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पर उपयोग के भेदों के अन्तर्गत ज्ञान और अज्ञान का विभाजन किया गया है।
बोध सम्यक्त्व के पास होता है, सत्य है और जो ज्ञान मिथ्यात्वी के पास होता है वह अज्ञान है, मिथ्या है। ज्ञान तो एक ही है पर पात्र के भेद से वह सम्यक् और मिथ्या बन जाता है।
आचार्य भिक्षु के पास जो विचार था, ऐसा नहीं है कि वह और किसी के पास नहीं रहा होगा। पर उनकी नीर-क्षीर मनीषा ने उसे इतना प्रबल बना दिया कि उसके पीछे एक सम्प्रदाय ही खड़ा हो गया। आचार्य भिक्षु की दृष्टि एकांतग्राहिणी नहीं थी। उन्होंने अहिंसा की प्रेरणा को लौकिक और पारलौकिक बता कर उसे अनेकांतमयी बना दिया था। जब भी दृष्टि को ऐकान्तिक आग्रह पकड़ लेता है तो वह मिथ्या बन जाती है।
सामान्य आदमी समस्याओं के दैहिक रूप से ही परिचित रहता है। उसके हिसाब से देह की रक्षा ही महत्त्वपूर्ण है। आचार्य भिक्षु उसे आत्मा के साथ भी जोड़ते हैं। कोई बकरा कसाई द्वारा मरने से बच गया इसे कोई भी समझ सकता है, पर कसाई की आत्मा पाप से बचे इस सूक्ष्म दर्शन को समझने वाले व्यक्ति विरले ही होते है । यहीं आकर सत्य साध्य-साधन की एकरूपता का प्रतिपादक बन जाता है। सचमुच इस दृष्टि से तत्त्व की ओलख को भिक्खु जस रसायण में बहुत कुशलता से प्रगट किया गया है।
सामान्य आदमी की दृष्टि लोकाभिमुख ही रहती है। एक सीमा तक वह बुरी भी नहीं है। वह लोक-व्यवस्था की प्रतिष्ठापक चेतना है। आचार्य भिक्षु ने उसका अपलाप नहीं किया। पर उनकी दृष्टि में अध्यात्म को केवल इहलोक की सीमा तक परिसीमित नहीं किया जा सकता। वह लौकिक से आगे पारलौकिक भी है। इसलिए उसे समझना आसान नहीं है। भिक्खु जस रसायण के दूसरे खंड में उसे बहुत यौक्तिक तरीके से समझाया गया है। भिक्षु दृष्टांतों ने उसे विचार की ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए सुगम पगथियों का कार्य किया है।
विचार-संगति
आचार्य भिक्षु का विचार - बल इतना समृद्ध था कि उसकी किसी से तुलना करना कठिन है। उन्होंने अपने विचार को शुरू से लेकर आखिर तक जैसी सुसंगता प्रदान की है, वैसी बहुत कम लोग कर पाते हैं। बल्कि उनकी धर्मक्रान्ति का मूलाधार ही सुसंगत विचार की स्वीकृति था। उन्होंने देखा कि जैन धर्म के
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