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________________ दूहा १ अड़ताळीस मुनि अख्या, पूज छतां पहिछांण। चारित्र लीधौ चित धरी, उजम' अधिकौ आंण॥ २ अष्टवीस गण मैं सही, सखर रह्या सुजगीस। गुर छंदै गिरवा गुणी, अलग रह्या छै वीस॥ ३ वीसां माहै एक वर, रूपचंद सुध रीत। छेहडै अणसण-चरण लिय, पूज आंण प्रतीत॥ ४ पूज थकां चारित्र प्रगट, अब सतियां अधिकार। केइक बारै नीकळी, पोहती केइक पार॥ ५ एक साथ व्रत आदऱ्या, तीन जण्यां तिण वार। 'कुसलांजी' बड़ी करी, कुसल खेम अवतार।। ढाळ : ५१ (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) १ पवर चरण सुध पालता जी, कुसलांजी नैं विचार। 'दीर्घपृष्ठरे' गूंदोच मैं जी, ते डसीयौ तिण वार॥ खिमावंत धिन सतीया अवतार ॥ध्रुवपद-||-- - - - -२-जंत्र-मत्र झाडा भणी जी, वंछयौ नहीं तिण वार। सुध परिणामे महासती जी, पोहती परलोक मझार। खिमावंत. ३ 'मटूजी' मोटी सती जी, स्वाम आंण सिर धार। पद आराधक पांमियौ जी, ओ भीक्खू नों उपगार॥ खिमावंत. सोरठा ४ 'अजबू' प्रकृति अजोग रे, कर्म जोग सूं नींकली। प्रकृति कठण प्रयोग रे, चारित्र खोवै छिनक मैं। (खिमावंत जोय भगवंत रौ रे ज्ञान) ... . ३. सांप। १. उद्यम। २. पहोंती (क)। १७४ भिक्खु जश रसायण
SR No.006279
Book TitleBhikkhu Jash Rasayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages378
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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