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जितना स्तुति अभिषेक प्राप्त हुआ उतना शायद बहुत कम आचार्यों को प्राप्त होता है। जयाचार्य ने तो 'भिक्खु जश रसायण' के रूप में पूरा काव्य उनपर लिखा ही है, इससे पूर्व मुनि हेमराजजी एवं मुनि वेणीरामजी ने भी " भिक्खु चरित" नाम से दो स्वतंत्र चरित्र - काव्य लिखे हैं पर प्रत्यक्षानुभूति तथा भिक्खु जश रसायण के लिए सामग्री-स्रोत होने के कारण इनका महत्त्व भी असंदिग्ध है।
दोनों भिक्खु चरितों की अपनी कुछ विशेषताएं हैं तो चरित - नायक होने के कारण कुछ समानताएं भी हैं । विशेषताएं जहां उनके रचना - कौशल को अभिव्यक्त करती हैं वहां समानताएं संवादिता के पुष्ट प्रमाण हैं । दृश्य एक होने
बावजूद भी द्रष्टा की अपनी आंखें अलग-अलग होती हैं। मुनिश्री हेमराजजी आचार्य भिक्षु के बुद्धि-कौशल से अत्यंत प्रभावित थे अतः उनकी रचना में आचार्य भिक्षु के बुद्धि चातुर्य के चित्र बड़ी अभिरामता से उभरे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि आचार्य भिक्षु साधना के अभ्रंकष शिखर थे पर उनकी बौद्धिक क्षमता भी अपूर्व थी। इसीलिए मुनिश्री हेमराजजी उत्पत्तिया बुद्धि के हवाले से अपनी रचना में उसी विशेषता को बार-बार उजागर करते
हैं।
नौ ढालों और दोहों के इस चरित का पौर-पौर भक्ति रस से पूर्णत: संभृत है। आचार्य भिक्षु लोकरुचि के एक पारखी संगीतज्ञ थे अत: उनका शिष्य वर्ग भी उससे प्रभावित हो, यह स्वाभाविक था । यही कारण है कि दोनों ही भिक्खुचरित गेय विद्या में लिखे गए हैं।
इन जीवन-चरितों में राजस्थानी की उच्चारण- मृदुता के भी स्थान-स्थान पर दर्शन होते हैं। प्रकृति के स्थान पर 'परकत' मेरु के स्थान 'मेर', ऋषि के स्थान पर 'रिष' (ख) आदि प्रयोग इसके स्पष्ट उदाहरण हैं ।
राजस्थानी की भाषा - परम्परा को भी इन चरितों में बड़े अच्छे रूप में प्रतिबिम्बित किया गया है। आचार्य भिक्षु के मां-बाप को दीपांदे और बल्लूशा के सम्बोधन से अभिहित करना उसी परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण संकेत है।
इस तरह की अनेक दृष्टियों से यह लघु जीवन चरित अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भिक्खु चरित (२) मुनि वेणीरामजी
मुनिश्री वेणीरामजी का १३ ढालों-दोहों का भिक्खु - चरित भी आचार्य
(xliii)