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१५ सर्व वृक्षां मैं सोवै जी, मन मोवै दीसै दीपतौ।
__ जंबू सुदरसण जांण। ज्यूं संतां मैं सिरदारी जी, मत भारी भीखू भरत मैं।
उपना इचरजकारी आंण।। सांम. १६ सीता नंदी सिरै जांणी जी, बखांणी वीर सिधंत मैं।
पंच सै जोजन प्रवाह। ज्यू तप-तेज अत तीखाजी, नहीं फीका, रह्या ज फाबता'।
सदा काळ सुखदाय॥ सांम. १७ मेरू नी ओपम आछी जी, नहीं काची कही किरपाल जी।
ते ऊंचौ घणौ अतंत। ओषद अनेक छाजै जी, विराजै गुण त्यांमैं घणा।
ज्यूं ए बहुश्रुती बुधवंत॥ सांम. १८ 'सयंभूरमण समुद्र रूड़ौ जी, 'पूरौ पाव राज पिहुलो पड्यौ'। .
__ प्रभूत रतन भरपूर। सागर जेम गंभीरा जी, सुरवीरा गुण कर गाजता।
सूतर चरचा मैं सूर॥ सांम. १९ ए षट दस ओपम आछी जी, कांई साची सूतर मैं कही।
बहुश्रुती नै श्रीकार। इण अणुसारे जाणौ जी, पिछांणौ कर लो पारखा।
भीखू गुण-भंडार॥ सांम. २० ओपम अनेक गुण छाज्या जी, विराज्या गादी वीर नी।
पूज पाट लायक गुण पाय।। समुद्र जेम अथागा जी, जलथागा जिण भाख्यौ नहीं।
ज्यूं गुण पूरा केम कहिवाय? सांम. २१ पाटलायक सिष भाली जी, सूहाली परकत सुन्दरू।
भारमलजी गैहर गंभीर। पदवी थिरकर थापी जी, आ आपी आचारज तणी।
जांणे सुवनीत सधीर॥ सांम. १. शोभित होते हुए।
चौथा भाग)रज्जू चौड़ाई वाला है। असंख्य २. स्वयंभूरमण समुद्र पाव (एक रज्जू का योजन , का एक रज्जू होता है।
३. विपुल।
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भिक्खु जश रसायण