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.. सोरठा
१ छूटक 'तिलोकचंद' रे, वासी चेलावास ।
चंद्रभाण कर फंद रे, जिलौ बांधनै फटावीया।। २ 'मोजीराम' गण माय रे, सुध मन सूं संजमलीयो। कर्मा दीयौ धकाय रे, ते पिण छूटक जांणजो॥
दूहा
३ 'सिवजी4' स्वामी सोभता, स्वाम तणा सुविनीत। पिंडतमरण कियौ पवर, गया जमारो जीत।।
सोरठा ४ जाति चोरड़िया जांण रे, पुर नां वासी पिछांण जो।
चारित्र 'चंद्रभाणा। रे, सुध मन सूं संजम लीयौ। ५ भण्या बुधि भरपूर रे, पिण प्रकृति अहंकार नी।
अविनय अवगुण भूर' रे, आज्ञा कठण आराधवी।। ६ जिलौ बांधीयौ जांण रे, तिलोकचंद सूं तुरत ही।
मन मैं अधिकौ मांण रे, साध फटाया अवर ही।। ७ संत अवर समझाय रे, स्वांम भीख सिंघ सारिखा।
एक-एक नैं ताय रे, छोड्या बिहुं नैं जूजूआ।। ८ अवगुण अधिक अजोग रे, त्यां बोल्या भीक्खू तणा।
प्रत्यक्ष कषाय प्रयोग रे, असाध परूप्या स्वाम नैं। ९ भीक्खू बुद्धि भंडार रे, सुध मन सूं समझावीया।
प्रायश्चित कर अंगीकार रे, पाछा आया गुण मझे।। १० सहु नैं किया निसंक रे, आया डंड अंगीकरी।
विरुऔ यामैं वंक रे, प्रत्यक्ष लोकां पेखीयौ। ११ समणी संत समाध रे, किण नैं डंड न ठहरावीयो।
सहु नैं कह्या असाध रे, त्यां रा इज पग वांदीया।।
१. दलबंदी।
२. बहुत।
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भिक्खु जश रसायण