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७ तीजो दृष्टंत स्वामी दीयौ रे, उरपर एक अजोगो।
घणां उंदरां नां गटका करै रे, मनुष पौहचावै परलोगो। मनुष मार परलोग पौहचावै, घणां पंख्यां नां अंडा पिण खावै। सर्प घणां जीवां नैं संतावै, उत्कृष्ट 'धूमप्रभा'२ लग जावै।
जी सहू कोई जी हो। ८ किण ही विचार इसौ कियौ रे, सर्प घणां नैं संतावै।
एक सर्प मार्यां थकां रे, जीव घणां सुख पावै। जीव घणां सुख पावै सुजांणी, अनुकंपा बहु जीवां री आंणी। सर्प मार बचाया बहु प्रांणी, लाय बुझायां कहै मिश्र वांणी।
तिण रै लेखै इण मैं पिण मिश्र पिछांणी,
जी सहू कोई जी हो। चौथो दृष्टंत स्वामी दीयौ रे, कोइ पुरुष नौं एहवौ आचारो। बाप मूंआं पहिली कह्यौ रे, काळ करतां तिणवारो। काळ करतां सुत कही थी वांणो, सुखे तुम्हारा नीसरजो प्रांणो। थां लारै अटव्यादिक बालसूं जांणौ, घणां गांम नगर बाल करतूं घमसाणौ।
जी सहू कोई जी हो। १० मनुष ढांढा घणां मारतूं रे, बाप नै एहवौ सुणायौ।
पिता पौहतौ परलोक में रे, पछै करवा लागौ सह ताह्यौ। करवा लागौ जीवां रौ घमसांणो, किणहिक मन मैं विचार्यो जांणौ। एक माऱ्यां सूं वचै बहु प्राणो, इम चिंतव ते पुरुष नैं मार्यो अचांणौ।
जी सहू कोई जी हो। ११ लाय बुझायां मिश्र कहै रे, तिण रै लेखै ए पिण मिश्र होयो।
एक मार्यो पाप तेहनों रे, बहु वचीयां तिण रौ धर्म जोयो। वचीयां रौ धर्म त्यारै लेखै वाजै, अल्प पाप बहु पुन्य फळ राजै। एक मार्यो घणां राखण काजै, इण मैं पिण मिश्र कैहता कांय लाजै।
जी सहू कोई जी हो।
१. सांप।
२. पांचवीं नरक।
भिक्खु जश रसायण : ढा. २०