तणे दिन परम भगता सिष, पूजजी सूं वली एम भाखै। चाळीस चावळ दस मोठरे आसरे, वीणती मान कै तेह चाखै।। कर. ९ इग्यारस तो पूज आहार त्यागे दीयौ, अमल पांणी रो आगार राख्यौ। हिवै मुज नै आहार लेतौ मत जांणज्यौ, वचन अमोलख एक भाख्यौ। कर. १० सनमुख पधारीया तावड़ौआवीयां, बारस बेलो थिर कर ठायो। सकत इसड़ी रही आहार कीयां बिना, एह इचरज इधक आयो। कर. ११ जीवण आछै अरज कीधी हाट री, तो ही पूज पकी हाट आय बैठा। 'सेन सिषां कियौ विसरांम त्यां लियौ, सांम तो मन माहै इधक सैंठा।। कर. १२ सुखे सूता देख पूज परम गुर, रिष रायचंद आय एम बोले। किरपा तो कीजियै दरसण दीजीयै, तांम तो पूजजी नैण खोल।। कर. १३ पूंज सूं वीनवै प्राकम हीणा पड्या', ब्रहचारी विनय सूं ए बोलै। केसरी नी परे वेण हिवडै धरै, तांम ते आपरो 'तेज'८ तोलै।। १. शयन (बिछौना)। २. शारीरिक शक्ति क्षीण हो रही है। ३. मुनि रायचंदजी। ४. पराक्रम। २९६ भिक्खु जश रसायण Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ बुलावौ याद २ अरिहंत सिध प्रणमी करी, तीनु आहार रा त्याग त्याग जावजीव छै, ३ कहै परम भगता सिष पाटवी, सांम कहैहै- आगार किसौ राखणौ, मझे, दूहा भारमलजी भणी, वले करंता आवीया, 'चटके " पोतैइ कीया 'ऊंचै सुर २ बोल्या इम क्यूं न राख्यौ अमल किसी करणी देही आसरै दोय घड़ी दिन री मैं उज्जम दरसण काज। आवै धिन धिन ए मुनिराज ॥ ४ वारस दिन बेला ५ कियौ संथा सांमजी, मन घणा खबर हुआ अणसण तणी, वेराग वधीयो अति घणौ, कहै १ केइ कहै संथारौ सीझै सांम रो, केइ कहै कुसील रा त्यांग छे, ५ २ केइ अगन आरंभ नहीं आदरै, केइकां रे नीलोती खांणी नहीं, ३ ' केइकां धीज थापी थी धेखियां', अनामी घणा आये नम्या, ढाळ : १० (सहेल्यां ए वांदो रूड़ा साध० ) १. . शीघ्र । २. ऊंचे स्वर से । ४ पडिकमणो कीयां पछै पूजजी, सिष कहैं वखांण रो कारण किसौ, आरज्यां क्यांइ अणसण लियौ हुवै, मुज अणसण मैं उचरंग सूं, सतजुगी भवजीवां! तुमे वांदो भीखू भाव सू। उभा भिक्खु-चरित : ढा. १० त्यां लग म्हांरे हो काचा पाणी रा पचखांण । घणां छोड्यौ हो सिनांन सुमता आंण ॥ ओ तो पूजजी संथारो कीयो सोभतो ॥ सुजाण । आंण ।। पचखांण । वांण ॥ अगार ? सार ।। जांण । आंण ॥ केइ करै हो छ ही काय हणवा त्याग। इत्यादिक हो हुओ घणो वैराग ॥ भव. ते पिण इचरज हो पाम्यां तिणवार । त्यां पिण जांण्यौ हो ओ मारग तंत सार । सिष नैं कहै हो विध सूं करौ वखांण । पूज बोल्या हो पाछा इमरत वांण।। ओ. तिण ठांमे हो जाय करां छां वखांण । उपदेस हो देवौ मोटे मंडाण ॥ ओ. ३. कई विपक्षी लोगों ने यह शर्त की थी कि भीखणजी द्वारा चलाया गया मार्ग सही है तो उन्हें अंत में अनशन आयेगा। २९७ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वखांण कीयौ विसतार सूं, जैतोजी आया समाइ करवा भणी, ७ गुण-ग्रांम किया त्यां अति घणां, पूज कहै परिणांम चोखा माहरा, ८ ' आपेई, ' पाणी पीधौ पूजजी, चरम सबद च्यारूं कह्या, साध-श्रावक सुणतां कह्यौ सांमजी, वले कयौ - साध आवै अछै, १० चोथो सबद इसड़ौ कह्यौ, गुलोजी लूण्यो कहै - सांमीजी तणो, ११ भारमलजी सांमी इम वीनवै, किण ही माहे मन मत राखजो, १२ अवध ग्यांन उपनौ नहीं जांणीयो, यां जांण्यौ मन साधां मैं गयौ, १३ घणां गांवां रा श्रावक - श्रावका, चरम उछव करै चूंप सूं, ९ १. स्वयंमेव / अपने हाथ से । २९८. सुखे सूता हो पाछली रात माय । तिण प्रणम्या हो श्री पूज पाय | ओ. धिन धिन कहै हो आप मोटा अणगार । तिण री संका मत आणजो लिगार || ओ. पोहर दिन हो जाझेरौ आयौ जांण । इचरजकारी हो बोल्या इमरत वांण ॥ ओ. सूंस वरत हो केराऔ सैहर माय । आरजियां होआवै छै चलाय | ओ. धीरा बोल्या हो तिण री ' विगत २ न काय । मन गयो साधां आरजियां रे माय ॥ ओ. थानै होज्यो हो सांमी सरणा च्यार । आप कीधौ हो घणां जीवां रो उधार || ओ. तिण सूं पाछौ हो नहीं पूछ्यौ लिगार । नहीं कीधौ इण बात रौ विचार ॥ ओ. दरसण करवा हो आया बहू थाट । इसरा हुआ हो सरीयारी मैं गैहघाट | ओ. २. खबर । भिक्खु रसायण Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ पाली रा चालीया पाधरा', दोय साध आया तिणवार। रिख वैणीदास खुसाल जी, देख इचरज पाम्या नर नार॥ २ पग प्रणम्या श्री पूज रा, दीधौ माथे हाथ। साता पूछयां सांनी करी, पिण मुख सूं न कीधी वात॥ ३ दुषम आरा तेह मैं, अवधि बागरियौ नहीं जाता। संजम आराध्यो सांमजी, तिण सूं कही अलप सी वात॥ ४ हुवै विमाणीक देवता, तिण नैं अवध ऊपजै आय। इण बात मैं सका नहीं, भाख गया जिणराय॥ ५ इण लेखे पूजजी तण, अवधि ग्यांन उपनौ आय। निश्चै तो जांणै केवळी, पिण संक न दीसै काय॥ ढाळ : ११ (कीड़ी चाली सासरे रे) १ दोनइ साध आया तिके रे, बोलै बे कर जोड़। दरसण दीठौ दयाल रो रे, पूगा मन रा कोड़॥ भीखू भजो भाव सूं रे। त्यां सुधारयां भव दोय, बुधवंत जसवंत होय। ___ यां सम अवर न कोय, इण आखा भरत मैं जोय, भीखू.॥ २ रिख वैणीदास इम वीनवै रे, थानै होज्यौ सरणा च्यार। तुम सरणौ मुज भव-भवे रे, होज्यौ वारूं-वार। भीखू. ३ जिसोइ मारग जिण तणो रे, जिसोइज पायौ आप। दिन-दिन इधका दीपीया रे, टाळ्या घणां रा संताप।। भीखू. ४ स्तुति अरिहंत सिध तणी रे, संभळाई श्रीकार। जाण्यो भगत किहां थी भीखू तणी रे, इण अवसर मझार। भीखू. ५ इतलै आई तीन आरज्यां रे, वगतूजी झूमां डाहीजी जांण। इचरज इधको ऊपनो रे, पूज कही ते वात मिली आंण।। भीखू. १. सीधा/उसी दिन। २. निश्चित नहीं का जा सकता। भिक्खु-चरित : ढा. ११ २९९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ च्यार-तीरथ भल भाव सूं रे, देखै दरसण दीदार। भगत' करै भीखू तणी रे, जांणै अवसर सार।। भीखू. ७ बैठा हुआ तिण अवसरे रे, ध्यान आसण श्रीकार। ____ जांणे क जिणजी विराजिया रे, न जांणी असाता लिगार।। भीखू. ८ तेरे खंडी त्यांरी हुई रे, जाणक देव विमाण। तंतो तंत इसड़ौ मिल्यौ रे, पूज बैठांइ छोड्या प्रांण। भीखू. सुकल पख सुहामणौ रे, मास भाद्रवा माय। तेरस तिथ दिन पाछलौ रे, आसरे डोढ़ पोहर गिणाय।। भीखू. १० प्रथम पद परमेसरू रे, त्यांरा किल्यांण पांच प्रकार। इण विध किल्याण यांरा हुवा रे, इण दुषम काळ मझार।। भीखू. ११ सरीयारी नै सांम जी रे, 'चावी२' कीधी ठांम-ठांम। जनम सुधारयौ जुगत सुं. रे, त्यांरा लीजै नित प्रत नाम।। भीखू. १२ साध तो भीखू सारीखा रे, आखा भरत रे माय। हआ नै होसी वले रे, पिण आज न कोइ दिखाय॥ भीखू. १३ हिवे सोध्यां तो पावै नहीं रे, भीखू सरीखा साधा करलो काम पड़सी चरचा तणो रे, तिण वेला आवेला याद।। REE FEEEEEEEEEE - १. भक्ति। २. प्रसिद्ध। ३०० भिक्खु जश रसायण Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १ तियाळीस वरसां लगे, कांयक जाझेरो जांण। संजम पाल्यौ सांमजी, समता रस घट आंण।। २ दिन-दिन इधका दीपीया, तेज प्रताप पिछांण। जिण मारग जमायौ जुगत सूं, अखंड वरताई आंण। ३ आंख्यां आद इंद्रयां तणो, रह्योज रूड़ी तेज। सरीर निरोगौ निरमळौ, तिण दीठां उपजै हेज।। ४ किया चोमासा चूंप सूं, चतुर नै चाळीस। इधक आउखौ आछौ हुओ, ज्यूं दीप्या जगदीस॥ ५ किहां-किहां चोमासा किया, किहां-किहां किया उपगार। नाम लेइ निरणौ कहूं, ते सुणजो विसतार।। . ढाळ : १२ (जीवा! मोह अनुकंपा न आणीयै ) १ छ चोमासा किया केलवै, सतरे इकवीसे जांण जी। पचीसे अड़तीसे गुणचास मैं, लीज्यो अठावनो पिछांण जी॥ सुणज्यो चोमासा सांमी तणा॥ २ तिण ठांमे उपगार हुऔ घणौ, मोखमसींगजी ठाकुर जांण जी। दरसण करता दयाल रा, वले सुणता आय वखांण जी।। सुण. ३ सात चोमासा सरियारी कीया, उगणी बावीसे गुणतीसे जोय जी। गुणताळे वयाळे एकावने, साठे चरम किल्याणज होय जी।।सुण. ४ सात किया पाली में पूज जी, तेइसे तेतीसे जांण जी। चाळीसे चमाळीसे बावने, पचावने गुणसठे बखांण जी। सुण. ५ पांच चोमासा किया खैरवे, छाइसे बतीसे विचार जी। इकताळीसे छियाळीसे चोपने, तठे कीयौ घणौ उपगार जी। सुण. ६ बगड़ी मैं पूज विध सूं किया, तीन चोमासा सरीकार जी। सतावीसे नै तीसे समे, तीजो बतीसे लीजो विचार जी॥ सुण. - ७ नाथदुवारा मैं नीका किया, तीन चोमासा तहतीक जी। तयाळीसे पचासे छपनै, त्यांरी रूड़ी राखज्यो ठीक।। सुण. भिक्खु-चरित : ढा. १२ ३०१ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कंटाळिया मैं किरपा करी, पूज किया चोमास दोय। चौवीसे अठावीसे वरस मैं, जिहां जनम किल्यांणज जोय।। सुण. पीपार मैं पाखंड हुँता घणा, दोय चोमासा दिया ठाय। चोतीसे अठावीसे वरस मैं, घणौ दीयौ मिथ्यात मिटाय।। १० गढ़ रणतभंवर किलो तिहां, तळेटी माधोपुर मझार'। ___ इगतीसे अड़ताले दोनूं किया, तिहां इधक हुऔ उपगार।। सुण. ११ दोय चोमासा किया पुर सैहर मैं, तिहां उपगार 'जाझौ २ जांण। सैताळीसैं नै सतावनै, ते गिण लीज्यौ चतुर सुजांण॥ सुण. १२ अठारा रै वरस वडलू कियौ, वीसे राजनगर विचार। पैतीसे आंबेट पादु सैंतीस मैं, तेपनें सोजत सैहर मझार॥ सुण. १३ पनरै गांमां मैं कीधा पूज जी, चमाळीस चौमासा सार। ए परम भगता सिष पाटवी, घणा रह्या पूज री लार॥ सुण. १. देखें. भिक्षु जश रसायण, ढा६३ गा.५ २. अधिक। की टिप्पण। ३०२ _ भिक्खु जश रसायण Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ आद हुआ आदेसरू, आदनाथ तीजा आरा तेह मैं, मुगत २ त्यां आद काढ़ी जिण धर्म री, 'जुगलवारो १ संसार री ने धर्म री, दूहा ५ दीधी भीखू लीधा ३ आदि काढ़ी अरिहंत ज्यूं, आरा दुःसम तेहमैं, ४ भवि जीवां रा भाग सूं, श्रुत बले मोटा मुनि, उपगार कीधौ अति घणौ, पूरौ थोड़ा सो परगट करूं, ते सुणज्यो १ साध - साधवी श्रावक - श्रावका, जिण मारग जमायौ जुगत सूं, थे भला अवतरिया लोकालोक नवोंइ ‘ततव' तणा, ज्यारा भेद जथातथ भिन-भिन भाखिया, ३ चारित लियौ एक सो च्यार आसरै, कंइकां नै पाखंड मां सूं खांच नै, ४ जोड़ां कीधी मुनिवर जुगत सूं, निरणा- न्याय वताया निरमळा, समकत सुध सरूप वतावीयौ, सावज्ज-निरवद न्यारा छांणिया, ६ ढूंढाड़ हाडोती वले कछ देश मैं, घणा रात-दिवस रटै रांम नाम ज्यूं, १. यौगलिक युग । भिक्खु चरित : ढा. १३ की धौ घणां गया रीत भलाज अरिहंत वचन अत्यंत घट घाली केम ढाळ : १३ (पूजजी पधारो हो नगरी सेविया) २. तत्त्व। चित अरिहंत। मतिवंत ।। मिटाय | बताय ॥ साध। अराध ।। उद्योत । जोत॥ कहिवाय । ल्याय ॥ ए थाप्या तीरथ च्यार हो महामुनी ! घणौ पाखंड दियौ निवार हो महामुनी !. भीखू भरत खेत मैं ।। वले दया-दांन दीपाय हो महामुनी ! जिणवर ज्यूं दिया जमाय हो महामुनी ! थे. पूज री परतीत मन धार हो महामुनी ! आप दीधा पार उतार हो महामुनी ! थे. सैस अड़तीस रे आसरै गिणाय हो महामुनी ! जाणें भाख गया जिण राय हो महामुनी ! थे. निज गुण- परगुण न्याय हो महामुनी ! नहीं दीसै किण ही मत माय हो महामुनी ! थे. मुरधर देस मेवाड़ हो महामुनी ! आप इसरा किया उपगार हो महामुनी ! थे. ३०३ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ७ प्रवचन री करै प्रभावना, ‘गिनाता अंग'' मैं अरिहंत आखीयौ, इण लेखे आपरै अति ओपतौ, धर्म आदि काढ़ी अरिहंत आदिनाथ ज्यूं, आप इण भव माहे पिण उत्तम हुंता, उतकष्टी अनोपम मोख छै, १० जनम किल्यांण कंटाळे जांणज्यो, ९ चरम किल्यांण सरीयारी सोभतौ, ११ वीर जिणंद री गादी विराजीया, इण विध पूज रे पाट परगट थया, १२ ए चिरत कह्यौ छै भीखू अणगार नो, संवत अठारै साठा वरस मैं, १३ आखर आगौ-पाछौ आयौ हुवै, 'रिख वैणीदास कहै कर जोड़ नै, १. णायाधम्म कहाओ - ८ सू. १८ । २. निकट / तीन-तीन कोस की दूरी पर। ३०४ सुध मारग देवै दिखाय हो महामुनी ! तीर्थकर नांम - गोत बंधाय हो महामुनी ! थे. बंध्यौ तीर्थंकर नांम-गोत हो महामुनी ! ज्यूं कीधौ अत्यंत उद्योत हो महामुनी ! थे. परभव मैं पिण सोभाय हो महामुनी ! आप पोहचसौ तिण गति माय हो महामुनी ! थे. दिख्या मोहछव वगड़ी मझार हो महामुनी ! ए 'तीनूंइ जोड़े' विचार हो महामुनी ! थे. सुविनीत सुधरमा सांम हो महामुनी ! भारमलजी सांमी त्यांरो नांम हो महामुनी! थे. वगड़ी सैहर मझार हो महामुनी ! फागुण विद तेरस गुरवार हो महामुनी ! इधकौ ओछौ कह्यौ हुवै कोय हो महामुनी ! 'मिच्छामिदुकडं' छै मोय हो महामुनी ! थे. इति मुनिश्री वैणीरांमजी कृत भिक्खु चरित सम्पूर्णम् ॥ ३. 'कोई झूठ लागो हुवै बिना जाणियो' (क्वचित्) भिक्खु जश रसायण Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ नामानुक्रम २ पारिभाषिक शब्द ३ सूक्तियां/लोकोक्तियां ४ प्रयुक्त धुनें (देसियां) Page #353 --------------------------------------------------------------------------  Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ की बुआ) परिशिष्ट-१ नामानुक्रम व्यक्ति ऋ अखूजी (साध्वी) १७५, १८३ ऋपराय (तेरापंथ १६८, १६९, १७१ अखैराम १५६, १७५, १८१ के तृतीय आचार्य) १७८, १७९, १८१, अजबू (तेरापंथ की १८७, १९३, २०१, तीसरी साध्वी) ३३, १७४, १७५, २१२, २२०, २३९, १८३ २५७, २६३, २८८, अजबू (जयाचार्य २९१, २९६ १७७, १८३ क अणंदोजी (मुनि) १८२ कसूंबा (साध्वी) १७५, १८२ अमरसिंग (स्था. ५१, १४२ कस्तूरां (साध्वी) १८०, १८३ सम्प्रदाय के एक कालोदाई ४१ टोले के आचार्य) किश्नोजी (आचार्य १८, १९, २० अभय कुमार ४४ । भारमलजी के पिता) अमरां (साध्वी) १७६, १८३ कुमारधर्म (आचार्य) २१८ अमरो (मुनि) १५६, १८२ कुशलां (तेरापंथ की ३३, १७४, १८२ . प्रथम साध्वी) आद्र (आर्द्र मुनि) ३७ कुशाला (आचार्य १६८, १८०, १८३ आदिनाथ/आदेसर १०७, १४८, २७१, रायचंदजी की माता, साध्वी) (भगवान ऋषभ २८३, ३०३, ३०४ ।। कृष्ण ४४ का एक नाम) केलीजी (साध्वी) १७६, १८३ आनन्द (भ. महावीर ३७, १९१, २३७, केसी (मुनि) के प्रमुख दस २९० श्रावकों में एक) खुसाल/कुसाल) १६७, १८२, २०५, (मुनि) २४०, २६७, २९९ उदां (साध्वी) १७९, १८३ खुसालां (साध्वी) १७९, १८३, उदेभांण (मुनि) १६, २८१ खेतसी (मुनि) १५९ से १६१, १७६, १६७,१८१, १८७, १८१, १८७, २००, २५७, २८८ २०१, २३५, २३८, २३९, २५७, २८८, २९५, २९६ ओटो (मुनि) ४९, ५०, १६७ खेमां (साध्वी) १७८, १८३ १८२ खेमासाह ११९, १४५ आ ओ नामानुक्रम व्यक्ति ३०७ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ जशोदा (साध्वी) १८०, १८३ गंगा (नदी) २८२ जसु (साध्वी) १७८, १८३ गज (गजसुकुमाल ४५ जसोभद्र (आचार्य) २१७ मुनि) जिणरिख गुमाना (साध्वी) १७५, १७८ १८२, जीऊजी (साध्वी) १७५, १८३ १८३ जीत (जयाचार्य) १२५, १७७, १८०, गुलाब (मुनि) २५, २६ २१३ गुलोजी लूणियां २९० जीवण आछा गोतम/गोयम (गणधर)३४,३७,४१, १८५, जीवो/जीवराज १७०, १८२, १८७, १९५, २२७, २३५, (मुनि) २५७, २८८ २८७ जेतसींग १५, २२४ गोसाला (निन्हव) ३७, ४४, २५० जैतो (श्रावक) २९८ जैमल (स्था. १८, २०, २५, २२८, घेरूलाल व्यास १८५ संप्रदाय के एक २३१ टोले के आचार्य) चंदू (साध्वी) १७५, १८३ जोगीदास (मुनि) १७०, १८२ चंद्रभाण (मुनि) १५८, १५९, १७१, जोतां (साध्वी) १८०, १८३ १८२, १९८ जोधो (मुनि) १७१, १८२ चेनां (साध्वी) १७६, १८३ चोखी (साध्वी) १७८, १८३ झूमां (साध्वी) १७९, १८३, २०५, चौथजी (श्रावक) १०५ २६७, २९९ जग्गू गांधी ५० टीकम डोसी १४१, १८५, २३२ जम्बू (अंतिम ३, १६८, १८५, टोकर (मुनि) ७, १०, २५, २६, केवली) २१७ ३४, १५६, १८८, जम्बू (वृक्ष) १५०, २८६ १८९, २२२, २३१, जमाली (भ. महावीर १९१, २५० २३६, २७९, २८२, के जामाता) २८९ जय-जस ११३, ११९, १४०, १४५, ड १५४, १५७, १६१, १६३, डाही (साध्वी) १८०, १८३, २०५, १६६, १६९, १७३, १८४, २६७, २९९ . १८६, १८७, १९२, १९४, डूंगरसी (मुनि) १७०, १८१ १९६, १९९, २०१, २०३, त २०८, २१३, २१९, २२४, ताराचन्द (मुनि) १७०, १८१ २३०, २३४,२४२ तिलोकचंद (मुनि) १५८, १८२, १९८ ३०८ भिक्खु जश रसायण Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तेजू (साध्वी) १७७, १८३ थ पनजी (मुनि) १५९, १८२ थिरपाल (मुनि) २५, २६, ३१, १५२, पनांजी (साध्वी) १७८, १८३ १८१, २३१ पा) ५१ पेमजी (मुनि) . २५ दीपां/दीपांदे (आ. ४, २४६, २७७ पेमासाह भिक्षु की माता) पेमो दूसगणी (आचार्य) २१७, २१८ प्रभव (आचार्य) १७, २१७, २२७ देऊजी (साध्वी) १७५, १८२ देवकी (श्रीकृष्ण ४३ फतेचन्द (जोधपुर २१, २५, २६, ३१, की माता) के दीवान) १५२, १८१, २२९ देवड्डी (आचार्य) २१८ फतेचन्द (मुनि) २३१ दोलतराम १६४ फत्तूजी (साध्वी) १७५, १८३ दोलतसींग राठोड १८६ फुलांजी (साध्वी) १७६, १८३ (सिरियारी के ठाकुर) बखतराम २५,२६,१०८,२४५ धनु (साध्वी) १७६, १८३ बल्लू (आ. भिक्षु ४, २४५, २७७ धारणी के पिता बहुल (आचार्य) २१७ नंदीवर्धन २१९ नंदूजी (साध्वी) १७६, १८३ भगजी (मुनि) १७१, १८२, १८७, नगजी (मुनि) १५९, १८१ २५७,२८८ नगी/नगां (साध्वी) १७७, १८३ भगु (पुरोहित) २७, ३७, २५० नमि (राजर्षि) ४३ भद्रबाहु (आचार्य) २१७ नांनजी (मुनि) १६२ भवानजी (मुनि) १७२ नाथां (साध्वी) १८०, १८३ भागचन्द (मुनि) १७१, १८२ नाथू ५१, १४२ भारमल छोटा (मुनि)२५ नाथोजी (मुनि) १६७, १८२ भारीमाल (तेरापंथ ७, १०, १८, १९, नेऊजी/नेतूजी १७५, १८३ के दूसरे आचार्य) २०, २१, २५, २६, (साध्वी) ३२, ३३, ३४,८२, नेम (२२वें तीर्थकर) ४४, ४५, १४८ १५१, १५५, १५६, २८२ १६१, १६६, १६७, नेमजी (मुनि) १६२, १८१ १६८, १७०, १७१, नोजां (साध्वी) १८०, १८३ १७२, १७७, १८०, नोरां (साध्वी) १८० १८१, १८६, १८९, . नामानुक्रम व्यक्ति ३०९ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीक्खु/भीखण (तेरापंथ के प्रथम आचार्य) १९०, १९३, १९५, भीम (मुनि जयभ्राता)१७७, १८० २००, २०१, २०२, भोप (मुनि) १७२, १८२ २१२, २२०, २२२, भोपासाह १५९, १६० २३१, २३५, २३६, म २३७, २३९, २४१, मटू (तेरापंथ की ३३, १७४, १८२ २४२, २४८, २५४, दूसरी साध्वी) २५७, २६०, २६६, मयाराम (मुनि) १६५, १८२ २७१, २७९, २८६, महागिरि (आचार्य) २१७ २८९ से २९७, ३०४ महावीर (चौवीसवें २२७, २७७ ३ से ३१, ३३ से ३६, तीर्थंकर) ३८ से ४२, ४५, ४७ मघालोढौ ३७ से५३,५५,५६,५८, मेघ (मेघकुमार) ४४ . ५९, ६०, ६३, ६४, मेघो(भाट) १०८ मेणांजी (साध्वी) १७६, १८३ ११४, ११६, ११८, मेरू (पर्वत) १५१, २८६ १२० से १२३, १२५ मोजीराम (मुनि) १५८, १८२ से १३० १३१,१३७, मोहकमसींग ६९,७२, ३०१ १४०, १४१, १४५ से (केलवा के ठाकुर) १४८, १५०, १५१, १५२, १५४ से १५६, १५८ से १६६ १६८ रंगू (साध्वी) १६०, १७६, १७७, से १७२, १७४ से १८३ रतूजी (साध्वी) १७७, १७९ से १८३, १७६, १७७, १८३ १५९, १६१, १६२, १८९, १९०, १९१, १८१, २११ १९५,१९७ से २१३, राम (भगवान रामचन्द्र)३०३ . २१९ से २२१, २२४ रायचन्द देखें ऋपराय/ऋषिराय से २२९, २३१, २३२, रायमल मुहता २५५, २८८ २३३, २३५ से २४२, रावण २५० २४५ से २५६, २५८, रुघनाथ (स्था. एक ५, ६, १०, १३, १५ २६३, २६५, २६७, टोले के आचार्य) से १८, २५, २२१, २६९, २७१ से २७४, २२२, २२६, २४६, २७७, २७९ से २८३, २७८, २८०, २८१, २८६, २९१, २९५, ३०२ २९९, ३००, ३०१ रूपचंद (मुनि) २५, १६४, १७४, ३०३,३०४ १८२, २३५ १८५, १८६, १८७, राम (मुनि) ३१० भिक्खु जश रसायण Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४, १८१, १८२ वेणीराम/वेणीदास (मुनि) रूपचन्द - लघु (मुनि) रूपांजी (साध्वी) रेणादेवी रोड़ीदास ९५, १६३, १६४, १७७, १८१, २०५, २१२, २३५, २४०, २६७, २९९ १७८, १७९, १८३ १२७ शोभाचंद १२७ से १२९ स व वखतो लालांजी (साध्वी) १७८, १८३ लिखमीचंद (मुनि) २५, १५६, १८२ संघजी (मुनि) १६०, १८२ लिछमण २५० संतोकचन्द (मुनि) १५९, १८२ . लूको (श्रावक) २१८, २२० संप्रति (राजा) २१७ संभू (मुनि) १६२, १८२ देखें बखतराम संभूत विजय २१७ वगतसींघ (कंटालिया २७७ सकडाल (महावीर ३७ के ठाकुर) के दस श्रावकों में वगतू (साध्वी) १७७, १८३, २०५, से एक) २६७, २९९ सदांजी (साध्वी) १७६ वज्र स्वाम (आचार्य) २१८ समुद्रपाल ४३, ४५ वर्धमान (मुनि) १६४, १८१, २१०, सरूप (जयभ्राता, १७७, १८० २७४ मुनि) वनां (साध्वी) १७७, १७९, १८३ सरूंपा (साध्वी) १७९, १८३ वरजू/व्रजू (साध्वी) १७९, १८०, १८३ सवाइराम १३० विगतोजी (मुनि) १६५, १८२ सांमजी (मुनि) १६, १५९, १६२, विजां (साध्वी) १७९, १८०, १८३ १८१ विरधो सेठ २९५ सांमदास (स्था. वीर (भगवान ३४, १९०, १९१, संप्रदाय के एक महावीर का एक २१२, २१७, २३५, टोले के आचार्य) नाम) २३७, २४५, २४८, सिजंभव १७, २१७, २२७ २७९, २८०, २८६, सिवजी (मुनि) । १५८, १५९, १८१, २८९, २९१, ३०४, १८२ वीरभाण (मुनि) ७, १०, ११, २५, सीता (नदी) १५०, २८६ २६,२७,१५६,१८२, सुखजी (मुनि) १६५ २२२ सुखराम (मुनि) १५६, १६५, १८१ वीर विक्रम सजाणा (साध्वी) १७५, १८२ वीरां (साध्वी) १७९, १८३ सुदरसण (वृक्ष) १५० २२९ नामानुक्रम व्यक्ति ३११ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्म ३,१८५,२१२,२१७, कंबोज २२७, ३०४ कच्छ सुप्रतिबुद्ध (आचार्य)२१७ सुबाहु कमोल सुरतो (मुनि) १६४, १८२ करेड़ा सुलसा कांकरोली सुस्थित (आचार्य)२१७ कांठा सुहस्त (आचार्य) २१७ सोभाचंद काफरला स्वयंभूरमण (समुद्र) १५१, २८६ कुंड्यां स्थिरगुप्त (क्षमाश्रमण)२१८ केलवा स्थूलभद्र २१७ १४८, २८४ १४१, १८५, २५२, ३०३ १७७ १७१ १०५, १७८ ४,१८६,२४५,२७७, २८८ ४३ १४५ ४३ हरणगमेपी (एक प्रकार के देव) कोचला कोटा कोठारयो १५९ २६, १५९, १६७, १७०, २०९, २३१, २७३, २८२, ३०२ १७१ १६४, १६० १७२ हरनाथ (मुनि) ७, १०, २५, २६, ३४, १५६, १८१, कोसीथळ ख २२२, २३१, २७१, खेरवा ४९, १२७, १७१, १७८, १८०, २१०, . २७४, ३०१ हरिकेसी हस्तु (साध्वी) हीरा (साध्वी) हुकमचंद हेम (मुनि) २७४ ४४ १७९, १८०, १८३ १७७, १८३ १०६, २५५, २८० ९१, १०५, १४५, १६५, १८१, २१०, २१२, २२९, २७४ ग गुंदोच गुजरात गोगुंदा १७४ १६२ १७० च क्षेत्र आंवेट/आमेट १७९, २१०, २७३, ३०२ १६२, १६४ चंडावल चाणोद चासटू चूरू चेलावास १७६ १८५, २८७ १६३ २३२ १५८,१६७ इन्द्रगढ़ कंटालिया ४,१७६,१८६,२०९, २१०, २२१, २४५, २५६, २७३, २७७, २८८, ३०२, ३०४ ज जम्बू द्वीप ३, २४५, २७७ जोधाणा (जोधपुर) २१, २२९, २८२, ३१२ भिक्खु जश रसायण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़लू/वड़लू टुंगच १६५ २०९, २२६, २२८, २८१, ३०२ . २१२ १३०, १५९, , १७८ १६५ बीदासर बून्दी ढूंढाड़ १८५, २११, २३२, २५२, २८७, ३०३ १७७ बोरावड़ ढोल भ भरतक्षेत्र/भरत तासोल १७०, १७८ देवगढ १६२, १६५ मरुधर/मुरधर ध ६१ धूम प्रभा (५वीं नरक भूमि) ९०, १८६, २०८, २४५, २५३, २७७, २८५, ३०० ४,९, २६, ३१, ३२, १८५, २११, २२३, २३१, २३२, २४५, २५२, २५५, २७७, २७९, २८२, २८७, ३०३ १९५, २९२ नाडोलाई नाथद्वारा १२७ देखें श्रीजीदुवारा १६३ नेणवो महाविदेह मांढा माधोपुर १७६ १६४, १७९, १८०, २०९, २७३, ३०२ २५५, पाली ९१, १२६, २१०, २७३, ३०२ ६४, १६२, १६६, १७३, १७७, २१०, २७४, २९९, ३०१ ८३, १७५, १८५, २०९, २७३, २८७, ३०२ मारवाड़ मालव मिथला नगरी मेवाड़ १६३ ४३ देखें मरुधर/मुरधर पीपार/पीपाड़ पीसांगण १७० राजनगर/राजसमन्द १७६, २१०, २७४, ३०२ ७८,२०९, २२२, २२३, २४६, २७३, २७९ १६०,१६८ १७५ १६२ रावळिया रीयां रोयट बगड़ी/वगड़ी ५, १४, १५, १६ १६३, १७७, १८६, २०९, २११, २२१, २२३, २२४, २५६, २७३, २८०, २८८, ३०१, ३०४, लाटोती लाहवा (लावा सरदारगढ़) १७६ १८० नामानुक्रम व्यक्ति ३१३ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विठोरो १५९ श्रीजी दुवारा १५९, १७६, १७९, २१०, २७३, ३०१ सिरियारी ९४, १६२, १६५, १६६, १७६, १७८, १८०,१८६, २०५, २१०, २११, २३५, २४१, २५६, २७४, २८८, २८९ ३००, ३०१ सोजत १०, १८६, २१०, २२३, २५५, २७३, २७९, २८८, ३०२ हाड़ोती १८५, २११, २३२, २५२, २८७, ३०३ ग्रन्थ अन्तगड़ (आगम) ४३, ४४ अनुजोगदुवार १४७, २८३ (आगम) आचारांग (आगम) १७, ३७, ३८, ४३, ८०,९६, २२६,२८१ आवसग (आवश्यक सूत्र) ३८, १८८, २८८ उत्तराधेन (आगम) ३०, ३४, ३७, ४०, ४३,४४,१११,१३४, १३७, २८३, २८७, २८९ उपासगदशा ३७ उवाइ ३६, १०७ कल्पसूत्र २१७, २१८ गिनाता देखें ज्ञाता ठाणांग (आगम) ३७,४०,४३, १२४, २११ तेरे द्वार २५१ दशवैकालिक ३६,४१, ४३, १३७ नन्दी (मूलसूत्र) ६९,८७,२१७,२१८ नसीत (छेद सूत्र) ३६,८०,१२४,१७२ नसीतचूर्णी २१९ पण्णवणा (आगम) ४४ प्रश्नोत्तर रत्नमालिका २१७ भगवती/भगोती ३६, ४०, ४१, ४४, (आगम) ५४,८०,१२३,१२४, २२३, २८७ भिक्खु विलास ३,१७ भिक्खु जश रसायण २१२ भीक्खु दृष्टांत २१२ भीक्खू चरित २१२, २४५, २७७ रास (अविनीत रास) १५९, २३४ वंकचूलिया १६६, २२९, २८७ ववहार (छेद सूत्र) १७२ विनीत अविनीत १४५ री चौपी विपाक (आगम) ३७, ४१ वृध रास २३२ सतजुगी चिरत १६० सूयगडाअंग (आगम)३६, ३७, ४३, ५५ हेम नवरसो १६५, १६६ ज्ञाता (आगम) ४४, १२४, १९१, २४५, २५१ २९०, ३०४ धर्म/सम्प्रदाय इन्द्रियवादी ६९, १४१, २०८, २३२, काळवादी २६,६९,१०८,१४१, १४८, १६५, २३१, २८३ ३१४ भिक्खु जश रसायण Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छवासी तेरापंथ दिगम्बर पोत्याबंध नामानुक्रम व्यक्ति ४, ७९ २२, २३, २४, २२९, २५१, २८२ ११० ४, ५, १४१, १५६, २३१, २३२ प्रज्यायवादी . मथेण/मथेरण रामसनेही श्वेताम्बर १४१, २०८ २३२ ७९, १४३ ८० ११० ३१५ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ पारिभाषिक शब्द अजिन जिनोपम अज्जा अट्ठम भक्त अणगार अणसण अणुव्रत अतिसय अधिकरण अध्यवसाय अन्यतीर्थी अभिग्रह अरिहंत आचार्य, जो जिन नहीं हैं पर उनकी उपमा धारण करने वाले। (आर्या) साध्वी तीन दिन का उपवास मुनि (गृह त्यागी) अल्पकालिक अथवा यावज्जीवन भोजन का परिहार। गृहस्थ द्वारा स्वीकृत छोटे-छोटे संकल्प। स्थूल रूप से हिंसादिक का परित्याग विशेषता शस्त्र, साधन। चेतना का सूक्ष्मतम स्तर। दूसरे सम्प्रदाय के साधु। किसी विशेष उद्देश्य से विशेष संकल्प करना। चार घनघाती कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय) का क्षय करने वाला। . इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा के द्वारा होने वाला मूर्त द्रव्यों का सावधिक ज्ञान। आचार्य की आठ सम्पदाएं १ आचार संपदा २ श्रुत संपदा ३ शरीर संपदा ४ वचन संपदा ५ वाचना संपदा ६ मति संपदा ७ प्रयोग संपदा ८ संग्रह परिज्ञा दुःख के रूप में उदय आने वाला वेदनीय कर्म। नमक, मिर्च, घी, तेल आदि से रहित कोई एक अन्न, एक ही वार खाकर किया जाने वाला तप। अवधिज्ञान अष्ट संपदा असाता वेदनी आंबल (आयम्बिल) ३१६ भिक्खु जश रसायण Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंबल वृद्धमान (आयम्बिल वर्धमान) आचार्य के ३६ गुण आधाकर्मी आर्त्त ध्यान आसव, आश्व (आश्रव) इन्द्रियवादी उत्तरगुण उत्पत्तिया बुद्धि उदय पारिभाषिक शब्द बढ़ते हुए प्रारम्भ में एक आयम्बिल। फिर क्रमशः दो तीन . सौ तक। चढा जाता है। अन्य तपस्या में तप के बाद पारण किया जाता है परन्तु इस तप में तप के बाद उपवास किया जाता है। इसमें कुल ५०-५० आयम्बिल और १०० उपवास किए जाते हैं। इस तप को पूरा करने में १४ वर्ष ३ मास २० दिन का समय लगता है। १ आर्य देश २ प्रशस्त कुल ३ प्रशस्त जाति ४ प्रशस्त रूप ५ दृढ संहनन ६ धैर्य ७ अनाशंसी ८ श्लाघा- निरपेक्षता ९ ऋजुता १० स्थिर बुद्धि ११ आदेय वाक्य १२ जित परिषद १३ जितनिद्रा १४ मध्यस्थ १५ देश काल भावज्ञ १६ प्रत्युत्पन्नमति १७ अनेक देशभाषाविद् १८ ज्ञान आचार १९ दर्शन आचार २० चारित्र आचार २१ तप आचार २२ वीर्य आचार २३ सूत्र विधिज्ञ २४ अर्थ विधिज्ञ २५ तदुभय-विधिज्ञ २६ आहरण (उदाहरण) निपुण २७ हेतु निपुण २८ उपनय निपुण २९ नय निपुण ३० शीघ्र ग्राही ३१ स्व समयज्ञ ३२ परसमयज्ञ ३३ गंभीर ३४ अनभिभवनीय ३५ कल्याणकारी ३६ शान्त दृष्टि | मुनि के निमित्त बनाया हुआ। प्रिय के संयोग और अप्रिय के वियोग के लिए एकाग्र होना। कर्म पुद्गलों को आकृष्ट करने वाले आत्मपरिणाम | इन्द्रियों को कर्म - बंधन का हेतु मानने वाला । महाव्रतों को पुष्ट करने वाले गुण । जिसे कभी देखा-सुना नहीं, उस विषय का तत्काल ज्ञान । कर्मोदय में परिणत आत्म-स्वभाव। ३१७ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकान्तर ओघो (रजोहरण) करण कालवादी केवल ज्ञान गच्छवासी गुणठाणा गुप्ति चतुर्थकाल एक दिन के अंतर से किया जाने वाला तप। प्रमार्जन के काम आने वाला मुनि का एक उपकरण। करण का अर्थ है-साधन। मन, वचन और कायाये तीन करण प्रवृत्ति के साधन है। अक्रियावादी/नास्तिकों का ही परिवार है। इनकी मान्यता है कि जो गुण सिद्धों नहीं मिलते वे सब अजीव हैं। ये काल को ही सब कुछ मानते हैं। जितने भी अशाश्वत द्रव्य हैं वे सब काल हैं। विशेष जानकारी के लिए पढ़ें-आचार्यश्री भिक्षु कृत'काळवादी की चौपाई।' सम्पूर्ण, निरावरण ज्ञान सर्वज्ञता श्वेताम्बर जैनों का एक सम्प्रदाय। आत्म-विकास की क्रमिक भूमिका। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध। जैन काल-गणना के अनुसार अवसर्पिणी का चौथा (दुषम-सुषमा) विभाग। संयम, चरित्र। महाव्रत आदि धर्मों का आचरण। . उपवास। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति। जैन मुनियों का अधो वस्त्र। दो दिन का उपवास। जो केवल ज्ञान को उपलब्ध नहीं है। राग ओर द्वेष को जीतने वाला। दलबन्दी। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। धर्मसंघ से बहिष्कृत या बहिर्भूत साधु-साध्वी,जो अपने उसी वेश में रहते हैं। पारमार्थिक वस्तु। धर्मसंघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। चारित चोथ भगत चोबीसथो चोलपटो (चुल्लपट्ट) छट्ठ भक्त छद्मस्थ जिन जिल्लाबन्धी जोग टाळोकर तत्त्व तीरथ ३१८ भिक्खु जश रसायण Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर तेजोलेश्या थानक थापिता दया दर्शनमोह दान दीक्षा देशव्रत द्रव्य क्रिया द्रव्य चरित्र द्रव्य निक्षेप धर्मचक्र का प्रवर्तक। (साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका - इन चार तीर्थों की स्थापना करने वाला) विशिष्ट तपस्या से प्राप्त लब्धि-विशेष। इससे सम्पन्न व्यक्ति अग्नि-प्रयोग से किसी का हितअहित कर सकता है। साधुओं के निमित्त बनाया जाने वाला धर्म स्थान मुनि के निमित्त स्थापित, मुनिचर्या से संबंधित एक दोष। अपनी या पराई आत्मा को पाप से बचाना। सत्य श्रद्धा की आस्था को विकृत करने वाला कर्म। सम्यग् दर्शन का धात करने वाला कर्म। अपने या पराये उपकार के लिए वस्तु का वितरण। व्रतों का स्वीकरण। आंशिक रूप में व्रत की आराधना करने वाला अनुपयोग अवस्था में की जाने वाली क्रिया। औपचारिक संयम। भूत और भावी अवस्था के कारण तथा अनुपयोग। औपचारिक साधु वेशधारी। निर्णायक ज्ञान को स्मृति के आधार पर स्थिर रखना। भगवान महावीर के भाई के नाम पर चलने वाला संवत। प्रतिदिन एक घर में एक स्थान से लिया जाने वाला आहार। आमंत्रित भोजन। अर्हद् वाणी का अपलाप कर एकान्त आग्रह से अपना मत स्थापन करने वाले जैन मुनि। तप के द्वारा कर्म विलय से होने वाली आत्मा की उज्ज्वलता। पाप रहित। द्रव्य लिंगी धारणा नंदीवर्धन संवत् नित्यपिंड निन्हव निर्जरा निरवद्य पारिभापिक शब्द ३१९ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमकाल पंडित मरण पड़िकमण पडिमा पडिलेहण परिग्रह परिषह परीत्त संसार पाखंड पारणा पासत्था जैन काल गणना के अनुसार ६ आरे -कालखंड माने जाते हैं। उनके अनुसार २१००० वर्षों का पंचम काल (दुषमा) कहलाता है। संयमी अवस्था में समाधि मरण। दोनों संध्याओं (प्रातः सायं) में किया जाने वाला जैनों का प्रायश्चित्त सूत्र। द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव के द्वारा जिस साधना के प्रकार का प्रतिमान (माप) किया जाता है, उसे प्रतिमा (पडिमा) कहते हैं। वस्त्र-पात्र आदि का यथासमय निरीक्षण करना। पदार्थ संग्रह और उसके प्रति होने वाली मूर्छा। साधु-चर्या में सहज रूप से आने वाले कष्ट। अनन्त भव-भ्रमण का परिसीमन करना। मिथ्या मत। तप की परिसमाप्ति। शिथिलाचारी साधु। उदीयमान शुभ कर्म-पुद्गल। स्पर्श, रस, गंध और वर्ण युक्त द्रव्य। . संयम को कुछ असार करने वाला। विपुल ज्ञान राशि का एक परिमाण-पूर्व। वे चौदह बताए गए हैं। आगम साहित्य के अन्तर्गत बारहवें अंग-दृष्टिवाद में इनका समावेश माना जाता है। पूर्व का ज्ञान धारण करने वाला मुनि पूर्वधर कहलाता है। एक सम्प्रदाय विशेष। इनकी मान्यता है कि अभी इस काल में कोई साधु नहीं हो सकता। सिद्धों से पहले अरहंतों को वंदना करने से आशातना लगती है। आवश्यक, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि की कोई अपेक्षा नहीं है। अपने आपको श्रावक कहते हैं। विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें – पोतियाबंध री चौपई। भिक्खु जश रसायण पुण्य पुद्गल पुलाक पूर्वधर पोतियाबन्ध ३२० Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध प्रज्यायवादी फासू पाणी बंध बाल तपसी बुक्कस बोधि भाव चरित्र भाव शास्त्र मति ज्ञान मन पज्जव श्रावक के बारह व्रतों में से ग्यारहवां व्रत, जिसमें व्यक्ति एक दिन-रात के लिए उपवास सहित सावद्य प्रवृत्ति का त्याग कर विशेष धर्माराधना करता है। पर्याय को ही प्रमुखता देने वाले। जीव रहित, अचित्त जल। कर्म पुद्गलों का ग्रहण। मिथ्यात्व अवस्था में तप करने वाला। चारित्र में अतिचार के धब्बे लगाने वाला। सम्यक् दर्शन। वास्तविक संयम। वैचारिक हिंसा। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान। मनोद्रव्य के पर्यायों का साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान। हिंसा आदि पापों से सर्वथा विरति। विपरीत तत्त्व श्रद्धा। विपरीत तत्त्व श्रद्धा रखने वाला। मिलावट - कुछ पुण्य कुछ पाप। अहिंसा आदि पांच महाव्रत। जीव की कर्म-मुक्त अवस्था। त्याग-अत्याग। एक लब्धि-विशेष, जिससे व्यक्ति विक्रिया-रूप परिवर्तन कर सकता है। विसर्जन करना। सेवा। हिंसा, असत्य आदि सावद्य प्रवृत्तियों का आंशिक त्याग करने वाला सम्यग्-दृष्टि गृहस्थ। हड्डियों का संहनन-जोड़। हिंसा आदि से विरति। महाव्रत मिथ्यात मिथ्याती मिश्र धर्म मूल गुण मोख (मोक्ष) व्रत-अव्रत वैक्रिय लब्धि वोसिराना व्यावच (वैयावृत्त्य) श्रावक संघेण संजम पारिभाषिक शब्द ३२१ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथारा संलेखणा । संवर सज्झाय समकत (समकित) समिति सरधा सामायिक अनशन-आहार-पानी आदि का आजीवन त्याग। अनशन से पूर्व विविध प्रकार की तपस्याओं के द्वारा शरीर को कृश करना। पापकारी प्रवृत्ति का निरोध। अध्यात्म शास्त्र का अध्ययन। इसके पांच प्रकार हैं। यथार्थ तत्त्व श्रद्धा-जीव आदि तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा। सम्यक् प्रवृत्ति। ईर्या, भाषा, एषणा आदि। सम्यग् दृष्टि। श्रावक के बारह व्रतों में से नवां व्रत, जिसमें एक मुहूर्त (४८ मिनट) के लिए सावध प्रवृत्ति का त्याग कर विशेष धार्मिक अनुष्ठान के द्वारा समता की साधना की जाती है। पाप सहित। अष्ट कर्म का क्षय करने वाली आत्मा। सावध सिद्ध ३२२ भिक्खु जश रसायण Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ सूक्तियां/लोकोक्तियां १ अधम पुरुष दुख ऊपनां, करै हाय - तराय। समचित वेदन नां सहै, पापे पिंड भराय॥ __ढा. २ गाथा १५ २ जो साचा नै झूठा कहूं, तो परभव रै मांय। जीभ पांमणी दोहिली, विविधपणे दुख पाय॥ ढा. ३, दूहा ३ ३ द्वेष स्यूं तुरत नर ना डिगै रे, राग दै तुरत चलाय॥ ढा.५ गाथा ११ ४ औषध जीभ आंख्यां तणौ, आंहमौ सांहमौ होघाल्या दोनूं विलाय। ___ ज्यूं अव्रत में धर्म सरधीयां, पाप वरत में हो सरध्यां दुरगति जाय।। ढा. १९ गाथा ११ ५ सोरीगर रा घर में सोर वासदी, न्यारा राख्यां हो घर विणसै नाय। ज्यूं व्रत अव्रत फळ जूजुआ, जन जांण्या हो, समगत न जळाय॥ ढा. १९ गाथा १२ ६ प्रगट पसारी रै पारखा, न्यारा राखै मिश्री सोमल न्हाळ। ____ ज्यू धर्म अधर्म खातौ जूजूऔ, सैंठी समगत सुद्ध सरध्यां संभाळ॥ ढा. १९ गाथा १३ ७ जिण मारग मैं देखलौ, गुण लारै पूजाह। निगुणां नै पूजै तिके, ते मार्ग दूजाह॥ ढा. २५ दूहा ७ ८ गुण गोळी सीरै भरी, पुरस्यां पांत धपाय। गुण विण ठाली ठीकरौ, देख्यां भूख न जाय॥ ढा. २५ दूहा ८ ९ करड़ो रोग उठ्यौ गंभीर केरौ, मृदु कुंजाळ्यां केम मिटायौ। ढा. २७ गाथा ९ १० हलवांणी रा डांम लागां हुवै हळको, गंभीर रोग गिणायौ॥ ढा. २७ गाथा १० THEATRE सूक्तियां/लोकोक्तियां ३२३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पिण गोहां री दाळ हुवै नहीं प्रत्यख, ज्यूं भारीकर्मा न समजै जांणी। हळुकर्मी बुद्धिवान हुवै ते, पक्ष छांडै जिणधर्म पिछांणी॥ ढा. २७ गाथा १२ १२ पाखंड्यां रोमग गायांरी पगडांडी, दूर थोड़ी तो मारग दीसै। आगै उजाड़ मोटी अटवी मैं, दुष्ट कांटा विषम दुधरीसै॥ ढा. २७ गाथा १७ १३ ज्यूंदान सीलादिक अल्प दिखाई, पाखंडी पछै हिंस्या पमावै। आगै चलै नहीं ए उनमारग, जाब माहै घणां अटक जावै।। ढा. २७ गाथा १८ १४ गांठ कसूंबां री गाढी बांध, पोतै गळीयां विण रंग न पमावै। ___ ज्यूं वैराग हीण तणी वांणी सूं, अति वैराग किण विध आवै॥ ढा. २८ गाथा २ १५ ग्यांनी पुरुष मरण -जीवण सम गिणै, उलट सोग नहिं आंणै। ____ मूढ मिथ्याती मोह राग नै, जीवणां नैं दया जांणै। ढा. २९ गाथा ९ १६ वायरै वंग घरटी मांडी बाई, पीसती जावै ज्यूं उड्यौ जाई।। ढा. ३४ गाथा १३ १७ आखीरात्रि पीसी ढाकणी मैं उसास्यौ, एहवौ दृष्टंत भीक्खू उतारयौ। ___ ढा. ३४ गाथा १४ १८ खोड़ ऊंट री ऊंट नै होय॥ ढा. ३९ गाथा ४९ १९ बांध्यो काळ्यारी पारवती गोरीयौ, वर्ण नावै तौ पिण लखण आय। ज्यूं अविनीत री संगत करै, तौ ऊ अविनय कुबुद्धि सीखाय॥ ढा. ४१ गाथा २३ २० सोर ठंढो हुवै मुख मैं घालीयां, तातौ अग्नि मैं घाल्यां हुवै ताय। ___ज्यूं वस्त्रादिक दीयां अविनीत राजी रहै, स्वार्थ अणपूगां अवगुण गाय॥ ___ढा. ४१ गाथा २६ २१ सौ वार पांणी सूं कांदा धोविया, विरुइ न मिटै वास। घणौ उपदेश दै गुर अविनीत नै, पिण मूळ न लागै पास। ढा. ४१ गाथा ४९ ३२४ भिक्खु जश रसायण Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सुविनीत रा समजावीया, साल दाळ भेळा होय जाय। ___ अविनीत रा समजावीया, कोकला ज्यूं कानी थाय॥ . ढा. ४१ गाथा ६२ २३ समझाया सुविनीत अविनीत रा, फेर कितोयक होय। ___ ज्यूं तावड़ौ न छांहड़ी, इतरौ अंतर जोय॥ ___ढा. ४१ गाथा ६३ २४ अविनीत नै अविनीत मिल, ते पामै घणौ मन हरख। ___ज्यूं डाकण राजी हुवै, चढवा – मिलियां जरख। ढा. ४१ गाथा ६४ २५ हाल देखी हंसली तणी, बुगली पिण काढी चाल। पिण बुगली सूं चाल आवै नहीं, ए दृष्टंत लीजौ संभाळ।। ढा. ४१ गाथा १०१ २६ कोयल रा टहुका सुणी करी, क्रां क्रां शब्द करै काग। सोभाग सुण सतीयां तणां, कुडै कुसतीयां अथाग। ढा. ४१ गाथा १०३ २७ गयवर नी गति देखनै, भुसै स्वांन ऊंचा कर कांन॥ ढा. ४१ गाथा १०५ २८ पोपां बाइ रा राज मैं, नव तूंबा तेरे नेगदार।। ढा. ४१ गाथा १०८ २९ आंधां नै मूळ सूझै नहीं, तांबा ऊपर झोळ॥ __ ढा. ४१ गाथा १११ ३० ज्यारै सूत्र तणी नहीं धारणा, प्रकृति अतिघणी अजोग। ते थोड़ा मैं रंग-विरंग हुवै, मोटौ दर्शण मोह रोग।। ढा. ४१ गाथा १२१ ३१ अनेक स्याळ आये अडै, को किम भागै सीह। जे आचारे ऊजळा, ते . क्यांनै आणै बीह। भीक्खु चरित (मुनि हेमराज कृत) ढा. ३ गाथा ६ ३२ और वसत में भेळ पड़यां थी, चोखी वसत विगडै छै वसेख। तो पुन मैं पापरौ भेळ किहां थी?, सांसौ हुवै तो सूतर ल्यो देख। भीक्खु चरित (मुनि वेणीराम कृत) ढा. २ गाथा ४ सूक्तियां/लोकोक्तियां ३२५ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयुक्त धुनें (देसियां) २७९ २०६ २९५ २६५ १०२ ७४ १ अभिनन्दन वांदूं नित मनरळी (सल्हा मारू को गीत) २ आ अणुकम्पा जिन आज्ञा मैं ३ आज आनन्दा रे ४ आवियो रावण लोक डरावण (कड़खा) (रीस रढ राण सुण वाण इंदा तणो) ५ एक दिवस लंकापति (कृष्ण करै उपवासजी) (चवदै थानक रा जीव ए) ६ कर्म भुगत्यांइज छूटीये ७ कहै छै रूपश्री नार सुणजो ८ कामणगारो छै कूकड़ो ९ किरपण दीन अनाथ ए (जाणै छै राव तूं बात ए) (भजिये नित स्वामी सुपास ए) १० कीड़ी चाली सासरे रे (हनुमंत गायलो रे) ११ कै तैं पूंजी गोरज्यां कै रौं ईसर देवो ए १२ खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान १३ चतुर नर बात विचारो एह १४ चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु १५ जम्बू कह्यो मानलै रे जाया! (चोरासी में चाक ज्यूं रे) १६ जाणपणौ जग दोहिलौ रे लाल ७७, २५८, २८१ १२१ २२१, २५३, २९९ १८८ १७४ २९१ १७० ४७ १२६ ३२६ भिक्खु जश रसायण Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ १६८ १७८ ६७, १४१, २२५ १५९ ९४ २३६ १९५ २५१ २६३ १७ जीवा! मोह अनुकम्पा न आणीयै (म्हांनै प्यारो लागै बिछीयो) (आ तो राम रसे राची घणी) १८ जै जै जै गणपति नै नमूं रे नमूं १९ ज्यांरा इन्द्र नरेन्द्र रुखवाळा २० डाभ मुंजादिक नी डोरी २१ दया धर्म श्री जिनजी नी वाणी २२ दलाली लालन की (करकसा नार मिली) २३ देवै मुनिवर देशना २४ धन धन भिक्खु स्वाम दीपाई दान दया २५ धन धन जम्बू स्वाम नै (श्री सीमंधर मेरा) २६ धिन धिन जीवजी २७ धिन प्रभु रामजी (हो मेरे पूज्य जी) २८ धीज करै सीता सती रे लाल (पाखंडिया री संगत बुरी रे लाल) २९ नगर सोरीपुर राजवी रे ३० नहीं इसो दूसरो महावीर (कपि रे प्रिया संदेसौ) ३१ नाटक भरतादिक तणा ३२ पंथीड़ा रे बात कहो नी धुर छेह थी रे (धोबीड़ा रे धोजे मैला लूगडा रे) ३३ पर नारी रो संग न कीजे (घोड़ी री) ३४ परम गुरु पूजजी मुज प्यारा रे ३५ पांडव बोलै बोल ३६ पुन्य नीपजै सुभ जोग सूं रे लाल ३७ पूजजी पधारो हो नगरी सेविया १३०, २४९ ४९, ६४ १६२ १५५ ४. ३१, ३०३ प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयुक्त धुनें (देसियां) ३२७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ २२७ ७,५१, २१८ १६५ ९१ २८७ २०४ १९० २९३ २६० १११ ३८ पूज नै नमै रे सोभो गुण करै '३९ पूज मोटा भांगै टोटा ४० प्रभवो मन में चिंतवै (सीता सती सुत जनमीया) ४१ बाजोट पर नहीं बेसणो मुनि पग ऊपर पग मेल ४२ भगवंत भाख्या रे श्रावक एहवा ४३ भरत नरिंद तिणवार ४४ भवियण! नमो अरिहंताणं ४५ भावै भावना ४६ मारग वहै रे उतावळी ४७ मीठो छै पुन संसार में ४८ राजनगर भणतां थकां रे (जोगीड़ो कपट करै छै रे) ४९ राजा दशरथ दीपतो रे (इस सतगुरु जीवां नै समझावै) ५० राजा राघव राया रो राय कहायो (हो राजन! श्रेणिक वन संचरियो) ५१ राणी भाखै सुण रे सूड़ा! ५२ राणी भाखै हे दासी! सांभळ बात ५३ राम को सुजस घणो (यदुपति जीत्यो रे) . ५४ राम पूछ सुग्रीव नै रे (कांसी जळ नहीं भेदे) ५५ रिठनेम स्वामी तू जगन्नाथ अन्तर्यामी (व्रजवासी लाला कान तै मेरी गागर कांयमारी) ५६ जीवा? मोह अनुकम्पा न आणीये ५७ वीर सुणो मोरी विनती ५८ समता रस विरला २०० २०२ ५.१९७ ३०१ ५६ ३२८ भिक्खु जश रसायण Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ सळ कोई मत राखजयो (रावण दिग्जय चालियो) ( खिम्या धरम पहलो करो) ६० सहेल्यां ए वांदो रुड़ा साध (एक चोर चोरे धन पारको) ६१ सायर लैहर ज्यूं जाणे जी ६२ सिंहल नृप कहै चन्द नै ६३ सीता आवै रे धर राग ६४ सीता दीयै रे ओळं भड़ा (विनवै राणी रुक्मणी ) ६५ सीता विभीषण नै कहै निशंक स्यूं (आज सैहर में बाई गोपीचंद दीठो) (ए संसार हटवाड़ा नो मेलो) (सूरां वीरां रो ओ शुद्ध मारग) ६६ सुण चिरताली थारा लीजे चरित संभाळी (सुणजो नरनाथ जो ) ६७ सुण सुण रे सीख सयाणा ६८ सुमित्रनन्दन श्री मुनिसुव्रत (भरतजीभूप भया छो वैरागी) ६९ सुविधि भजिये शिरनामी हो (सोही तेरापंथ पावै हो) ७० स्वामी रायचंद राजा ७१ हरिया नै रंग भरिया जी (विदेह क्षेत्र विहरंताजी जयवंता ) ७२ हां रा मेवासी नान्ही सी नणदोली रा ७३ हिवै राणी नै हो समझावै पंडिता धाय ७४ हो म्हारा राजा रा प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयुक्त धुनें (देसियां) ११८ २९७ १९३ २५ २०९ ५३ ८५ १०५, २३१ १८ ८८ २१ ३३ . १४८, २४५, २८३ २२५ १२ ८२ ३२९ Page #377 --------------------------------------------------------------------------  Page #378 -------------------------------------------------------------------------- _