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________________ शिष्य-शिष्याओं से अत्यंत मुक्त-भाव से खमत-खामणा किया है। श्रावकश्राविकाओं के लिए भी वे कहते हैं : श्रावक ने बले श्राविका, केइ कठिण प्रकति रा कहाय कठिण वचन कहयो हुवै, खांत करी ने खमाय ५८/१५ गण से अलग हो जाने वाले बल्कि अपना विरोध करने वालों के लिए भी वे सरल भाव से कहते हैं : केइ गण बारै निकल्या, साध-साधवी सोय करड़ो काठो कह्यो हुवै, ज्यांसू खमत खामण जोय चन्द्रभाणजी थली मझे, तिलोकचन्द जी ताम कहिजै खमत-खामणा मांहरा, त्यांसू पडियो बौहलो काम ५८/१६-१७ इस तरह एक-एक व्यक्ति को याद कर जब वे खमत-खामणा करते हैं तो जयाचार्य की यह उक्ति बड़ी सार्थक लगती हैं : एहवी आलोवण कानां सुण्या, आवै अधिक वैराग करै त्यांरो कहिवो किसूं, त्यारै माथै मोटा भाग ५८/२२ अप्रमत्त दृष्टि ___ मुनि रायचन्द जी ने जब उनसे कहा --गुरुदेव! अब तो आपके पुद्गल क्षीण पड़ने लगे हैं तो वे तत्काल एकदम जागरूक हो जाते हैं भिक्खु बोलावै भारीमाल नै, बले खेतसी जी ने विचारो याद करता ही संत दोनूं ही, झट आय ऊभा है तिवारो नमोथुणो कियौ अरिहंत सिद्धा ने, तीखे वचन तामो बहु नर नारी सुणता ने देखता, संथारो पचख्यो भिक्खु स्वामो (४९/१२१३) सत्जुगी मुनिश्री खेतसीजी ने कहा-गुरुदेव! आपने जैसी उत्कट साधना की है उससे लगता है कि आप दिव्य सुखों को प्राप्त होंगे। आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया सुख स्वर्गादिक ना सहू, पुद्गल रूप पिछांण पामला सुख पोचा घणा, ज्यांने जाणूं जहर समान बार अनंती भोगव्या, अधिका सुख अहमंद तो पिण नहीं हुवो तृपतो, तिण कारण ए सुख फंद (४७/८) स्वर्ग सुखों को पौद्गलिक तथा पामला (खाज को खुजलाने का सुख) बताते हुए वे उन्हें भव-भ्रमण का हेतु बताकर, उनसे विरक्त से हो जाते हैं। वे इसी उन्नत भावना पर सवार होकर संथारे में भी एक आत्मतृप्ति का अनुभव करते (socxiii)
SR No.006279
Book TitleBhikkhu Jash Rasayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages378
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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