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भिक्षु को एक अत्यंत सशक्त भक्ति प्रणाम है। पूरे काव्य में आचार्य भिक्षु के आगम-पुरुष को एक शलाका-पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। बल्कि इसकी चौथी ढाल को भिक्खु जश रसायण में ज्यों की त्यों उद्धृत कर जयाचार्य एक प्रकार से इसके महत्त्व को और भी अधिक बढ़ा दिया है। वास्तव में ही मुनिश्री वैणीरामजी का कवि-कर्म अत्यंत प्राञ्ञल है।
यों तो इतिहास जीवन-चरितों का संवाहक तत्त्व होता है, अत: उनमें प्रमुख व्यक्तियों का उल्लेख अवश्यंभावी है। मुनिश्री ने घटनाओं के साथ जुड़े हुए जीवणजी आछा (९/११) जेतोजी (१०/६) गुलोजी लूणिया (१०/१०) जैसे अल्प परिचित व्यक्तियों का नामोल्लेख कर इस जीवन-चरित की व्यापकता एवं सूक्ष्मग्राहिता को अतिशय प्रामाणिक बना दिया है। यह एक ऐसी विरल विशेषता है जिसका मूल्य इतिहास का विद्यार्थी ही समझ सकता है।
राजस्थान के प्राकृतिक परिवेश को आंकने का भी मुनिश्री का अपना एक अद्भुत अंदाज है। छठी ढाल की पांचवी गाथा में' चौथज आई चांदणी' का प्रयोग इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राजस्थानी जीवन में रात को चांदणी कहने के पीछे यहां की प्राकृतिक सुषमा की जो अभिव्यक्ति है, उसे वही व्यक्ति व्यक्त कर सकता है जो उसे भोगा हुआ होता है। निश्चय ही पूरा काव्य इस तरह की महत्त्वपूर्ण संवेदनाओं से भरा पड़ा है।
मुनिश्री वेणीरामजी एक मेवाड़ी संत थे, अतः उनकी भाषा में मेवाड़ी मृदुता को बहुत स्पष्टता से अनुभव किया जा सकता है। विशेष को 'वसेख ' (१/६) कूट को 'कूर' (६/६) गुरु को 'गुर' (२/२) वचन को 'बेण' (११/ ६) कृपा को 'किरपा' (१२/८) मरुधर को 'मुरधर' (२/२) आदि शब्द प्रयोग मेवाड़ी भाषा का उच्चारण-मृदुता के बहुत बड़े साक्ष्य हैं। यों तो पूरी राजस्थानी भाषा की उच्चारण ही अत्यंत मृदु है, पर मेवाड़ी भाषा की मृदुता का अपना एक अलग ही मिठास है। मुनिश्री वैणीरामजी उसे अभिव्यक्त करने में अत्यंत सफल रहे हैं।
इन सारी विशेषताओं के कारण इन दोनों भिक्खु - चरितों को भी प्रस्तुत संग्रह में शामिल कर लिया गया है।
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(xliv)