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रसप्लावित है। कुछ पदों का शब्द-शिल्प, अनुप्राश-बोध यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
जय सुजशकारण, दुख विडारण, सुमगधारण स्वामजी, शुद्ध सुमति सारण, कुमति वारण, जगत तारण कामजी (ढा. 1४ कलश १) इस दृष्टि से भिक्खु जस रसायण का अंतिम पद्य भी पठनीय है--
मतिवंत संत महंत महामुनि तंत भिक्खु ऋख तणा, गुण सघन गाया, परम पाया, हद सुहाया हिय घणा। तज तंत्र-मंत्र-सुतंत्र लौकिक, भज ए मंत्र मनोहरू, सुख सद्म पद्म सुकरण 'जय-जश' नमो भिक्खु मुनिवरु।
(ढा. ६३ कलश १) कविता का विषय क्या हो, वह छन्दोबद्ध हो या छन्द मुक्त हो, उसकी भाषा बोलचाल से नजदीक हो या उलझी हुई अलंकारिक हो इन सारे प्रश्नों का उत्तर सापेक्ष है। इन पर दो टूक निर्णय दे पाना आसान नहीं है। वस्तुतः कविता का विषय-वस्तु और रचना-विधान अपने युग के प्रतीक होते हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न समय के कवियों के रचनाकर्म से ही समझा जा सकता है। लोक कला
जयाचार्य का भाषा-माध्यम पूर्ण रूप से राजस्थानी है। उस पर कहीं-कहीं . प्राकृत तथा गुजराती का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। भिक्षु जस रसायण जहां साहित्यिक कृति है वहां यह राजस्थान के लोक जीवन से भी जुड़ी हुई है। असल में तो लोक-काव्य में साहित्य की श्रेष्ठतम उपलद्धियां ही सन्निहित होती हैं, पर वे उपलब्धियां लोक जीवन में इस तरह रच-पच जाती हैं कि आदमी के मस्तिष्क पर बोझ नहीं बनती अपितु उसे एक सहजानन्द की अनुभूति प्रदान कराती है। ___ लोक भाषा के शब्दों का अखूट खजाना हम भिक्खु जश रसायण में पाते हैं जिसे पाद-टिप्पणों में देखा जा सकता है। विविध-आयाम
भिक्खु जस रसायण एक बहुरंगी चरित्र-काव्य है। इसमें एक ओर जहां कोमल-कांत पदावली है, वहां दूसरी ओर कठोर तत्त्व-ज्ञान की छाया भी है। एक ओर उच्च आचार के प्रतिबिम्ब उभरे हैं तो दूसरी ओर मृदु-मंद हास्य की फुहार भी है। एक ओर तर्क की व्यूह-रचना है तो दूसरी ओर दृष्टांतों के मनोरम
(boxi)