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प्रथम खंड
दूहा १. सिद्ध साधु प्रणमी सखर, आंणी अधिक उलास।
सुखदायक आखू' सरस, वारू __'भिक्खु-विलास'॥ २. गुणवंत नां गुण गावतां, उत्कृष्ट रसांणरे आय।
पद तीर्थंकर पामीय, कह्यौ सुज्ञाता माय।। ३. सासण वीर तण समण, कह्या अधिक अधिकाय।
गुण बुद्धि तप अरु ज्ञान करि, चउदश सहस सुहाय।। ४. सर्वज्ञ जिन मुनि सप्त सय, अवधि तेर सय आण।
मनपज्जव सय पंच मुनि, चिउं सय वादी पिछांण। ५. पूरवधर त्रिण सय पवर, वैक्र सप्त सय वाध।
समणी सहंस छतीस सुध, चउदश सय निरुपाध।। ६. सुधर्म जंबू तलक सिव, अन्य मुनि अमर-विमाण।
हिवडां पंचम काळ मैं, भिक्खू प्रगट्या भांण॥ ७. चतुर्थ आरा नां मुनि, नयणां देख्या नाय।
धिन-धिन भिक्खू चरण - धर, प्रत्यख दर्शण पाय॥ ८. किहां उपनां, जनम्यां किहां, परभव पद किहां पाय।
किया चौमासा किण विधै, सांभळजो सुखदाय।। ९. चिऊ सय सत्तर वर्ष लगै, नंदीवर्धन
निहाळ। तां पीछे विक्रम तणौं, सांप्रत संवत् संभाळ।।
सुतंत।
ढाळ : १
(नाटक भरतादिक तणां रे) १. सकल द्वीप सिरोमणूं रे लाल, जम्बूद्वीप 'अष्टमी चंद'-कळा इसौरे'लाल, भरतखेत्र
सुलकंत॥ भव जीवां रे! रूडौ लागै भीक्खू ऋषराय,
भव जीवां रे! रूड़ौ लागै स्वाम सुखदाय ॥ध्रुवपद।। १. कहता हूं।
४. तक। २. रसायण (क)।
५. अर्ध चन्द्राकार। ३. णायाधम्मकहाओ-श्रुतस्कंध
६. भलकंत (क)। १ अ.८ सूत्र १८
७. अच्छा ।
भिक्खु जश रसायण : ढा.१