________________
गीत लिख देते हैं। यद्यपि इस वर्णन में आचार्य भिक्षु की वर्णन शैली को पहचानने में बहुत कठिनाई नहीं होगी, परन्तु उस अपार साहित्य ग्रंथ में से बूंद-बूंद को ढूंढकर एक सरित् प्रवाह बहा देना जयाचार्य का अपना एक कमाल है। आचार्य भिक्षु का संदर्भ देकर वे कहते हैं
स्वामभिक्खु बुद्धि सागरु, निर्भल मेल्या न्याय सुविनीत सुण हर्षे सही, अविनीत ने न सुहाय अविनीत साधु ऊपरै, दीधो स्वाम दृष्टन्त एक साहूकार नीं स्त्री, पाणी काजै गई घर खंत तो माथै पाणी स्यूं भर्यो पोता रे घर आवतां पेख मार्ग में तिणरी बाहिली मिली, बातां करवा लागी विशेष एक घड़ी तांई तो उभा थकां हिल-मिल बातां करी हर्षाय पछै घर आवी निज पिउ भणी, तिण हेलो पाड्यो ताय तुर्त घड़ो उतारो मुझ सिर तणु, जो किंचित बेला थी भरतार बेहडो उतार्यो निज बेरनों, तो क्रोध में आवी अपार कहै म्हारै माथै तो बेहड़ो उदक नो, सो हुं भारां मुंई घणी सोय थनै तो मूल सूझै नहीं, जिणसूं बेला इतरी लगाई जोय संसार तणै लेखै सही, नार इसडी अविनीत
रस्तै एक घडी बेहडो छतां, पोते बातां करी धर प्रीत किंचित जेज पिउ करी, तडका - भडका करवा लागी तांम इसडी अजोग ते स्त्री, अवनीत जग कहै आंम अवनीत साधु एहवो, गोचरियादिक माहि
किण ही बाइ-भाई स्यूं बातां करै, एक घडी तांई उभा ताहि अथवा दर्शन देवा कोई भणी, झट चलाई नैं परहो जाय तिहां उभां घणी वेलां लगै, बातां करै बणाय बडा थोड़ोई काम भळावियां, करतां कठमठाठ करै जेह तथा पाणी राख्यो ते लेवा मेलियां, टाला टोलो कर देवै तेह अथवा जातो दोहरो हुवै, बलै देवै मुंह बिगाड गुरु सीख दियै चूक थी पड्यो, तो करै उलटो फुंकार अवनीत साधु नै दीधी उपमा, अवनीत स्त्री नी भिक्खु आम इम सांभल उत्तमां नरां, थिर चित्त सुविनय थाप (४१/१ से १३)
(xxxxviii)