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दूहा
१ समत अठार बतीस मैं, भीख
बुद्धि-भंडार। प्रकृति देख साधां तणी, लिखत कीयौ तिण वार।। २ सहु साधां नैं पूछ नै, बांधी इम मर्याद।
सुखे संजम पाळण भणी, टाळण कलेश उपाध॥ ३ पद युवराज समापीयौ, भारीमाल नै जांण।
सर्व साधु नैं साधवी, पाळजो यांरी आंण।। ४ भारमलजी री आज्ञा थकी, विचरवौ शेषै काळ।
चोमासौ करिवौ तिकौ, आज्ञा ले सुविशाळ॥ ५ दिख्या दैणी अवर नैं, भारीमाल रै नाम।
पिण आज्ञा लीधां बिनां, शिष नहीं करणौ तांम॥ ६ इच्छा हुवै भारीमाल री, शिष गुरु भाई सोय।
पदवी देवै तेहनै, तसं आज्ञा अवलोय॥ ७ एक तणी आज्ञा मझै, रहिवौ रूड़ी . रीत।
एहवी रीत परंपरा, बांधी स्वाम वदीत।। ८ टोळा मां सं कोइ टळे, एक दोय दे आद।
धुरत बुगलध्यानी हुवै, तिण नैं न गिणवौ साध॥ ९ तीर्थं मैं गिणवौ न तसुं, चिउं संघ नों निंदक-जांण।
एहवा नैं वांदै तिके, आज्ञा बार पिछांण।
अ है
ढाळ : ४५
(पांडव बोलै बोल) १ एहवौ लिखत अमांम, सखर मर्यादा हो बांधी स्वांमजी।
नीचे साधां रा नाम, कठिण संजम नैं हो पाळण कामजी॥ २ मेटण क्लेश मिथ्यात, थिर चित थापण हो मर्यादा थुणी।
वारु बुद्धि विख्यात, सुगुण सुबुद्धि हो हरख पांमैं सुणी॥ ३ अपछंदा अविनीत, दोषण काळे हो इण मर्याद मैं।
कुबुद्धि कहै कुरीत, अवगुण ग्राही हो आत्म असमाध मैं॥
भिक्खु जश रसायण : ढा. ४५
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