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५ दोय व्याहव पहिली कर दीधा, तीजौ करता त्यार।
उत्तम जीव खेतसी अधिकौ, इण रै वंछा न लिगार॥ सुविनीत. . ६ बहिन दोय रावळिया ब्याही, जाय तिहां किण वार।
बहिन-बैनोई न्यातीला नै, समझावै सुखकार॥ सुविनीत. ७ विफज करत मुख जैपा विध सूं, वर वैराग वधाय।
चित चारित लेवा सूं चढतौ, आज्ञा मांगी नहीं जाय॥ सुविनीत. ८ इसा विनीत तात ना अधिका, इतलै तिण पुर माह।
संजम लै रंगू सती रे, सांभळ्यौ भोपै साह॥ सुविनीत. ९ भोपौ साह कहै खेतसी भणी रे, चित तुझ लेण चरित्र।
कहै खेतसी बे कर जोड़ी, मुझ मन अधिक पवित्र।। सुविनीत. १० आज्ञा हरष धरी नै आपी, वदै भोपौ साह वाय।
रगूंजी भेळा करौ रे, इण रा महुछव अधिकाय।। सुविनीत. ११ अड़तीसै संजम आदरीयौ, भीक्खू , ऋष रै हाथ। ... विहार करी 'कोठ्यारै' आया, लारै तौ चल गयौ तात॥ सुविनीत. १२ भीक्खू पूछ्यां सतजुगि भाखै, मन चिंता किम मोय?
पहिली उवे अबै आप मिल्या पिय', विरह पड्यौ नहि कोय॥ सुविनीत. १३ परम विनीत खेतसी2' प्रगट्या, स्वाम भणी सुखकार।
कार्य भळायां बे कर जोड़ी, तुरत करण नै त्यार॥ सुविनीत. १४ कोमल-कठिन वचन कर भीक्खू, शीख दीयै सुखकार।
क्षांति-हरस कर धरै खेतसी, तहत वचन तंत सार॥ सुविनीत. १५ हरष धरी रहै भीक्खू हाजर, अंतरंग प्रीत अपार ।
सेव करी रीझाया स्वामी, सो जांण लिया तंत सार। सुविनीत. १६ सतजुग सरिसा प्रकृति विनय तूं, निमल सतजुगी नाम।
गण आधार खेतसी गिरवारे, सरायो भीक्खू स्वाम।। सुविनीत. १७ सतजुगि-चिरत माहि छै सगलो, विवरा सुध विस्तार। --..- इहां-संखेप करीनै आख्यौं, संत वर्णन माहै सारा सुविनीत.
१. पिता। २. ठीक। ३. गहरा/गंभीर।
४. चरित्र। ५. संक्षेप (क)।
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भिक्खु जश रसायण