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________________ जयाचार्य के लिए भिक्खु जश रसायण की रचना एक साधना थी। उन्होंने सूत्रसाक्ष्य से कहा है --गुणवंत ना गुण गावतां, उत्कृष्ट रसायण आय पद तीर्थंकर पामियै, कह्यो सुज्ञाता माय १/२ निश्चय ही उन्होंने आचार्य भिक्षु की गुण-गंगा में अभिस्नात कर अपने आपको पुनीत-पावन बनाया था। भक्त कवि ___ जयाचार्य एक अध्यात्म पुरुष थे। अपनी चरम स्थिति में अध्यात्म अकर्म है, पर उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आदमी को कर्म की राह से होकर गुजरना पड़ता है। इस अर्थ में अकर्म से भावित कर्म भी अध्यात्म है। भक्ति अध्यात्मकर्म का महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसीलिए भक्ति को योग कहा गया है। जयाचार्य का कर्म भक्तियोग से भावित था। यों जयाचार्य एक विविधमुखी साहित्य स्रष्टा थे। उनकी रचनाधर्मिता के अनेक मार्ग हैं, पर उनके भक्तरूप की अपनी एक विशेष छवि है। उनके साहित्य में भक्ति से भावित काफी कृतियां हैं। तीर्थंकरों से लेकर सामान्य साधु-साध्वियों के गुणोत्कर्ष को चित्रित करने में उन्होंने अपनी मुक्त मानसिकता का परिचय कराया है। पर आचार्य भिक्षु तो उनकी आस्था के प्रगाढ़ केन्द्र थे। इस दृष्टि से भिक्खु जश रसायण को सबल साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। यों किसी का जीवन चरित लिखना उसके प्रति भक्ति के प्रकर्ष का ही द्योतक होता है, पर भिक्खु जश रसायण में भक्ति के जैसे बिम्ब उभरे हैं. वे अत्यंत मोहक हैं। भिक्ख जश रसायण में केवल भक्ति प्रणाम ही हों ऐसा भी नहीं है, पर इस पूरी रचना का केन्द्र-तत्त्व भक्ति ही है। जयाचार्य अत्यंत भावुक होकर आचार्य भिक्षु के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं। वे कहते हैं -- याद आवै भिक्खु दिन-रैन, तन-मन विकसावै मुझ नैन (९/३०) आचार्य भिक्षु की स्मृति मुझे दिन-रात होती रहती है उनकी स्मृति मात्र से मेरे तन-मन-नयन विकसित हो जाते हैं। उनकी संस्तुति में वे लिखते हैं -- स्वप्ने सूरत स्वामनी, देखत ही सुख होय प्रत्यक्ष नो कहिवो किसूं शरण आपनी मोय (२६/५) आचार्य भिक्षु के स्मरण मात्र से आदमी मुक्ति सुखों को प्राप्त कर लेता है। जयाचार्य कहते हैं -- (boov)
SR No.006279
Book TitleBhikkhu Jash Rasayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages378
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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