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जयाचार्य ने भिक्खु दृष्टांत के गद्य को भिक्खु जस रसायण के पद्य में उतारने में भी अपनी अनुपम कवि मेधा का परिचय दिया है। साधारणतया गद्य को पद्य में ढालना बड़ा दुरूह कार्य है। मूल लेखन उतना जटिल नहीं होता जितना उसका छायांकन होता है। पर जयाचार्य ने यह पद्यानुवाद इतना मूल स्पर्शी, बल्कि हूबहू किया है, जिसे देखकर आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए हम बानगी के रूप एक दृष्टांत को ले सकते हैं । तुलनात्मक समीक्षा के लिए हम गद्य-पद्य दोनों को साथ-साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।
गद्य
कोयलांरी तो राब कालाबासण में रांधी
अमावस नी रात्री
आंधा जीमण वाला
आंधा परुसण वाला जीता जाय ने खुंखारो करे कहै - खबरदार ! काला - कंखो टालज्यो कई टालै?
सर्व कालो ही कालो भेलो हुवो ज्युं सरधा आचार रो ठिकाणो नहीं ते साध-श्रावक किम हुवै?
पद्य
कोयलारी तो राब अति काली
काला बासण में रांधी कराली
अमावस नी रात्री
आंधा जीमण वाला
परुसण वाला आंधा पयाला जीता बोलै खुंखारा करंता कहै - - खबरदार होय जीमजो सोय रखे आय जायला कालो कोय मूढ इतरो नहीं जांणै समेलो कालो हिज कालो हुवो भेलो ज्युं सरधा - आचार रो नहीं ठिकाण सगलो मिलियो सरखो घाण साध - श्रावक पण रो अंश नहीं सारो (३४/७ से १० )
यह एक प्रतीक अनुवाद है। इससे गद्य और पद्य में कितनी समता है बल्कि कितनी एकरूपता है यह सहज जाना जा सकता है। भिक्खु जस रसायण का दूसरा खंड इसी अगरु - गंध से सुवासित है। इस खंड में आचार्य भिक्षु की जिन स्वोपज्ञ कहानियों का उल्लेख हुआ है, वे भी अद्भुत हैं। न केवल उनका भाव पक्ष ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण है अपितु कला पक्ष भी चित्ताकर्षक है। बौद्धिकता से ऊपर
भिक्खु दृष्टांत केवल बौद्धिक व्यायाम का ग्रंथ नहीं है । दृष्टांतों के माध्यम से आचार्य ने दुर्गम से दुर्गम तथ्य को सुगम बनाकर अबोध व्यक्तियों के लिए
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