________________
वीरजी मोख विराजता, वारू कियो बखाण सोलह पहर रे आसरे, सीख दीधी सुविहाण इण दुःषम आरा मझै, स्वाम भीखण जी सार
प्रत्यक्ष श्री जिननी परे, आखी सीख उदार ५५/२-३ आखिरी क्षण ___ आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अत्यंत जागरूकता से जो बहुमूल्य बातें कहीं उन्हें भिक्खु जश रसायण में बड़े करीने से सजाया गया है। जीवन के आखिरी क्षणों में भी उनके मन में कोई निराशा नहीं थी। वे अत्यंत हर्ष से कहते हैं :
परभव निकट पिछाणों, दीसै मुझ तणु
मुझ भय मूल म जाणों, हर्ष हीये घणों ५६/२ एक ओर उनका परिनिर्वाण क्षण निकट आ रहा था दूसरी ओर वे कहते हैं "मुझ भय मूल म जाणो" मुझे इसका जरा भी भय नहीं है, सचमुच एक विलक्षण बात है। अपने जीवन के प्रति वे पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं। उनके तृप्ति के उद्गारों को जयाचार्य ने इन छंदों में बांधा है :
घणा जीवां रे घट माह्यो जी, सम्यक्त रूपीयो म्है बीज अमोलक बाह्योजी, मग ओलखावियो देशव्रत दीपायोजी, लाभ अधिक लियो साधपणों सुखदायोजी, बहुजन ने दियो म्है जोडा करी सूत्र-न्यायोजी, शुद्ध जाणे सही
- म्हारै मन रे मांहयो जी, उणायत ना रही। ५६/३,४,५ आचार्य भिक्षु की यह बात बड़ी कीमती है कि मेरे मन में कोई कमी नहीं खटकती, बल्कि मैं अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट हूं। ___ जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु की मृत्यु को जैसे एक महोत्सव के रूप में चित्रित किया है। अपनी इस महायात्रा की वे बड़ी तन्मयता से तैयारी करते हैं। जयाचार्य कहते हैं
स्वाम भिक्खू तिण अवसरे, आयु नेडो आयो जाण
करे आलोवण किण विधे, सखर रीत सुविहाण ५८/१ आत्मालोचन का बड़ा-लम्बा और विराट् वर्णन है। उन्होंने न केवल समुच्चय रूप से त्रस-स्थावर जीवों से खमत खामणा किया है अपितु अपने एक-एक
(rooxii)