________________
इतनी विधाओं को एक साथ जी लेना कोई मामूली बात नहीं है। जयाचार्य ने । इस दृष्टि से उनके जीवन चरित को अपनी लेखनी की नोक पर उठाकर अपनी विशिष्ट परख एवं रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। सचमुच में जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु और अपने बीच के एक शती के फासले को पाटने में अपनी सार्थक भूमिका का परिचय दिया है। काव्य - मीमांसा _ हिन्दी और राजस्थानी का मूल प्राकृत-अपभ्रंश है। इसलिए इन दोनों भाषाओं की प्रकृति में गहरा साम्य है। बल्कि मूल में तो इन दोनों को अलग कर पाना भी कठिन है। पृथ्वीराज रासो आदि जिन कुछ रचनाओं को हिन्दी के आदि ग्रंथ माने जाते हैं, वे वास्तव में राजस्थानी भाषा की ही रचनाएं हैं। राजस्थानी की गद्य-परम्परा भी बहुत पुरानी है। असमी को छोड़कर उत्तर भारत में सबसे पुराना गद्य साहित्य राजस्थानी का ही माना जाता है। इस तरह राजस्थानी न केवल बहुत पुरानी भाषा है अपितु इसका साहित्य भी बहुत विपुल है। जैनसाहित्यकारों का इस समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
हिन्दी कविता का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। इस कालधारा में इस भाषा में कविताओं के कई दौर आये। १००० से १३५० ई. के प्रारंभिक काल में वीरता, शृंगार, धर्म आदि विभिन्न भावों को आधार बनाकर काव्य लिखे गये। इस काल खंड की कविता-धारा को कोई एक संज्ञा दे पाना संभव नहीं है। बाद में १३५० से १६५० तक जो रचनाएं लिखी गईं वे भक्तिपरक थीं। इस युग में धर्म को लोकधर्म का रूप दिया गया और इसे भक्ति काल कहा गया। भक्ति काल के बाद १६५० से १८५० तक के काल में राजामहाराजाओं को बहलाने वाला दरबारी काव्य लिखा गया। इस काल की विषयवस्तु शृंगार प्रधान थी, नखशिख वर्णन की रीति को निभाने की प्रतिबद्धता के कारण इसे रीति काव्य कहा गया। इसके बाद आधुनिक चेतना और जीवन मूल्यों से युक्त आधुनिक काव्य की शुरुआत हुई। जयाचार्य और राजस्थानी साहित्य ।
जयाचार्य का रचनाकाल आधुनिक युग का प्रारंभ काल कहा जा सकता है। जयाचार्य ऐसे समय में सामने आते हैं जब राजस्थानी में रचनाधर्मिता प्रायः सुषुप्त अवस्था में थी। विदेशी दासता के एक लंबे गलियारे से गुजर कर भारतीयचेतना कुंठित सी हो रही थी। पूरा भारतीय समाज राज्य-व्यवस्था के छोटे-छोटे
(xvi)