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दूहा
१ भारी गुण भीक्खू तणां, कह्या कठा लग जाय। मरण धार सुध मग लियौ, कुमीय न राखी काय।।
सोरठा २ पंच वर्ष पहिछांण रे, (नित्य) अन्न पिण पूरो ना मिल्यौ। बहुल पणै वच जाण रे, घी चोपर तौ ज्यांहि रह्यौ।
दूहा ३ परम दुलभ सरधा प्रगट, आखी श्री जिन आप।
तीजै उत्तराधेन' तत', थिर भीक्खू चित थाप।। ४ बहुलकर्मी जीव बहु, ऊपजीया इण आर
दिल मैं वेसणी दोहिली, सरधा __ महासुखकार। ५ परमपुरी धुर पगथीयौ, श्री जिन-सरधा सार।
सुध सरधा समगत सही, भीक्खू कीयौ विचार।। ६ धर्म तणा धेषी घणां, लागू बौहळा लोग।
समझाया समझे नहीं, अधिका मूढ अजोग।। ७ जब भीक्खू मन जांणीयौ, कर · तप करूं किल्यांण।
मग नहि दीसै चालतौ, अति घन लोक अजांण॥ ८ घर छोड़ी मुझ गण मझै, संजम कुंण लै सोय?
श्रावक नै वलि श्राविका, हुंता न दीसै कोय।। ९ एहवी करें आलोचना, एकंतर
अवधार। आतापन वलि आदरी, संतां साथै सार॥ १० चौविहार उपवास चित, उपधि ग्रही सहु संत।
आतापन लै वन मझै, तप कर तन तावंत ।।
१. उत्तराध्ययन-अ. ३ गा.१। २. तत्त्व। ३. सरध्यां (क)।
४. कृत्वा (करके)। ५. तपा रहे हैं।
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भिक्खु जश रसायण