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सभी संप्रदायों में आचार और विचार के पौर्वापर्य का निर्वाह नहीं हो रहा है। उनका एक सिरा उत्तराभिमुख है तो दूसरा सिरा पूर्वाभिमुख या दक्षिणाभिमुख है। इस विसंगति को मिटाने के लिए ही उन्होंने धर्मक्रांति की थी। इस काल में उन्हें अपने पूरे विचार-दर्शन को एक नई एकसूत्रता प्रदान करनी पड़ी। यदि हम उनके अहिंसा-दर्शन पर विचार करें तो स्पष्ट आभासित होगा कि उन्होंने जैनागमों का कितना सूक्ष्म अवगाहन किया था। ऐसा नहीं है कि उनके समसामयिक धर्म-सम्प्रदायों में चिंतन की क्षमता नहीं थी। उनके पास भी विचार की एक पुष्ट परम्परा थी। पर यह भी सही है कि उस समय की चिंतन-क्षमता परम्परा से आवृत हो गई थी। तात्कालिक परिस्थितियों का प्रभाव ही ऐसा था कि वे अपनी विचार-विसंगति को समझ नहीं पा रहे थे। आचार्य भिक्षु ने उसे समझा और अहिंसा को संयम के साथ जोड़ा। यों संयम जैन धर्म की मौलिक स्वीकृति रही है, परं वह जीवन के व्यवहार-पक्ष के साथ इतनी सघनता से जुड़ गया कि अहिंसा के विचार में भी विसंगति आ गई।
उदाहरण के तौर पर बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों की हिंसा को भी अहिंसा समझा जाने लगा था। आचार्य भिक्षु ने उसका विरोध किया। उनका मानना था कि अहिंसा अपने आप में पूर्ण है। उसमें छोटे-बड़े या कम-ज्यादा का विभाजन नहीं हो सकता। बड़े से बड़े जीव की रक्षा के लिए भी छोटे से छोटे जीव को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता। भिक्खु जस रसायण के दूसरे खंड में अहिंसा की इस सूक्ष्मता को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। ऐतिह्य-दृष्टि
यद्यपि भिक्खु जश रसायण एक संत का चरित-काव्य है। पर प्रासंगिक ऐतिह्य तथ्यों की दृष्टि से इसमें यत्र-तत्र मेवाड़-मारवाड़ की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का भी थोड़ा चित्रण हुआ है। उस समय के राजामहाराजाओं तथा व्यापारिक तथा सामाजिक स्थितियों के संकेत भी इसमें मिलते हैं। सिरियारी के प्रसंग में वे थोड़े में अत्यंत कुशलता से कहते हैं --
शहर सिरियारी हो शोभे कांठा नी कोर, दोलो मगरो कोट ज्यूं दीपतो। जन बहु वस्ती हो, महाजना री जोर, जूना-जूना केइ पुर भणी जीपतो।। निर्भय नगरी हो ऋद्धि-समृद्धि निहोर,
(boxvi)