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टुकड़ों में बंटकर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हो गया था। धार्मिक दृष्टि से भी साहित्य में एक काष्ठ मौन सा छाया हुआ था। जयाचार्य ने उस मौन को तोड़ कर एक उद्दिष्टि तथा अनुत्तर जागरण का संदेश अपने साहित्य में दिया। इस अर्थ में राजस्थानी साहित्य के खालीपन को भरने में जयाचार्य एक कड़ी के रूप में सामने आते हैं। उनके समय में भक्ति की धारा भी जरा मन्द पड़ने लगी थी। साधारणतया ईश्वर के प्रति प्रेम की अनुभूति - अभिव्यक्ति को भक्ति का आधार-तत्त्व माना जाता है। लेकिन संपूर्ण भक्ति काव्य एक जैसा नहीं है। जो भक्त कवि ईश्वर को सगुण-साकार मानते थे, वे सगुणी भक्त कहलाये । सूर, तुलसी आदि ऐसे ही भक्त कवि हुए हैं। जो लोग ईश्वर को निर्गुण-निराकार मानते थे तथा अवतारवाद में विश्वास नहीं करते थे, निर्गुणमार्गी भक्त कहलाए। इनमें भी जिन्होंने धार्मिक रूढ़ियों और पाखंड पर चोट की उन्हें ज्ञानमार्गी कहा गया। कबीर ऐसे ही ज्ञानमार्गी कवि हुए थे। जिन कवियों ने लौकिक प्रेम कथाओं के माध्यम से ईश्वर के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति की उन्हें प्रेममार्गी कहा गया। जायसी को इसी धारा के अन्तर्गत माना जाता है।
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अध्यात्म और साहित्य
जयाचार्य एक अध्यात्म पुरुष थे, अतः इनके साहित्य का प्रेरक भाव अध्यात्म ही रहा। ललित साहित्य को ही साहित्य मानने वाले लोग आध्यात्मिक रचनाओं को साहित्य नहीं मानते पर जयाचार्य का साहित्य आध्यात्मिक होने के साथ-साथ इतना रसपूर्ण है कि उसे किसी भी तरह साहित्य की चारदीवारी से बाहर नहीं किया जा सकता। इस माने में उनका साहित्य राजस्थानी भाषा को ग्राम्य भाषा या आध्यात्मिक अनुभूति के संवहन में अक्षम भाषा कहने वाले लोगों के लिए एक सटीक उत्तर है। जयाचार्य को अध्यात्म के राजस्थानी भाषा में अवतरण के कीर्तिस्तंभ कहने में भी कोई अत्युक्ति नहीं लगती।
अध्यात्म एक शाश्वत सत्य है। वही साहित्य कालजयी बन सकता है जो अध्यात्म से भावित हो। महावीर, बुद्ध और कृष्ण यदि आज जीवित है तो इसीलिए कि उनका साहित्य अध्यात्मपूरित है। बहुत बार साहित्य भी राजनीति की निन्दा - स्तुति में उलझ जाता है। पर राजनीति तो एक क्षेत्र - काल की उपयोगिता है। वह अपने वर्तमान में भी सार्वभौम नहीं बन सकती। एक जमाना था जब प्रगतिवाद के नाम पर साम्यवाद के बहुत गुण गाये जाते थे। जिस तरह प्रगतिवाद ने राजाओं की यशोगाथा को बुद्धि का दिवालियापन बताया था, , उसी
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