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________________ वार्धक्य के तट पर आचार्य भिक्षु के वार्धक्य की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं कि-- पांचूं इन्द्रयां परवरी, न पडी कांइ हीण वृद्धपणे पिण पूजनी, शीघ्र चाल शुभ चीन। थाणै कठैई ना थप्या, उद्यमी अधिक अपार चारू चरचा करण चित्त, पूज तणै अति प्यार उठै गोचरी आप नित, अतिशयकारी ऐन पूज्य सुमुद्रा देखनै, चित में पामै चैन ५३।८-२-३ सावण मासे स्वामजी, पूनम लगै पिछाण सखर गोचरी शहर में, आप करी अगवाण (५४/दू. १) आवसग अर्थ अनोपम, लिख-लिखने अवलोय शिष्य ने आप सिखावता, जशधारी मुनि सोय (५४ दू. २) इस तरह उनके सुखद एवं सकर्मक वार्धक्य का बड़ा ही सुबोध्य विवेचन हुआ है। शिक्षा पद अपने अंतिम दिनों में उन्होंने श्रमण-श्रमणियों को जो शिक्षा प्रदान की है वह साधना एवं संगठन दोनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बले स्वामी सीख दे सारो जी, सहु सुणता भणी आराधजो आचारोजी, मत चूको अणी ५६/९ शिष-शिषणी पर सोयोजी उपकरण ऊपरे मूर्छा म कीजे कोयोजी, प्रमाद ने परहरो पुद्गल ममत प्रसंगोजी, तन-मन सूं तजी संजम सरवर सुचंगोजी, भल-भावे भली ५६/१२,१३ आचार्य भिक्षु ने स्वयं जीवन भर शुद्ध साधना मार्ग का अवलम्बन किया था। इसी से उन्हें अपनी जीवन की सार्थकता का बोध हो सका। अपने शिष्यों को उसी ओर संकेत करते हुए उन्होंने उपरोक्त अमूल्य शिक्षा वचन कहे थे। परम्परा प्रबोध उन्होंने जीवन भर अनुशासन की एक बेशकीमती नजीर सबके सामने प्रस्तुत की। अंतिम समय में भी उनका अनुशास्ता कहता है -- (xoox)
SR No.006279
Book TitleBhikkhu Jash Rasayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages378
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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