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ढाळ : ५३
(अभिनंदन वांदूं नित्य मन रली) १ भर्म भय भंजन हो जन-रंजन गुण जिहाज, सुमतिसुमंडन स्वाम सोभावीया।
कुमति विहंडन हो मिथ्या खंडन काज, विचरत-विचरत सोजत आवीया।। २ चौहटे चारु हो छत्री छै सुविचार, आज्ञा लेईं नैं स्वाम तिहां ऊतर्यां।
जन-मन हरख्या हो निरख्यौ पूज दीदार, जाणक श्री जिन आप समवसऱ्या।। ३ दर्शण कारण हो धारण चरचा बोल, संत-सती बहु स्वाम पै आवीया।।
आज्ञा लेवा हो चौमासा री अमोल, परम-पूज पै आवी सुख पावीया।। ४ दम-सम-सागर हो स्वामी परम दयाल, भळाया चौमासा संत-सत्यां भणी।
इतलै आयो हो हुकमचंद आछौ न्हाळ, पूज दर्शण कर प्रीत पांमी घणी॥ ५ बेकर जोड़ी हो मांन मरोड़ी बोलंत, विविध विनय करि कर रह्यौ वीनती।
स्वाम चौमासो हो सरीयारी करौ संत, सूझती छै पकी हाट मुझ सोभती॥ ६ गुण-निधिज्ञानी हो गिरवा आपगंभीर, ऋषपति अरज करूं हूं रीत तूं।
वारु-वचने हो विनती कीधी वजीर, सुगुर प्रसन्न हुवै शिष सुविनीत सूं। ७ स्वामी मानी हो वीनती तसुं सार, विहार करी नैं बगड़ी सूं सोभावीया।।
निरमळ चित तूं हो अरज करै नर-नार सैहर कंटाल्यै बगड़ी सूं सोभावीया।। ८ गति गयवर सी हो इर्या-धुन गुण-जिहाज, प्रवर संतां कर मुनिवर परवा ।
परतख कहियै हो ऋष भवदधि नी पाज, सैहर सरीयारी मैं स्वाम समवसऱ्या।। ९ सैहर सरीयारी हो सोभै कांठा नी कोर, दोलौ' मगरौ' गढ कोट ज्यूं दीपतौ।
जन बहु वस्ती हो महाजनां री जोर, जूंना-जूंना केइ पुर भणी जीपतो।। १० निर्भय नगरी हो ऋद्धि-समृद्धि निहोर, ज्यां धर्म-ध्यांन घणौ तप-जाप नौं।
राज करै छै हो दौलतसींग राठोड़, कुंपावत कहियै करड़ी छाप नौं। ११ तिहां मुनी आया हो सप्त ऋषी तंत सार, जय-जश धरण करण मन जीपता।
सांमी सोभै हो गणनायक सिरदार, दमीसर पूज भीखनजी दीपता।। १२ भरत क्षेत्र में हो भीक्खू सांप्रत भांण, आज्ञा लेइ नैं पकी हाट ऊता ।
जन बहु हरख्याहो पूज पधारया जांण, धर्मानुराग करी तन मन भर्या।। .३ वखांण वाणी मैं हो आगैवांण विशाल, थिर पद पूज भीखनजी थापीयौ।
भार लायक हो सोभै मुनि भारीमाल, पद जुगराज पहिलाई समापीयौ।। चारों तरफ।
२. पहाड़।
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भिक्खु जश रसायण