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________________ १८ मेरू नी ओपम आछी जी, नहीं काची कही किरपाळ जी। ते ऊंचौ घणौ अत्यंत। ओषद अनेक छाजै जी, विराजै गुण त्यां मैं घणा। ज्यूं औ बहुश्रुति बुधवंत।। साध. १९ 'स्वयंभूरमण समुद्र रूड़ो जी, पूरो पाव-राज पिहलो पड्यौ' प्रभूत रत्न भरपूर। सागर जेम गंभीरा जी, सूरवीरा गुण कर गाजता। सूतर चरचा मैं सूर॥ साध. २० औ षट् दस ओपम आछी जी, कांइ साची सूतर मैं कही। बहुश्रुति नैं श्रीकार। ___ इण अनुसारै जांणो जी, पिछांणौ करल्यौ पारिखा। भीक्खू गुण भंडार॥ साध. २१ ओपम अनेक गुण छाज्या जी, विराज्या गादी वीर नीं। पूज पाट लायक गुण पाय। समुद्र जेम अथागा जी, जल थागा जिण कह्यौ नहीं। __ ज्यूं गुण पूरा केम कहिवाय? साध. २२ पाट लायक शिष भाळी जी, सुंहाळी प्रकति सुंदरू। भारमलजी गैहर गंभीर। पदवी थिर कर थापी जी, आ आपी आचार्य तणी। जांणे सुविनीत सधीर॥ साध. १. स्वयंभूरमण समुद्र पाव (एक रज्जु का २. विपुल। चौथा भाग) रज्जु चौड़ाई वाला है। असंख्य योजन का एक रज्जू होता है। .भिक्खु जश रसायण : ढा.४३ १५१
SR No.006279
Book TitleBhikkhu Jash Rasayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages378
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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