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नीत चरण पालण री, भल ऋष भारमालो रे शंक म राखज्यो, शुद्ध साधु नी चालो रे ५५/६ शुद्ध समण सेवज्यो, अणाचारयां सूं दूरा रे सीख दोनूं धरयां, हुवै मुगति हजूरा रे ५५/७ सहु साध-साधवी, वर हेत विशेषो रे रूडो राखज्यो, धरणूं नहीं द्वेषो रे ५५/१७ वलि जिलो न बांधणो, गुरु आण सुगामी रे
सीख सही, दी भिक्खू स्वामी रे ५५/१८ वे ज्यों-त्यों पंथ बढ़ाने की बात नहीं कहते हैं। दीक्षा देने के विषय में उनका स्पष्ट अभिमत इस प्रकार प्रकट होता है
देख-देखने, दीख्या सुध दीज्यो
बलि जिण-तिण भणी, गण में म मुंडीज्यो ५५/२१ इसी क्रम में वे विचार की एक रूपता को भी विस्मृत नहीं करते हैं। श्रद्धा, आचार, कल्प या सूत्र के विषय में मत-भिन्नता होने पर वे गुरु तथा बुद्धिमान साधुओं पर विश्वास करने की हित-शिक्षा देते हुए कहते हैं--
श्रद्धा-आचार रो, कल्प सूत्र नों बोलो रे
गुरु बुद्धिवंत री, राखो प्रतीत अमोलो रे ५५/२२ यदि कोई बात समझ में न आये तो उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं --
कोई बोल न बेसे, केवलियां ने भलावी रे
तांण कीजो मती, मन नै समझावी रे ५५/२३ संगठन में दरार डालने के लिए यदि एक दो तीन आदि सदस्य गण से बाहर हो जाये तो उनसे सावधान रहने की याद दिलाते हुए वे कहते हैं --
एक-दो-तीन आदि, निकले गण बारो रे साध मजाणज्यो, शुद्ध सीख श्रीकारो रे इक आज्ञा में रहिज्यो, ए रीत परंपर रे लिखत आगे कियो, सहु धरजो खराखर रे ५५/२५-२६ .. शासन प्रवर्तावण, सीख दीधी स्वामी रे
और कारण नहीं, मत अंतरजांमी रे (५५/२८) उनके इन शिक्षापदों के संदर्भ में भगवान् महावीर की याद कराते हुए जयाचार्य कहते हैं :
(booki)