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"त्यांरी आसता राखो तहतीक, तिणसूं होवे मोक्ष नजीक" शूरा सिंह तणी परे, सुरगिर जेम सधीर अगंज ओजागर अति घणा, विडद निभारण वीर (८/१६) भिक्खु स्वाम भारी-जगत् उद्धारक जशधारी अतिशयधारी ओपता, शासण शिरमणि मौड
आचारज इण काल में, अवर ने एहनी जोड़ (८/१८) आचार्य भिक्षु का नाम ही उनके लिए मंत्र के समान था। वे कहते हैं--
मंत्राक्षर जिम समरण मोटो, परख्यो म्है तन-मन इहभव, परभव में हितकारी, भिक्खु तणो भजन "निशदिन मनडो मांहरो, जप रह्यो आपरों जाप" "भरत खेतर में दीपक भिक्खु, दीया समान दीपाया" "जहाज तुल्य भिक्षु जशधारी, प्रत्यक्ष ही पेखायो" "सुर-गिर साम्प्रत आप सधीर मोने मिलिया अमोलक हीर" "स्वाम भिक्खु तणै प्रसाद, पामी समकित चरण समाध" "धिन-धिन भिक्खु स्वाम, सारया घणा जणांरा काम" "स्वाम गुणां नो पोरसो रे, स्वाम सासण सिणगार" "नमो नमो भिक्खु ऋख निरमल, मोक्ष तणा दातार"
स्मरण स्वाम तणो सुध साध्या, शिव-सुख पामै सार जयाचार्य ने अनेकानेक विधाओं में आचार्य भिक्षु को अपने भक्ति प्रणाम निवेदित किए हैं। यहां हम केवल भिक्खु जश रसायण के संदर्भ में ही चर्चा कर रहे है। ऐसा लगता है जैसे इस जीवन-काव्य के पौर-पौर में भिक्षु का नाम बोल रहा है। पूरा भिक्खु जश रसायण ही इसका प्रमाण है, पर इस दृष्टि से तीसरे खंड की बावीस गाथाओं की ४३वींढाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है आचार्य भिक्षु को आदिनाथ की उपमा देते हुए प्रथम गाथा में वे लिखते हैं --
इण दुषम आरे कर्म कटियाजी प्रगटिया आदि जिणंद ज्यूं
ए इचर्य अधिक आवंत" "आदि जिणंद तणी परे ओलखायो आचार" जनम-जनम किम बिसरै तुझ गुण अनघ अपार स्यूं उपमा तुमनै कहूंसार अजिण जिणा सरिसा उदार
(Oxvi)