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१२ तिम शीत डंसादिक टाळवा रे, मूर्छा रहित मुनिरायो रे। . वस्त्र मानोपेत' वावरैः रे, ते परिसह थी भागै किण न्यायो रे? तंत. १३ इत्यादिक उत्पात सूं रे, उत्तर दीधा अमांमो रे।
स्वाम गुणां रा सागरू रे, ऊंडी बुद्धि अभिरांमो रे। तंत. १४ एक दिवस बहु आवीया रे, श्रावगी सांमी पासो रे।
कहै-वस्त्र न राखौ तौ तुम तणी रे, वारू करणी विमासो रे। तंत. १५ स्वाम कहै-श्वेताम्बर शास्त्र थी रे, घर छोड़ थया अणगारो रे।
तिण माहे तीन पछेवड़ी रे, चोलपटादि कह्या सुविचारो रे॥ तंत. १६ तिण कारण राखां तिके रे, आसता तुझ शास्त्र नीं आयां रे।
नग्न होय जासां वस्त्र न्हांख नैं रे, प्रतीत दिगंबर नी पायां रे। तंत. १७ जाब दिया अति जुगत सूं रे, बुद्धिवंत हरखै विसेखो रे।
न्याय-नीत यां रै निरमळी रे, पक्ष रहित संपेखो रे॥ तंत. १८ वाह-वाह भीक्खू मुनिवरु रे, अंतरजामी आपो रे।
दीपक तूं इण काळ मैं रे, जपूं तुम्हारौ जापो रे। तंत. १९ पैंतीसमीं ढाळ परवरी रे, चरचा दिगंबर नी छांणी रे।
भीक्खू भजन स्यूं भय मिटै रे, 'जय-जश' सुख हद जांणी रो। तंत.
१. निर्धारित नियमानुसार। २. काम में लेते हैं।
३. तात्कालिक बुद्धि से। ४. भि. दृ. ३१॥
भिक्खु जश रसायण