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२ 'कांनफाडां रे आसण कहै रे, भक्त फुटकर तेहनैं रे,
३ 'सिन्यास्यां रै मठ कहै रे, रामदुवारौ केयक कहै रे,
४ घर रा धणी रै घर कहै रे, कहै गांम धणी रै कोटरी रे, राजा रै महिल कहै सही रे, साधां रे थांनक वाजतौ रे, ६ सगलाइ घर रा घर अछै रे,
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किहांयक 'कसी' बूही' सही रे, आरम्भ तौ षट्काय नौं रे, अरिहंत नीं नहीं आगन्या रे, घर छोड्या मुख सूं कहै रे, ति घर रौ नाम थानक दीयौ रे, ९ आधाकर्मी थानक भोगव्यां रे, दूजै आचारंग देखलो रे, १० आधाकर्मी आदर्यां रे, 'नसीत दसमें ६ नीहाळजो रे, ११ आधाकर्मी भोगव्यां रे, रुळ 'पहिले शतक भगोती'' मैं पेखलौरे, १२ इत्यादिक बहु वारता रे, भीक्खू तास भली परै रे, १३ उत्पत्तिया बुद्धि अति घणी रे, निश दिन मनड़ौ माहरौ रे,
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१. कान छिदवा कर उनमें मुद्रा या कुंडल धारण करने वाले संन्यासियों के स्थान को आसन, दादूपंथी, संन्यासियों के . रहने के स्थान को अस्थल और दशनामी साधु-संन्यासियों के रहने के स्थान को मंदी कहा जाता है।
२. बड़े संन्यासियों के रहने का स्थान मठ और रामस्नेही साधुओं के रहने का
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भक्तां
रै
अस्तल
मंढी नांम नीहाल । रे
रामसनेह्यां
रांममोहलो कहै रै
सेठ
सुहाय
किहांयक रावळौ कहाय ।। रे जीव !
कायक
नांम मैं
कठैयक
रै
गेह |
केह ॥ रे जीव ! हवेली
ठोड़
दरबार ।
फेर विचार ।। रे जीव !
कोदाल ३ ।
जीव !
जांण ।
जीव !
'बूहा
असराल ॥
रौ
आधाकर्मी
हुऔ
ज्यूं
छ काय नों गांम-गांम
रह्या घर
रह्या भेष नैं भांड ॥ रे महासावज
कह्यौ दूजै अध्ययन दयाल ॥ चौमासी
वीर तणी
भाल।
जीव ! |
रे
ज्यूं
घमसांण ।। रे
मांड।
जीव !
किरिया संभाळ।
रे जीव ! पिछांण ।
डंड
ए वांण ।। अनंतौ
काळ ।
आगम
माय।
नवमें उद्देशे नीहाल ।। रे जीव ! आखी रूड़ी रीत दीधी ओळखाय॥ रे जीव ! अधिक ओजागर जप रह्यौ आप रौ जाप ।। रे जीव !
आप।
रे जीव !
स्थान 'राम- दुवारा' व 'राम मोहला' कहलाता है।
३. कहीं कुद्दाल का प्रयोग हुआ। ४. कहीं कसी का प्रयोग हुआ। ५. द्वितीय आचारांग श्रु. २अ. २उ. २ सूत्र ४१ । ६. निशीथ उ. १० सूत्र ६ । ७. भगवती शतक १ उ. ९ सूत्र ४३६ ।
भिक्खु जश रसायण