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प्रस्तावना
'भिक्खु जश रसायण' तेरापंथ प्रणेता आचार्य भिक्षु का चरित-काव्य है, पर जयाचार्य ने इसकी संरचना इतनी कुशलता से की है कि यह इतिहास, साहित्य, दर्शन, अध्यात्म तथा मनोविज्ञान का एक अमूल्य ग्रंथ बन गया है। तेरापंथ में इतिहास लेखन ___ मैक्समूलर ने ठीक ही कहा है--"जो जाति अपने अतीत पर अपने साहित्य
और इतिहास पर गर्व अनुभव नहीं कर सकती, वह अपने राष्ट्रीय चरित्र का मुख्य आधार खो देती है।" इस दृष्टि से देखा जाए तो तेरापंथ एक भाग्यशाली संघ रहा है। निश्चय ही हर तेरापंथी को अपने अतीत पर गौरव की अनुभूति होती है। तेरापंथ धर्मसंघ का इतिहास जितना सुरक्षित-संरक्षित रहा है, उतना शायद हजारों वर्षों से प्रवहमान अनेक धर्मसंघों का नहीं रहा। वास्तव में वर्तमान उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता जितना वह होता है। कौन सी घटना कब महत्त्वपूर्ण बन . जाती है, इसका कोई गणित नहीं हो सकता। घटना अपने आप में घटना होती है। समय उस पर मूल्यों का आरोपण करता है। हमारे पूर्वजों ने घटनाओं के महत्त्व का आकलन किया और उन्हें लिपिबद्ध करने की ऐतिहासिक दूरदर्शिता दिखाई, यह महत्त्वपूर्ण बात है।
इस दृष्टि से चतुर्थाचार्य श्रीमद् जयाचार्य का अपना विशेष महत्त्व है। तेरापंथ का इतिहास प्रारंभ से ही घटनाबहुल रहा है। पर यदि जयाचार्य ने ख्यात के रूप में इसके प्रामाणिक संकलन की शुरुआत न करवाई होती तो न केवल अतीत ही गुमनामी के अंधेरे में खो जाता, अपितु आगे भी यह दृष्टि इतनी स्पष्ट बनती या नहीं, कहा नहीं जा सकता। बहुत सारे पश्चिमी विद्वानों का अभिमत है कि भारत में इतिहास को इतिहास-दृष्टि से लिखने की परंपरा नहीं रही है। तेरापंथ का इतिहास इस माने में एक अपवाद है। यथार्थ दृष्टि
भारतीय इतिहास-दृष्टि के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां यशोगान का दरबारी राग ही प्रमुख रहा है। यहां शुक्ल पक्ष को जितना उजागर किया
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