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दूहा
१ किणहिक' भीक्खू नै कह्यौ- संजम लेउं सार। ___मन ऊठै है माहरौ, स्वाम कहै सुखकार॥ २ घर मैं पुत्रादिक घणा, रुदन करै धर राग।
तुझ काचौ हीय तेहथी, अति हि कठण अथाग। ३ न्याती रोता निरखनै, मोह धरे मन माय।
तूं पिण रुदन करै तदा, काम कठिण कहिवाय।। ४ तिण कह्यौ स्वामी! तहत वच, आंसू तौ आय जाय।
परियण रोता पेख मैं, म्हारे पिण मोह आय।। ५ स्वाम कहै-कोइ सासरै, जाय जमाई जांण।
आंणौ२ ले आतां छतां, त्रिय तौ रोवै तांण॥ ६ पिण उण री देखा-देख पिउ, जेह जमाई जोय।
रुदन करै मोह-राग सूं, हासी जग मैं होय॥ ७ त्रिय रोवै पियर तणौ, विजोग पड़े विशेष।
वर रोवै किण वासतै? उपनय कहूं अशेष। ८ ज्यूं संजम लेवै जरै, स्वारथ रुदन
तत चारित लेवै तिकौ, मोह धरै किम मन? ९ तिण सूं संजम कठिण तुझ, दियौ इसौ दृष्टंत। वलि हेतु आख्या विविध, स्वाम भला सोभंत॥
ढाळः २९
__ (सुमित्रनंदन श्री मुनिसुव्रत) १ जगत तौ मोह नै दया जाणे छै, दया ओळखणी दोहरी। प्रत्यख राग अठारै पाप मैं, साची श्रद्धा नही सोहरी रा॥
भविक जन ! भीक्खू रा दृष्टंत भारी॥ २ पूज मोह ओळखायौ प्रत्यख, दीयौ एहवौ दृष्टं तौ।
परण्यां पछै कोइ परभव पौहता, बाल अवस्थावंतो रा।। भविक. १. भि. दृ. ३७।
ससुराल को आना। २. विवाहोपरान्त वधु का पहली बार ३. भि. दृ. २५७।
स्वजन।
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भिक्खु जश रसायण