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तरह हो सकता है कभी प्रगतिवाद भी अप्रतिष्ठ बन जाये। पर महावीर, बुद्ध और कृष्ण कभी अप्रासंगिक नहीं बन सकते। ___ साहित्य की एक प्रेरणा मानवीय-संवेदना भी है। वह भी उसे अमर बनाती है। पर मानवीय संवेदना अध्यात्म का ही एक पक्ष है। अध्यात्म मानव से आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के प्रति संवेदना का विस्तार है। इसलिए वह अधिक आगे गया है। आचार्य भिक्षु तथा जयाचार्य ने अपने साहित्य में मानवीय-संवेदना को भी स्थान दिया है, पर उनका पूरा दर्शन छोटे से छोटे प्राणी के प्रति संवेदना व्यक्त करने में ही अपनी सार्थकता अनुभव करता है। इसलिए उनका साहित्य भी ज्यादा असरदार है। राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि कृति
यद्यपि जयाचार्य राजस्थान के मारवाड़ प्रदेश (जोधपुर) से आते हैं तथा उनकी भाषा में मारवाड़ की आंचलिकता की सुरभि आती है, फिर भी एक यायावर संत होने के नाते उन्होंने पूरे राजस्थान को अपने कदमों से नापा था। इसीलिए उनकी राजस्थानी भाषा में सभी आंचलिकताओं का सहज स्पर्श है। भिक्खु जश रसायण को उसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस अर्थ में इसे राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि कृति कहने में भी कोई संकोच नहीं होता। भाषायी अध्ययन __ भाषायी दृष्टि से प्रसंग-प्रसंग पर लोकोक्तियों-मुहावरों का प्रयोग कर इस कृति में चार चांद लगा दिए गए हैं। यद्यपि ऐसे प्रयोगों की संख्या कर पाना मुश्किल है पर फिर भी ऊंठ री खोड ऊंठ नै पोपा बाईरो राज (४१/१०८), तीनां घरां बधामणा (६/१६), फकीर वालो दुप्पट्टो (६/१४), नव तुम्बा तेरह नेगदार, (४१/१०८)काण न राखै कोय : (६/९), गलां तांई कल गयो (६ दू. ९) आदि अनेक प्रयोगों को उदाहरण के रूप में गिनाया जा सकता है।
राजस्थानी भाषा में बात कहने का अपना एक विशेष लहजा है। थोड़े में बहुत कह देना, इस भाषा की अपनी विशेषता है। इस दृष्टि से इस भाषा में कुछ ऐसे समस्त-पदों का प्रयोग किया जाता है जो मनुष्य की लम्बी अनुभूति से उपजे हुए होते हैं। प्रस्तुत कृति भी ऐसे अनेक शब्द-संकेतों से आकीर्ण है। धर्म रा धोरी, ठाला बादल (४१/१०४), बुगल ध्यानी (४५ दू. ८), माता बाजणी (१२/२), छोरी रो घाट (२६/४), छांदो, कुडी (१९/१३), नीला कांटा (३६/
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