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भी महान् अवदान दिया है। इसीलिए जयाचार्य ने भी भिक्खु जस रसायण में इसका जी भर कर उपयोग किया है। एक ओर उन्होंने आचार्य भिक्षु के दर्शनपक्ष को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है वहां दूसरी ओर साहित्य के कोमलकांत पक्ष को भी बड़ी सफलता से उजागर किया। भिक्खु दृष्टांत आचार्य भिक्षु की साधना के कठोर पार्वतीय-प्रदेश में कल-कल निनाद करता हुआ एक पवित्र अनुभव-निर्झर है। जयाचार्य ने साधना की कठोरता को तराश कर एक मनोरम वास्तु-शिल्प को जन्म दिया है। यही कारण है इसमें गहन शास्त्र चर्चा के तनावपूर्ण क्षणों में भी मनोविनोद की फुहारें उछलती हुई प्रतीत होती
जैन आगम और परम्परा के संदर्भो को आचार्य भिक्ष ने जो नया अर्थबोध प्रदान किया है, उसमें भिक्खु दृष्टांत का अपना विशेष महत्त्व है। आगमों के सत्य को जन-भोग्य बनाने की दृष्टि से भी वे बड़े कीमती हैं। इसीलिए भिक्खु जस रसायण में उन्हें विस्तार से चर्चित किया गया है। इस खंड का उपसंहार करते हुए जयाचार्य ने लिखा है --
दृष्टंत वारू अधिक चारू, स्वाम नां ज सुहांमणा, भव उदधि तारण जग उधारण, ऋष भिक्खु रलियामणा। सुख वृद्धि सम्पति दमन दम्पति, भरम भंजन अति भलौ, हद बुध हिमागर सुमति सागर, नमो भिक्खु गुणनिलौ
(ढा. ४२ कलश १) वर्णन शैली __वर्णन शैली की दृष्टि से भिक्षु जस रसायण का चतुर्थ खंड अपनी अलग ही विशेषता रखता है। इस खंड का वर्ण्य-विषय आचार्य भिक्षु का चरम कल्याण है। इसका प्रारंभ ही उनकी निर्वाण स्थली सिरियारी के प्रसंग से होता है। कैसे वे सिरियारी आये, कैसे चातुर्मास प्रारंभ किया, कैसे लोगों को प्रबोध देते, कैसे भिक्षा के लिए जाते आदि आदि विषयों का बड़ा ही विस्तृत एवं हदयग्राही वर्णन है। अन्त में कैसे उनका शरीर निर्बल होता है और वे देहासक्ति से ऊपर उठकर आत्मस्थ हो जाते हैं-आदि विषयों का सटीक विवेचन है। आखिरी दिनों का वर्णन तो जैसे घंटे घंटे का रोजनामचा लिखा गया है। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह वर्णन बड़ा ही सजीव एवं भावपूर्ण है। आचार्य भिक्षु के प्रति जयाचार्य का हृदय अत्यंत भक्ति-भावित है पर वह यथार्थ-बोध से इतना अनुविद्ध है कि स्तुति-गान सा नहीं लगता।
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