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हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है इसीलिए अंतिम क्षणों में उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। बिना किसी सूचना के कुछ साधु-साध्वियों के आगमन की चर्चा कर उन्होंने सबको चमत्कृत कर दिया । भिक्खु जस रसायण में इस सारे वर्णन को बड़ी विशदता से चित्रित किया गया है। छोटे से कथ्य को भी कहीं-कहीं तो क्षण-क्षण में बांध दिया है और अंत में इस दीप के निर्वाण की झांकी जयाचार्य इन शब्दों में दिखाते हैं :
बैठाकर साधु लारै बैठा, गुण स्वामी रा गावै
बहु नर-नारी दर्शण देखी, मन में हरष थावै आयो आउखो अणचिंतवियो बैठा-बैठां जाणं
सुखे समाधे बाह्य दीसत, चट दे छोड्या प्राणं ६१ / १२,१३ अनुपम आभा- वलय
दुनियां के सभी महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से सत्य का साक्षात्कार किया है। पर सत्य को साक्षात् कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। उससे परम्परित करने के लिए व्यवस्थाओं को तथाकार बनाना भी जरूरी है। इस दृष्टि से भगवान् महावीर ने काफी सतर्कता बरती है। उन्होंने जैन- परम्परा को जैसा मनोवैज्ञानिक व्यवस्था-तंत्र दिया था, वैसा अन्य लोग नहीं दे पाये। पर कालक्रम से जब उसमें कुछ दरारें पड़ने लगीं तो आचार्य भिक्षु ने उस पर नये सिरे से विचार कर कुछ नये कदम उठाये।
संघ कभी चलाने से नहीं चलता वह तो तब चलता है जब उसके नीचे आचार और विचार का पुष्ट धरातल होता है, तपस्या का पृष्ठबल होता है। संघ प्रणेता भी कभी बनाये नहीं जाते। वे तो अपने आप खड़े होते हैं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विरल विशेषताएं होती हैं जिनसे लोग अपने आप आकर्षित होते हैं। आचार्य भिक्षु के व्यक्तित्व में भी कुछ ऐसा ही चुम्बक तत्त्व था कि लोग उनसे अपने आप आकर्षित होते थे । भिक्खु जस रसायण के तीसरे और चौथे खंड में उनके आभामंडल की ज्योतिकिरणें फूट-फूट कर बाहर बिखर रही हैं। जयाचार्य कहते हैं
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संत भीखणजी मोटका, मोटा गुण भरपूर भव जीवां तुमे भजो, पोहा उगते सूर
बले गुण गाऊं भिक्खु तणा, सांभलजो सहुकोय
मोटा गुण महाव्रत नां, कहूं सूत्र साहमो जोय ४/२-३
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