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३ दूजी धर्म मैं समझै नाहि, चित काम-भोग री चाहि।
केतलैइक काळ विचार, परदेश माहै भरतार।। ४ काळ कर गयौ ते किण वार, बात सांभळी छै बिहुं नार।
तिण रै रोवण रा छै त्याग, ते तो रोवै नहीं धर राग।। ५ समता धार बैठी सोय, कियौ नेम न भांगै कोय।
सुभ-असुभ कर्म स्वभाव, प्रत्यख ओळख लियौ प्रभाव।। ६ दुख पाप प्रभावै देख, वली कर्म बांधू किण लेख।
उदै बांध्या जिसाईज आय, इम चित नैं दियौ समजाय॥ ७ बीजी रोवै करंत विलाप, कहै कवण उदै हुआ पाप। ' छाती माथौ कूटै तन झाडे, अति रोवती 'बांगां' पाडै'। ८ हाहाकार हुऔ तिण वेळा, लोक हुआ सइकडां भेळा।
रोवै तिण नैं अधिक सरावै, पतिव्रता ए. दुख पावै॥ ९ वले बोलै घणा लोग लुगाई, धिन-धिन ए नार सुहाई।
इण रै पीतम सूं अति प्यार, तिण सूं रोवै है बांगां पाड़। १० नहीं रोवै तिण नै जन निंदै, आ तो पापणी थी अपछंदै।
आ तौ मूवौज वांछती कंत, आंख मैं आंसूं नहीं आवंत।। ११ संसारी रे मन इम भावै, मोह कर्म वसै मुरझावै। . साधु कहौ किण नैं सरावै, परमार्थ विरला पावै।। १२ मोख नैं लोक रौ मग न्यारी, बुद्धिवंत हीया मैं विचारौ।
दियौ स्वाम भीक्खू दृष्टत, प्रत्यख देखाया दोनूइं पंथ।। १३ इम हि संसार नों उपगारो, मोख रा मार्ग सूं न्यारौ।
वारू मोख तणों उपगार, संसार नों छेदणहार।। १४ ऐसा भीक्खू ओजागर भारी, न्याय मेलवीयारे तंत सारी।
कही ढाळ बावीसमी सार, भीक्खू रा गुणां रौ नहिं पार।।
१. जोर-जोर से चिल्लाती है।
२. मेलविया (क)।
भिक्ख जश रसायण